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*जप चर्चा* *दिनांक 23 अक्टूबर 2021* हरे कृष्ण!!! आज इस जप कॉन्फ्रेंस में 928 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। श्री राधा श्याम सुंदर की जय!!! वृन्दावन धाम की जय!!! ब्रज मंडल की जय!!! यशोदा दामोदर की जय!!! दामोदर मास की जय!!! श्रील प्रभुपाद की जय!!! गौरांग!!! आपका स्वागत है। शिवराम महाराज ने मेरे इस ब्रज मण्डल ग्रंथ की प्रस्तावना लिखी है। वे प्रारंभ में लिखते हैं, मैं आपको थोड़ा पढ़कर सुनाना चाहता हूं। उनके ब्रज मंडल महिमा या परिक्रमा की महात्म्य के संबंध में कुछ अनुभव व उदगार हैं। "मैं 1976 में पहली बार भारत आया, (आप सब सुन रहे हो) और उसी दौरान मुझे अपनी पहली परिक्रमा का अनुभव प्राप्त हुआ। मैं श्रील प्रभुपाद के साथ मायापुर और वृंदावन में रहा। प्रातः कालीन प्रवचन और नाश्ते के पश्चात हम भगवान श्रीकृष्ण और चैतन्य महाप्रभु की लीला स्थलियों की यात्रा पर जाते। मेरे अनुभव मिले-जुले रहे। चाहे शारीरिक तौर पर कहिए या मानसिक तौर पर, मैं अभी तक भारतीय परिवेश में घुल मिल नहीं पाया था। परिक्रमा में इतने भक्त हैं कि कुछ सुनाई नहीं देता। यह धाम के आध्यात्मिक वातावरण की सराहना करने की बात तो दूर रही। सच कहूं तो इन परिक्रमाओं के बाद थोड़ा मैं थोड़ा स्तब्ध रह गया। कुछ वर्ष बीते और (महाराज आगे लिखते हैं) मैं अब भारत को जानने पहचानने लगा। परिक्रमाओं तथा भगवान श्रीकृष्ण तथा श्रीगौरांग महाप्रभु के धाम के प्रति मेरी रुचि बढ़ी। मैं ना केवल वरिष्ठ भक्तों का सङ्ग करने के लिए मायापुर और वृंदावन आता, अपितु इन यात्राओं के दौरान स्वयं को पूरी तरह भगवान की लीलाओं में डुबो लेता। इसने मेरे जीवन में कृष्ण भक्ति के एक नए जीवन की आशा प्रदान की और जब धाम यात्रा के बाद जब मैं हवाई जहाज में बैठकर अपने देश जाता, मैं अनुभव करता कि समय के साथ-साथ मेरी कृष्ण भावना क्षीण हो रही है। मैं हर समय वृंदावन में नहीं रह सकता था, परंतु इतना अवश्य समझ गया था कि वृंदावन में रहे बिना कृष्ण कृष्ण भावना में प्रगति नहीं कर पाऊंगा। तब एक दिन मैंने एक श्लोक पढ़ा- *कृष्णं स्मरन्जनं चास्य प्रेष्ठं निजसमीहितम्। तत्तत्कथारतश्चासौ कुर्याद्वासं वज्रे सदा।।* ( श्री चैतन्य चरितामृत, मध्य लीला 22. 160) अनुवाद:- भक्त को चाहिए कि वह अपने अंतःकरण में सदैव श्रीकृष्ण का स्मरण करें और वृंदावन में श्रीकृष्ण की सेवा में रत किसी प्रिय भक्त का चुनाव करें। उसे चाहिए वह निरंतर उस सेवा तथा श्रीकृष्ण के साथ उसके प्रेम संबंध की चर्चा करें। साथ ही उसे चाहिए वृंदावन में निवास करें। यदि व्यक्ति शारीरिक रूप से वृंदावन में न रह सके तो उसे मानसिक रूप से वहां रहना चाहिए। ' वृंदावन में मानसिक निवास' इस छोटी सी शिक्षा द्वारा श्रील प्रभुपाद ने निरंतर परिक्रमा करने की मेरी इच्छा का समाधान कर दिया। मेरा शरीर चाहे अमेरिका में हो या इंग्लैंड में। यदि मेरा मन भगवान के धाम एवं उनकी लीलाओं में मग्न है तो मैं सदैव श्रीकृष्ण के साथ ब्रज में निवास कर सकता हूं। वृंदावन की स्मृतियों को पोसने के लिए मैं जब भी समय मिलता परिक्रमा पुस्तक पढ़ने लगता। विशेष रुप से पद्मलोचन प्रभु तथा अन्य आचार्यों द्वारा लिखी पुस्तकें जैसे ब्रज