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हरे कृष्ण! जप चर्चा पंढरपुर धाम से, 29अक्टूंबर 2020 आज 794 स्थानो सें भक्त हमारे साथ जप कर रहे हैं। स्वागत है। सुप्रभातम्! गुड मॉर्निंग! मॉर्निंग को आप गुड बना रहे हो या बेटर बना रहे हो हरि हरि! जप करके, जप यज्ञ करके, हरि हरि! I तृणादपि सु - नीचेन तरोरिव सहिष्णुना अमानिना मान - देन कीर्तनीयः सदा हरिः।। ( चैतन्य चरित्रामृत मध्य लीला अध्याय17 श्लोक1) अनुवाद " जो अपने आपको घास से भी अधिक तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है और जो किसी से निजी सम्मान की अपेक्षा नहीं रखता , फिर भी दूसरों को सम्मान देने के लिए सदा तत्पर रहता है , वह सरलता से सदा भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन कर सकता है । " कीर्तनीय सदा हरी हो रहा था। सदैव जप करो, सदैव कीर्तन करो! हरेर्नाम हरेर्नाम हरे मैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥ ( श्री चैतन्य चरित्रामृत, मध्य लीला अध्याय6 श्लोक242) अनुवाद " इस कलियुग में आत्म - साक्षात्कार के लिए भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है । " नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया । भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी।। ( श्रीमद भगवतम, स्कंध9, अध्याय4, श्लोक18) अनुवाद:-भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है । हर्रेनाम हर्रेनाम हर्रेनाम मैव केवलम् के साथ-साथ नित्यं भागवत सेवया भी कहां है उसको भी करो, सदैव। कीर्तनीय सदा हरी और नित्यम भागवत सेवया। यह कैसे संभव है?कीर्तन भी करे सब समय। अखंड हो! और नित्यम भागवत सेवया सें अब भागवत कि सेवा भी भागवत का श्रवण भी भागवत कि सेवा भी श्रवण भी नीत्य हो।इन दोनों में कोई अंतर नहीं है ऐसा ही समझना होगा। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। यह अगर कीर्तन हैं।किर्तनीय सदा हरी श्रीमद् भागवत भी कीर्तन ही हैं। भगवान की किर्ति भी हैं। भगवान के नाम रूप गुण लीला का कीर्तन शुकदेव गोस्वामी गाये हैं। वैसे इसलिए भी शुकदेव गोस्वामी को कीर्तन के आचार्य कहते हैं। कीर्तन के आचार्य कैसे हो गए वो तो भागवत की कथा सुनाते है, सुनाएं हैं। भागवत कीर्तन ही हैं। हरि हरि! हम दोनों ही करते हैं। दोनों करके एक ही करते हैं वैसे कीर्तन भी करते हैं। जप भी करते हैं और श्रीमद्भागवत कथा का श्रवण भी करते हैं। हरि हरि! निरोधोऽस्यानुशयनमात्मनः सह शक्तिभिः। मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्व - रूपेण व्यवस्थितिः।। (श्रीमद्भागवतम् स्कंध 2 अध्याय 10 श्लोक 6) अनुवाद:-अपनी बद्धावस्था के जीवन -जय सम्बन्धी प्रवृत्ति के साथ जीवात्मा का शयन करते हुए महाविष्णु में लीन होना प्रकट ब्रह्माण्ड का परिसमापन कहलाता है । परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर जीवात्मा के रूप की स्थायी स्थिति ' मुक्ति ' है । मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्व - रूपेण व्यवस्थितिः।। श्रील शुकदेव गोस्वामी श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कंध में मुक्ति की परिभाषा समझा रहे हैं। क्या है मुक्ति? कैसे मुक्ति को प्राप्त करें? उनका तो कहना है कि जब हम भक्त बनेंगे तो फिर हम मुक्त भी होंगे। भक्त मुक्त होता है या भक्त बने बिना व्यक्ति मुक्त नहीं होता या पुर्णतः मुक्त नहीं होता।