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*जप चर्चा* *वृंदावन धाम से* *25 अगस्त 2021* *हरे कृष्ण* 853 स्थानों से भक्त आज जप में सम्मिलित हैं । गौरंगा !गौर प्रेमानंदे !हरि हरि बोल! हरे कृष्ण, वृंदावन धाम की जय !श्रील प्रभुपाद की जय! हरि हरि ! अभी वृंदावन में कृष्ण बलराम मंदिर में कई दिनों से श्रील प्रभुपाद लीलामृत की कथा प्रस्तुत की जा रही है। प्रतिदिन प्रभुपाद के कोई शिष्य कभी एक तो कभी दो उनकी अपनी स्मृतियां, श्रील प्रभुपाद के संबंध में शेयर कर रहे हैं। कल मेरी बारी थी, हो सकता है आपने सुना भी हो आज मैं सोच रहा था और मैंने कल कहा भी था कि आप जब पहली बार वृंदावन आए तब आपने क्या अनुभव किया या कौन सा अनुभव आपके लिए अविस्मरणीय रहा, क्या देखा, या क्या सुना जिससे आप प्रभावित हुए हैं ? जिससे आपके जीवन में या आप की विचारधारा में क्रांति हुई ? श्रील प्रभुपाद इन वृंदावन, उसी टॉपिक को हम वृन्दावन में टॉपिक बना सकते हैं और जैसा की आप जानते हो कि श्रील प्रभुपाद की 125 वी वर्षगांठ मनाई जा रही है इस वर्ष और इसी वर्ष कुछ ही दिनों में श्रील प्रभुपाद की महा व्यास पूजा संपन्न होगी। जन्माष्टमी के दूसरे दिन ही, प्रभुपाद का जन्मदिन है। कोलकाता में जो श्रील प्रभुपाद जन्मे उस दिन तो व्यास पूजा की भी तैयारियां हो रही हैं। सेटिंग द सीन कहो या गेटिंग इन टू द मूड कहो श्रील प्रभुपाद का स्मरण सर्वत्र हो रहा है। कृष्ण कथाएं भी हो रही हैं। वैसे कृष्ण बलराम कथा प्रातः काल हो रही है और सांय काल श्रील प्रभुपाद कथा चल रही है और वैसे मैंने कल कहा था *यस्य देवे परा भक्तिः यथा देव तथा गुरौ तस्य महात्मनः कथिताः एते अर्थाः प्रकाशन्ते॥* अनुवाद- किन्तु जिसके हृदय में 'ईश्वर' के प्रति परम प्रेम तथा परमा भक्ति हैं तथा जैसी 'ईश्वर' के प्रति है वैसी ही 'गुरु' के प्रति भी है, ऐसे 'महात्मा' पुरुष को जब ये महान् विषय बताये जाते हैं, वे स्वतः अपने आन्तर अर्थों को उद्घाटित कर देते हैं, सचमुच, उस 'महात्मा' के लिए वे स्वतः प्रकाशित हो जाते हैं। जैसे यस्य देवें तथा गुरु जैसे श्रीकृष्ण देव, गोविंद देव कि हम आराधना करते हैं वैसे ही यस्य देवें अर्थात जैसे हम भगवान की आराधना या भगवान की परा भक्ति की आराधना करते हैं वैसे ही हमें अपने गुरु की आराधना करनी चाहिए। जैसे अचार्योपासना, कृष्ण ने गीता में कहा है अचार्योपासना श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का यह अवसर है श्रील प्रभुपाद का आविर्भाव का भी दिन आ रहा है अर्थात दोनों का ही संस्मरण चल रहा है। कृष्ण बलराम मंदिर में यथा देवे तथा गुरु, प्रातः काल में कृष्ण कथाएं हो रही हैं और साय काल में प्रभुपाद का संस्मरण हो रहा है हरि हरि ! श्रील प्रभुपाद पहली बार यहां आए होंगे, 1932 की बात है उनके गुरु महाराज श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ब्रज मंडल परिक्रमा कर रहे थे, उस समय कार्तिक मास में श्रील प्रभुपाद प्रयाग में रहते थे उन दिनों में प्रयाग फार्मेसी इत्यादि भी चलाते थे और वहां से वृंदावन मथुरा स्टेशन आये हैं। वहां से श्रील प्रभुपाद सीधे परिक्रमा में