विलास स्तव। जिस प्रकार मैं भारत में धाम यात्रा के दौरान जप किया करता, अब मैं उसी प्रकार पश्चिमी देशों में रहकर जप करता हुआ धाम यात्रा कर सकता हूं। इसीलिए मेरे लिए लोकनाथ महाराज की ब्रजमंडल दर्शन पुस्तक न केवल वृंदावन यात्रा के लिए दिग्दर्शिका पुस्तक है, अपितु इसकी सहायता से मैं हंगरी( उनके देश का नाम है) में रहते/सेवा करते हुए ब्रज में रह सकता हूं । मेरी कृष्ण भक्ति को प्रेरणा प्रदान करने के लिए मैं उनका आभारी रहूंगा। पाठकों से निवेदन है कि वह इस पुस्तक का प्रयोग ना केवल व्रज के तीर्थ स्थलों की जानकारी हेतु करें, अपितु इसकी सहायता से श्रीकृष्ण की और आगे बढ़े। लोकनाथ महाराज ने सरल किंतु विद्वत्ता पूर्ण शैली में श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया है जिससे हम श्रीकृष्ण के सानिध्य में रहकर उनकी माया शक्ति से बचे रह सकें। इस प्रकार चित में व्रज तथा ब्रजवासियों के प्रति सुप्त आकर्षण धीरे-धीरे जागृत होने लगेगा। हम सहज रूप से इन लीलाओं, स्थानों और ब्रजवासियों से आसक्त होने लगेंगे। यह आसक्ति विकसित होने पर सनातन व्रजधाम के द्वार हमारे लिए खुल जाएंगे। वहां एक दिन हम स्वयं भगवान की उन इलाकों में भाग ले सकेंगे जिनका पृथ्वी पर रहने वाले साधक भक्त श्रवण एवं स्मरण करेंगे। संशय नहीं कि लेखक ब्रजवासी का सेवक बनकर श्रीकृष्ण लीला में प्रवेश करने के बाद भी उनकी यह पुस्तक अन्यों को व्रजधाम का मार्ग दिखाती रहेगी।" - शिवराम स्वामी हरि! हरि! मैंने जो पढ़ा, यदि आप उसे सुन नहीं पाए या समझ नहीं पाए तो आपके पास भी ग्रंथ है, आप स्वयं भी इस प्रस्तावना को पढ़ सकते हो। हरि! हरि! कार्तिक मास में ब्रजवास/ वृंदावन वास जो कि स्ट्रांग्ली रिकमेंडिड है, वैसा करने के लिए ब्रज मंडल परिक्रमा भी है और जो भक्त ब्रज मंडल परिक्रमा नहीं कर सकते, वे यंहा आकर निवास कर सकते हैं व अपना ध्यान, धारणा, साधना, स्मरण यहां कर सकते हैं। कुछ भक्त पूरे महीने नहीं आ सकते। वे ब्रज मंडल परिक्रमा हर साल कोई एक-एक सप्ताह करते हैं और अगले वर्ष और 1 सप्ताह करते हैं, जहां वे पिछले वर्ष रुके थे फिर वहां से आगे बढ़ते हैं इस प्रकार 4 साल में उनकी परिक्रमा पूरी होती है। कुछ भक्त 2 साल में पूरी कर लेते हैं परंतु अधिकतर भक्त एक साल में ही पूरी परिक्रमा कर लेते हैं। वैसे आप शायद परिक्रमा नहीं कर रहे हो, वृन्दावन में नहीं हो। इसलिए आप जहां भी हो बैठे हो। आप सोलापुर, कोल्हापुर, नागपुर, पंढरपुर में बैठे हो और वही से.. जैसा कि महाराज यहां लिख रहे हैं कि इसे आप वहीं से विजिट कर रहे हो।'यू आर शटलिंग वृन्दावन और वहीं से बैक टू नागपुर, बैक टू सोलापुर, बैक टू लंदन, बैक टू मोरिशियस, बैक एंड ... आप आ जा रहे हो। कम से कम विजिट तो हो रही है। अच्छा है कि वापिस ना जाएं, यहीं रहे। वृंदावन में ही वास करें। हमारा मन जहां है, वैसे वही हमारा ध्यान भी जाता है। वैसे शरीर के लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। हम कहां है यह शरीर को पता ही नहीं होता है। शरीर तो निर्जीव है। निष्प्राण है। शरीर में कोई संवेदना, इमोशंस या फिलिंग कुछ नहीं है। यह मृत है। 'बॉडी डेड बॉडी' अर्थात शरीर तो मृत होता है। शरीर कहां है ? मिट्टी कहां है, मिट्टी को पता नहीं है। जल कहां है ?