शुकदेव गोस्वामी ने कहा मुक्ति क्या है? हित्वा अन्यथा, हित्वा मतलब त्याग कर। अन्यथा रूपम और जो रूप है शरीर है इन को त्याग कर सारे शरीरों को त्याग कर वो कई प्रकार के हैं। वैसे मुक्ति तो हम मनुष्य शरीर में ही प्राप्त कर सकते हैं। वैसे और कुछ अपवाद भी है,किंतु यह कार्य संभव या संपन्न होता है मुक्त होने का मनुष्य जीवन में ही यह संभव हैं। र्हित्वान्यथारूपं जहां तक रूप की बात है या शरीर की बात है फिर हमको हरि हरि! हमारा लिंग शरीर भी हैं। यह स्थूल शरीर हैं। इस स्थूल शरीर को तो हम कई बार त्याग ते तो हैं। इसी को मृत्यु कहा जाता हैं। लेकिन केवल स्थूल शरीर को त्यागने से मृत्यु होने से हम मुक्त नहीं होतें। शुकदेव गोस्वामी क्या कह रहे है? र्हित्वान्यथारूपं तो फिर हमको लिंग शरीर को भी त्यागना होगा। इस सूक्ष्म शरीर के बंधनों से भी मुक्त हो ना होगा। ये लिंग शरीर या सूक्ष्म शरीर क्या हैं? मन बुद्धि अहंकार से बनता है यह सूक्ष्म शरीर। इतना सूक्ष्म अति सूक्ष्म है इसीलिए डॉक्टर या सर्जन उन्हें भी नहीं दिखता है यह सूक्ष्म शरीर या माइक्रोस्कोप सूक्ष्मदर्शक यंत्र से भी वे देख नहीं पाते। इतना सूक्ष्म है यह मन,बुद्धि,अहंकार से बना हुआ शरीर, लिंग शरीर या सूक्ष्म शरीर। इस सूक्ष्म शरीर के बंधनों से भी मुक्त होना होगा। पूर्णतः मुक्त होने के लिए। पूर्णतः मुक्त होने के लिए इस मन, बुद्धि, अहंकार वाले शरीर से मुक्त होना होगा इसलिए भी कहा हैं। मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्तं मुक्तं निर्विषयं स्मृतम्।। (अथर्ववेद से अमृतबिन्दुउपनिषद श्लोक 2) अनुवाद:-केवल मन ही लोगों के बंधन और मुक्ति का कारण है। जब वस्तुओं से जुड़ा होता है, तो यह बंधन की ओर जाता है। वस्तुओं से मुक्त होने पर, यह मुक्ति की ओर ले जाता है। कारणं बन्धमोक्षयोः मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । मन ही तो है मनुष्य के बंधन का कारण और मुक्ति का कारण भी मन बन सकता हैं। बंधन का कारण तो बना हुआ है ही मन, लेकिन मुक्ति का कारण भी बन सकता है मन। सेवाई मन: कृष्ण पदारविंदयो ऐसे कुल शेखर ने कहा है एक आदर्श साधक और प्रसिद्ध भक्त भी रहे हैं। वह कह रहे हैं सेवाई मन: कृष्णपदारविंदयो पद -अरविंद, मैं अपने मन से सदैव भगवान के चरणारविंद का स्मरण करता हूंँ। ध्यान करता हूँ। तदा पश्यन्ति सुरया सब समय देखते हैं भगवान का परमधाम और फिर भगवान का रूप का दर्शन भी करते हैं। मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । फिर मन मुक्त हुआ। मन से भगवान का ध्यान कर रहे हैं। मन बुद्धि अहंकार। बुद्धि दी भगवान ने हम फिर साधना कर रहे हैं। साधक बने हैं तो भगवान बुद्धि भी देंगे सद्बुद्धि मिलेगी इस बुद्धि का उपयोग तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् | ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || (श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 10 श्लोक 10) अनुवाद:-जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं | ऐसी बुद्धि विनाश काले विपरीत बुद्धि बुद्धि के भी दो प्रकार या दो प्रकार के लोग हैं। कोई बुद्धिमान सचमुच बुध्दिमान या फिर बुध्धु। बुध्धु तो बंधन में होते हैं बंधे होते हैं और जब व्यक्ति बुद्धिमान बनता है भगवान बुद्धि देते हैं।जो हृदय प्रांगण में भगवान विराजमान होते हैं सर्वस्य चाहे हृदि सन्निविष्टो मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। वेदैचश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृव्देदविदेव चाहम्।। (श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 15 श्लोक 15) अनुवाद: - मैं प्रत्येक जीव के ह्रदय में आसीन हूं और मुझसे ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है। मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूंँ। निस्संदेह मैदान का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जाने वाला हूंँ। मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। भगवान ने कहा है।