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जप चर्चा 01 फ़रवरी 2022 श्रीमान वेदांत चैतन्य प्रभुजी हरे कृष्णा गुरु महाराज कृपया मेरा सादर दंडवत प्रणाम स्वीकार करें | सभी भक्तों को दंडवत प्रणाम | पदममाली प्रभु ने जब मुझसे जपा टॉक देने के लिए कहा था उस वक्त मैं सोच रहा था कि मुझे जपा टॉक देना है या नहीं देना है | मैं मना कर रहा था | फिर मैंने सोचा है कि यह इतने भक्तों से आशीर्वाद मांगने का एक मौका होगा, मुझे चलना चाहिए| फिर अभी महाराज जी भी हैं और आप सभी लोगों से मैं आशीर्वाद मांगता हूँ कि मैं अपने जीवन पर्यंत गुरु महाराज और प्रभुपाद की सेवा में और इस आंदोलन में बना रहूँ | आप सब मेरे लिए ऐसी कामना कीजिए और मुझे आशीर्वाद दीजिए | विशेषकर मैं इसीलिए आया था परंतु सेवा मिली है तो मैं कुछ बताने का प्रयास भी कर लूंगा | इस संसार के किसी भी संबंध के साथ-साथ कुछ जिम्मेदारियां भी स्वतः ही आ जाती हैं | जो कोई भी इस दुनिया के अंतर्गत महत्वपूर्ण संबंध क्यों ना हो, एक मां और बेटे का क्यों ना हो, एक पति पत्नी का क्यों ना हो, उस संबंध को सही प्रकार से चलाने के लिए, बनाकर रखने के लिए कुछ जिम्मेदारियां हमें निभानी होती हैं | इस संबंध में दोनों की ही एक दूसरे के प्रति कुछ जिम्मेदारियां होती हैं | एक मां का बेटे के प्रति और एक बेटे का मां के प्रति, एक पति का पत्नी के प्रति और एक पत्नी का पति के प्रति | और जहां पर भी इन जिम्मेदारियों में समझौता होता है, तुरंत वो संबंध फीका पड़ने लगता है | और फिर धीमे धीमे धीमे वह संबंध लुप्त होने लग जाता है | और यह जो संबंध है इसी संबंध के आधार पर ही रस प्राप्त होता है| जब हम रस तत्व के विषय में बात करते हैं, रस शब्द का यही अर्थ है कि उस संबंध के आधार पर जो हमें आस्वादन प्राप्त होता है जैसे कि वात्सल्य रस, माधुर्य रस इत्यादि | यह रस भी मिलना बंद हो जाएगा अगर संबंधों में समझौते होते हैं | अगर जिम्मेदारियों से समझौता करेंगे तो संबंध फीका पड़ेगा और फिर रस मिलना बंद हो जाता है| इसलिए किसी भी प्रकार के संबंध को अगर सही प्रकार से हमेशा के लिए अगर बना कर रखना है, सिर्फ संबंध के तौर पर जो भी हमारे कर्तव्य बनते हैं उसे सही प्रकार से समझ कर और सही भाव के साथ जिम्मेदारियों को निभाना बहुत महत्वपूर्ण है | इसलिए आज हम इसी विषय के बारे में थोड़ी सी चर्चा करेंगे जिसके अंतर्गत हम एक शिष्य का गुरु के प्रति क्या संबंध और जिम्मेदारियां होती हैं उसकी चर्चा करने का प्रयास करेंगे | किंतु उसके पूर्व मैं आपसे कुछ ओर चर्चा करना चाहूंगा | जिसके अंतर्गत मैं आपको यह बताऊंगा गुरु और शिष्य का जो संबंध है यह संबंध बाकी जितने संबंध हमारे जीवन में विभिन्न प्रकार के होते हैं उन संबंधों की तुलना में गुरु शिष्य के संबंध का