जल को पता नहीं है, हवा कहां है? हवा को पता नहीं है। पृथ्वी, जल, वायु, आकाश से ही यह पिंड बनता है। जो ब्रह्मांड में है वही हमारे पिंड में भी है। शरीर को कुछ ज्ञात नहीं है कि वह कहां है? हमारी ज्ञानेंद्रियां हमारे मन को फीड करती है। *ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः | मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।।* ( श्रीमद भगवतगीता १५.७)” अनुवाद:- इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं। बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है । मन हमारी छ्ठवीं व प्रधान इन्द्रिय है। सारा थिंकिंग, फीलिंग, विलिंग,( सोचना, अनुभव करना, इच्छा करना) स्मरण जो है, वह.. *स वै मनः कृष्णपदारविन्दयो र्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने । करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु श्रुति चकाराच्युतसत्कथोदये ॥* *मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशौ तद्धृत्यगात्रस्पर्शेऽङ्गसङ्गमम् । घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते ॥* *पादौ हरे : क्षेत्रपदानुसर्पणे शिरो हृषीकेशपदाभिवन्दने । कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः ॥* ( श्रीमद भागवतम 9.4.18-20) अनुवाद:- महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने में अपने शब्दों को भगवान् का गुणगान करने में, अपने हाथों को भगवान् का मन्दिर झाड़ने - बुहारने में तथा अपने कानों को कृष्ण द्वारा या कृष्ण के विषय में कहे गये शब्दों को सुनने में लगाते रहे । वे अपनी आँखों को कृष्ण के अर्चाविग्रह, कृष्ण के मन्दिर तथा कृष्ण के स्थानों, यथा मथुरा तथा वृन्दावन को देखने में लगाते रहे । वे अपनी स्पर्श इन्द्रिय को भगवद्भक्तों के शरीरों का स्पर्श करने में अपनी घ्राण - इन्द्रिय को भगवान् पर चढ़ाई गईं तुलसी की सुगन्ध को सूँघने में और अपनी जीभ को भगवान् का प्रसाद चखने में लगाते रहे । उन्होंने अपने पैरों को पवित्र स्थानों तथा भगवत् मन्दिरों तक जाने में, अपने सिर को भगवान् के समक्ष झुकाने में और अपनी इच्छाओं को चौबीसों घण्टे भगवान् की सेवा करने में लगाया। निस्सन्देह, महाराज अम्बरीष ने अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कभी कुछ भी नहीं चाहा । वे अपनी सारी इन्द्रियों को भगवान् से सम्बन्धित भक्ति के कार्यों में लगाते रहे । भगवान् के प्रति आसक्ति बढ़ाने की और समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः मुक्त होने की यही विधि है। जैसा की भागवतम में कहा है कि मन से हम स्मरण करते हैं। स्मरण से पता चलता है। साथ में बुद्धि भी है। अंततोगत्वा ज्ञाता अथवा क्षेत्रज्ञ आत्मा ही होती है। आत्मा को पता चलता है। इस शरीर में जो अंतःकरण है अर्थात जो सूक्ष्म शरीर मन, बुद्धि, अहंकार वाला और आत्मा है, इनको पता चलता है अथवा स्मरण करता है, इनको स्मरण होता है। शरीर स्मरण नहीं करता। शरीर को कोई क्लू नही होता। मन से... मानसिक परिक्रमा या मानसिक पूजा भी होती है, मन में सारा रजिस्ट्रेशन होता है। मन, बुद्धि, अहंकार उसको नोट करते हैं। आत्मा को पता लगना चाहिए। आत्मा का भी दिल है, आत्मा का भी हृदय है। उस ह्रदय प्रांगण में कुछ दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित होता है। यह ज्ञान का प्रकाशन कहां होता है? दिव्य ज्ञान हृदय प्रकाशित, ह्र्दय मतलब 'हार्ट ऑफ द सोल' अर्थात आत्मा का हृदय। आत्मा हृदय में रहती है। उस आत्मा के हृदय में सब प्रकाशित होना है। इसको हम आत्मसाक्षात्कार कहते हैं। सेल्फ रिलाइजेशन, गॉड कृष्ण रिलाइजेशन या कृष्ण भावना भावित होना है तो इसका सीधे आत्मा के साथ संबंध है। आत्मा का साक्षात्कार या भगवत साक्षात्कार या भगवत दर्शन। यह दर्शन करने वाली आत्मा ही है। वह साक्षात्कार आत्मा को होता है। यह इंद्रियां और यह मन सब फीड करते हैं। इसी को योग कहा ही जाता है। योग मतलब लिंक अर्थात संबंध। हमारा भगवान के साथ जो संबंध है उसका रिवाइवल होना या उसका स्मरण करने व संबंध स्थापित करने में मन, बुद्धि, अहंकार ही कुछ संचार के साधन बन जाते हैं। वह सम्बन्ध स्थापित होता है। मन, बुद्धि, अहंकार इसका शुद्धिकरण करते हैं। *चेतो - दर्पण - मार्जनं भव - महा - दावाग्नि - निर्वापणं श्रेय : -कैरव - चन्द्रिका - वितरणं विद्या - वधू - जीवनम् । आनन्दाम्बुधि - वर्धनं प्रति - पदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्म - स्नपनं परं विजयते श्री - कृष्ण - सङ्कीर्तनम् ॥* ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.12) अनुवाद:- भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो, जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागररूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है, जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है। यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर का विस्तार करता है । यह सबों को शीतलता प्रदान करता है और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बनाता है । ' इससे हमारी चेतना का शुद्धिकरण होता है। सेंस कंट्रोल, माइंड कंट्रोल *शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च | ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||* ( श्रीमद भगवतगीता 18.42) अनुवाद:- शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान, विज्ञान तथा धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्म करते हैं। शम अर्थात माइंड कंट्रोल, दम अर्थात सेंस कंट्रोल। यह सारे नियंत्रण करते हुए अथवा तपस्या करते हुए हम जिस संबंध को भूले हैं या भगवान को भूले हैं, उसको हम योग से पुनः स्थापना करते हैं। कृष्ण का स्मरण करना है, तो आत्मा का स्मरण करना है। ब्रजवास करना है तो शरीर को तो पता ही नहीं चलेगा, शरीर लंदन में है या मास्को में है या अफ्रीका के एक शहर है जिसे डरबन अथवा डूरबन में हैं। हमारे दीनबंधु प्रभु कहते हैं कि यह जो हमारे द्वादश कानन या द्वादश वन है , वह हमारे डूरबन है। जैसेअफ्रीका में डूरबन है। हमारा शरीर जहां भी है, हमारे शरीर को कुछ पता नहीं होता। वैसे पता तो आत्मा को लगवाना है। भगवान का पता लगवाना है या स्मरण करना है तो आत्मा को स्मरण करना है। हरि! हरि! गोपियां सदैव भगवान का स्मरण करती हैं *स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित् ।* *सर्वे विधि - निषेधाः स्युरेतयोरेव किङ्कराः ॥* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.113) अनुवाद:- “ कृष्ण ही भगवान् विष्णु के उद्गम हैं । उनका सतत स्मरण करना चाहिए और किसी भी समय उन्हें भूलना नहीं चाहिए । शास्त्रों में उल्लिखित सारे नियम तथा निषेध इन्हीं दोनों नियमों के अधीन होने चाहिए । " वे भगवान को कभी नहीं भूलती। वे बस इतना ही जानती हैं। गोपियां कुछ ज्यादा नहीं जानती, ज्यादा कुछ नहीं करती। वे क्या करती हैं? स्मर्तव्यः सततं विष्णु हमेशा भगवान का स्मरण करना चाहिए। भगवान स्मरणीय है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा- *मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।* (श्रीमद भगवतगीता 18.65) अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो। मुझे याद करो, मेरा स्मरण रखो। गोपियां स्मरण कर रही हैं। ब्रज/ वृंदावन का हर भक्त, हर व्यक्ति भगवान का स्मरण करता है। 'वी आल रिमेंबर कृष्ण'। यहां जो वृंदावन में भक्त हैं, वह केवल आत्मा हैं। उनका शरीर है ही नहीं या उनका शरीर ही आत्मा है। आत्मा ही शरीर है। उनका अलग से शरीर नहीं है, हम शरीर में हैं। इसलिए आत्मा को देही कहा है, देह मतलब शरीर। देही मतलब जो शरीर में रहता है। जैसे निवास औऱ निवासी। निवास मतलब रहने का स्थान और निवासी मतलब रहने वाला। *सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी। नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ||* ( श्रीमद भगवतगीता 5.13) अनुवाद:- जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है। कृष्ण कहते हैं- यह नव द्वार वाला जो गेट अथवा शरीर है, इस शरीर में आत्मा रहती है। हमें आत्मा को मुक्त करना है। प्रारंभ मन से करते हैं, मन को मुक्त करते हैं। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।* मंत्र अर्थात मन से त्र, मुक्त करने वाला। मन्त्र हमें मुक्त करता है। हरि !हरि! *निरोधोऽस्यानुशयनमात्मनः सह शक्तिभिः । मक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्व - रूपेण व्यवस्थितिः ॥* (श्रीमद भागवतम 2.10.6) अनुवाद:- अपनी बद्धावस्था के जीवन - सम्बन्धी प्रवृत्ति के साथ जीवात्मा का शयन करते हुए महाविष्णु में लीन होना प्रकट ब्रह्माण्ड का परिसमापन कहलाता है । परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर जीवात्मा के रूप की स्थायी स्थिति ' मुक्ति ' है । अंततोगत्वा इस रूप, इस देह को छोड़ना है और इस देह की राख होगी अथवा कीड़े खाएंगे। इसकी अलग अलग स्थितियां बताई गई हैं। एक भस्म अथवा राख होती ही है। तत्पश्चात आत्मा बचती है। आत्मा मुक्त है, भक्त है। *इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकले - गोविन्द नाम लेकर, फिर प्राण तन से निकले।।* यदि हम ऐसा करते हैं तब हमारी आत्मा सीधे... *जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।