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*हरे कृष्ण* *पंढरपुर धाम से* *1 जून 2021* हरे कृष्ण । *गौरांङ्ग’ बलिते ह’बे पुलक-शरीर।* *‘हरि हरि’ बलिते नयने ब’बे नीर॥1॥* अनुवाद:- वह दिन कब आयेगा कि केवल ‘श्रीगौरांङ्ग’ नाम के उच्चारण मात्र से मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा? कब, ‘हरि हरि’ के उच्चारण से मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रु बह निकलेंगे? 823 स्थानों से आज जप हो रहा है । निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल । या फिर , *गौरांङ्ग’ बलिते ह’बे पुलक-शरीर।* *‘हरि हरि’ बलिते नयने ब’बे नीर॥* नरोत्तम दास ठाकुर गा रहे हैं और कह रहे हैं , ऐसे मुझे स्मरण हुआ , अनायास ऐसे ही उच्चारण हुआ इस वचन का , नरोत्तम दास ठाकुर के इस गीत का उच्चारण हवा । गीत की पहली पंक्ति है कबे हबे , कब होगा ? *गौरांङ्ग’ बलिते* जब मैं गौरांग गौरांग गौरांग कहूंगा तब *पुलक शरीर* मेरा शरीर पुलकित कब हो उठेगा? रोमांचित कब होगा ? गौरांग गौरंगा कहने से , गौरांग बोलिते हबे पुलक शरीर या हरे कृष्ण बोलिते हबे पुलक शरीर एक ही बात है । और आंखों में अश्रु कब भर आएंगे ? *नयनें गलदश्रु-धारया वदने गद्गद-रुद्धया गिरा।* *पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति ॥* (चैतन्य चरितामृत अन्त्य 20.36) अनुवाद हे प्रभु, कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए मेरे नेत्र प्रवहमान अश्रुओं से पूरित होकर सुशोभित होंगे? कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए दिव्य आनन्द में मेरी वाणी अवरूद्ध होगी और मेरे शरीर में रोमांच उत्पन्न होगा?' इस प्रकार हमारे आचार्यो के ग्रँथ है या गीत है , भजन है । इसमें भी शिक्षाष्टक के भाव या भाष्य हम देखते है । हरि हरि । शिक्षाष्टक की ओर उंगली दिखाते हैं यह अलग अलग भाषा अलग अलग भजन वही स्रोत हो जाता है । आचार्यो के ग्रंथावली या गीतावली का स्त्रोत बन जाता है । हरि हरि। हम जप करते हैं , वैसे कुछ प्रश्न उत्तर भी करने है । आपने पूछे हुए प्रश्नों के उत्तर देने है । कुछ बचे हुए प्रश्नों के उत्तर भी देने हैं किंतु और भी कुछ विचार मेरे मन में उदित हो रहे थे , मैं सोच रहा था उसे थोड़ा संक्षिप्त में कहता हूं फिर प्रश्न उत्तर के तरफ मुड़ते हैं । हम जप करते हैं तो यह जप योग भी हैं और इसका लक्ष भगवान का ध्यान है , स्मरण है, समाधि है । यह एक पतंजलि का सूत्र है , पतंजलि योग जो अष्टांग योग भी कहलाता है । एक बड़ा ही महत्वपूर्ण सूत्र , नारद भक्ति सूत्र उसमें एक सूत्र है , *चित्त वृत्ति निरोध* अनुवाद:- महर्षि पतंजलि ने योग की परिभाषा करते समय इस प्रकार की है- ”योगश्चित्त वृत्ति निरोध:” चित्त की वृत्तियों का रोकना ही योग है। ”युज्यते असौ योग:” अर्थात् जो युक्त को करें अर्थात् जोड़े वह योग है। अर्थात् आत्मा व परमात्मा को युक्त करना ही योग है। महर्षि व्यास ने ”योगस्समाधि” कहा है। बहुत महत्वपूर्ण और विशेष , महान , शक्तिमान कहो ऐसा यह सूत्र है । *चित्त वृत्ति निरोध* परिवार नियोजन में आपने निरोध निरोध का सुना होगा , वहा निरोध चलता है । निरोध या विरोध या दमन ऐसे शब्दार्थ निरोध के अर्थ हो सकते है । *चित्त वृत्ति निरोध* चित्त में जब वृत्तियां उत्पन्न होती है उन वृत्तियों को मतलब हम जो सोचते ही रहते हैं या सोचते हैं कही घटनाएं घटती है , हम सुनते हैं या अलग अलग प्रकार के ज्ञान को चित्त के पास , मन के पास वह पहुंचाता है । हमारे चित्त में , मन में कई सारे विचार , कई सारे क्रिया प्रतिक्रियाये या कहीं फिर मन डामाडोल भी हो सकता है , कई सारे भाव , कही सारे विचार , तरंगे या फिर सुनामी भी ऐसा होता है ।