गए, जहां श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर, कोसी गए हुए थे जो नंद ग्राम से कुछ ही दूरी पर दस एक किलोमीटर की दूरी पर है या नंद महाराज के कोषाध्यक्ष, वहां निवास करते थे। उस स्थान का नाम कोसी हुआ। श्रील प्रभुपाद ने भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर की उस परिक्रमा को वहां पर ज्वाइन किया। एनीवे, यह सब हम आपको नहीं बता सकते हैं । वहां यह हुआ कि वहां श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज द्वारा कही हुई कथाओं को बड़े ही ध्यानपूर्वक सुना करते थे और उनका प्रेफरेंस सुनने में था। एक प्रातः काल को घोषणा हुई कि कोसी से कुछ ही दूरी पर शेषशायी नाम का स्थान है जहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी गए थे और परिक्रमा में हम लोग भी जाते रहते हैं। उसको आप पढ़िए ब्रजमंडल दर्शन में श्रील प्रभुपाद लीला में, तो परिक्रमा के भक्त वहां जाने वाले थे और वहां घोषणा हुई कि उस स्थान पर परिक्रमा के भक्त जाएंगे। किन्तु साथ ही साथ भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर भक्तों के साथ परिक्रमा में, नहीं जाने वाले थे बल्कि वहीं रहकर कथा करने वाले थे और जो वहीं रहने वाले थे उनके लिए श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर कथा सुनाएंगे यह आपकी चॉइस है कि या आप परिक्रमा में जाइए या फिर उनके पीछे रहो और रुको फिर श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर द्वारा सुनो, तब श्रील प्रभुपाद ने श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के साथ रहना पसंद किया और उनसे कथा सुनना ही पसंद किया। *यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधी : कलत्रादिषु भौम इज्यधीः । यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिचि जनेष्यभिजेषु स एव गोखरः*॥ (श्रीमद भागवतम १०.८४.१३) अनुवाद- जो व्यक्ति कफ , पित्त तथा वायु से बने निष्क्रिय काया को स्वयं मान बैठता है , जो अपनी पत्नी तथा अपने परिवार को स्थायी रूप से अपना मानता है , जो मिट्टी की प्रतिमा या अपनी जन्मभूमि को पूज्य मानता है या जो तीर्थस्थल को केवल जल मानता है , किन्तु आध्यात्मिक ज्ञानियों को अपना ही रूप नहीं मानता , उनसे सम्बन्ध का अनुभव नहीं करता , उनकी पूजा नहीं करता अथवा उनके दर्शन नहीं करता - ऐसा व्यक्ति गाय या गधे के तुल्य है । तात्पर्य : असली बुद्धि तो आत्म की मिथ्या पहचान से मनुष्य की उन्मुक्तता द्वारा प्रदर्शित होती है । जैसाकि बृहस्पति संहिता में कहा गया है । यह भी बात आपको कई दिन पहले सुनाई थी। जब कृष्ण ऋषि-मुनियों को कुरुक्षेत्र में सुना रहे थे । नवदीप या वृंदावन की यात्रा में जब जाते हैं और कई स्थानों पर जाकर दर्शन करना चाहते हैं तब दर्शन के अलावा और क्या आकर्षण होता है वहां जो कुंड है या सरोवर है या पवित्र नदियां हैं वहां स्नान करना चाहते हैं । स्नान को प्रेफरेंस देते हैं।