* ( श्रीमद भगवतगीता 4.9) अनुवाद:- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है। जब शरीर को त्याग दिया तो त्याग ही दिया, नो मोर, दूसरा शरीर अपनाने की आवश्यकता नहीं है। तत्पश्चात आत्मा सीधे भगवत धाम लौटती है और वहां अपनी अपनी सेवा में स्थित हो जाती है। हम क्या बता रहे हैं? स्मरण करना है या वृंदावन में वास करना है- शुद्ध मन और आत्मा के स्तर पर यह संभव है। हम जहां भी हैं वही बात शिवराम महाराज भी यहां लिख रहे हैं कि हम जहां भी हैं, वहीं रह सकते हैं। शरीर और कहीं भी है लेकिन हमारा वृंदावन में वास तो हो रहा है। हरि! हरि! वृंदावन वास या कृष्ण भावना भावित होने के लिए यह सब साधन भी है। फिर यह कार्तिक व्रत एक साधन है। इस महीने में दामोदरष्टक का पाठ या गान या दीपदान यह भी एक साधन है। यहां अगर आ कर रह ही सकते हैं और यहां पर परिक्रमा कर सकते हैं तब यह संस्मरण और कितना आसान हो जाता है। वहां जाओ जैसे आज वहां परिक्रमा के भक्त मथुरा में हैं। कल आधा दिन, आज पूरी रात रहे। आज पूरा दिन रहेंगे और एक और रात बिताएंगे और कल वहां से मथुरा से प्रस्थान करेंगे। जब वे एक दो दिन वहां बिताएंगे तो वे कृष्ण जन्मस्थान जाएंगे, वे कल गए थे। वहां केशव देव का दर्शन करेंगे। वास्तविक जन्म स्थान (एक्चुअल बर्थ सपोर्ट) अर्थात जहां कृष्ण मध्यरात्रि की अष्टमी को प्रकट हुए थे, वहां पहुंच जाएंगे। वहां पढ़ेंगे भी कि "जो भी व्यक्ति कार्तिक मास में जन्म स्थान आ जाता है, दर्शन करता है.. उसका दुबारा जन्म नही होता। *भारतामृतसर्वस्वं विष्णुवक्त्राद्विनिः सृतम। गीता- गङ्गोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ॥* (गीता महात्म्य ५) अर्थ:- “जो गंगाजल पीता है, वह मुक्ति प्राप्त करता है। अतएव उसके लिए क्या कहा जाय जो भगवद्गीता का अमृत पान करता हो? भगवद्गीता महाभारत का अमृत है और इसे भगवान् कृष्ण (मूल विष्णु) ने स्वयं सुनाया है ।” वहां हमने साइनबोर्ड पर लिखा हुआ है। इस प्रकार कृष्ण का स्मरण कितना आसान है। उनके जन्म स्थान पर पहुंचकर और उंगली करके कहेंगे, यहां पर जन्म हुआ था, यहां पर जन्म हुआ था। जन्म होने के पहले देवता आए थे, गर्भ स्तुति हो रही थी। तब यह हुआ, वह हुआ और वह हुआ था। तत्पश्चात भक्त विश्राम घाट जाएंगे, यमुना में स्नान करेंगे। यमुना मैया की जय! संकल्प करेंगे और वहां यम, यमी का दर्शन करेंगे। यम मतलब यमराज और यमी मतलब यमुना। उससे भी मुक्त होंगे। इस प्रकार मुक्त होते जाते हैं।अलग-अलग स्थान जाएंगे, वहां की लीला का श्रवण करेंगे, प्रार्थना करेंगे, दंडवत प्रणाम करेंगे। वहां की धूलि में लौटेंगे। ओह यह स्थान कुब्जा का है, कृष्ण यहां आए थे और कुब्जा को दर्शन दिया था इत्यादि इत्यादि। यहां पर कुब्जा, कंस के लिए कुछ अंगराग या कुछ चंदन लेप लेकर जा रही थी। कृष्ण, बलराम का चंदन लेपन हुआ। यहां पर देखो, यहां कौन सा क्षेत्र है। रंगेश्वर महादेव है, यहां पिपलेश्वर महादेव है या गोकर्णेश्वर महादेव, यहां भूतेश्वर महादेव है। वहां भक्त जाएंगे। चार दिशा में चार महादेव धाम की रक्षा कर रहे हैं। शिवजी, धाम के पाल या मथुरा के पाल बनकर कृष्ण व धाम सेवा कर रहे हैं। वे मथुरा के पालक अथवा रक्षक हैं। रंगेश्वर महादेव मंदिर के पास में ही रंगमंच है, जहां कृष्ण बलराम अक्रूर को लेकर पहुंचे थे, जहाँ पर कल पदयात्रा थी। तब वहां से कृष्ण बलराम को लेकर आगे बढ़े। कृष्ण बलराम चल कर वहां मथुरा का दर्शन कर रहे थे। भगवान ने रास्ते में कोई धोबी देखा और वस्त्रों की मांग की। यह सारी पूरी लीला है। जहां कृष्ण ने अपने वस्त्र पहने- 'जैसा देश, वैसा भेष'। कृष्ण ने धोबी से सारे वस्त्र ले लिए। वह दे नहीं रहा था तब भगवान ने अपने हाथ से उसके सिर को काट