क्या महत्व है | क्या इस गुरु शिष्य के संबंध को इतना खास, इतना विशेष बनाता है? पहले हम यह समझेंगे और उसके उपरांत हम जिम्मेदारियों के विषय में समझेंगे | चैतन्य चरित्रामृत में इस प्रकार से कहा गया है -- जन्मे जन्मे सभी पिता माता पाए, कृष्ण गुरु नहीं मिले भज हरि आए | हर जन्म में हमें माता-पिता तो मिलते ही हैं चाहे हम किसी भी प्रकार का जन्म क्यों नहीं ले, चाहे कुत्ते का जन्म हो या बिल्ली का जन्म हो और चाहे मनुष्य का जन्म हो | कोई भी जन्म क्यों ना हो हमारे माता-पिता होते ही हैं | माता-पिता के बिना तो जन्म होगा ही नहीं | इसका अर्थ हमारे हर जन्म में माता-पिता के साथ जो संबंध है या बाकी अन्य प्रकार के संबंध हैं यह सारे संबंध हर जीवन में हमें प्राप्त हो ही रहे हैं | लेकिन जो गुरु और कृष्ण के साथ संबंध है, वह केवल और केवल इस मनुष्य जीवन के अंतर्गत ही मिलता है | यह एक अनोखा संबंध है जो केवल मनुष्य जन्म में ही मिल सकता हैं | साधारणतया बाकी किसी भी योनि में इस प्रकार का संबंध संभव नहीं है | यह मनुष्य जीवन का एक विशेष अधिकार है कि हमें गुरु और कृष्ण के साथ संबंध बनाने का अवसर मिलता है | इसलिए यह संबंध बहुत महत्वपूर्ण है | और दूसरी बात यह है कि बाकी जितने भी संबंध है चाहे माता पिता के साथ हो या समाज के साथ या भाई बंधुओं के साथ, मित्रों के साथ, पत्नी के साथ पति के साथ बच्चों के साथ यह सारे संबंध अशाश्वत हैं, एक मां का संबंध अपने बच्चे के साथ भी क्यों ना हो | अगर मान लीजिए एक बच्चे की उम्र 30 साल की है, 30 साल से 1 दिन पहले भी अगर मां से पूछा जाए कि क्या आप अपने बेटे को पहचान पाओगे तो वह पहचान नहीं पाएंगी | और मान लीजिए कि वह बच्चा 40 साल तक ओर रहेगा और फिर मर जाएगा | तो फिर 40 साल के 1 दिन के पहले पूछिए कि क्या आप अपने बेटे को पहचान पाओगी तो वह नहीं पहचान पाएंगी | तो जब पहचान ही नहीं हो पा रही है तो फिर संबंध क्या होगा | इसलिए यह संबंध सब अशाश्वत है | केवल गुरु के साथ यह जो संबंध होता है, वह संबंध शाश्वत होता है| तभी तो नरोत्तम दास ठाकुर श्री गुरु चरण पद्म भजन में गाते हैं जन्मे जन्मे प्रभु जेई चक्षुज्ञान दिलों सेइ हर जन्म जन्म में आप मेरे प्रभु रहेंगे और मैं आपका सेवक रहूंगा | क्योंकि यह दोनों ही शाश्वत तत्व है | गुरु तत्व और गुरु सेवक तत्व यह दोनों शाश्वत तत्व हैं | यह कोई अस्थाई तत्व नहीं है | इसलिए यह संबंध हमेशा के लिए बना रहेगा | इसलिए गुरु के साथ जो हमारा संबंध है वह हमेशा के लिए है | यह भी एक कारण है जिस वजह से यह संबंध को हमें बहुत महत्व देना चाहिए, इसके प्रति जो भी जिम्मेदारियां हमारी बनती हैं उसे सही प्रकार से निभाना चाहिए | और यह भी एक ओर कारण है कि जिस प्रकार की जिम्मेदारी गुरु लेते हैं वह ओर कोई नहीं ले