स्नान करना या डुबकी लगाना यह तीर्थ है। मतलब जल, कईयों की बुद्धि सलीले, तीर्थ मतलब क्या करता है ? स्नान करता है । तब यात्रा सफल जो मार्गदर्शक हैं यह वहां के धाम गुरु हैं वहां के जो प्रचारक हैं या वहां के जो गाइड हैं उनसे मिलना चाहिए और वैसे यह यात्रा इसमे गाइड टूर होनी चाहिए । कौन गाइड करें? अभिज्ञान जन अर्थात जो जानकार हैं बुद्धिमान हैं। आचार्य वान पुरुषों वेदा जो आचार्य हैं उनके पास पहुंचना चाहिए, उनको स्वीकार करना चाहिए, उनके मार्गदर्शन के अनुसार यात्रा होनी चाहिए, उनको सुनना चाहिए, लोग सुनते नहीं है बस देखना चाहते हैं। बस स्नान करना चाहते हैं और हो गई यात्रा । जो सुनते नहीं , श्रवण कीर्तन नहीं करते, धाम में आए और श्रवण कीर्तन नहीं हुआ, धाम में आए और *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* कीर्तन नहीं हो रहा है । कीर्तन के बिना ऐसे ही देखते जा रहे हैं, स्नान करते जा रहे हैं। यह कीर्तन और लीला कथा का श्रवण अनिवार्य है कहने का तात्पर्य यह है जब श्रील प्रभुपाद पहली बार वृंदावन आये तब उन्होंने क्या किया? श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर से सुना, धाम की महिमा को सुना, भगवान की लीला का श्रवण किया, हरि हरि! फिर श्रील प्रभुपाद उस समय तो प्रयाग लौट गए और फिर उसके पश्चात आप मथुरा वृंदावन को छोड़ने वाले नहीं थे। वो मथुरा वृंदावन को भेंट देने या यात्रा के लिए ही केवल नहीं आए थे अब तो वह सदैव के लिए मथुरा वृंदावन में ही रहना चाहते थे। वानप्रस्थ लिया है तो वन में प्रस्थान किया। कौन सा वन उन्होंने पसंद किया? वृंदावन ! वृंदावन धाम की जय ! वह मथुरा वृंदावन आये। मथुरा में केशव जी गौड़ीय मठ, श्रील प्रभुपाद के भ्राता श्री केशव महाराज, गौड़ीय मठ में, जहां नारायण महाराज जी रहते थे। श्रील प्रभुपाद वहीं रहने लगे वह एडिटिंग वगैरह का कार्य करते थे। ही इज द राइटर प्रभुपाद जी ने इजी जर्नी टू द अदर प्लेनेट, (अन्य ग्रहों की सुगम यात्रा) इत्यादि, ग्रंथों का इस उपनिषद का भाषांतरण का कार्यक्रम आरंभ करते हैं । श्रील प्रभुपाद ने 1958 /1959 में सन्यास लिया । वानप्रस्थी बने और फिर अंततोगत्वा सन्यास लिया फिर धीरे-धीरे मथुरा से वृंदावन के लिए प्रस्थान किया और फिर एक छोटा सा स्थान जमुना के तट पर, वृंदावन में रहते थे और वहीं से उन्होंने दिल्ली आना जाना प्रारंभ किया और बुक प्रिंटिंग के उद्देश्य से प्रभुपाद वहां जाया करते थे। वो अपना एड्रेस वृंदावन का छोटा सा स्थान था किराए का वहां रहते थे उसका देते थे। जो आज भी है वहां से फिर श्रील प्रभुपाद राधा दामोदर मंदिर में आकर रहने लगे राधा दामोदर की जय और इसी राधा दामोदर मंदिर में रूप गोस्वामी की समाधि है भजन कुटीर है। यही स्थान है जहां षड गोस्वामी वृंद एकत्रित हुआ करते थे । *नानाशास्त्रविचारणैकनिपुणौ सद्धर्मसंस्थापकौ लोकानां हितकारिणौ त्रिभुवने मान्यौ शरण्याकरौ ।