हरि हरि । यह पतंजलि सूत्र कहता है , जो पतंजलि योग का सूत्र है भगवान के साथ संबंध स्थापित करने का यह सूत्र या मंत्र है , विधि है , उपाय है । *चित्त वृत्ति निरोध* कई तरंगे , कई विचार , क्रिया प्रतिक्रिया मन के स्तर पर जो होती है , या फिर ग्राफ के कर्व कहो उसको सीधा करो । मन को स्थिर करो , मन को शांत करो , यह लक्ष्य है ताकि हम समाधि की ओर , ध्यान की ओर या फिर ध्यान पूर्वक जप कि और आगे बढ़ सकते हैं । *मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |* *मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||* (भगवद्गीता 18.65) अनुवाद सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो | दूसरे शब्दों में झट से अगर कहना है तो जप के समय यह चित्त वृत्ति निरोध करना है। चित्त में उत्पन्न होने वाली जो वृत्तिया है या जो विचार है जो लहरें तरंगे है उसको वहीं पर दमन करो , वहीं पर उनका विरोध करो, उनको सीधा करो । आपको यह समझाते हुए विस्तार हो ही जाता है । आपके बुद्धि का उपयोग करो। मन के ऊपर बुद्धि है । *शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च |* *ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||* (भगवद्गीता 18.42) अनुवाद शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान,विज्ञान तथा धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्मकरते हैं | ब्राह्मणों के लक्षण या गुण शमह दमह , इंद्रिय निग्रह । इसको शमः दमः भी कहा है । जप के समय हमे यह प्रयास करना है जो हर रोज के चालू विषय है , उसका विचार ना करें , उसके प्रभावित ना हो । फिर आप पूछोगे फिर कैसे करें? या अभी मैं उत्तर देने वाला नहीं हूं , कठिन तो है । *चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |* *तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ||* (भगवद्गीता 6.34) अनुवाद हे कृष्ण! चूँकि मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है | इससे मन चंचल होता है । मन को स्थिर करना है , यह अभ्यास है कि अबकी जो मेरी स्थिति है , परिस्थिति है या जो ककैमटिक चेंजेस या कोरोनावायरस है या कुछ नौकरी चली गई , दिवाला निकल रहा है , इस तरह कई सारे या यह हुआ है , फैमिली रिलेशन में कुछ बिगाड़ आया है इस तरह कई सारे हजारों विषय होते ही है सोचने के लिए। ऐसा सुखदेव गोस्वामी ने कहा है सोचने के लिए हजारों विषय होते हैं और संक्षिप्त में इतना ही कहूंगा कि यह जो शिक्षाष्टक है जो चालू विचार है , विषय है कई सारी बातें हम को प्रभावित कर रही है । मेरा क्या होगा ? मेरे बारे में सोचो , उसका क्या होगा उसका क्या होगा उसका क्या होगा? सोचती फिर कांक्षति चलता है । उसके बारे में हम सोचते हैं या फिर लैविटेशन या फिर भविष्य में कुछ आकांक्षा है तो इसके ऊपर भी उठना है । भूतकाल और भविष्य काल मैं नहीं रहना है , वर्तमान काल में रहना है । उसके लिए फिर जो शिक्षाष्टक के विचार है , शिक्षाष्टक में