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जप चर्चा,
19 फरवरी 2021,
पंढरपुर धाम.
हरे कृष्ण, 564 स्थानों से भक्त के लिए जुड़ गए हैं। हमने सोचा तो यही था कि गोस्वामी वृंदो की जो कथा है, उनके संस्मरणको ही आगे बढ़ाएंगे, किंतु आ गया। आज अद्वैत आचार्य की अविर्भाव तिथि है। अद्वैत आचार्य की अविर्भाव तिथि महामहोत्सव की जय! आज यह उत्सव होने के कारण अद्वैत आचार्य का ही स्मरण करना अनिवार्य है। यह बात आपको मंजूर है, पर्याय है नहीं वैसे आपके पास और कोई पर्याय नहीं है। हरि हरि ,यदि गौर ना होइते तबे की होइते अगर गौरांग महाप्रभु ना होते तो क्या होता ऐसे हम नहीं हमारे आचार्य ने गाया है। लेकिन आज के दिन हम ऐसे भी कह सकते है।, यदि अद्वैताचार्य नहीं होते तो गौरांग महाप्रभु भी नहीं होते। गौरांंग महाप्रभु केे प्राकट्य का कारण बने अद्वेताचार्य। हरि हरि, यह अद्वैत आचार्य नाम भी ऐसा बढ़िया है। उचित है।अद्वै मतलब दो नहीं एक है। मतलब गौरांग महाप्रभु और अद्वैत आचार्य दो नहीं एक है। गौरांग महाप्रभु ही प्रकट हुए हैं अद्वैत आचार्य के रूप में।
पंचतत्वाकम् कृष्णं भक्तरूप स्वरूपकम।
भक्तावतारम भक्ताख्यम् नमामि भक्त शक्तिकम।।
ऐसी प्रार्थना हम पंचतत्व को करते हैं। कितने तत्व है यहां पांच तत्व और उसमें अद्वैत आचार्य भी उस पंचतत्व के सदस्य हैं।.पंचतत्वाकम् कृष्णं कृष्ण पंचतत्व में प्रकट हुए हैं और यह सभी भक्तों रूप बने हैं। उसमें भक्तरूप है प्रधान भक्त रूप कहो, स्वयं भगवान श्रीकृष्ण चैतन्यमहाप्रभु ही है। जो स्वयं श्रीकृष्ण है। पंचतत्वाकम् कृष्णं भक्तरूप स्वरूपकम। स्वरूप है भक्तों रूप है। स्वरूप ही है। नित्यानंद प्रभु भगवान के स्वरुप ही है। स्वयं प्रकाश है ऊपरी तौर पर तो कहां जाता है। तो यह स्वरूप है बलराम। पंचतत्वाकम् कृष्णं भक्तरूप स्वरूपकम। भक्तावतारम और भक्तावतार है अद्वैत आचार्य। भक्ताख्यम् और इस पंचतत्व में भक्त है श्रीवास ठाकुर। नमामि भक्त शक्तिकम हमारा नमस्कार उस शक्ति को और वह है गदाधर पंडित राधारानी ही है। यह पंचतत्व का परिचय है। इसमें यह भक्तावतार अद्वैतआचार्य आज के दिन प्रकट हुए। श्रीकृष्ण चैतन्यमहाप्रभु के प्राकट्य के कुछ 50 वर्ष पूर्व ही अद्वैत आचार्य प्रकट हुए। और यह है साक्षात महाविष्णु। वह महाविष्णु भी है महाविष्णु से गर्भोदकशाही विष्णु उत्पन्न होते हैं। और महाविष्णु से ही सदाशिव भी उत्पन्न् होतेे हैं। महाविष्णु से गर्भोदकशाही विष्णु प्रकट होते हैं। और हर ब्रह्मांड में एक एक गर्भोदकशाही विष्णु होते हैं। इसी महाविष्णु से और एक प्राकट्य है और वह है सदाशिव। देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु महेश धाम है। इस महेश धाम में सदाशिव का निवास है। वैसे महेश धाम का आधा हिस्सा ऊपरवाला, वैकुंठ ही है। सदाशिव वहीं रहते हैं। और नीचे वाला जो हिस्सा है, उसमें रूद्र कालभैरव वहां निवास करते हैं। अव्दैत आचार्य महाविष्णु और सदाशिव के अवतार पंचतत्व में भक्तावतार। इस प्रकार वह भक्त अवतार कहलाते हैं। यहां वे अवतार हैंं। अद्वैत आचार्य श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु स्वयं प्रकट होने से पहले वहीं प्रकट हुए कहिए या समझ सकते हो, अद्वैत आचार्य के रूप में प्रकट हुए।