सकते, चाहते हुए भी नहीं ले पाएंगे | गुरु सच में जिम्मेदारियां लेते हैं | यह भी सोचना गलत है कि गुरु सबकी ही जिम्मेदारियां लेते हैं, जितने लोगों को दीक्षा दी है | क्योंकि एक समय पर श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती महाराज अपने अंतिम दिनों में अपने सारे शिष्यों को अपने बिस्तर के पास बुलाते हैं और फिर उनसे कहते हैं कि आप में से कोई भी मेरा शिष्य नहीं है | सोचिए गुरु स्वयं अपने शिष्यों से कह रहे हैं कि आप में से कोई भी मेरा शिष्य नहीं है | फिर इसका कारण बताते हैं आप में से कोई भी मेरे द्वारा दी गई दिशा का, आदेशों का पालन सही प्रकार से नहीं किया, मेरी बातों को नहीं माने, मेरे बातों के हिसाब से आप लोग नहीं चले हैं, इसलिए आप लोगों में से कोई मेरा शिष्य नहीं है | जिन शिष्यों को गुरु अस्वीकार किए बिना रखते हैं उन्हें सत शिष्य कहते हैं| जिस प्रकार सतगुरु होते हैं उसी प्रकार सत शिष्य होते हैं | केवल उन शिष्यों की ही गुरु जिम्मेदारियां लेते हैं जिनको गुरु ने अस्वीकार नहीं किया है | और जब इन सत शिष्यों की जिम्मेदारी गुरु लेते हैं तब गुरु केवल उस जीवन के लिए नहीं बल्कि जन्म जन्मो तक जिम्मेदारी लेते हैं जैसा कहा भी गया है जन्मे जन्मे प्रभु सेइ | इस विषय में परम पूज्य गुरु गोविंद महाराज इस प्रकार से लिखते हैं कि जिस शिष्य को गुरु ने स्वीकार नहीं किया है इसका मतलब जो सत शिष्य है उन्हें भगवान श्री कृष्ण के चरण कमलों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी गुरु की होती है | और इस प्रकार की जिम्मेदारी को गुरु कैसे निभाते हैं? मान लीजिए गुरु के शरीर छोड़ने के पहले शिष्य की मृत्यु हो गई है, या शिष्य के जीवित होते हुए गुरु ने शरीर छोड़ दिया है, तो उस समय फिर संबंध कैसे बना रहेगा? इसके संबंध में गौर गोविंद महाराज इस प्रकार से वर्णन करते हैं कि सद्गुरु जब शरीर छोड़ते हैं तो वे नित्य लीला प्रविष्ट होते हैं, नित्य लीला प्रविष्ट होने के बाद कृष्ण धाम में पहुंचने के बाद गुरु की नजर हमेशा अपने सत शिष्य पर रहती है | और सबसे पहले गुरु सत शिष्य के हृदय में उनको प्रेरणा देने का प्रयास करते हैं और उनके अंदर सच के प्रति या भगवान के प्रति आकर्षण जागृत करने का प्रयास करते हैं| या नहीं तो गुरु किसी न किसी साधु महात्मा के हृदय में एक ऐसी प्रेरणा देते हैं जिससे कि वह साधु उस शिष्य के पास जाकर उसे भगवान के विषय में ज्ञान दें | अगर यह भी नहीं संभव हो पाया तो कहां जाता है कि फिर गुरु स्वयं ही आ जाते हैं | गुरु स्वयं आकर उन्हें पुनः वो दिव्य ज्ञान देते हैं | इस प्रकार से गुरु अपनी जिम्मेदारी कभी छोड़ते नहीं हैं जब तक हमें श्री कृष्ण के चरण कमलों तक पहुंचा ना दें तब तक वो छोड़ते नहीं है | लेकिन सबके साथ गुरु यह नहीं