लिया। वहां जो ग्वाले के वेश में दर्शन दे रहे हैं, इसलिए उन्होंने वस्त्र पहन तो लिए लेकिन वस्त्र लंबे थे कुछ सही नही थे, तब वे टेलर के पास गए, तब वह उन वस्त्रों को उनके साइज के बना देता है। तब वे आगे बढ़ते हैं तब आगे एक माली अथवा फूल वाला वहां था, तो उसने कृष्ण का माल्यार्पण किया। कुब्जा ने चंदन लेपन किया है तत्पश्चात आगे बढ़े तो यज्ञशाला में धनुर्यज्ञ हो रहा है। कुछ समय के लिए कृष्ण बलराम उस यज्ञ को देखते रहे। तब वे फिर आगे बढ़े और उन्होंने जैसे ही धनुष को उठाया और उसके टुकड़े हो गए। उसकी आवाज दूर-दूर तक पहुंच गई। कंस ने भी उस आवाज को सुना - 'ओह! उस धनुष को किसी ने तोड़ दिया है।' कंस को बताया गया था कि जो इस धुनष को तोड़ेगा, वही कंस की मृत्यु का कारण बनेगा और वही हुआ वैसे तब तक वह जंगी मैदान में बैठे थे लेकिन यह जब धनुष के टूटने की ध्वनि सुनी तो वह कांपने लगा। तब उसने सोचा कि रास्ते में कोलयापीड़ है, वह कृष्ण की जरूर जान लेगा, कृष्ण बलराम को मार देगा लेकिन उल्टा हुआ। कृष्ण बलराम नहीं अपितु कोलयापीड़ नाम का हाथी जोकि पृथ्वी पर सबसे अधिक बलवान हाथी है, कृष्ण बलराम ने उसकी खेलते खेलते जान ले ली। उन्होंने इस हाथी के दोनों दांत उखाड़ लिए। कृष्ण ने बलराम को कहा- तुम उसको ले लो। वे दोनों एक एक हाथी दांत लेकर आगे बढ़ रहे थे। तब कृष्ण बलराम को सबसे पहले कंस ने देखा होगा। अरे यह जीवित है! और यह क्या लेकर चल रहे हैं ? अरे यह तो मेरे हाथी के दांत है। इन्होंने मेरे कोलयापीड़ का भी अंत कर दिया अब मेरा अंत जरूर करने वाले ही हैं। लेकिन उनको पहले चारूण, मुष्टिक, शल, कौशल के साथ लड़ने दो। कृष्ण बलराम लड़े, जब वे नहीं रहे, उनको लिटा दिया, सब पहलवानों की जान ले ली। तब कृष्ण कंस की ओर आगे बढ़े और उसको नीचे घसीट लिया। थोड़ा डिशूम डिशूम ,थोड़ा बॉक्सिंग हुआ। कुछ हल्का सा, ज़्यादा कुछ प्रयास नहीं करना पड़ा। तत्पश्चात कंस मामा नहीं रहे। 'ही वाज नो मोर' हरि! हरि! शोक सभा भी हुई। शोक सभा में भी कृष्ण गए कि मामा नहीं रहे। जिस समय कंस की हत्या हुई तब कंस के कंक आदि आठ भाई थे, वे आगे बढ़े। बलराम ने उनको भी ऐसे ही लिटा दिया। बलराम ने उनको संभाला। तत्पश्चात शोक सभा में कृष्ण बलराम भी रोने लगे.. मामा नहीं नहीं रहे, कितने अच्छे थे, ये थे, वे थे। 'कृष्ण एज ए परफेक्ट पर्सन है। कृष्ण ने अपनी शब्दांजली भी कहकर सुनाई है। कृष्ण शोक कर रहे हैं। यह जो थोड़ा-थोड़ा हमने हल्का सा उल्लेख किया, पदयात्री इन स्थानों पर अधिकतर जाते हैं और उस लीला का वहां स्मरण होता है। तो कितना आसान है! वी गो ऑन द स्पॉट, उंगली कर दिखाते हैं कि यहां पर यह लीला हुई, वहां पर वह लीला हुई। उसके बाद यह हुआ, कृष्ण वहां गए, उसके बाद वहां से वहां गए फिर कृष्ण का स्मरण बहुत आसान हो जाता है। आप इस परिक्रमा का अनुसरण करो। परिक्रमा पार्टी के साथ आप रहो। आपको ऑनलाइन परिक्रमा भी दिखाई जा रही है। यह ब्रज मंडल ग्रंथ भी है, इसको भी आप पढ़ सकते हो। जब आप पढ़ोगे, याद करोगे, स्मरण करोगे तब आप अपने नगर, अपने ग्राम में नहीं रहोगे। आप वहां लीला स्थली पर होंगे। आपकी आत्मा उस लीला को देखेगी, सुनेगी और उसी के साथ *नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम 'साध्य" कभु नय। श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।।