वह प्रकट तो हो गए पूर्व बंगाल में। बांग्लादेश में और फिर वहां से वहां स्थानांतरित हुए शांतिपुर में गंगा के तट पर। शांतिपुर धाम की जय! तो फिर वही रहे अद्वैत आचार्य। जब अद्वैताचार्य प्रकट हुए तो उन्होंने संसार के स्थिति का अवलोकन परीक्षण किया निरीक्षण किया। और वहां इस निष्कर्ष तक पहुंचेे कि क्या हुआ धर्म की ग्लानि हुई है। धर्मस्या ग्लानि हुई है तो फिर उन्होंने सोचा कि ऐसी स्थिति में,
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
( भगवत गीता 4.7)
अनुवादः जब जब और जहां जहां धर्म की ग्लानि होती हैं और अधर्म बढ़ता है उस वक्त, हे भारत में स्वयं अवतार लेता हूं।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
भगवान फिर आते हैं। भगवान को फिर आना ही होता है। फिर अद्वैत आचार्य स्वयं भगवान को वैसे अद्वैत आचार्य स्वयं भगवान नहीं हैं, वे स्वयं भगवान के अवतार हैं। स्वयं भगवान अवतारी होते हैं। यह अवतार अद्वैत आचार्य अवतारी को चाहते थे। अभी अवतारी का अवतार हो तभी तो इस जगत के समस्या का हल संभव होगा। इतनी सारी उलझने है इतनी सारी उलझन में फंसा हुआ है यह संसार। सुलझन क्या होगी, संभवामि युगे युगे जब भगवान स्वयं भगवान प्रकट होते हैं और समस्या का हल वही है।
अद्वैत आचार्य शांतिपुर में भगवान की आराधना करने लगे। गंगा के तट पर अपने शालिग्राम शीला को गंगाजल और तुलसी दल से अर्चना करते थे और उसी के साथ वे पुकार रहे थे, उनका हुंकार चल रहा था। हमें कृष्ण चाहिए, हमें कृष्ण चाहिए, इस संसार को जरूरत है भगवान की।
कृष्ण कन्हैया लाल की जय।
सची दुलाल की जय।
अद्वैत आचार्य कि वह पुकार, वह हुंकार गोलोक तक पहुंची और भगवान प्रकट होने के लिए तैयार हो गए। और अब वे सची माता के गर्भ में सची सिंधु हरि इंदु अजनी सची माता के गर्भ सिंधु में हरि इंदु मतलब हरिश्चंद्र, मतलब चैतन्यचंद्र प्रकट हुए थे। अद्वैत आचार्य जब शांतिपुर से नवद्वीप मायापुर आए फिर सची माता की प्रदक्षिणा करने लगे, प्रदक्षिणा की भी उन्होंने और उन्होंने साष्टांग दंडवत प्रणाम किया। वे किस को साष्टांग दंडवत प्रणाम कर रहे थे? और किसकी परिक्रमा कर रहे थे? वह जान गए थे प्रभु आ चुके हैं, प्रभु प्रकट हो चुके हैं, सची माता के गर्भ में इस समय स्वयं भगवान प्रकट हो चुके हैं। उस भगवान का स्वागत कहिए सम्मान सत्कार कर रहे थे अद्वैत आचार्य। और फिर गौर पूर्णिमा के दिन निमाई का प्राकट्य हो ही चुका। सर्वप्रथम इस बात का पता चला शांतिपुर में अद्वैत अचार्य उस समय शांतिपुर में थे। जो मायापुर से कुछ समय दूरी पर है ज्यादा तो नहीं कुछ 50 किलोमीटर। तो वहां पता चला अद्वैत आचार्य को उस समय उनके साथ श्रील नमाचार्य हरिदास ठाकुर भी अद्वैत आचार्य के साथ रहा करते थे। वैसे रहते तो नहीं थे उनके साथ हरिदास ठाकुर तो पुलिया में जो शांतिपुर से कुछ दूर एक गुफा में रहा करते थे। वहां से खूब आया करते थे और अद्वैत अचार्य के साथ उनका मिलना जुलना होता था। जैसे ही पता चला इन दोनों को कि चैतन्य महाप्रभु प्रकट हो चुके हैं तो सभी गंगा के तट पर कीर्तन और नृत्य करने लगे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