जो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भाव व्यक्त कीये है , कई सारे भाव है । और भाव का समुद्र है या प्रेम का सागर है । वह दूसरे तीसरे विचार छोड़ने के लिए कुछ नए नए विचार तो मन में आने चाहिए तभी तो पुराने विचार या परेशान करने वाले विचारो को हम त्याग सकते हैं । हमको प्रयास करना है , अभ्यास करना है , आज की जो स्थिति है , परिस्थिति है , जिससे मन की स्थिति हुई है , चित्त वृत्ति निरोध करना है । स्थिर करना है , चित्त में विचलितता ना हो । शिक्षाष्टक के सहारे से हम यह कर सकते है , महाप्रभु ने जो दिए हुए विचार है जो निश्चित ही उच्च विचार हैं और जो बातें हमको नीच विचार , हो सकता है पाप बुद्धि के विचार हम को परेशान कर रहे हो , मुझे भी देखो , मुझे देखो, मुझे भी गले लगाओ , खाओ पियो आओ जाओ यह जो विचार परेशान करते रहते हैं , उसमें से कई सारे नीच विचार भी होते ही है । लो थिंकिंग या नो थिंकिंग के स्थान पर जो उच्च विचार है , श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के जो शिक्षाष्टक के उच्च विचार है वह विचारों से हमारा दिल, हमारा मन भर देना है , हमारी चेतना , भावना वह भाव से उदित हो सकते हैं । हम पुनः पुनः सोचेंगे तो हम उस भाव के उस विचारों से बन सकते हैं । विचारों को सुनेंगे , श्रवण करेंगे , मनन करेंगे कॉन्टेमिनेशन और फिर वह अब्सॉर्ब होगा जैसे ऑक्सीजन को ब्लड में अब्सॉर्ब करने की बाते आजकल चलती रहती है। हरी हरी । इस विचार का विचार में अब्सॉर्ब होना या उसको अंदर लेना । जैसे स्पंज होता है , जल को या कोई द्रव को कोई शाही को खींच लेता है और फिर उसी रंग का उसी स्वभाव का वह बन जाता है । स्पांज गिला ठंडा भी बन सकता है या नीला बन सकता है । चित्त वृत्ति निरोध है , चित्त की वृत्तियां है यह विचार शिक्षाष्टक के विचार है । *चेतो - दर्पण - मार्जन भव - महा - दावाग्नि - निर्वापणं श्रेयः कैरव - चन्द्रिका - वितरणं विद्या - वधू - जीवनम् आनन्दाम्बुधि - वर्धन प्रति - पद पूर्णामृतास्वादन सर्वात्म - स्नपन पर विजयते श्री - कृष्ण - सङ्कीर्तनम् ।।* (चैतन्य चरितामृत अंत 20.12) अनुवाद " भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतल और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बना। *नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति- स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।* *एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः।।* अनुवाद:- हे भगवान्‌! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्‌-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है। कई इस्कॉन टेंपल में प्रात काल में जप के पहले भी शिक्षाष्टक का पाठ होता है और फिर 10 नाम अपराध क्या है , 10 नाम अपराध का भी स्मरण दिलाया जाता है , जिसको हम 10 नाम अपराध कहते हैं। फिर *वांछा-कल्पतरूभयशच कृपा-सिंधुभय एव च पतितानाम पावने भयो वैष्णवे नमो नमः* *जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द । श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि-गौरभक्तवृन्द ॥* *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।* *हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।* आगे बढ़ता हैं । जप की शुरुवात शिक्षाष्टक के पाठ से होती है । उस विचार वाले हम बनेंगे । फ्रेश अभी-अभी पाठ किया , अभी-अभी स्मरण किया , आभी-अभी प्रार्थना की , *अयि नन्द - तनुज किङ्करं पतितं मां विषमे भवाम्बुधी ।