श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 15 श्लोक 15। मैं सबके ह्रदय प्रांगण में विराजमान हूं और मुझसे ही मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। मुझे से ही स्मृति प्राप्त होती है जीव को।मैं ही देता हूं स्मृति या बुद्धि या स्मरण। मेरा ही स्मरण मै ही देता हूँ जीव को। ऐसा दिमाग ऐसी बुद्धि ऐसे विचार उच्च विचार मैं देता हूं जीव को भगवान कहते हैं ऐसे विचार वाले हम बुद्धिमान बन गये इसके साथ हम क्या कर रहे हैं? र्हित्वान्यथारूपं मन जो कलुषित, दूषित मन या चंचल मन हमने त्याग दिया उससे मुक्त हुए। अब ए दिव्य मन कहिए वैसे बुद्धि भी कहिए सांसारिक विचार त्याग दिया भोग विलास के विचार या हरि हरि! विपरीत बुद्धि को त्याग दिया विनाश काले विपरीत बुद्धि हमारा विनाश करने वाली बुद्धि को जो है र्हित्वान्यथारूपं मुक्त हो रहे हैं। मन से मुक्त हो रहे हैं या मन को त्याग दिया दूषित मन को या भौतिक मन को प्राकृतिक मन को, उसी प्रकार प्राकृतिक बुद्धि को को भी त्याग दिया। दिव्य बुद्धि को प्राप्त किया। मन, बुद्धि और अहंकार फिर अहंकार से भी मुक्त हुए और अब हम समझ रहे हैं। अहम् या अहंकार... भगवान कृष्ण ने कहा प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः | अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते || (श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 27) अनुवाद :-जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं | विमूढात्मा, मुरख, पागल, गधा कहीं का, कोई दिमाग ही नहीं होता जब बुद्धि नहीं होती या जड़ बुद्धि वाला वह क्या सोचता हैं? कर्ता अहम् मैं करता हूंँ। मैं कर्ता हूँ। वैसे कोई करवा रहा है कर्ता करविता तो और कोई है।हे भगवान की प्रकृति है प्रकृति के ऊपर भगवान कि अध्यक्षता हैं।भगवान ही करा रहे हैं।प्रकृति के माध्यम से या फिर बीच में देवताओं को भी डाल देते हैं और हमारे सारे कार्यकलाप प्रकृते: क्रियमाणानि प्रकृति ही करती है करवाती है हमसे सारे कार्य लेकिन विमूढात्मा कर्ता अहम् मै कर रहा हूँ। उसका जो अहंकार है मैं कर रहा हूं अहम् अहम्, मैं- मै इस से मुक्त होना हैं।वो भी एक अच्छा उदाहरण हैं। या आप देखे होंगे जरूर देखे होंगे। या आप भारत के निवासी हो या आप कभी ग्रामीण क्षेत्र में भी गए होंगे तब आप ने बैलगाड़ी भी देखी होंगी बैलगाड़ी में कभी-कभी बहुत सारा माल सामान्य हो सकता है कोई फसल या धान डाल देते हैं भर देते हैं और उस गाड़ी को बैल खींचते रहते हैं कभी-कभी कोई कुत्ता आ जाता है और बैलगाड़ी गाड़ी के नीचे दोनों पैय्यो के बीच में कुत्ता चलता रहता है बैल भी चल रहे हैं।बैल खींच रहे हैं बैलगाड़ी आगे बढ़ रही है लेकिन जब बैलगाड़ी के नीचे जो कुत्ता है वह सोचता है कि वैसे बैलगाड़ी तो मैं ही खींच रहा हूंँ। यह भ्रम है यह है माया यह है कर्ताहमिति मन्यते का एक ज्वलंत उदाहरण कहो।वैसे कुत्ता सोच सकता है। मैं इसको खींचने वाला हूंँ। मेंरे कारण ये गाड़ी आगे बढ़ रही हैं। हकीकत तो और ही हैं बैल खींच रहे हैं, तो यह जो हंकार है। तो इस* अहंकार को त्याग कर वैसे अहम हैं लेकिन फिर अहम् दासोस्मी मैं भगवान का दास हूंँ। (जीव) कृष्णदास, ए विश्वास, कर्’ ले त’ आर दुःख नाइ (कृष्ण) बल् बे जबे, पुलके ह’बे झ’र्बे आँखि, बलि ताइ॥2॥ ( राधा कृष्ण बोल बोल वैष्णव वैष्णव गीत शीला भक्ति विनोद ठाकुर विरचित) अनुवाद:-परन्तु यदि मात्र एकबार भी तुम्हें यह ज्ञान हो जाए कि 'मैं कृष्ण का दास हूँ' तो फिर तुम्हें ये दुःख-कष्ट नहीं मिलेंगे तथा जब 'कृष्ण' नाम उच्चारण करोगे तो तुम्हारा शरीर पुलकित हो जाएगा तथा आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगेगी। जीव को विश्वास होगा कि मैं जो जीव हूं मैं कृष्ण दास हूंँ ऐसा विश्वास, ऐसा साक्षात्कार, ऐसा आत्मसाक्षात्कार। खुद को समझो पहचानो। के आमी जैसे सनातन गोस्वामी भी पूछ रहे थे मैं कौन हूंँ? केने आमाय जेये कापत्राय हरि हरि! ये नहीं के अहम् नहीं हैं। अहम है मतलब मैं। यह नहीं कि मैं नहीं हूं मैं हूंँ लेकिन मैं कौन हूंँ? सचमुच कौन हूंँ! इस बात को जब हम समझेंगे तो फिर जो झूठा अहम है, अहंकार है।अहङकारविमूढात्मा इस विचार से मुक्त होंगे। इस प्रकार र्हित्वान्यथारूपं तो यह लिंग शरीर या सूक्ष्म शरीर से भी हम मुक्त हुए इसको त्याग दिए। इसका बंधन नहीं रहा और फिर शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा फिर क्या होगा? स्व - रूपेण व्यवस्थिति:" फिर हमारा या आत्मा का जो हम आत्मा है या कृष्णदास हैं। स्व - रूपेण व्यवस्थिति: अपने स्वरूप में। पहले तो कहा कि, र्हित्वान्यथारूपं और- और जो रूप हम धारण करते रहते हैं। और -और शरीर जो हम धारण करते हैं।नाना प्रकार की योनिया भी हैं। मनुष्य शरीर भी हैं। उसको भी त्याग कर र्हित्वा- त्याग कर ठुकरा कर और फिर हमने यह समझाने का प्रयास किया है कि असली बंधन तो या बध्दता तो इस लिंग शरीर के कारण है क्योंकि मृत्यु के समय तो इस शरीर को हम त्यागते तो हैं किंतु ये जो मन, बुद्धि, अहंकार का बंधन या पकड तो बनीं रहती हैं। जीवात्मा जो मन,बुद्धि,अहंकार बंधन में रहता है वहीं अगले शरीर में प्रवेश करता हैं। अगले स्थूल शरीर में प्रवेश किया किसने आत्मा ने भी किया और आत्मा के ऊपर जो मन बुद्धि अहंकार वाला जो शरीर है लिंग शरीर उसी के साथ प्रवेश करता हैं। उनको मन, बुद्धि, अहंकार वाले शरीर से या रुप से भी मुक्त होना हैं। र्हित्वान्यथारूपं उस स्थूल रुपं, सुक्ष्म रुपं, र्हित्वा- त्याग कर स्व रुपेण अपना तो रुप है संसार के प्रकृति के दिए इतने सारे रूप है इतनी सारी योनियाँ है कि दुनिया हैं। सूक्ष्म शरीर भी एक रूप हैं। सूक्ष्म रूप है यह सब त्याग कर स्व - रूपेण व्यवस्थिति: अपने स्वरूप में हम स्थित हो जाएंगे। स्वरूप में आत्मा का अपना स्वरूप हैं। आत्मा का रूप हैं। आत्मा का फॉर्म हैं। आत्मा का खुद का मन बुद्धि हैं। आत्मा के अपने अवयव हैं। हाथ पैर हैं। आत्मा का आप सेल्फी खींच सकते हो या तो कृष्ण के साथ भी फोटो खींचा जा सकता है और जिनको हम देखते हैं भगवान को अपने मित्रों के साथ या माता पिता के साथ गोपियों के साथ या फिर गाय भी है कुछ बछड़े भी है वे भी उनके रूप हैं। कई सारे उनके रूप हैं। वैसे ही रूप वाले हम भी हैं। जीव का वैसा ही रूप है जैसा हम कृष्ण के सर्वांग सुंदर रूप का हम दर्शन करते हैं और साथ ही साथ कृष्ण जिनके साथ लीला खेलते है उन भक्तों के रूप उनके शाश्वत रूप है या वे ऊन रुपो को ही तो कहा है स्व - रूपेण व्यवस्थिति: वह स्थित हुए अपने स्वरुप में और उनका भगवान के साथ विशेष संबंध भी हैं। हर रूप का भगवान के साथ अलग-अलग संबंध हैं। अलग-अलग रस हैं। कृष्ण दास्य रस,साख्य रस, वास्यल्य रस। वैसे नाम भी है और फिर हर जीव का जब अपने स्वरूप में वह जाता हैं। अपनी उसकी वेशभूषा भी हैं। उसका नाम भी हैं। उसका काम भी हैं। एक निश्चित काम हैं। निश्चित सेवा हैं। एक निश्चित सेवा हैं। शाश्वत सेवा है भगवान के संबंध मे... मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्व - रूपेण व्यवस्थितिः ॥ जब व्यक्ति अपने स्वरूप में स्थित होगा और फिर जब... जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः | त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन || (श्रीमद् भगवद्गीता अध्यय 4 श्लोक 9) अनुवाद: -हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है | त्यक्त्वा देहं अपने शरीर को त्याग दिया मृत्यु हुई उसका जो स्व - रूपेण व्यवस्थितिः उसका जो आत्मा है अपने स्वरूप में स्थित हुआ हैं। उसका क्या होगा? भगवत धाम लौटेगा या त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति पुनर्जन्म नहीं, नहीं होगा। मामेति मैं जहां रहता हूं वहां आएगा। मुझे प्राप्त होगा ऐसा भगवान ने भगवद् गीता में अर्जुन से कहा हैं। हरी हरी! This is food for thought for the day(धीस इज फुड फाँर द डे) ये विचार चिंतन के लिए विषय हैं। इसका चिंतन कीजिएगा। मन में बिठाईए। गीता में भागवत में आप पढ़ सकते हो और भी कोई शोध संशोध इसके संबंध में हो या साधु शास्त्र आचार्य के प्रमाण वचन हैं। उनको भी प्राप्त करके खोज के पढ के और इस चिंतन को मनन को आगे बढ़ाया जा सकता हैं। आपका प्रश्न है तो आप लिख लो मैंने कहा आपका कोई विचार है कोई बात आपको समझ में आई कुछ अनुभव हुआ उसको भी लिख सकते हो। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। कार्तिक मास भी आ रहा हैं। कल वर्चुअल ऑनलाइन ब्रजमंडल परिक्रमा कल से प्रारंभ हो रही हैं। कल होगा अधिवास। अधिवास शुभारंभ और फिर प्रतिदिन परिक्रमा आपको सूचना मिलेगी कल सायंकाल 4:00 बजे तक। कल सायंकाल 7:00 बजे से प्रतिदिन सायंकाल 7:00 बजे से आप वृंदावन पहुंच सकते हो और वृंदावन निवास कर सकते हो। परिक्रमा करोगें, दर्शन होंगे, स्नान होगा, मानसिक स्नान होगा। परिक्रमा ब्रज मंडल परिक्रमा के अंतर्गत गोवर्धन परिक्रमा है फिर राधा कुंड परिक्रमा है फिर बरसाना परिक्रमा हैं। ये सब परिक्रमा के अंदर विभिन्न परिक्रमा चलती रहेगी हरि हरि! नाउ गेट रेडी!( तो तैयार हो जाओ!)बहुत बड़ा व्रत कार्तिक व्रत प्रारंभ होने जा रहा है और यह महान पर्व हैं। वैसे वर्ष भर में आने वाले पर्वो में ये एक नामी पर्व हैं। कार्तिक पर्व या दामोदर मास इस महीने में कई सारी भगवान की लीला और कई सारे उत्सव संपन्न होंगें। शरद पूर्णिमा से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक गोवर्धन पूजा होगी। दामोदर अष्टक होगा। गोपाष्टमी होगी। बहूलाष्टमी होगी। श्रील प्रभुपाद का तिरोभाव महोत्सव संपन्न होगा। साथ में रहो परिक्रमा का साथ दो। प्रतिदिन घर बैठे बैठे आपको ना तो हिलने की ना तो डुलने की आवश्यकता हैं। ना तो ट्रेन बुकिंग ना प्लेन बुकिंग। रिलैक्स...हरि हरि! *मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्व - रूपेण व्यवस्थितिः ॥ आपको अपने स्वरूप में स्थित होने के लिए मदद करेगी यह ब्रजमंडल आँनलाइन परिक्रमा या ब्रजवास और श्रवण किर्तन आप कर पाओगे। साधु संग भी होगा। भागवत कथाएं भी होंगी। किर्तन भी होगा।मथुरा वास, वृंदावन वासऔर विग्रह आराधना ये जो प्रोग्राम साधन है आज मुख्य साधन इसकी साधना भी होगी। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। ओके(ठीक हैं) ! जिनको लिखना था या तो प्रश्न या आपके अनुभव की बात लिखें ही होंगे ऐसी आशा करते हुए हम यहा रुक जाते हैं। हरि हरि! जपा टाँक सेशन तो थोड़ा समय पर रोकना है! ओके(ठीक हैं)! तो जप करो! बचा हुआ जप करो और व्यस्त रहो! अपने अपने स्वरूप में स्थित हो जावो। हरे कृष्ण...!

English