करने वाले | उन्हीं लोगों के साथ करेंगे जो सत शिष्य हैं और वही व्यक्ति सत शिष्य है जो भक्ति सिद्धांत सरस्वती महाराज ने कहा है जो गुरु के द्वारा दी गई आदेशों का सत प्रतिशत पालन कर रहा है | पूर्ण रुप से पालन करना हमारे हाथ में नहीं है | हम कह नहीं सकते | लेकिन पूर्ण रूप से इतनी तो हमारी जिम्मेदारी बनती ही है कि हमारी ओर से शत प्रतिशत प्रयास हो, किसी भी प्रकार का कोई समझौता ना हो | और अपने पूर्ण प्रयास के बाद वह हो नहीं पाया तो उसे स्वीकार किया जाएगा | परंतु यदि प्रयास ही नहीं किया किसी व्यक्ति ने, तो फिर उसे माना नहीं जाएगा | तब वह सत शिष्य नहीं कहलाएगा | इस प्रकार से गुरु जिम्मेदारी लेते हैं | एक बार परम पूज्य भक्ति रसामृत स्वामी महाराज के पास एक भक्त आए थे, उनके जीवन में एक समस्या चल रही थी, उस समस्या को लेकर वे बहुत ही परेशान थे, उन्होंने अन्य भक्तों से सुझाव मांगे थे कि मेरे जीवन में यह परिस्थिति है तो मैं क्या करूं? हर लोग अपने अपने प्रकार से उन्हें सुझाव दे रहे थे, आप ऐसा करो, आप ऐसा करो, सभी की अपनी-अपनी समझाने की मनोवृति है और विभिन्न प्रकार से लोग उन्हें समझा रहे थे | जब वे महाराज के पास आए थे तो उन्होंने महाराज को बताया कि मैं कई लोगों से मिला और सब लोग मुझे अलग-अलग सुझाव दे रहे हैं मुझे समझ नहीं आ रहा है कि मुझे क्या करना चाहिए, आप मुझे बताइए कि मैं क्या करूं | महाराज ने कहा कि देखिए आपको वही करना चाहिए जो गुरु बताते हैं क्योकि बाकी सभी लोग सलाह देकर निकल जाएंगे, कोई जिम्मेदारी नहीं लेने वाले हैं, गुरु ही एक ऐसे व्यक्ति हैं जो की सलाह देने के बाद आपके उद्धार होने तक आपकी जिम्मेदारी लेंगे | इसलिए शास्त्रों में कहा जाता है कि गुरु की बातों को हमें सबसे ज्यादा महत्व देना चाहिए | इसलिए गुरु शब्द का एक यह अर्थ भी है -- भारी | यदि सारी की सारी दुनिया एक बात कहे और गुरु दूसरी बात कहे, तो किनकी बात माननी चाहिए? गुरु की बात माननी चाहिए | भारी का अर्थ यही है | जिस प्रकार से गुरु हमारी जिम्मेदारी लेते हैं, हमें भी गुरु को उतना महत्व देना चाहिए | योगमाया शक्ति के प्रभाव से, उनकी सहायता के साथ गुरु हमेशा अपने शिष्यों का ख्याल या देखभाल रखते हैं चाहे शिष्य किसी भी योनि में क्यों ना हो, किसी भी जन्म में भी क्यों ना हो, गुरु अपने शिष्यों की देखभाल करते हैं, भगवान की योगमाया शक्ति इस कार्य में गुरु की सहायक बनती है | और अंत में यह भी बात है कि जो व्यक्ति गुरु के प्रति प्रेम रखता है, वेदों में हमने पढ़ा जिस प्रकार का प्रगाढ़ प्रेम हमारे अंदर गुरु के प्रति विकसित होता है, वैसा ही समान प्रेम भगवान के प्रति होता हैं | जिस प्रकार का संबंध हम गुरु के साथ विकसित कर संकेंगे, वह प्रतिबिंबित करेंगे हमारे भगवान के साथ क्या