राधाकृष्णपदारविन्दभजनानन्देन मत्तालिकौ वन्दे रूपसनातनौ रघुयुगौ श्रीजीवगोपालकौ* || २ || षड गोस्वामी वृन्द यहां एकत्रित होकर नाना शास्त्रों पर विचार विमर्श करते थे उसी स्थान पर श्रील प्रभुपाद आए ,यह वह समय है। कौन सा समय? लाइफटाइम प्रिपरेशन 1922 में श्रील प्रभुपाद को आदेश मिला था पाश्चात्य देश में जाकर अंग्रेजी भाषा में भागवत धर्म का प्रचार करो, इस आदेश का पालन करना ही था। इसे कभी श्रील प्रभुपाद नहीं भूले थे, इसकी जीवन भर तैयारी करते रहे और अब उसी को आगे बढ़ा रहे थे । राधा दामोदर मंदिर में स्पेशली ग्रंथ राज भगवतम का प्रसिद्ध भाषांतर यही प्रभुपाद लिख रहे थे । टाइपिंग किया करते थे सिंगल हैंडेडली, सारा प्रोग्राम चल रहा था। प्रूफ रीडिंग भी करते थे, एडिटिंग भी करते थे और वहां से श्रील प्रभुपाद इन ग्रंथों को लेकर दिल्ली प्रिंटिंग के लिए ट्रेन से दिल्ली जाते थे। ऐसा ही वर्णन हमको सुनने को मिलता है। ही इज़ ट्रैवल्ड बाय थर्ड क्लास ट्रेन, थर्ड क्लास, इतना थर्ड क्लास की टेंथ क्लास था। आजकल वह थर्ड क्लास रहा भी नहीं , केवल सेकंड क्लास ही चलता है लेकिन आप जानते हो सेकंड क्लास में कैसा होता है। एक समय थर्ड क्लास हुआ करता था और श्रील प्रभुपाद दिल्ली जाया करते थे और वहां पेपर को खरीदते थे चांदनी चौक में कई बाजार थे, पेपर बाजार कहो या कागज प्रिंटिंग के लिए, प्रभुपाद स्वयं शॉपिंग करते थे और कभी कभी अपने सिर पर ढोकर प्रिंटर के पास ले जाते थे । हरि हरि ! क्या कहना और वैसे यमुना के पास दिल्ली का एक पार्ट जमुना के पार है। यहां जमुना दिल्ली और यूपी के बीच में बहती है उस समय जमुना के पार प्रभुपाद जाते तब प्रिंटर नोट करता कि श्रील प्रभुपाद बिना कुछ खाए पिए भूखे ही वहां पहुंच जाते हैं हरि हरि ! उन दिनों में उनकी अर्थव्यवस्था कुछ ठीक नही हुआ करती थी या भगवान ने उनको ऐसे रखा, धनराशि का अभाव, ही रहता था। प्रभुपाद जहां रहते थे 5 ₹ उसका किराया देते थे । राधा दामोदर मंदिर में किराया ₹5 था, तब जब यह फर्स्ट कैंटों श्रीमद भगवतम का तैयार हुआ उसके तीन वॉल्यूम बनाएं । फिर श्रील प्रभुपाद ने प्रिंटिंग के द्वारा बाद में बुक डिसट्रीब्यूशन भी करना प्रारंभ किया। दिल्ली में अलग-अलग एंबेसीज में जाकर उन ग्रंथों को वितरित करते थे अलग-अलग लाइब्रेरी में भी वितरित करते थे और मिनिस्ट्रीस में भी जाते मिनिस्टरों के पास जाते थे। लाल बहादुर शास्त्री के साथ प्रभुपाद का कुछ संबंध था, कुछ पहचान थी उनको भी मिला करते थे । वैसे महात्मा गांधी के साथ में श्रील प्रभुपाद का कई बार कॉरस्पॉडेंस हुआ करता था। जवाहरलाल नेहरू एंड डॉ राजेंद्र प्रसाद उनके साथ भी पत्र व्यवहार था। डॉ राधाकृष्णन जो उस जमाने के राष्ट्रपति थे उनके साथ भी श्रील प्रभुपाद संपर्क बनाए रखते थे। पत्र व्यवहार करते थे इन ऊंची हस्तियों से मिलते भी थे और उनसे सहायता भी मांगते थे ताकि कृष्ण भावना का प्रचार प्रसार हो। उनको एक समय जापान जाना था वे वहां जाना चाहते थे । वही आदेश का पालन करना चाहते थे । पाश्चात्य देश जाओ, अंग्रेजी भाषा में प्रचार करो , जवाहरलाल नेहरू से काफी कॉरस्पॉडेंस चल रहा था ताकि वे कुछ सहायता करें, हो सकता है जवाहरलाल नेहरू या राधाकृष्णन या कुछ अन्य से स्पॉन्सरशिप मिले ताकि प्रभुपाद जापान जा सके ,किंतु नहीं जा पाए। इस प्रकार ऐसी तैयारियां चल रही थी। प्रभुपाद की लाइफ टाइम प्रीपेराशन, एक दिन जाएंगे ही और अंग्रेजी भाषा में प्रचार करेंगे। प्रचार करना है तो बुक्स भी चाहिए। बुक्स आर द बेसिस और वैसे भी वृंदावन में श्रील प्रभुपाद भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर से मिले थे। राधा कुंड के तट पर, उनके गुरु का दूसरा आदेश, पहला आदेश मिला था 1922 में विदेश जाओ और अंग्रेजी भाषा का प्रचार करो और पुनः भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने प्रभुपाद को राधा कुंड के तट पर कहा कि जब भी तुम्हे धन राशि प्राप्त हो तो किताबें छापों । यह भी इंस्ट्रक्शन, अपने गुरु का आदेश, उनको मिला था । इसलिए प्रभुपाद इन ग्रंथों की रचना या भाषांतर कर रहे थे प्रिंट कर रहे थे । अब मुझे प्रचार के लिए जाना है तो प्रचार का आधार यह ग्रंथ होना चाहिए यह सब तैयारियां हुई तो प्रभुपाद गए, कहां गए विदेश जाना था, गए तो कहां अमेरिका गए लेकिन कैसे जाना था ₹5 किराया के मकान में या कमरे में रहते थे और विदेश जाने के लिए एयरफेयर वगैरा तो नहीं था तो वहीं पर एक सुमति मोरारजी करके एक महिला को प्रभुपाद कुरुक्षेत्र में मिले थे कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्रे, कुरुक्षेत्र है जहां भगवत गीता का उपदेश हुआ वहीं पर गीता जयंती के सम्मेलन में प्रभुपाद वहां गए थे और वहीं सुमति मोरारजी से उनकी मुलाकात हुई थी। श्रीमती सुमति मोरारजी इंडियन नेवी की एक कार्गो कंपनी जो पोर्ट से माल ढोते हैं बहुत बड़ी कंपनी की मालकिन थी। प्रभुपाद उनको मिलने के लिए मुंबई जाते हैं , मुंबई में उनकी कंपनी का हेड क्वार्टर था और वे जुहू में रहती थी। एनीवे , उनसे मिलना जुलना हुआ और फिर प्रभुपाद ने उन से निवेदन किया कि मैं वहां जाना चाहता हूं कुछ व्यवस्था करो , काफी चर्चा चल रही थी। अंततोगत्वा उन्होंने वन वे टिकट दे दिया । माल ढोने वाला जो जहाज होता है कार्गो शिप उसमें बैठकर श्रील प्रभुपाद अमेरिका जा सकते हैं। अब प्रभुपाद वृंदावन से मुंबई जाते हैं टिकट वगैरा लेते हैं, उस इंडियन नेवी कंपनी से और फिर वहां से श्रील प्रभुपाद ट्रेन से कोलकाता जाते हैं। कोलकाता मेल वाया नागपुर जाने वाली , श्रील प्रभुपाद डायरी लिखा करते थे। उस डायरी में जिस बोट से जाने वाले थे उस बोट का नाम था "जलदूत" , प्रभुपाद रास्ते में भी डायरी लिख रहे थे अब इस्कोन में एक डायरी प्रसिद्ध है जिसका नाम है प्रभुपाद जलदूत डायरी, प्रभुपाद ने उसमे लिखा है कि वह कौन सी ट्रेन से गए और यह भी लिखा है वाया नागपुर, नागपुर के भक्त इस बात से बड़े प्रसन्न हैं कैसे न्यूयॉर्क गए? वाया नागपुर, मुंबई से कोलकाता गए वाया नागपुर और फिर 2 दिन पहले का वह दिन था 1965 में प्रभुपाद ने उस बोट में अपना स्थान ग्रहण कर लिया और ये आज से 2 दिन पहले की बात है वहां से उन्होंने प्रस्थान किया न्यूयॉर्क के लिए हरि हरि ! ऐसा लीलामृत में आपको पढ़ना है इस वर्ष हम को प्रभुपाद कॉन्शियस होना है । इस वर्ष हमको समझना है हमारे फाउंडर आचार्य ने हम सभी के लिए क्या-क्या नहीं किया , ताकि न्यूयॉर्क पहुंचकर इस्कॉन की स्थापना कर सके ताकि भविष्य में हम एक दिन उस इस्कॉन के सदस्य बन सकते थे जैसे कि आप बने हैं आप इस्कॉन के हो कि नहीं? ऑल राइट, वेरी गुड, ठीक है। गौर प्रेमनान्दे! हरि हरि बोल!

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