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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक २०.०२.२०२१ हरे कृष्ण! आज इस जप कॉन्फ्रेंस में ५६२ स्थानों से भक्त सम्मिलित हुए हैं। मेरे पास आज समय कुछ कम है। इसलिए चर्चा कहां से प्रारंभ की जाए? मुख्य बिंदु पर आते हैं। मुझे पता नहीं था लेकिन आज प्रातः काल ही पता चला कि आज भीष्माष्टमी है, नहीं तो षड् गोस्वामी वृंदों के संबंध में और कुछ आगे कहने का सोच रहा था। इतने में भीष्माष्टमी के विषय में पता लगा। भीष्म पितामह की जय हो! उनके जन्म महोत्सव की जय। भीष्म पितामह के बर्थडे की जय! ऐसा महाभारत है, महाभारत मतलब इतिहास है। हिस्ट्री ऑफ ग्रेटर इंडिया अर्थात महान् भारत का इतिहास। इतिहास इतना अचूक है जिसमें सभी व्यक्तियों का तो नहीं लेकिन कइयों के जन्म किस दिन हुआ, इसका भी उल्लेख प्राप्त है। महाभारत में हजारों, लाखों व करोड़ों उन व्यक्तियों के चरित्रों का भी वर्णन है, उनके माता-पिता का नाम पता है, उनके सारे कार्यकलापों का उल्लेख है। यह सब काल्पनिक नहीं हो सकता जैसा कि कई मूर्ख अथवा गधे कहीं के कहते ही रहते हैं। वैसे अंग्रेज आए थे और उन्होंने कहना शुरू किया था कि यह मैथोलॉजी है यह मैथोलॉजी ( काल्पनिक) है। ५००० वर्ष पूर्व मानव इतना विकसित नहीं था। आप कहते हो, ऐसा युद्ध हुआ, ऐसे अस्त्रों व शस्त्रों का प्रयोग हुआ। नहीं, नहीं, उन दिनों में तो लोग गुफा में ही रहते थे। लड़ाई करने के समय कुछ पत्थर व डंडे का ही प्रयोग करते थे और आप कह रहे हो, ऐसे अस्त्र? यह सम्भव नहीं है। यह काल्पनिक है। इस प्रकार ऐसे पाश्चात्य देश के तथाकथित विद्वानों की ऐसी टीका टिप्पणियां होती रही। उन्होंने हमें गुलाम बनाया। हम जो गुलाम बने थे तब हमारे बॉस अंग्रेज बने। अंग्रेज जैसा भी कहा करते, हम उनकी हां में हां मिलाने लगे। वर्षा होगी, यस यस होगी। महाभारत काल्पनिक है? यस! यस! उन्होंने हमें सिखाया। उन्होंने हमारी खोपड़ी में यह बात डाल दी कि आपका महाभारत काल्पनिक है और रामायण तो भूल ही जाओ, वह तो और भी पुरानी बात है। रामायण तो १० लाख वर्ष पूर्व की बात है। अगर उनको ५००० वर्ष पूर्व की बातें हज़म नहीं हो रही या समझ नहीं आ रही थी, तब वे कैसे रामायण का काल या राम भी हुए या हनुमान भी थे, को स्वीकार कर पाते। आज के दिन या कहा जाए वो अष्टमी का दिन था। आज अष्टमी है और इस अष्टमी का नाम भीष्माष्टमी हो चुका है। जैसे कृष्ण अष्टमी के दिन प्रकट हुए थे, इसलिए उस अष्टमी का नाम कृष्णाष्टमी हो चुका है। सारा संसार जानता है। आज भी अष्टमी है और उस दिन भी अष्टमी थी जिस दिन भीष्म पितामह प्रकट हुए अर्थात जन्मे थे। उस अष्टमी का नाम भीष्माष्टमी हुआ। आज के दिन जन्मे भीष्म महाभारत के एक मुख्य चरित्र अथवा व्यक्तित्व है। भारत भी महान् भारत है। भीष्म पितामह ग्रेट ग्रैंड फादर हैं। वैसे उनके कोई अतिपत्य नहीं था। वे पुत्रहीन थे। आप सोचेगें कि उन्हें पितामह कहा जा रहा है इसलिए वे पिता या पितामह या पड्पिता होंगे लेकिन उनका कोई पुत्र नहीं था। आयुष्मान भव:, वैसे वे आयुष्मान थे। उनकी आयु लगभग ४०० वर्षों की रही, अंततोगत्वा अभी जन्म की बात चल रही है। इसलिए हमें मृत्यु