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*जप चर्चा* *दिनांक 25 दिसंबर 2021* हरे कृष्ण!!! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 1010 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। सुस्वागतम!!! ओम नमो भगवते वासुदेवाय:! आज हम भगवत गीता यथारूप के दसवें अध्याय "श्री भगवान का ऐश्वर्य" नामक अध्याय के नौवें श्लोक का अध्ययन करेंगे। दसवाँ अध्याय नौवां श्लोक। यह चतुर्श्र्लोकी भगवद्गीता है अर्थात भगवतगीता के विशेष चार श्लोक हैं जिसमें से कल हमनें एक श्लोक का संस्मरण भी किया या कुछ हल्की सी व्याख्या भी की। अब आगे बढ़ते हैं। *मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।।* ( श्रीमद् भगवतगीता १०. ९) अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परम सन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं। आपने यह श्लोक कई बार, बारम्बार सुना होगा। श्रील प्रभुपाद भी इसको 'कोट' किया करते थे। आप भी याद रखिए, कंठस्थ कीजिए। चारों श्लोक कंठस्थ कर सकते हो। तत्पश्चात उसका मनन कर सकते हो। ह्रदयंगम कर सकते हो। आप भी कुछ भगवतगीता, कथा सुना सकते हो।कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च । यहां कृष्ण स्वयं ही कह रहे हैं कि मेरे भक्त क्या करते हैं, मेरे भक्तों की क्या पहचान है? कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च। कथा करते हैं। अगर आप कहते हैं कि मैं भी भक्त हूं तब आपको कथा कहकर, सुनकर व सुनाकर सिद्ध करना होगा। कथयन्तश्र्च अर्थात कथा करते हैं। यहां आपके विषय में कहा जा है। भगवान् आपको भक्त के रूप में तभी स्वीकार करेंगे यदि आप उनकी कथा करते हो या करेंगे इस श्लोक के अनुवाद में लिखा है कि मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझ में वास करते हैं। उनके विचार मुझ में वास करते हैं।मच्चित्ता। उनका जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहता है। वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते हैं। आपने क्या सुना और क्या समझें आप? वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते हैं और अभी इस समय वही कर रहे हैं। यह जपा टॉक जो हो रहा है, मैं आपको कुछ ज्ञान प्रदान कर रहा हूं या मैंने सीखा समझा है, फिर आपकी बारी है। अब आपको इस ज्ञान को औरों के पास पहुंचाना है। यह परंपरा भी है। आगे लिखा है कि" तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परम संतोष तथा आनंद का अनुभव करते हैं।" यह इस श्लोक का भाषांतर हुआ। श्रील प्रभुपाद तात्पर्य में लिखते हैं और यहां जिन शुद्ध भक्तों के लक्षणों का उल्लेख हुआ है, वे निरंतर भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में रमे रहते हैं। उनके मन श्रीकृष्ण के चरण कमलों से हटते ही नहीं हैं। वे दिव्य विषयों की ही चर्चा चलाते हैं। इस श्लोक में शुद्ध भक्तों के लक्षणों का विशेष रूप से उल्लेख हुआ है। भगवत भक्त परमेश्वर के गुणों और उनकी लीलाओं के गान में अहर्निश अर्थात रात दिन लगे रहते हैं। उनके ह्रदय तथा उनकी आत्माएं निरंतर श्रीकृष्ण में निमग्न रहती है। वे अन्य भक्तों से भगवान श्रीकृष्ण के विषय में बातें करने में आनंद का अनुभव करते हैं। इतना भी हमने किया। भक्त ऐसे करते हैं, वैसे करते हैं, भक्त को यह करना चाहिए, वह करना चाहिए।" इतना तो करना स्वामी, जब प्राण तन से निकले" अगर हम इतना भी करेंगे, तो हो गया बेड़ा पार। मच्चित्ता। हम पुनः इस श्लोक/ वचन की ओर मुड़ते हैं कि कृष्ण क्या कह रहे हैं? आप मुड़ रहे हो? आपका ध्यान कहां है? ध्यान का समय है। 