29 October 2020 Situate yourself in original Identity as 'eternal Krsnadas'. Hare Krsna! Nitai Gaura premanande Hari Hari bol! We have participants from 790 locations. Welcome and good morning! You are making your morning good by performing japa yajna. That was kirtaniyah sada harih that is, chanting the holy name of the Lord constantly. harer nāma harer nāma harer nāmaiva kevalam kalau nāsty eva nāsty eva nāsty eva gatir anyathā TRANSLATION In this age of quarrel and hypocrisy, the only means of deliverance is the chanting of the holy names of the Lord. There is no other way. There is no other way. There is no other way. (CC Madhya 6.242) naṣṭa-prāyeṣv abhadreṣu nityaṁ bhāgavata-sevayā bhagavaty uttama-śloke bhaktir bhavati naiṣṭhikī TRANSLATION By regular attendance in classes on the Bhāgavatam and by rendering of service to the pure devotee, all that is troublesome to the heart is almost completely destroyed, and loving service unto the Personality of Godhead, who is praised with transcendental songs, is established as an irrevocable fact. (ŚB 1.2.18) It is said that we have to serve Śrīmad Bhāgavatam and perform kīrtana always without any break. How is that possible, both simultaneously and also always? The fact is that both are the same. Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare If Hare Krsna Mahā-mantra is a kīrtana, then Śrīmad Bhāgavatam is also a kīrtana, song of glories of the Lord. Śukadeva Goswami has sung the glories of name, form, qualities, pastimes and abode of the Lord. Studying Śrīmad Bhāgavatam is also a kīrtana. That is why Śukadeva Goswami is called the Ācārya of Kīrtana Bhakti. We do both, kīrtana and studying of the Śrīmad Bhāgavatam. nirodho ’syānuśayanam ātmanaḥ saha śaktibhiḥ muktir hitvānyathā rūpaṁ sva-rūpeṇa vyavasthitiḥ TRANSLATION The merging of the living entity, along with his conditional living tendency, with the mystic lying down of the Mahā-Viṣṇu is called the winding up of the cosmic manifestation. Liberation is the permanent situation of the form of the living entity after he gives up the changeable gross and subtle material bodies. (ŚB 2.10.6) Śrīla Śukadeva Goswami is explaining the definition of liberation (mukti) in the 2nd canto of ŚB. How to attain liberation? He says that a devotee is always liberated. Without becoming a devotee, one cannot be liberated. Liberation is hitvānyathā rūpaṁ, where hitvā means - giving up. Therefore, liberation is possible after giving up all the bodies. Liberation can be obtained only in human life. We have a physical or gross body which we give up several times again and again. But simply giving up this gross body, one does not get liberated. There is another body, the subtle body. It is made up of mind, intelligence and false ego. One has to be freed from this body also to get liberated. Doctors also have not seen yet this subtle body. mana eva manuṣyāṇāṁ kāraṇaṁ bandha-mokṣayoḥ bandhāya viṣayāsaṅgo muktyai nirviṣayaṁ manaḥ TRANSLATION For man, mind is the cause of bondage and mind is the cause of liberation. Mind absorbed in sense objects is the cause of bondage, and the mind detached from the sense objects is the cause of liberation. (Currently mind is the cause behind our bondages. But the same mind can also be the cause of our liberation.) sa vai manaḥ kṛṣṇa-padāravindayor vacāṁsi