संबंध हैं। जिन व्यक्तियों का गुरु के साथ कोई अर्थपूर्ण वास्तविक संबंध नहीं बन पाया तो उनका भगवान के साथ भी संबंध नहीं हैं। क्योंकि इस प्रकार कहा जाता है कि गुरु भक्ति और कृष्ण भक्ति दोनों एक ही हैं। गुरु भक्ति के बगैर दिव्य ज्ञान प्रकट नहीं होता क्योंकि "दिव्य-ज्ञान हृदय प्रकाशित" | दिव्य ज्ञान ह्रदय में प्रकट होता है दिव्य ज्ञान केवल पुस्तकों में या प्रवचनों में ही नहीं मिलता, इसलिए गुरु के साथ संबंध को हमे उतना महत्व देना चाहिए| अगर हम कर्तव्यों की बात करें तो सबसे पहले गुरु के प्रति हमारी जो दृष्टि है या समझ है वह बिल्कुल स्पष्ट होनी चाहिए अगर वहां पर कमी है तो उसे तत्व भ्रम कहा जाता है, उस तत्व भ्रम के कारण आगे के कर्तव्यों में भी कमी आ जाऐगी क्योंकि वहां भ्रम तत्व है, भ्रम तत्त्व व्यक्ति गुरु को लेकर सही समझ नहीं रखता हैं। इसका मतलब सही विजन(दृष्टि) क्या है? अपराध के अंतर्गत हम कई बार यह भी कहते हैं कि गुरु को साधारण मनुष्य मानना क्योंकि जो व्यक्ति गुरु को एक साधारण मनुष्य मानने लगेगा तो वह गुरु के बातों को भी साधारण मानेगा और गुरु के कार्य को भी साधारण मानेगा | जब बातों को साधारण मानेंगे तो गुरु अवज्ञा होगी और जब कार्यों को साधारण मानेंगे तो गुरु के प्रति अपराध होगें | बातों को भी साधारण मानेगा फिर कार्यों को भी साधारण मानेगा| जब बातों को साधारण मानेगा तो अवज्ञा होगी और कार्यों को साधारण मानेगा तो गुरु के प्रति अपराध होंगे| फिर उसका हम न्याय संगत विश्लेषण करने लग जाएंगे कि यह जो कह रहे हैं वह सही है कि नहीं। शायद हो सकता है यह सही ना हो फिर उसी तरह हम उनके कार्यों को भी साधारण मानने लग जाएंगे तो उनके कार्य में भी कोई न कोई त्रुटि देखेंगे, निकालेंगे जिस प्रकार बाकी लोगों की निकालते हैं उसी प्रकार गुरु के कार्य मे त्रुटि निकालेंगे | इसलिए दृष्टि हमेशा सही रखनी होगी क्योंकि गुरु साधारण नहीं है फिर कौन है गुरु? जिन के विषय में इस प्रकार से कहा जाता है गुरु "कृष्ण-प्रिय-जन है" | मतलब कृष्ण के सन्निधि व्यक्ति है इसलिए हम कहते हैं "कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले " मतलब बहुत ही निकट है भगवान श्री कृष्ण के| इसलिए उन्हें यहां पर भी कहा गया है कृष्ण-प्रिय-जन या "राधा- प्रिय-सखी" इस प्रकार से भी माना जाता है नहीं तो नित्यानंद प्रभु के प्रतिनिधि के रुप में भी माना जाता हैं। ऐसे हम श्रीगुर्वाष्टक में भी गाते हैं "साक्षाद्-धरित्वेन समस्त शास्त्रैर्" सारे शास्त्रों में बार-बार कहा जाता हैं। सभी साधु जन सारे शास्त्रों में यह बात बार-बार कहते है कि गुरु साधारण नहीं गुरु साक्षात हरि हैं। तो यहां पर साक्षात हरि होने का क्या मतलब होगा? इसे हम इशोपनिषद से समझ सकते हैं वहां श्लोकों में कहा गया है "एकम् त्वं अनुपश्चति" मतलब एक है वह | किस प्रकार से एक है गुरु और कृष्ण। इच्छा में एक हैं। गुरु का मिशन(ध्येय) और भगवान का मिशन(ध्येय) अलग अलग नहीं है गुरु के इंटरेस्ट(रुची) और कृष्ण का इंटरेस्ट(रुची)अलग अलग नहीं है, गुरु की इच्छा और कृष्ण की इच्छा अलग अलग नहीं होती। अगर अलग-अलग होते तो गुरु ही नहीं होते क्योंकि गुरु मतलब कृष्ण के प्रतिनिधि होने चाहिए जो प्रतिनिधित्व नहीं कर पा रहे होते इसलिए उस सेंन्स(समझ) में दोनों एक हैं, रुचि के तौर पर इच्छा के तौर पर वह दोनों एक हैं | इसलिए गुरु के शब्दों को हमें उस प्रकार से मानना चाहिए, स्वीकार करना चाहिए जिस प्रकार से हम कृष्ण के शब्दों को मानते हैं। हम देख सकते हैं अर्जुन से किस प्रकार भगवान ने कहा “श्रीभगवानुवाच बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन | तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ||” (श्रीमद्भगवद्गीता 4.5) अनुवाद: -श्रीभगवान् ने कहा – तुम्हारे तथा मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं | मुझे तो उन सबका स्मरण है, किन्तु हे परंतप! तुम्हें उनका स्मरण नहीं रह सकता है | अर्जुन तुम और मैं अनेकों अनेकों जन्म लिए है परंतु सब मुझे याद है और तुमको कुछ याद नहीं है अर्जुन पूछते हैं कि भगवान में कैसे समझू कि आपने यही वाला ज्ञान विवस्वान को दिया है वहां पर अर्जुन के प्रश्न पूछने का ढंग आप देखिए वहां पर यह पता चलेगा कि अर्जुन भगवान की बात पर शंका लेकर चुनोती पुर्ण स्तर पर पूछ नहीं रहे हैं। वह इस प्रकार से पूछ रहे हैं कि भगवान आप के शब्द को मैं सत्य के रूप में मानता हूँ परंतु मैं मेरी बुद्धि की कमजोरी के कारण समझ नहीं पा रहा हूँ, यह किस प्रकार से हो सकता है तो उसका विश्लेषण करिए? वह इस भावना के साथ पूछते हैं उसी प्रकार से गुरु की बातों को मानना चाहिए कभी भी उन दोनों की इच्छाओं में और रुचि में कभी फर्क नहीं है और इस बात को स्वयं कृष्ण उद्धव गीता में भी बहुत स्पष्ट रुप से बताते हैं आचार्य मां विजानीयान्नवमन्येत कर्हिचित् । न मत्यंबुद्ध्यासूयेत सर्वदेवमयो गुरुः ॥ (श्रीमद्भागवत 11.17.27) अनुवाद:-मनुष्य को चाहिए कि आचार्य को मेरा ही स्वरूप जाने और किसी भी प्रकार से उसका अनादर नहीं करे । उसे सामान्य पुरुष समझते हुए उससे ईर्ष्या - द्वेष नहीं रखे क्योंकि वह सम देवताओं का प्रतिनिधि है । भगवान स्वयं कह रहे हैं कि आचार्य को मेरे से अभिन्न रुप मे देखना चाहिए। भगवान स्वयं बता रहे हैं अगर ओर कोई कहेगा तो सोचना पड़ेगा लेकिन भगवान स्वयं कह रहे हैं इस प्रकार से करना चाहिए। "सर्वदेवमयो गुरुः"। सारे देवों का निवास स्थान है गुरु के चरण | इस प्रकार से कह रहे हैं इसलिए श्रील प्रभुपाद जी लिखते है हमेशा गुरु को प्रणाम करते रहना चाहिए ज्यादा