की बात नहीं करनी चाहिए लेकिन कुरुक्षेत्र में उन्होंने कृष्ण की उपस्थिति में महाप्रयाण किया। उस समय ग्रैंड फादर अर्थात भीष्म पितामह की आयु 400 वर्ष थी। उन्होंने कई सारी पीढ़ियों को देखा था। पीढ़ी के बाद पीढ़ी आ रही थी और जा भी रही थी लेकिन भीष्म पितामह उन सारी पीढ़ियों के साक्षी थे। भीष्म पितामह अपनी भीष्म प्रतिज्ञा के लिए भी प्रसिद्ध हैं, प्रतिज्ञा हो तो भीष्म प्रतिज्ञा जैसी। प्रयत्न हो तो भगीरथ जैसा। जब इस प्रतिज्ञा को राजा शांतनु अर्थात उनके पिता और देवताओं ने सुना कि 'मैं आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा, मैं विवाह ही नहीं करूंगा। यह मेरी प्रतिज्ञा है।' जब इस प्रतिज्ञा को देवताओं ने भी सुना तो उन्होंने कहा भीष्म! भीष्म! क्या भयानक। जैसे अंग्रेजी में भी कहते हैं- व्हाट ए होरीबल प्रतिज्ञा तुम कर रहे हो। ऐसी प्रतिज्ञा! इसलिए उनका नाम भीष्म भी हुआ। वैसे उनका नाम तो देवव्रत था। जब उनका नामकरण हुआ, तब वे देवव्रत थे। वे शांतुनु और गंगा के पुत्र थे, इसलिए गांगये भी कहलाते थे। जैसे कुंती के पुत्र कौन्तेय, वैसे ही गंगा के पुत्र गांगये। भीष्म पितामह का दूसरा नाम गांगये है क्योंकि वे गंगा के पुत्र थे। राजा शांतुनु का विवाह गंगा मैया के साथ हुआ। जब राजा शांतुनु ने गंगा को प्रस्ताव रखा- आई लव यू, आई वांट टू मेरी यू (मैं तुम से प्यार करता हूँ और तुम से शादी करना चाहता हूं।) वे राजा थे और शिकार के लिए वे एक दिन वन में गए थे,वहाँ गंगा के साथ उनकी मुलाकात हुई। मूर्तिमान गंगा, गङ्गा जल के रूप में भी बहती है किन्तु गंगा का अपना रूप भी है। वैसे हर नदी का अपना रूप है, हर एक का रूप है। जैसे यमुना का भी रूप है। यमुना का विवाह कृष्ण के साथ हुआ और कालिंदी बन गई। इस विवाह के प्रस्ताव के समय गंगा ने कहा- ठीक है किंतु यदि मेरी बात का तुमने कभी विरोध किया तब मैं तुम्हारा साथ छोड़ दूँगी। यह बात अगर आपको मंजूर है तो ठीक है, विवाह हो जाए। मैं आपकी पत्नी बनती हूं।( यह सारा लंबा विस्तार से नहीं बताएंगे) श्रील व्यासदेव ने बड़े विस्तार के साथ महाभारत का इतिहास लिखा है। इस इतिहास के कई सारे चरित्र हैं। विवाह हुआ, फिर पुत्र का जन्म हुआ। तब गंगा ने उस पुत्र को गंगा में डुबो दिया। राजा शांतनु कुछ भी नहीं कह पाए, यदि वे कुछ कहते तो गंगा को खो बैठते। इस प्रकार उनके गंगा के साथ सात पुत्र हुए। एक एक की जान ली और अब आठवें पुत्र का जन्म हुआ। उसका भी हाल वही होना था जो पिछले सात पुत्रों का हुआ था। गंगा वैसी तैयारी कर ही रही थी अर्थात उसको भी गंगा में फैंकने और डुबोने की तैयारी कर ही रही थी। उस समय राजा शांतनु ने विरोध किया, नहीं! नहीं! ऐसा मत करो। यह पर्याप्त है। बहुत हुआ। तब गंगा बोली- ठीक है। बहुत अच्छा, मैं चली। गंगा उस बालक के साथ में निकल पड़ी। इस बालक का नाम देवव्रत रखा था। गंगा देवव्रत को साथ में लेकर वन में चली गयी। गंगा ने देवव्रत का लालन- पालन किया। वशिष्ठ मुनि ने कई सारी विद्याएं उसको सिखाई। देवव्रत धीरे धीरे बड़े हो रहे थे। पुनः एक समय जब शांतनु राजा उसी वन में गए तब उन्होंने अपने ही पुत्र देवव्रत को देखा तो सही, किन्तु पहचान नहीं पाए। लेकिन वे इस