vaikuṇṭha-guṇānuvarṇane karau harer mandira-mārjanādiṣu śrutiṁ cakārācyuta-sat-kathodaye TRANSLATION Mahārāja Ambarīṣa always engaged his mind in meditating upon the lotus feet of Kṛṣṇa, his words in describing the glories of the Lord, his hands in cleansing the Lord’s temple, and his ears in hearing the words spoken by Kṛṣṇa or about Kṛṣṇa. This is the way to increase attachment for the Lord and be completely free from all material desires. (ŚB 9.4.18) om tad vishnoh paramam padam sada pashyanti surayo diviva chakshur-atatam tad vipraso vipanyavo jagrivamsaha samindhate vishnor yat paramam padam TRANSLATION Just as the sun's rays in the sky are extended to the mundane vision, so in the same way the wise and learned devotees always see the supreme abode of Lord Vishnu. Because those highly praiseworthy and spiritually awake brahmanas are able to see the spiritual world, they are also able to reveal that supreme abode of Lord Vishnu. (Rig Veda 1.22.20) Devotees always see the form and abode of the Lord. If we engage our mind in Krsna always, then we get liberated. teṣāṁ satata-yuktānāṁ bhajatāṁ prīti-pūrvakam dadāmi buddhi-yogaṁ taṁ yena mām upayānti te TRANSLATION To those who are constantly devoted to serving Me with love, I give the understanding by which they can come to Me. (B.G. 10.10) Krsna gives us the right intelligence. There is intelligence and foolishness (vinash kale viprit buddhi). Foolishness results in bondages. sarvasya cāhaṁ hṛdi sanniviṣṭo mattaḥ smṛtir jñānam apohanaṁ ca vedaiś ca sarvair aham eva vedyo vedānta-kṛd veda-vid eva cāham TRANSLATION I am seated in everyone’s heart, and from Me come remembrance, knowledge and forgetfulness. By all the Vedas, I am to be known. Indeed, I am the compiler of Vedānta, and I am the knower of the Vedas. (B. G.15.15) The intelligence is given by Krsna so that we can give up our gross and subtle bodies and get liberated. We must give up all thoughts that are of desire for sense gratification as they entangle us into bondages. prakṛteḥ kriyamāṇāni guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ ahaṅkāra-vimūḍhātmā kartāham iti manyate TRANSLATION The spirit soul bewildered by the influence of false ego thinks himself the doer of activities that are in actuality carried out by the three modes of material nature. (B.G.3.27) vimūḍhātmā means bewildered soul. This gives us the feeling of the doership. We start having the feeling that I am the doer. This develops the false ego. Whereas the fact is that Krsna is the actual doer through material nature. We have to get liberated from false ego. You must have seen a loaded bullock cart many times. It is heavily loaded and pulled by the bullocks. Sometimes a dog comes and starts walking under the cart, between it's wheels. Now if the dog thinks that I am so strong that I am carrying so much weight then it is false doership. False Ego means Ahankar, where Aham means I. Ahankar means the feeling that I am the doer, I am the controller, I am the owner and enjoyer. Whereas real ego is Aham dashoshmi, that is, I am