* *कृपया तव पाद - पकज स्थित - धूली - सदृशं विचिन्तय ।।* (चैतन्य चरितामृत 20.12) अनुवाद " हे प्रभु , हे महाराज नन्द के पुत्र कृष्ण ! ' मैं आपका सनातन सेवक हूँ , किन्तु अपने ही सकाम कर्मों के कारण मैं अज्ञान के इस भयावह समुद्र में गिर गया हूँ । अब आप मुझ पर अहेतुकी कृपा करें । मुझे अपने चरणकमलों की धूलि का एक कण मानें । ' जप के समय ऐसे विचार करके भगवान से हम कहते हैं कि मैं ऐसे विचारों का हूं प्रभु और मुझे आपकी सेवा में लगाइए आपके चरणों की धूल बनाइए। *न धनं न जनं न सुंदरीं* *कवितां वा जगद्-ईश कामये* *मम जन्मनि जन्मनीश्वरे* *भवताद्‌भक्तिरहैतुकी त्वयि॥4॥* *अनुवाद:-) हे सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दरी स्त्री अथवा सालंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।* मुझे इसमें से कोई चीज नहीं चाहिए मुक्ति तो ले लो नही मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्‌भक्तिरहैतुकी त्वयि मुझे मुक्ति भी नहीं चाहिए फिर तुमको क्या चाहिए फिर भगवान पूछते हैं बता वो मुझे आपकी अहैतुकी भक्ति चाहिए। तो यह सारे जो शिक्षाअष्टक के मतलब भगवान के श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु के विचार यह उच्च विचार है। यह विचार सर्वोपरि है, और वो सूत्र रूप में है बहुत कुछ सूत्र इसमें भरा है। इन 8 पंक्तियों में 8 अष्टकों में है। यह जो चित्त वृत्ति निरोध करने के लिए चित्त की जो वृत्ति को निरोध हैं चित्त में उत्पन्न हो जाएगी प्रतियां है विचार है कहो या लहरे तरंगे है प्रतिक्रिया है जो वहां चल रहा है उसका प्रतिकार करना है उससे लड़ना है उस को परास्त करना है उन विचारों को परास्त करना है। उनको वहां से भगाना है मिटाना है। या उनको लेंटाना ना है मेक द फ्लाइट तरंगों को सीधा बनाना है यह करने के लिए हम भगवान की सहायता लेते है। और वो कैसे *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे* *हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* मदद करो मदद करो मदद करो देखो ये शत्रु ये शत्रु ये शत्रु यहां वह मदद करो मदद करो हरे कृष्ण हरे कृष्ण तो यह मदद करो मदद करो है भाव तो मदद करो ही है। तो हम नाम के शरण में भी जाते हैं। *नामाश्रय करी जतने तुम्ही* भगवान का आश्रय लिया हुआ है। *भगवद्गीता 7.14* *” दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |* *मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते || १४ ||”* *अनुवाद :- प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है | किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं |* जिसने भगवान की शरण ली हुई है। माया से वो लड़ सकते हैं माया से वो बच सकते हैं। तो इसी तरह हम को सक्रिय होना होगा ठीक है। *प्रश्न 1) अनिरुद्ध स्वरूप प्रभु जी ने पूछा हैं,* *जिस प्रकार शिक्षाष्टक में भक्ति के अलग अलग स्तर दिए गए है तो हम किस स्तर पर हैं यह कैसे समझें?* गुरुमहाराज ऊवाच:- जो अलग अलग स्तर है जैसे साधना भक्ति का स्तर है,प्रेमा भक्ति का स्तर है, तो हम किस स्तर पर है उसे कैसे समझें जब हम शिक्षाष्टक को समझ जाएंगे तो हम फिर देख सकते हैं या फिर एक भक्त ने कल के सत्र में अपना क्या अनुभव रहा हैं उसमें उन्होंने कहा था या उनको लगा कि है शिक्षाष्टक की जो बात है यह एक आईने की तरह है।