बालक को चाहते थे। गंगा ने उनको दे दिया और कहा कि अपने बालक को ले जाओ। वैसे ये अष्ट वसु के रूप में प्रसिद्ध थे। जैसे हम एकादश रुद्रा और द्वादश आदित्य.. नाम सुनते हैं । ऐसे ही अष्ट वसु हैं। इन अष्ट वसुओं को शाप मिला था। ये अष्ट वसु ही एक एक करके जन्म ले रहे थे और उनके शाप के अनुसार उनको दंडित किया जा रहा था अथवा उनकी मृत्यु हो रही थी। भीष्म पितामह भी अष्ट वसुओं में से एक हैं, एक बच गए। ( यदि मैं इस रफ़्तार से कहता जाऊंगा तो ..) राजा शांतनु पुनः दूसरा विवाह सत्यवती के साथ करना चाहते थे। सत्यवती के साथ उनकी मुलाकात हुई। उनके पिताश्री तैयार थे लेकिन उनकी शर्त यह थी कि उनकी पुत्री का जो पुत्र होगा, वह ही भविष्य का राजा अथवा शासक बनेगा, तभी मेरी पुत्री का विवाह आपके साथ सम्भव है। भविष्य के राजा होने का क्लेम (दावा) तो देवव्रत का ही था। वे ही भविष्य के राजा थे, वे राजपुत्र थे। उम्र में भी बड़े थे। वैसे अभी दूसरे पुत्र जन्में भी नहीं थे। शांतनु राजा (सब बताना पड़ता है) चिंतित थे, ये कैसे होगा? राज पुत्र तो देवव्रत है। लेकिन देवव्रत को जब पता चला कि पिताश्री किस बात से चिंतित हैं। वे सत्यवती के पिता के पास गए। तब सत्यवती के पिता ने कहा - ठीक है, भीष्म पितामह राजा नहीं बनते है तब उनका पुत्र राजा बनेगा। देवव्रत ने इसलिए प्रतिज्ञा ली कि मैं राजा बनूंगा ही नहीं और मेरे पुत्र का जन्म होगा ही नहीं, क्योंकि मैं अविवाहित रहूंगा। मैं ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा। तत्पश्चात राजा शांतनु का विवाह हुआ, उनके विचित्रवीर्य और चित्रागंद दो पुत्र हुए। यह सब इतिहास है।अब थोड़ा महाभारत युद्ध की ओर जाते हैं। महाभारत का युद्ध धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता १.१) अनुवाद:- धृतराष्ट्र ने कहा -- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ? पाण्डु के पुत्र और धृतराष्ट्र के पुत्र मैदान में उतरे, वहाँ अब भीष्म पितामह दुर्योधन के सेनापति बने हैं। धृष्टद्युम्न पाण्डवों के सेनापति बने, युद्ध चल रहा था। नौवें युद्ध की रात्रि के समय दुर्योधन ने भीष्म पितामह से यह बात कही कि आप पक्षपात कर रहे हो , वैसे आप तो पांडवों की हत्या करने की क्षमता रखते हो लेकिन आप जानबूझकर उनको बचा रहे हो, पक्षपात कर रहे हो। जब यह बात पितामह भीष्म ने सुनी तो वे पुनः प्रतिज्ञा करते हैं। (वैसे वे अपनी प्रतिज्ञा के लिए प्रसिद्ध ही थे) उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि या तो कल दसवें दिन के युद्ध में मैं अर्जुन की हत्या करूंगा नहीं तो कृष्ण को हथियार उठाना होगा" जबकि कृष्ण की प्रतिज्ञा थी कि मैं हथियार नहीं उठाऊंगा। तत्पश्चात तत्क्रम में दसवें दिन युद्ध प्रारंभ हुआ, पितामह भीष्म और अर्जुन के मध्य युद्ध हुआ, श्री कृष्ण पार्थसारथी थे। कृष्ण ने भीष्म पितामह के सामने ही अर्जुन के रथ को खड़ा कर दिया तत्पश्चात दोनों में घनघोर युद्ध हुआ। भीष्म पितामह ने अपने पूरे शौर्य और वीर्य का प्रदर्शन किया। अब कृष्ण और अर्जुन को भी लग रहा था कि अब तो अर्जुन नहीं बच सकता। अर्जुन वैसे पसीने पसीने हो रहे थे, कुछ पसीना पोंछ रहे थे, इतने में भीष्म