नहीं कह रहे हैं, हर बार नहीं कह रहे हैं बल्कि नित्य रूप से प्रणाम करना चाहिए। इसलिए एक बार श्रील प्रभुपाद जी के एक शिष्य प्रणाम नहीं कर रहे थे प्रभुपाद जी को, प्रभुपाद ने कहा अरे तुम्हें क्या दिक्कत है ? क्यों प्रणाम नहीं कर रहे हो? प्रभुपाद मुझे वह भाव नहीं आता है, करने का भाव नहीं आ रहा है इसलिए मैं नहीं कर रहा हूँ | फिर प्रभुपाद ने यह कहा आपका मन लगे या ना लगे फिर भी आप प्रणाम करो! प्रणाम करते रहने से वह भाव आएगा। प्रणाम करते रहने से प्रणाम करने का भाव अपने आप आएगा ।उसी प्रकार सदाचार के संबंध में कोई भी कार्यक्रम क्यों ना हो चाहे वह हम समझ पाए या नहीं भी समझ पाए उसे कर पाए या नहीं कर पाए उसके पीछे के सिद्धांत पता है या नहीं पता है फिर भी उसे हम अगर करते रहेंगे तो वह भावना अपने आप अंदर आऐगी, यही तो भक्ति का वैशिष्ट हैं। इस तरह से प्रणाम करना बहुत ही महत्वपूर्ण है, भाव के अंतर्गत भी भगवान प्रणाम के विषय में इतना कुछ बताते हैं भाव के संदर्भ मे जो परिभाषा सूत्र हैं। “मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु | मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।।” (श्रीमद्भगवद्गीता18.65) अनुवाद: -सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो | जो चार इंस्ट्रक्शन भगवान ने जो इस श्लोक में दिए हैं इसमें से एक महत्वपूर्ण यह है कि"मां नमस्कुरु" मुझे प्रणाम करो!, भाव के अन्तर्गत सबसे आखरी श्लोक में भी भगवान दो ही चीजों के बारे में बताते हैं। एक तो भगवान के नाम के विषय में और दूसरा भगवान को प्रणाम करने के विषय में, इसलिए प्रणाम हमें निश्चित रूप से और नियमित करने चाहिए चाहे हमारा मन लगे या ना लगे और हमेशा गुरु को हमें अपने ह्रदय में धारण करके चलना चाहिए क्योंकि प्रवचन में परम पूज्य राधा गोविंद गोस्वामी महाराज कहते हैं जब वसुदेव भगवान श्री कृष्ण को गोकुल लेकर जा रहे थे उस समय वसुदेव का वर्णन करते समयशुक गोस्वामी कहते हैं हे कृष्ण वाहक! कृष्ण को लेकर जा रहे हैं कृष्ण वाहक बने हैं वसुदेव कृष्ण के ही वाहन बने हैं | उसी प्रकार से गुरु का वाहन बनना होता है | एक बार श्रील प्रभुपाद जी मायापुर पहुंचते हैं वहां पर वे सीधा गौड़ीय मठ श्री कृष्ण गौड़ीय मठ जो मुख्यालय है वहां पर गौड़ीय मठ होते हुए आये, गौड़ीय मठ उतरे नही, सीधा हमारा जो मायापुर चंद्रदय मंदिर है वहां पहुंच गए और फिर अपने आवास पर चले गए | उस समय क्या हुआ की मायापुर में बहुत बड़ी हलचल मचने लगी, फिर प्रभुपाद जी के सभी गुरु भाई आपस में गौड़ीय मठ के लोग आपस में बात करने लगे देखिए बहुत बड़े गुरु हो गए इसलिए अभी अपने गुरु का दर्शन करने के लिए भी नहीं आ रहे हैं समाधि का दर्शन ही नहीं किया सीधे चले गए यह सब वह कहने लगे आपस में फिर धीरे-धीरे यह