जो हम सामने रखते तो पता चलता है कि देखो कितनी सारी गंधगी हैं ये देखो कितने सारे गंधे विचार तुम्हारे हॄदय में हैं।और आगे श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं क्या कह रहे हैं। *नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति- स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः। एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि* *दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥2॥* *अनुवाद:- हे भगवान्‌! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्‌-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है।* यह मेरा दुर्दैव हैं कि मुझे कोई अनुराग ही नहीं है। ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी अगर हम ईमानदार है तो फिर हम भी समझ सकते हैं हमारा भी ऐसे ही हाल है क्या हमारे में भी रुचि नहीं है। तो हम समझ सकते हैं यह आईना है। आप आईने में देख रही हो तब *नयनें गलदश्रु-धारया* *वदने गद्गद-रुद्धया गिरा।* *पुलकैर्निचितं वपुः कदा* *तव नाम-ग्रहणे भविष्यति ॥ 36॥* *अनुवाद :- हे प्रभु, कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए मेरे नेत्र प्रवहमान अश्रुओं से पूरित होकर सुशोभित होंगे? कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए दिव्य आनन्द में मेरी वाणी अवरूद्ध होगी और मेरे शरीर में रोमांच उत्पन्न होगा?'* तो कुछ अश्रुधारा तो दिख ही नहीं रही है। हरि हरि तो हम समझ सकते हैं कि हम किस स्तर पर है। या इसी तरह हमारे विचारों को हमारे विचार हमारे भाव को हम परख सकते हैं तुलना की दृष्टि से देख सकते हैं। फिर हम को पता चलेगा यह लगना चाहिए कि हम कहां है किस तरह किस सोपान पर है। कहां तक पहुंचे हुए महात्मा हम हैं पोहोंचे हैं या पहुंच नहीं रहे हैं, या फिर आप अपने वरिष्ठ भक्तों के साथ भी चर्चा कर सकते हो आपके शिक्षागुरु से भी बोल सकते हो। *ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति ।* *भुड.कते भोजयते चैब पडविरं प्रीति-लकषणम् ॥४॥* *अनुवाद:- दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं।* और फिर निष्कर्ष पर पहुंचो कि हम इस स्तर पर है, और यह जानना भी उपयोगी है। ताकि हम जो हमारी कमजोरी और ताकत हैं उसे जान सकें कि मैं यहां पर मजबूत हो या स्ट्रांग हु या फिर यहां मैं कमजोर हूं फिर हम उससे आगे की जो योजना है कैसे आगे बढ़ना है उसकी योजना बना सकते हैं। यह जानना अच्छा है इसको सिंहावलोकन भी कहते हैं। जैसे वन में सिंह जो वन के राजा केसरी उनकी खासियत है वह क्या कहते हैं सिंह सिंहावलोकन करते हैं। सिंह दौड़ता है कही जाता है फिर रुकता है और देखता है मैं कितनी दूर आया हूं मैं कहां हूं और मंजिल अभी कितनी दूर है। इसका अवलोकन करता है उस पर विचार करता है इसीलिए वह राजा है। लेकिन और जो कुत्ते बिल्ली चिड़िया खरगोश है या लोमड़ी जो होते हैं वानर होते हैं वह सिर्फ यहां से वहां जाते रहेते हैं वह सोचते नहीं है हम कहां से निकले थे कहा जा रहे हैं या हमारी जो स्पीड है वह बराबर चल रही है या बढ़ाना पड़ेगा या गिअर को बढ़ाना पड़ेगा या डायवर्जन लेना पड़ेगा या कोई खड़ा है खड़ा है या इधर से जाना होगा या रुक कर उस पर विचार करना होगा औऱ फिर आगे बढ़ना होगा यह सिंह करता रहता हैं। लेकिन अन्य जो पशु है उस पर विचार नहीं है उस पर सोचते नहीं है तो हम को पता लगवाना चाहिए कि हम किस स्तर पर पहुंचे हैं। *प्रश्न 2) संदीप प्रभु पूछ रहे है,हम दिन में जो भी कार्य करते हैं तो उस समय क्या हम भगवान का नाम स्मरण कर सकते हैं?