पितामह का बाण अर्जुन की ओर आगे बढ़ना ही था कि कृष्ण उस रथ से छलांग मार कर नीचे उत्तरे और भीष्म पितामह की और दौडने लगे। दौड़ते समय रास्ते में (इतना अंतर नहीं था लेकिन जितना भी था) कृष्ण ने रथ का पहिया देखा और उस पहिये को उठाया। वे रथांगपाणि बन गए, पाणि मतलब हाथ। जिनके हाथ में रथ का अंग अर्थात पहिया अथवा चक्र है । इसलिए श्रीकृष्ण रथांगपाणी हुए, रथ के अंग अर्थात पहिये को ही वह अस्त्र बनाकर भीष्म पितामह की ओर दौड़ने लगे। इस बात से भीष्म पितामह बड़े ही प्रसन्न थे, उन्होंने श्री कृष्ण का दर्शन किया। कृष्ण क्रोधित व क्रूर बनकर भीष्म पितामह की ओर दौड़ रहे थे। वैसा दर्शन और ऐसा ही संबंध भीष्म पितामह का है। वैसे अलग अलग रस होते हैं। कुल द्वादश रस हैं। उसमें एक रस अथवा एक सम्बंध यह वीर्य रस है। भीष्म पितामह उस रस का आस्वादन कर रहे थे और बड़े प्रसन्न थे। वह कृष्ण का ऐसा ही दर्शन चाहते थे, उस दिन उनको वैसे ही दर्शन हुए जब कृष्ण पहिए के साथ भीष्म पितामह की और दौड़ ही रहे थे, तब अर्जुन भी कृष्ण को पकड़ने के लिए रथ से नीचे उतरते हैं। नहीं! नहीं! आप ऐसा नहीं कर सकते यह सारा वर्णन महाभारत में भी है। यह महाभारत और कुरुक्षेत्र में सम्पन्न हुए उस युद्ध का विशेष दृश्य है। कृष्ण ही यहाँ युद्ध खेल रहे हैं। कृष्ण ने यहाँ हथियार उठाया। श्रीभगवानुवाच अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज। साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय:।। ( श्रीमद् भागवतम ९.४.६३) अनुवाद:- भगवान् ने उस ब्राह्मण से कहा: मैं पूर्णत: अपने भक्तों के वश में हूं। निस्संदेह, मैं तनिक भी स्वतंत्र नहीं हूं। चूंकि मेरे भक्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः रहित होते हैं अतएव मैं उनके ह्रदयों में ही निवास करता हूँ। मुझे मेरे भक्त ही नहीं, मेरे भक्तों के भक्त भी अत्यंत प्रिय है। मैं भक्त के आधीन हूं। इसलिए भगवान ने कहा- ठीक है। हे भीष्म पितामह! तुम्हारी प्रतिज्ञा सच हो जाए। मैं अपनी प्रतिज्ञा झूठी कर रहा हूँ। मैंने हथियार न उठाने की प्रतिज्ञा की थी लेकिन मैं हथियार ही उठा रहा हूँ। वैसे उस दिन युद्ध तो आगे जारी रहा लेकिन शिखण्डी को बीच में लाया गया । शिखण्डी न तो पुरुष थे और न स्त्री ही थे, वे नपुंसक थे। ऐसे व्यक्ति के साथ भीष्म पितामह युद्ध नहीं करेंगे। युद्ध करने का विचार छोड़ ही देंगे, इस विचार से शिखण्डी को मध्य में लाकर खड़ा किया गया था। भीष्म पितामह अब युद्ध नहीं करना चाहते थे, अर्जुन ने भी इसी का फायदा उठाया । वे भीष्म पितामह पर प्रहार करते गए। इसी के साथ भीष्म पितामह शर- पंजर हुए। अर्जुन ने उनको बाणों की शैय्या पर लिटाया और भीष्म पितामह वहीं लेटे रहे। युद्ध चलता रहा और वे वहीं बाणों की शैय्या पर लेटे थे। युद्ध सम्पन्न भी हुआ। अधिकतर लोग मारे गए, जो बचे थे, वे हस्तिनापुर लौट गए। कृष्ण पुनः कुरुक्षेत्र लौटते हैं। यह अब तीसरी बार कृष्ण कुरुक्षेत्र आएंगे। महाभारत युद्ध के समय दूसरी बार था, सूर्य ग्रहण के समय पहली बार था। युद्ध के उपरांत जब कृष्ण कुरुक्षेत्र से हस्तिनापुर तक ही गए थे और पहुंचे अथवा रहे थे, उन्होंने बहुत अधिक समय बिताया था। अधिक समय बिताने का कारण यह भी था कि युद्ध के पहले शोक करने वाले अर्जुन थे लेकिन युद्ध के बाद युधिष्ठिर महाराज का शोक प्रारंभ हुआ, वे शोक से इतने व्याकुल थे। उनको प्रवचन सुना सुना कर कृष्ण थक गए। कृष्ण ने अर्जुन को ४५ मिनट में उपदेश सुनाया था और अर्जुन ने कहा भी था कि:- नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता १८.