'टाइम फॉर मेडिटेशन।' ध्यान से सुनोगे तब फिर यही ध्यान है। ध्यान सुने और ध्यान करें। तत्पश्चात सुनी हुई बातों का ध्यान करते ही रहे। इसका चर्वण करते ही रहे। जैसे कहा गया है कि हम जो अन्न ग्रहण करते हैं, हमें अपने भोजन का 32 बार चर्वण करना चाहिए। जितना अधिक चर्वण करेंगे। आप उतना अधिक स्वाद का अनुभव करोगे। यह सुनी हुई बातें या कृष्ण की बातें अर्थात कृष्ण का संदेश, उपदेश ही है। उसको झट से गॉगल अप नहीं करना चाहिए। कुछ लोग फास्ट फूड और फास्ट ईटिंग करते हैं। फूड भी फ़ास्ट हैं और फ़ास्ट ईटिंग, तब पचता नहीं है। इसका ध्यान होना चाहिए। सुनी हुई बातों का ध्यान होना चाहिए, मच्चित्ता मद्गतप्राणा। यहां पर कृष्ण कह रहे हैं कि (यह किन की बात हो रही है। यहां किसका मच्चित्ता होगा।) उनका चित्त मुझ में लगा रहेगा। वे हमारे लिए चित्त चोर बनेंगे। तुम्हारा चित्त उनमें लगा रहेगा। *एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु। प्राणैरथैंर्धिया वाचा श्रेयआचरणं सदा।।* ( श्रीमद भागवतम १०.२२.३५) अनुवाद:- हर प्राणी का कर्तव्य है कि वह अपने प्राण, धन, बुद्धि तथा वाणी से दूसरों के लाभ हेतु कल्याणकारी कर्म करे। तब आप अपने प्राण , वचन, धन, वाणी समर्पित करोगे। (मच्चित्ता मद्गतप्राणा कौन करेंगे।) *अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ||* ( श्रीमद् भगवद्गीता १०.८) अनुवाद:- मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है । जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं। इसका संबंध पिछले श्लोक से हैं। एक श्लोक का दूसरे श्लोक से कुछ रिश्ता नाता होता है। हर बात अलग अलग नहीं होती। श्रीकृष्ण कभी नए अध्याय या अध्याय के मध्य में नया विषय कहना प्रारंभ कर सकते हैं लेकिन अधिकतर बातें एक दूसरे से सम्बंधित होती है अर्थात एक बात का दूसरी बात से संबंध होता है। एक ही बात को फिर आगे दूसरे शब्दों में कृष्ण कहते हैं या उसको विस्तार से समझाते हैं । इससे पहले वाला जो श्लोक है जो हमनें कल पढ़ा था। *अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ||* ( श्रीमद् भगवद्गीता १०.८) कृष्ण ने कहा था कि जो भी इति मतवा भजन्ते अर्थात ऐसा मानकर, ऐसा समझकर मेरा जो भजन करेंगे, वह भजन कैसा होगा बुधा भावसमन्विताः होगा अर्थात वह आपका और हमारा भजन भाव और भक्ति से युक्त होगा। श्रील प्रभुपाद भाषान्तर में लिखते हैं कि जो ऐसा समझकर पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते, इन दो ही बातों को कहो। यह दो बातें सब कुछ ही है। अहं सर्वस्य प्रभव: एक बात हुई व मत्तः सर्वं प्रवर्तते दूसरी बात हुई। इति मत्वा अर्थात ऐसा समझकर व साक्षात्कार के साथ जो भजन करते हैं, उनका भजन बुधा भावसमन्विताः होगा अर्थात वे ह्रदय पूर्वक, पूर्ण ह्रदय से मेरा भजन करेंगे। श्रीकृष्ण अब इस श्लोक में भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः अर्थात इसका ह्रदय पूर्वक, मनःपूर्वक ध्यानपूर्वक भजन करने वाले का लक्षण बता रहे हैं। ऐसा समझ कर भावसमन्विताः भक्ति करेंगे, ऐसे भक्त का वर्णन श्रीकृष्ण इस श्लोक में कर रहे हैं अथवा अपने भक्त का परिचय दे रहे हैं कि यह मेरे भक्त हैं, मेरे भक्त ऐसे होते है। भक्तों से यह मेरी आशा (एक्सपेक्टेशन) है। मेरे भक्त कैसे हो या कैसे होते हैं। मच्चित्ता अर्थात उनकी सारी चेतना, सारी भावना मुझ में लगी होती है। भक्तों के विचार मुझ में वास करते हैं। श्रील प्रभुपाद भाषान्तर में लिख रहे हैं कि मद्गतप्राणा अर्थात भक्त सब कुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार होते हैं। *सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||* ( श्रीमद् भगवद्गीता १८.