औरों को अचरज लग रहा था यह हो क्या रहा है? आप इतने हर्षित क्यों हो? यह सारा नृत्य चल रहा है क्या बात है, तो वे तो जानते थे क्या बात है। भगवान गौरांग महाप्रभु के प्राकट्य से वे हर्षित, अल्हादित हो चुके थे। हरि हरि। चैतन्य महाप्रभु जब प्रकट हुए तो या प्राकट्य हो रहा था तो अद्वैत आचार्य को ही नहीं पता चला था, यह देवताओं को भी पता था। तो यहा देवता भी पहुंच चुके थे और कई सारे देवियां भी आ रही थी स्वर्ग से सारे ब्रह्मांड से। शांतिपुर से अद्वैत आचार्य अपनी भार्या सीता ठकुरानी को भेजें कई सारे जन्मदिन की भेंट वस्तुएं लेकर सीता ठकुरानी मायापुर पहुंची। सारी भेंट वस्तुएं भी दे दी और बधाइयां भी दे रही थी सीता ठकुरानी अपनी ओर से और अद्वैत आचार्य की ओर से भी। हरि हरि। अद्वैत आचार्य के कारण ही इस संसार को गौरांग महाप्रभु निमाई उनका नाम अब निमाई रखा जाएगा।
निमाई प्राप्त हुए। तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अब धीरे-धीरे उनका संकीर्तन प्रारंभ हुआ और श्रीवास ठाकुर के प्रांगण में, श्रीवास ठाकुर के घर में, कोठी में पूरी रात भर कीर्तन हुआ करता था। तो उन दिनों में वैसे शांतिपुर से शिफ्ट हुए वैसे अद्वैत आचार्य। और श्रीवास ठाकुर के घर के बगल में ही उन्होंने अपना एक भवन या निवास स्थान बनाया, अद्वैत भवन कहलाता है। हम जब नवद्वीप मंडल परिक्रमा में निकलते हैं तो मायापुर में जो योगपीठ कहलाता है, चैतन्य महाप्रभु का जन्म स्थान से जब बाहर आते हैं रास्ते पर दैने और जब मुड़ते हैं एक दो गस दूरी पर ही यह श्रीवास आंगन है। जहां कीर्तन प्रारंभ हुआ चैतन्य महाप्रभु का संकीर्तन प्रारंभ हुआ। वही श्रीवास ठाकुर के आंगन या निवास स्थान के पास अद्वैत आचार्य फिर रहने लगे। उस श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन में वह नृत्य का नेतृत्व करते थे अद्वैत आचार्य। जब चैतन्य महाप्रभु भी सिंह जैसी गर्जना के साथ कीर्तन और नृत्य करते थे तो अद्वैत आचार्य के भाव और भक्ति और हुंकार का क्या कहना। पूरी रात यह सारे वैसे पंचतत्व के सभी सदस्य श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद, श्री अद्वैत, श्री गदाधर, श्रीवास और कई सारे भक्त वृंद कीर्तन और नृत्य करते थे। किंतु केवल शुद्ध भक्तों को वहां प्रवेश था। कोई मुक्ति कामी आ गया तो बाहर जाओ, कोई मुक्ति कामी आ गया तो दूर रहो, और कौन सा बच गया भुक्ति मुक्ति, सिद्धि कामी तो आपके लिए वह स्थान नहीं है ऐसा स्क्रीनिंग होता था, वहां डिटेक्टर ही था। वहां एक सौ प्रतिशत शुद्ध हो अनन्याश्चिन्तयन्तो मां अन-अन्य-चिन्त-यंन्तो मां मतलब अन अन्य चिंतन किसका नहीं करना है? अन्य का नहीं करना है अन -अन्य अन्यों का, देवताओं का, इनका उनका। ऐसे शुद्ध भक्तों को वहां प्रवेश था। बेशक अद्वैत आचार्य स्वयं अवतार ही थे। कीर्तन तो बढ़िया ही चल रहा था इस बात से अद्वैत आचार्य बड़े ही प्रसन्न थे। लेकिन इस बात से वह प्रसन्न थे भी नहीं की कीर्तन केवल शुद्ध भक्तों के लिए ही कर रहे हैं। केवल शुद्ध भक्तों केेेे साथ ही कीर्तन करना था तो आपको यहां पर प्रकट होने की क्या जरूरत थी। यह श्री अद्वैत अचार्य का विचार है। मैंने आपको बुलाया, मैंने निवेदन किया, मैंन पुकारा और आप फिर चले आए। अच्छा तो हुआ धन्यवाद मैं आप का आभारी हूं। लेकिन मैंने जो आपको याद किया था इस संसार के जो भूले भटके जीव है गोलोकम च परित्यज्य लोकानाम त्राण-कारणात् लोग जो इस संसार में त्रसित ग्रसित है या धर्म का अवलंबन नहीं कर रहे हैं, धर्म की ग्लानि हो चुकी है, ह्रास हो चुका है। हरि हरि। या दुर्गा दुर्गा और काली काली चल रहा है या