* (श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.107) अनुवाद:- "कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।" इस श्रवण से 'नित्य सिद्ध कृष्ण प्रेम' हमारा जो कृष्ण प्रेम है। 'वी लव कृष्ण' 'आत्मा लव्स कृष्ण।' आत्मा का प्रेम भगवान से ही है। आत्मा और किसी से प्रेम नहीं कर सकती। इस देहात्मबुद्धि के कारण वह अपने को शरीर मान बैठती है। *यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधी : कलत्रादिषु भौम इज्यधीः । यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिचि जनेष्यभिजेषु स एव गोखरः ॥* ( श्री मद भागवतम 10.84.13) अनुवाद:- जो व्यक्ति कफ , पित्त तथा वायु से बने निष्क्रिय काया को स्वयं मान बैठता है , जो अपनी पत्नी तथा अपने परिवार को स्थायी रूप से अपना मानता है , जो मिट्टी की प्रतिमा या अपनी जन्मभूमि को पूज्य मानता है या जो तीर्थस्थल को केवल जल मानता है , किन्तु आध्यात्मिक ज्ञानियों को अपना ही रूप नहीं मानता , उनसे सम्बन्ध का अनुभव नहीं करता , उनकी पूजा नहीं करता अथवा उनके दर्शन नहीं करता - ऐसा व्यक्ति गाय या गधे के तुल्य है । तात्पर्य : असली बुद्धि तो आत्म की मिथ्या पहचान से मनुष्य की उन्मुक्तता द्वारा प्रदर्शित होती है । जैसाकि बृहस्पति संहिता में कहा गया है। हम आत्मा की बजाय शरीर बन जाते हैं कि मैं यह शरीर में हूं। यह मेरा आईडेंटिफिकेशन(पहचान) है फिर हमें दूसरे शरीर से प्यार हो जाता है अथवा लगाव होता है। फिर इस भौतिक मन / भौतिक बुद्धि या दुर्बुद्धि या विनाश काले विपरीत बुद्धि के कारण रोज हमारा विनाश काल आ जाता है। विपरीत बुद्धि के कारण दिमाग उल्टा पुल्टा काम करता है, सोचता है और हम पूरे माया में लिप्त हो जाते हैं। माया का स्मरण करते हुए शरीर और यह दूषित मन, भ्रमित बुद्धि यह संसार से प्रेम करती है। माया से प्रेम करती है लेकिन वैसे आत्मा तो किसी और से प्रेम नहीं कर सकती। यह संभव नही है। आत्मा का प्रेम तो भगवान से ही है। जो हमारा प्रेम कृष्ण से है, उसको जगाना है। वह होता है इसलिए यह सारे साधन हैं। नवधा भक्ति में जो पादसेवन है। यह परिक्रमा ही पादसेवन है। तत्पश्चात *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* मुख्य साधन तो यही है- नाम स्मरण। इसी के अंतर्गत या उसी से जुड़ा हुआ यह परिक्रमा या दामोदर मास में वृंदावन वास परिक्रमा करना वृंदावन का परिभ्रमण हुआ । फिर उसके साथ स्मरण देख लीजिए, फायदा उठाओ। कृष्ण प्रेम जगाने का फेवरेबल सीजन है । 'टेक फुल एडवांटेज'। पंढरपुर में भी कई भक्त पहुंचे हैं। राधा पंढरीनाथ की जय! पंढरपुर धाम की जय! कई सारे यात्री आए हैं वे भी कार्तिक मास में पंढरपुर धाम में वास कर या पंढरपुर यात्रा कर फायदा उठा रहे हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य स्वामी महाराज भी वहां पहुंचे हैं। वे यात्रियों को संबोधित कर सकते हैं और कृष्ण की याद दिला सकते हैं। पांडुरंग! गौरंग! पांडुरंग गौरंग! पांडुरंग! गौरंग! हरि! हरि! हरि! हरि! अब दर्शन का समय है, अपने अपने विग्रह के दर्शन अपने-अपने मंदिरों में करो। हरि बोल! हरे कृष्ण!!!

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