बात प्रभुपाद जी तक पहुंची फिर प्रभुपाद जी ने कहा ऐसा कोई क्षण होता ही नहीं मेरे जीवन में जो मैं अपने गुरु से अलग रहूं। हमेशा प्रभुपाद अपने गुरु श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज को अपने हृदय में धारण करके ही चलते, तभी तो जहां तक हो अपने सारे शिष्यों को संबोधित करते हुए प्रभुपाद यही कहते हैं कि आप सभी मेरे गुरु महाराज के द्वारा भेजे गए प्रतिनिधि है। मेरे गुरु महाराज के प्रतिनिधि है ऐसा मानते थें, जब की उनकी सेवा करने के लिए मेरे गुरु महाराज मुझे आप लोगों के द्वारा प्रोत्साहन दे रहे हैं। वे अपने शिष्यों के माध्यम से भी अपने गुरु का दर्शन कर पा रहे हैं। इस प्रकार प्रभुपाद जी कभी भी अपने गुरु से अलग नहीं हुए। इस प्रकार से हम चाहे एक स्थुल रुप में या व्यक्तिगत रुप में हमें संगति मिले या ना मिले फिर भी इस प्रकार से हमें हमेशा धारण करना चाहिए गुरु को धारण किया जाता हैं। श्रील प्रभुपाद अपने डायरी में वे यह भी लिखते हैं कि उन्हें तीन चीजों ने मदद की है हमेशा उनके जीवन में कितने भी कष्ट इत्यादि चीजें आई हो उन सभी का सामना करते हुए तीन चीजों ने मदद की है,उसमें से कहते हैं कि एक तो चैतन्य चरितामृत के आश्वासन और दूसरी एक बात कहते हैं कि हमेशा मेरे गुरु के द्वारा दिये गये आज्ञाओं का पालन करने के विषय में मैं चिंतन करते रहता हूंँ। इस प्रकार मै हमेशा गुरु की आज्ञा का मे मनन करता हूंँ और यही कारण रहा है कि प्रभुपाद इतनी सारी मुश्किलों को सामना करते हुए आगे बढ़े थें।एक समय किसी ने प्रभुपाद जी को पूछा कि प्रभुपाद जी आप इतने सफल हुए हैं इस क्षेत्र में प्रचार के क्षेत्र में इसका मूल कारण क्या हैं? प्रभुपाद जी दो चीजें बताते हैं वे दो चीजों का गुण गा रहे हैं वे कहते हैं शास्त्रों का यथारूप मैंने प्रस्तुत किया, कोई छेड़छाड़ मैंने नहीं की और दूसरा कहते हैं मैंने मेरे गुरु का सटीक अनुसरण किया यही दो चीजें मेरी सफलता का रहस्य हैं। इस प्रकार प्रभुपाद जी कहते हैं । यही चीज अगर हम भी अपने जीवन में अपनाएंगे तो निश्चित रूप से हम भी सफल बनेंगे । कहने के लिए तो बहुत सी बातें हैं परंतु समय हो चुका है, यहां पर हम समाप्त करेंगे और हम आप सभी से प्रार्थना करते हैं। वैसे तो सारी बातें तो केवल पढ़कर ही बोलना होता है, कोई बहुत बड़ी बात नहीं है आधे घंटे पहले मैंने पढ़ लिया और अभी बोल कर बता रहा हूंँ, यह बहुत बड़ी बात नहीं है परंतु इसका पालन करने में तो जीवन-जीवन निकल जाता है अगर आप सभी वैष्णवों की कृपा हमारे ऊपर रही तो निश्चित रूप से यथाशक्ति हम इन चीजों का पालन करने का प्रयास करेंगे आप सभी कृपा करके आशीर्वाद दीजिए कि इसे हम अपने जीवन में पालन कर सकें। धन्यवाद! हरे कृष्ण!!

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