६६) अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ। मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत । जीव सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज तब करेगा, जब वो कृष्ण को समझेगा कि कृष्ण ऐसे महान हंख और हम लहान है। भगवान् महान है और हम छोटे हैं। कृष्ण ऐसे हैं, कृष्ण वैसे हैं। अद्भुत कृष्ण, मधुर कृष्ण, अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक कृष्ण, गोलोकपति कृष्ण और उनके भक्तों के साथ जो सम्बन्ध हैं, उसमें जो माधुर्य रस है या साख्य रस है या वात्सल्य रस है। फिर यह सारी रसभरी लीलायें, कथाएँ जो भी सुनेगा। इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः वह भी भगवान् के चरणों में समर्पित होगा। आत्मनिवेदन करेगा। यह सब भगवान् का ही है । तुभ्यमेव समर्पये तुदयेव वस्तु गोविंद.. मेरा तो कुछ भी नहीं है। बस आप मेरे हो, अलग से मेरा कुछ नही है, आप मेरे हो। आपका क्या क्या है? आपकी प्रॉपर्टी या कुछ कहो, थोड़ा समझाओ।आपकी प्रॉपर्टी जो कुछ भी आपका हैं, कहो क्या क्या है आपका। लंबी लिस्ट हो सकती है लेकिन बढ़िया है कि कृष्ण मेरे हैं और फिर मैं कृष्ण का हूँ। इसके परे अहम न जाने *कृष्णत परम् किम् आपी तत्वम अहम ना जाने(वामशी विभूषिता)* कृष्ण से परे और कोई है ही नहीं। कृष्ण ही सब कुछ हैं तो ऐसे कृष्ण मेरे हैं। मैं उनका हूँ और वे मेरे हैं। बस और क्या। कौन सी माया ममता बच गयी या चाहिए आपको, बस कृष्ण मेरे हैं। मच्चित्ता मद्गतप्राणा और फिर मेरा प्राण, सब कुछ न्यौछावर है। *मानस-देह-गेह, यो किछु मोर। अर्पिलु तुया पदे, नन्दकिशोर!॥1॥* *संपदे-विपदे, जीवने-मरणे। दाय मम गेला तुया ओ-पद वरणे॥2॥* *मारबि राखबि जो इच्छा तोहार नित्यदास-प्रति तुया अधिकार॥3॥* *जन्माओबि मोए इच्छा यदि तोर। भक्त-गृहे जनि जन्म हउ मोर॥4॥* *कीट-जन्म हउ यथा तुया दास। बहिर्मुख ब्रह्माजन्मे नाहि आश॥5॥* *भुक्ति-मुक्ति-स्पृहा विहीन ये भक्त। लभइते ताँक संग अनुरक्त॥6॥* *जनक-जननी दयित तनय। प्रभु, गुरु, पति तुहुँ सर्वमय॥7॥* *भकतिविनोद कहे, शुन कान! राधा-नाथ! तुहुँ आमार पराण। ॥8॥* अर्थ (1) हे नन्द महाराज के पुत्र, मेरा मन, शरीर, मेरे घर का साज-सामान तथा अन्य जो कुछ भी मेरा है, मैं आपके चरणकमलों पर अर्पित करता हूँ। (2) आपके चरणकमलों का आश्रय लेने से मेरी समस्त जिम्मेदारियाँ - चाहे वे सुख में हों, भय में, जीवन में, अथवा मृत्यु में समाप्त हो चुकी हैं। (3) आप चाहें तो मुझे मारें अथवा जीवित रखें, आपको पूरा अधिकार है। आपकी जो कुछ भी इच्छा हो, उसे कार्यान्वित करने हेतु आप स्वतन्त्र हैं, क्योंकि मैं तो आपका नित्य दास हूँ। (4) यदि आप चाहते हैं कि मेरा पुनः जन्म हो तो मेरा एक ही निवेदन है कि मैं भक्त के घर में जन्म लूँ। (5) यदि मुझे कीड़े का जन्म भी लेना पड़े तो आपका दासत्व मिले, यही मेरी अभिलाषा है। परन्तु, ब्रह्मा का जन्म भी मुझे कदापि स्वीकार नहीं, यदि मुझे आपसे बहिर्मुख होना पड़े। (6) मैं आपके उन भक्तों का संग करने की कामना करता हूँ जो भौतिक भोग-विलास तथा मुक्ति की इच्छाओं से रहित हैं। (7) आप मेरे पिता-माता, प्रेमी, पुत्र, स्वामी, आध्यात्मिक गुरु, एवं पति हैं। वस्तुतः मेरे लिए आप ही सब कुछ हैं। (8) श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं, “हे कृष्ण! कृपया मेरी प्रार्थना सुनिए। हे राधारानी के प्रियतम नाथ! आप मेरे जीवन एवं प्राण हैं। ” भक्ति विनोद ठाकुर ने ऐसे भाव भी व्यक्त किया है। श्रीकृष्ण को भक्ति विनोद ठाकुर पर कितना अभिमान होगा। यस, भक्ति विनोद ठाकुर मेरे भक्त हैं, इनकी चेतना देखो, इनका भाव देखो। इनका समर्पण देखो। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर की जय! भगवान् कह रहे हैं। भगवान् कह सकते हैं कि ऐसे मेरे भक्त की जय हो। *मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्* भगवान् कहते हैं कि मैं ही उनकी चर्चा का विषय बनता हूँ। मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् इस जपा टॉक के अंतर्गत एक दूसरे को याद दिलाएंगे। बाकी समय भी जब फ़ोन भी उठाएंगे तो हरे कृष्ण कहेंगे। हाय हेल्लो छोड़ो, हरे कृष्ण बोलो। अब गीता जयंती का महीना है तो गीता वितरण के सम्बंध में बोधयन्तः परस्परम् करेंगे अर्थात एक दूसरे को प्रेरित करेंगे। स्फूर्ति देंगे। सफ़लता की कहानियां एक दूसरे को सुनाएंगे कि मैंने ऐसे किया, मैं ऐसे स्थान पर गया। मैंने 108 पुस्तकें वितरित की। हरि बोल! यह जपा टॉक भी बोधयन्तः परस्परम् ही है। एक दूसरे को भगवदगीता वितरण के संबंध में बोध करते हैं। तत्पश्चात कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च कृष्ण के सम्बंध में सीधी बात करते हैं।गीता वितरण की बात हुई। वह भी कृष्ण कथा ही है। तुष्यन्ति च रमन्ति च इसमें दो बातें हैं। कुछ तो सन्तुष्ट होते हैं। समाधानी होना यह उपलब्धि बहुत ऊंची हैं। लोग सन्तुष्ट ही नहीं हैं, समाधानी ही नहीं हैं लेकिन कृष्ण कह रहे हैं कि मेरे भक्त सन्तुष्ट हैं। टाटा, बिड़ला, अम्बानी.. इतने अधिक नाम है। क्या वे सन्तुष्ट हैं? नहीं हैं तो फिर क्या फायदा इस अमीरी का, उस अमीरी ने उनको सन्तुष्ट नहीं किया। लेकिन कृष्ण भक्तों की सम्पति कृष्ण कथा है। *गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन, रति ना जन्मिल केने ताय। संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले, जुडाइते ना कैनु उपाय॥2॥* ( वैष्णव भजन- हरि हरि विफले) अर्थः- गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है, और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता। यह भक्तों की सम्पति है और वे उसी सम्पति से सन्तुष्ट हैं। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* यह एक सम्पति है, हमारे देश अथवा भारतवर्ष की भगवद्गीता एक सम्पति है। यह एक ही सम्पूर्ण है, कुछ बचता नहीं है। जिसको भगवद्गीता प्राप्त है, वह धनवान है। भगवद्गीता का अध्ययन व्यक्ति को सन्तुष्ट करेगा तब सब हो गया। इसके अतिरिक्त और क्या होना होता है? सन्तुष्ट हो गया तो हो गया जीवन सफल *कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च* इनका कार्यकलाप, इनका व्यवहार रमणीय हैं, इसी में रमते हैं। हरि हरि! आप पढ़िए। दिन में इस श्लोक का तात्पर्य पढ़ लीजिए। यह आपके लिए गृह कार्य है। ठीक है। आगे जारी रहेगा( टू बी कंटिन्यूड) गीता जयंती महोत्सव की जय!!! श्रीमद् भगवद्गीता यथारूप की जय!!! श्रील प्रभुपाद की जय!!! श्री कृष्ण अर्जुन की जय!!! कुरुक्षेत्र धाम की जय!!! श्रीमद भगवद्गीता वितरकों भक्तों की जय!!! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!!

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