* गुरुमहाराज ऊवाच:- हां हां क्यों नहीं या वही तो है *भगवद्गीता 18.65* *“मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |* *मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे || ६५ ||”* *अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |* लेकिन मन में जो हमारा जप तो होता ही हैं और जैसे कि हम कम से कम 16 माला का जप करते हैं या कई भक्त इससे ज्यादा माला जप करते हैं। वह जो मालाए है उन्हें मन में नहीं करनी है उसका उच्चारण करना है *प्रभुपाद जी ने मुझे ही कहा था कि जप करते समय जिव्हा पर कंपन होना चाहिए* जिव्हा हिलनी चाहिए होटो का उपयोग होना चाहिये और उसको सुनना चाहिए सुनने से हम अधिक प्रभावित होते हैं। यह जो श्रवण है वह बहुत ज्यादा शक्तिशाली है। कोई सोया है तो कोई कभी-कभी उसको कभी कभी हिलाया भी उसको स्पर्श किया तो वह जगेगा नहीं लेकिन उसका यदि जोर से नाम लिया जैसे गोविंदा या जो भी नाम है तो वह झट से उठेगा वैसे मुझे एक डॉक्टर ने भी कह रहे थे कि जब व्यक्ति मरणासन्न हो मरने जा रहा है अभी मर सकता है तभी मर सकता है तो यह मेडिकल फील्ड का उनका ऑब्जरवेशन निरीक्षण बता रहे थे यह शरीर धीरे-धीरे मृत्यु की अवस्था मे जाने लगता है अलग-अलग अवयव अलग-अलग इंद्रिय भी अभी काम नहीं करती है बंद हो जाता है पर आखरी जो अंग अच्छा या बचा हुआ होता हैं वो होता हैं सुनने का मतलब हमारे दो कर्ण है वो सचेत रहते हैं। यदि हम उसे स्पर्श करे तो उसको ध्यान नहीं होगा या उसको कुछ फूल वगैरा दे दो नाक के पास तो वह सुंग नही पाएगा उसको ज्ञान नहीं होगा या फिर उनकी आंखों के सामने उंगली करोगे और दिखाओगे कि बोलो कितनी उंगलियां है तो उत्तर नहीं देगा तो अधिकतर जो इंद्रिय है वह मृत अवस्था में ही होती है। लेकिन जो श्रवण इंद्रिया है सेंस ऑफ हियरिंग जो है वह कह रहे थे कि वह आखरी इंद्रिय है जो आखरी में मृत होता है। तो यह जो श्रवण है श्रवण से हम अधिक से अधिक प्रभावित होते हैं। एक समय तो रेडियो चलता था और ऑडियो चलता था लेकिन जब ऑडियो और वीडियो टेलीविजन में आया गया फिर यह संसार अधिक प्रभावित होने लगा ऑडियो चल रहा था और वीडियो के साथ ऑडियो भी है। तो यह जो हियरिंग है इस कलीयुग में हमारा जो चित्तवृत्ति निरोध करना है चित्त में जो कई सारे विचार उत्पन्न हो रहे हैं उसको चुप करना है चुप बैठो ये मन तुम चुप बैठे हो यह जो ध्वनि है हरे कृष्ण हरे कृष्ण सुना सकते हो उस मन को तो फिर वह चित्त वृत्ति विरोध करने में उनको मदद करेगा और जो विचार हैं विचार में रोकथाम डाली जा सकती है। उनको परास्त किया जा सकता है। साउंड इज वेरी पावरफुल ध्वनि से ही शुरुआत में ध्वनि होती है ऐसा शास्त्रों का सिद्धांत है बाइबल में भी ध्वनि का उल्लेख हैं। कलीयुग में यह मन में जप करने का विधि नहीं है या है भी तो हमारे के लिए नहीं है साधकों के लिए के लिए नहीं है वो केवल हरिदास ठाकुर के जैसे भक्तों के लिए है। तो हमारे लिए उसे उच्च स्वर से या करे याफिर कीर्तन करे तो उसमे स्वर होता है ताल होता है और वाद्य भी होते हैं। हमे जप के समय उच्चारण करना चाहिए ताकि हमारे मन में जो कुछ हो रहा है उससे ऊपर आसके उसमें परिवर्तन लाना है क्रांति करनी है यह जो ध्वनि है हमें ले जा सकता है। *नाम्नामकारि बहुधा निज - सर्व - शक्तिस् तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः । एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ।। 