७३) अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया। आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई। अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ। लेकिन युधिष्ठिर महाराज की व्याकुलता, शोक व भ्रम कई महीनों तक बना रहा। कृष्ण उनके चित को समझा बुझा नहीं पा रहे थे। युधिष्ठिर महाराज के जीवन में कोई आराम नहीं था, तत्पश्चात कृष्ण द्वारका जाने की तैयारी कर रहे थे, वह रथ में बैठे ही थे और प्रस्थान की सार तैयारी हो चुकी थी। इतने में उस समय कुन्ती महारानी वहाँ पहुंच गयी, कुंती महारानी की प्रार्थना श्रीमद् भागवत की पहली प्रार्थना है। श्रीमद् भागवत के पहले स्कन्ध के सातवें व आठवें अध्याय में उसका उल्लेख है। येषां संस्मरणात्पुंसां सद्यः शुध्दयन्ति वै गृहा:। किं पुनर्दर्शनस्पर्शपादशौचासनादिभि:।। (श्रीमद्भागवतम् 1.19.33) अनुवाद: -आप के स्मरण मात्र से हमारे घर तुरंत पवित्र हो जाते हैं तो आपको देखने, स्पर्श करने, आपके पवित्र चरणों को धोने तथा अपने घर में आपको आसन प्रदान करने के विषय में तो कहना ही क्या? जब भगवान् ने वह प्रार्थना सुनी कि आप कैसे जा सकते हो? मेरे पुत्रों का हाल देखो, युधिष्ठिर महाराज के चेहरे की ओर देखो। युधिष्ठिर महाराज को आप ऐसी स्थिति में छोड़कर कैसे जा सकते हो? नहीं! नहीं! रुकिए। उनकी ऐसी ही प्रार्थना थी। ऐसा ही भाव था। द्वारकाधीश कृष्ण ने अपने रथ को हस्तिनापुर की ओर वापिस मोड़ा, तब वे कुछ समय के लिए हस्तिनापुर में ही रहे।उनका हस्तिनापुर में रहने का उद्देश्य यह भी था कि कृष्ण जानते थे कि भीष्म पितामह तुरन्त ही प्रस्थान करने वाले हैं, उनका महाप्रयाण होने वाला है। मैं यदि द्वारका जाऊंगा तो द्वारका दूर है। द्वारका से आने में समय लगेगा या दिक्कतें आ सकती हैं, मैं यहीं रहता हूं। हस्तिनापुर कुरुक्षेत्र के पास में है, वे उस उद्देश्य से भी वहाँ रहे, वैसे और भी उद्देश्य थे। वह दिन और वह क्षण भी आ रहा था। पता चला कि भीष्म पितामह प्रस्थान करने वाले हैं। कृष्ण सभी पांडवों और कई हस्तिनापुर के लोगों को लेकर कुरुक्षेत्र आ पहुंचे। महाभारत व श्रीमद् भागवत में भी सूची है कि भीष्म पितामह के प्रस्थान अथवा तिरोभाव के समय (उस समय) संसार भर के देवऋषि, राजऋषि व महा ऋषि बहुत बड़ी संख्या में वहाँ उपस्थित हुए। उस समय कुरुक्षेत्र कृष्ण के प्रवचन अर्थात भगवतगीता के उपदेश के लिए प्रसिद्ध था और है भी, अब भीष्म पितामह की बारी है। कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश किया था और कृष्ण ने युधिष्ठिर महाराज को उपदेश किया था लेकिन उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अब श्रीकृष्ण, भीष्म पितामह को निमित बनाएंगे। भीष्म पितामह के मुखारविंद से निकले वचन, जो युधिष्ठिर को प्रभावित करेंगे। तत्पश्चात