the servant of the Lord. yeh jiva krishna dāsa ehi vishwaas karlo to dukh na hoi We have to realize that we are servants of the Lord. ‘ke āmi’, ‘kene āmāya jāre tāpa-traya’ ihā nāhi jāni — ‘kemane hita haya’ TRANSLATION Who am I? Why do the threefold miseries always give me trouble? If I do not know this, how can I be benefited? (CC Madhya 20.102) Sanātana Goswami asked, "Who am I?" When we understand the real aham, I or real ego, we will get rid of false ego (ahankar). Śukadeva Goswami says hitvānyathā rūpaṁ, that giving up all the physical bodies at death is not enough to be liberated. The subtle body made up of 'mind, intelligence and false ego' is also to be given up. It is then only sva-rūpeṇa vyavasthitiḥ, that we can know and see the actual form of our soul. The soul has its form and qualities. Any soul, irrespective of what body it has been given, has eternal form. This is our original form. This is svarupa. The associates of the Lord are situated in their original eternal form. We are also of the same form. Every soul has a different eternal relation with the Lord namely dāsya rasa, sākhya rasa, vātsalya rasa. Soul has its own eternal name, form and services to the Lord. janma karma ca me divyam evaṁ yo vetti tattvataḥ tyaktvā dehaṁ punar janma naiti mām eti so ’rjuna TRANSLATION One who knows the transcendental nature of My appearance and activities does not, upon leaving the body, take his birth again in this material world, but attains My eternal abode, O Arjuna. (B.G. 4.9) He, whose soul is situated in its original form after giving up both gross and subtle bodies and who knows the appearance and activities of the Lord and leaves his body, can go back home back to godhead. This is food for thought for the day. Contemplate on this topic during the day. You can read Bhagavad-gītā and Śrīmad Bhāgavatam. Listening has to be followed by contemplation & reflection. One must have a vigorous thinking so as to apply it to his life. If anyone has any questions, realizations or comments then you may write it down in the chat. Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare The month of Kārtika is going to start. The virtual Braj Mandal Parikrama is also going to start from tomorrow. Tomorrow will be the adivāsa ceremony and day after tomorrow the Parikrama shall start from 7pm. This virtual Parikrama will have so many benefits. You will be able to reach Vrindavan through this virtual parikrama. You'll have different darshan's, snāna, celebrations, Govardhan parikrama, etc. This will be a great festival. There will be many celebrations like Damodarshtak, Gopashtami, Bahulashtami, Govardhan Puja, Śrīla Prabhupāda disappearance day, etc. in this month. This will help us to be situated in our original identity. Sādhusanga, kīrtana, virtual residence in the holy Dhama, hearing Bhāgavata katha, deity worship, etc will be available. We shall stop here. We will try to end the session timely. Chant and remain busy. Stay in your original identity. Hare Krsna!

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