16 ।।* *अनुवाद:- " हे प्रभु , हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् , आपके पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है , अत : आपके अनेक नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविन्द , जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं । आपने अपने इन नामों में अपनी सारी शक्तियाँ भर दी हैं और उनका स्मरण करने के लिए कोई निश्चित नियम भी नहीं हैं । हे प्रभु , यद्यपि आप अपने पवित्र नामों की उदारतापूर्वक शिक्षा देकर पतित बद्ध जीवों पर ऐसी कृपा करते हैं , किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय अपराध करता हैं , अतः मुझ में जप करने के लिए अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता है ।* सारी शक्ति जो है उसका नाम में उपयोग होगा या तो दिन में वैसे आप मन में नाम स्मरण कर सकते हो या जप कर सकते हो और वैसे भी कहां है की *हाथ में काम मुख में नाम* हो भगवान का नाम लेते हुए काम करो या अर्जुन को भगवान ने कहा है। *भगवद्गीता 8.7* *“तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च |* *मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः || ७ ||”* *अनुवाद:- अतएव, हे अर्जुन! तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिन्तन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा करना चाहिए | अपने कर्मों को मुझे समर्पित करके तथा अपने मन एवं बुद्धि को मुझमें स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे |* यह व्यवहारिक बात है और संभव होनी चाहिए या इसी लिए भगवान भगवद्गीता में कह रहे हैं *मामनुस्मर युध्य च* दो कार्य करो एक ही साथ दो कार्य करो कौनसे दो कार्य माम अनुस्मरन मेरा स्मरण करो वैसे उल्टा कहना चाहिए था युद्ध करो कैसे मेरा स्मरण करते हुए केवल युद्ध ही नहीं करना *भगवान ने अर्जुन से कहा मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करोगे तो यह भक्ति योग हुआ* या जो तुमने किया जो *“यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् |* *भगवद्गीता 9.27* *“यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् |* *यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् || २७ ||”* *अनुवाद:-हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अर्पित करते हुए करो |* वह सेवा कार्य या कार्य का फल भी तुमने मुझे अर्पित किया मुझे स्मरण करते हुए तुमने यदि कार्य किया तो वैसे यही तो करना है दोनों साथ में करना है केवल स्मरण भी कर सकते हैं। लेकिन कार्य के साथ भी स्मरण करना है। योगस्त कुरु कर्माणि गीता में भगवान ने कहा है योग में स्थित हो जाओ या कृष्णभावना में स्थित हो जाओ और फिर कार्य करो ठीक है हम यहां रुकते हैं और आगे के जिन भक्तों के प्रश्न हैं उनके आगे हम उत्तर देने का प्रयत्न करेंगे। हरे कृष्ण🙏🏻

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