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
नहींं चल रहा है यह तो कलयुुग हैं हरेर्नामैव केवलं कली का धर्म है हरिनाम संकीर्तन। मैंने तो ऐसा सोच कर की आप प्रकट होकर हरि नाम का प्रचार और प्रसार सर्वत्र करोगे। ऐसा तो आप नहींं कर रहे हो आप तो शुद्ध भक्तों के साथ ही कीर्तन कर रहे हो। वैसे भी मैंने कुछ ज्यादा ही कहा.. तो ऐसे कुछ शब्दों में अद्वैत आचार्य चैतन्य महाप्रभु के चरणों में निवेदन करते हैं। इस निवेदन को श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जरूर नोट किया और स्वीकार भी किया। फिर उस समय से क्या हुआ?
उदिल अरुण पूरब भागे
द्विज-मणि गेारा अमनि जागे।
भकत-समूह लइया साथे
गेला नगर-ब्राजे।।
अर्थ - जैसे ही पूर्व दिशा में अरुणोदय हो गया। उसी क्षण ब्राह्मणों में श्रेष्ठ द्विजमणि गौरांग महाप्रभु जाग गये। वे अपने भक्तों के समूह को साथ लेकर, नदिया में, सारे नगरों व गाँवों में संकीर्तन के लिए चल पड़े।
इसके लिए भी अद्वैत आचार्य कारण बने। तो उस समय से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु मैदान में उतर गए। पहले उनका कीर्तन मर्यादित था, श्रीवास आंगन में ही करते थे सारे दरवाजे खिड़कियां बंद करके पर्दे के पीछे, केवल शुद्ध भक्तों के लिए। अब चैतन्य महाप्रभु ने सारे दरवाजे खोल दिए हैं। सारे हरि नाम संकीर्तन की गंगा धारा अब सर्वत्र बहाएंगे।
श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार
हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार॥
फिर गौरांग महाप्रभु अब क्या करेंगे? हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार एक समय वह प्रचार नहीं कर रहे थे, तब अद्वैत अचार्य का विशेष निवेदन रहा प्रार्थना रही। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने हरी नाम का सर्वत्र प्रचार शुरू किया।
‘ताथइ-ताथइ’ बाजल खोल,
घन-घन ताहे झाँजेर रोल।
प्रेमे ढलऽढलऽ सोनार अंङ्ग
चरणे नूपुर बाजे॥2॥
अर्थ - कीर्तन में, “ताथइ-ताथइ” की मधुर ध्वनि से मृदंग एवं उसी की ताल से ताल मिलाकर झाँझर-मंजीरे इत्यादि वाद्य बजने लगे। जिससे प्रेम में अविष्ट होकर श्री गौरांग महाप्रभु का पिघले हुए सोने के रंग जैसा श्रीअंग ढल-ढल करने लगा अर्थात् वे नृत्य करने लगे तथा नृत्य करते हुए उनके श्री चरणों के नूपुर बजने लगे।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने चरणों में नूपुर बांध के सबसे आगे रहते थे और अद्वैत आचार्य भी साथ हैं। बाहुतुले गौरांग महाप्रभु नृत्य करने लगे, कीर्तन करने लगे। गौरांग! गौरांग! हरी हरी। तो इस प्रकार कुछ ज्यादा तो कहा नहीं आप पढ़िएगा चैतन्य चरितामृत और चैतन्य भागवत में। अद्वैत प्रकाश नाम का एक ग्रंथ भी है। श्रील प्रभुपाद के चैतन्य चरित्रामृत इत्यादि तात्पर्य में, भावार्थ में या चैतन्य चरित्रामृत के वैसे आदि लीला के कई अध्यायों में अद्वैत तत्व या अद्वैत