युधिष्ठिर महाराज भी कहेंगे नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥ अर्जुन ने कहा था कि हे आपके कृपा प्रसाद से मैं भी स्थिर हो चुका हूं। वैसे ही युधिष्ठिर महाराज भी कहेंगे, भीष्म पितामह ! आपके वचनों अथवा कृपा प्रसाद से मैं भी स्थिर हो चुका हूं। मेरा चित शांत है, मैं मेरे सभी संदेह और मोह से मुक्त हो चुका हूँ। भीष्म पितामह को प्रस्थान करना था। देखो! यह प्रस्थान कैसा अद्भुत है। इस प्रस्थान के समय स्वयं कॄष्ण उपस्थित है। श्रीकृष्ण का दर्शन करते हुए इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकले, गोविंद नाम लेकर तब प्राण तन से निकले। जब प्राण तन से निकले तो आप भी आ जाना। गंगा का तट हो .. यह हो/ वह हो। आप भी आ जाना और राधा को साथ ले आना, तब प्रस्थान हो। तब प्राण तन से निकले। देखिए यहां किस परिस्थिति में भीष्म पितामह के प्राण निकल रहे हैं। वे प्रस्थान कर रहे हैं और स्वयं श्रीकृष्ण वहाँ उपस्थित हैं। उनका दर्शन करते करते वे भगवान की स्तुति प्रार्थना कर रहे हैं। वह स्तुति भी प्रसिद्ध है। कुंती महारानी की प्रार्थना के उपरांत भागवतम में जो अगली स्तुति है, वह भीष्म स्तुति है। भीष्म पितामह दर्शन कर रहे हैं। स्तुति गान कर रहे हैं। देखिए कितने संत महात्मा वहाँ उपस्थित हैं, वे भी संस्मरण कर रहे हैं। वे भी श्रीकृष्ण का यशोगान कर रहे हैं। मरना है तो ऐसे मरे, मरने की भी कला है। हम जीने की कला सीखेंगे तो फ़िर मरने की कला से भी अवगत होंगे। मरना है तो कैसे मरो? भीष्म पितामह की तरह मरो। ऐसा नहीं कोई कहे कि हमारा पास कोई चुनाव है कि नहीं मरना है तो भी चलेगा। हम नहीं मरेंगे। हम नहीं मरना चाहते, ऐसी बात नहीं है। हमें मरना तो है ही, मरना ही है, तो क्यों ना भीष्म पितामह जैसे मरें या नामाचार्य हरिदास ठाकुर की तरह। चैतन्य चरितामृत में वर्णन है कि हरिदास ठाकुर का मरण भी भीष्म पितामह की तरह रहा। कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण थे और जगन्नाथ पुरी में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु थे। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरणों का स्पर्श उनके मुखमंडल का दर्शन और अपने मुख से श्रीकृष्ण चैतन्य.. कहते हुए हरिदास ठाकुर ने प्रस्थान किया। वैसे श्रील प्रभुपाद के प्रस्थान की तुलना भी भीष्म पितामह के प्रस्थान के साथ की जाती है। ऐसे भीष्म पितामह की जय हो! हैप्पी बर्थडे टू यु, यू नेवर टेक बर्थ अगेन। भीष्म पितामह के समय में ऐसा कहने की आवश्यकता भी नहीं है। हम यहाँ देख रहे हैं भीष्म पितामह पुनः जन्म लेंगे क्या? यदि जन्म लेंगे तो जहां कृष्ण है, वहीं जन्म लेंगे। कृष्ण वहां थे ही, वहीं जन्में, वहीं मरे। सब भक्त तो थे ही। सारा कुरुक्षेत्र ही वैकुण्ठ बन गया। भीष्म पितामह भगवान् की लीला में प्रवेश हुए बस। भगवान् की लीला में महाभागवतों, परम वैष्णवों अथवा भक्तों का मरण से उनके शाश्वत जीवन का प्रारंभ होता है। वे भगवान की लीला में प्रवेश करते हैं, वहीं वास्तविक लाइफ है अन्यथा सब मृत हैं। ठीक है। थोड़ा ज़्यादा ही कहा। अब यहाँ विराम देना होगा। हरे कृष्ण!

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