आचार्यों के लीलाओं का वर्णन आपको मिलेगा। हरि हरि। या अद्वैत आचार्य कहना पड़ेगा कि बड़े विद्वान थे, वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् भगवान कहे वेद-विद मैं वेद को जानता हूं, मैंने वेदों की रचना की है। मुझे जानने के लिए वेद है। ऐसे कहने वाले स्वयं अद्वैत आचार्य थे, महाविष्णु थे। तो अपनी विद्वता का दर्शन, प्रदर्शन, दान भी किया करते थे। उनके पाठ चलते थे, कथाएं होती थी, शास्त्रों का निरूपण चलता था। और वह सुनने के लिए विश्वरूप जाया करते थे, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के बड़े भ्राता श्री विश्वरूप। अद्वैत आचार्य के संग से, अद्वैत आचार्य से वे जब सारा तत्वज्ञान और लीला कथा का श्रवण करने का परिणाम यह हुआ कि विश्वरूप वैरागी हुए वैराग्य वान। उन में वैराग्य उत्पन्न हुआ और परिवार में अब ज्यादा उनको रुचि नहीं थी।
जगन्नाथ मिश्रा और सची माता उनके सामने प्रस्ताव तो रख रहे थे विवाह कर बेटा। विवाह सुनते ही विश्वरूप कहते थे मेरी कोई इच्छा नहीं है मुझे कोई रूचि नहीं है। इससे वे विश्वरूप के साथ भी बहुत नाराज थे, विशेष रुप से अद्वैत आचार्य से सची माता बहुत नाराज थी। यह अद्वैत आचार्य के कारण मेरा पुत्र बिगड़ रहा है। वैरागी बनना चाहता है, विवाह में उसे कोई रुचि नहीं है, यह सब अद्वैत आचार्य की करतूत है। तो चैतन्य महाप्रभु ने इस बात को नोट किया था की सची माता अद्वैत आचार्य के बारे में अच्छा नहीं सोचती। इससे फिर निमाई या गौरांग नाराज थे अपने मां से, क्योंकि मां अद्वैत अचार्य से नाराज थी। निमाई ने कहा सची माता से मैया तुम तो अपराध कर रही हो तो सची माता ने अपने को सुधारा। उसी वक्त दूसरी ओर विश्वरूप सन्यास ले ही लिए और घर से प्रस्थान किए प्रचार प्रसार के लिए। उनका परिभ्रमण वह परिव्राजक आचार्य बने और पूरे भारत का दक्षिण भारत का भ्रमण करते करते पंढरपुर आए। उनका नाम अब शंकरारन्य स्वामी हुआ था और शंकरारन्य विश्वरूप पंढरपुर से ही प्रस्थान किए। वहीं से स्वधाम उपगते अपने धाम लौटे, अपनी लीलाओं का समापन किया। पंढरपुर धाम की जय। इस प्रकार भी यह पंढरपुर धाम की महिमा है। गौड़िय वैष्णव का इस पंढरपुर धाम से घनिष्ठ संबंध है। चैतन्य महाप्रभु यहां आए, नित्यानंद प्रभु यहां आए, नित्यानंद प्रभु की दीक्षा पंढरपुर में हुई और विश्वरूप भी यहीं से अंतर्धान हुए। नहीं रहे अब ऐसे कह सकते हैं लेकिन पंचत्वम गतः तो नहीं कह सकते। तुम मिट्टी हो और मिट्टी में मिल जाओगे। विश्वरूप जो शंकरारन्य स्वामी बने थे वे तो सच्चिदानंद विग्रह उनका। तो उन्होंने प्रवेश किया नित्यानंद प्रभु में, वैसे भी वह दूसरी बात है। ठीक है,
अद्वैत आचार्य अविर्भाव महोत्सव की जय।
और आज के ही दिन महाराष्ट्र में इस्कॉन बीड, बीड शहर है पंढरपुर से उत्तर दिशा की ओर कुछ किलोमीटर के अंतर पर। आज के दिन राधा गोविंद भगवान की प्राण प्रतिष्ठा हुई और नया मंदिर भी खोला था। वहां पर भी इस्कॉन बीड़ में आज और कल दो दिनों के लिए उत्सव मना रहे हैं। तो वह दिन अद्वैत आचार्य के आविर्भाव के दिन ही राधा गोविंद भगवान प्रकट हुए। प्राण प्रतिष्ठा होना मतलब भगवान का प्राकट्य ही है। ठीक है।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।