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जप चर्चा दिनांक 14 अक्टूबर 2020 हरे कृष्ण! वृन्दावन धाम की जय! नवद्वीप धाम की जय! ये दोनों अभिन्न हैं। हरि! हरि! वृन्दावन के कृष्ण ही नहीं अपितु राधा भी नवद्वीप में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का रुप धारण करते हैं। वृन्दावन के कृष्ण ही नवद्वीप के श्री कृष्ण चैतन्य हैं। श्रीकृष्णचैतन्य राधाकृष्ण नहे अन्य। ( चैतन्य भागवत) अनुवाद:- भगवान चैतन्य महाप्रभु अन्य कोई नहीं वरन श्री श्री राधा तथा कृष्ण के संयुक्त रूप हैं। राधारानी भी नवद्वीप में गदाधर बन जाती हैं। ब्रजेन्द्रनन्दन येइ, शचीसुत हइल सेइ, बलराम हइल निताइ। दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल, ता’र साक्षी जगाइ-माधाइ॥3॥ अनुवाद:- जो व्रजेंद्रनन्दन कृष्ण हैं, वे ही कलियुग में शचीमाता के पुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) रूप में प्रकट हुए, और बलराम ही श्रीनित्यानंद बन गये। उन्होंने हरिनाम के द्वारा दीन-हीन, पतितों का उद्धार किया। जगाई तथा मधाई नामक महान पापी इस बात के प्रमाण हैं। बलराम, नित्यानंद बन जाते हैं और गोकुल नवद्वीप बन जाता है। वैसे वृन्दावन ही नवद्वीप बनता है और वृन्दावन के सभी वासी और स्वयं भगवान भी नवद्वीप में प्रकट होते है और प्रकट हैं। ऐसा नहीं कि एक समय वृन्दावन ही था, नवद्वीप नहीं था और अचानक फिर नवद्वीप उत्पन्न हुआ। ऐसी बात नहीं है। दोनों ही शाश्वत हैं। वृन्दावन भी सदा के लिए है और नवद्वीप भी सदा के लिए है। वैसे दोनों ही गोलोक हैं। आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभि- स्ताभिर्य एव निजरूपतया कलाभिः। गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥३७॥( ब्रह्मसंहिता) अनुवाद:-आनन्द-चिन्मयरसके द्वारा प्रतिभाविता, अपने चिद्रूपके अनुरूपा, चिन्मय रस स्वरूपा, चाँसठ कलाओंसे युक्ता, हादिनी-शक्ति-स्वरूपा श्रीराधा और उनकी कायव्यूह-स्वरूपा सखियोंके साथ जो अखिलात्मभूत गोविन्द अपने गोलोक-धाममें निवास करते हैं, ऐसे आदिपुरुष श्रीगोविन्दका मैं भजन करता हूँ। अखिलात्मभूत अर्थात श्रीकृष्ण गोलोक में निवास करते हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी गोलोक में ही निवास करते हैं। बृजवासी अथवा वृंदावन वासी गोलोक के ही निवासी हैं और नवद्वीप वासी भी गोलोक के ही निवासी हैं। वृंदावन के वासी नवद्वीप में अलग-अलग भूमिका निभाते हैं। दो दिन पहले जब हम संध्या आरती पर चर्चा कर रहे थे। दक्षिणे निताईचाँद बामे गदाधर। निकटे अद्वैत श्रीवास छत्रधर॥2॥ अर्थ:-उनके दाहिनी ओर नित्यानन्द प्रभु हैं तथा बायीं ओर श्रीगदाधर हैं। चैतन्य महाप्रभु के दोनों ओर श्रीअद्वैत प्रभु तथा श्रीवास प्रभु उनके मस्तक के ऊपर छत्र लिए हुए खड़े हैं। तब हमनें संध्या आरती का गीत हल्का सा गाया भी था और उसको थोड़ा समझाया भी था। तब किसी भक्त ने प्रश्न पूछा था कि वृंदावन की राधारानी नवद्वीप में गदाधर बन जाती है। वृंदावन में राधारानी का स्त्री स्वरूप होता है किंतु नवदीप में वह पुरुष रूप धारण करके आती हैं अर्थात पुरुष बन जाते हैं। इसको कैसे समझा जा सकता है कि वे वह राधा रानी हैं या नहीं है? वैसे हमने उस दिन भी कुछ समझाया था, कुछ संस्मरण हुआ था और यह समझाने का प्रयास किया था कि हां-हां, गदाधर ही राधा रानी के भावों के साथ हैं लेकिन हम ब्राह्य दृष्टि से देखते हैं। हमने उनके रूप को देखा कि यह पुरुष का रूप है। ऐसे में कोई संशय उत्पन्न हो सकता है। वैसे संशय करने की कोई आवश्यकता नहीं है। हरि! हरि! उनके कई हाव- भावों से पता ही चलता है कि गदाधर राधारानी हैं। हमनें उस दिन बताया भी था कि वह सदैव कृष्ण के सानिध्य का लाभ लेना चाहती हैं जोकि वृंदावन में नहीं होता। राधा रानी सदैव कृष्ण के साथ रहना चाहती हैं। उनका अंग संग चाहती हैं किंतु वह संभव नहीं हो पाता। वही राधा रानी नवद्वीप में गदाधर के रूप में प्रकट होती हैं। तब उनका लक्ष्य बनता है कि अब मैं कृष्ण का साथ कभी नहीं छोडूंगी। मैं अब कृष्ण के इर्द-गिर्द रहूंगी। कृष्ण का सानिध्य लाभ करूंगी। उन्होंने वैसा ही किया और उनको वैसा करते हुए जब हम देखते हैं, सुनते हैं व पढ़ते हैं तो यह समझ आना चाहिए कि हां हां, यह राधारानी तो हैं जो कृष्ण के साथ गदाधर के रूप सदैव रहने लगी हैं। 'दक्षिणे निताईचाँद बामे गदाधर' दक्षिणत्: औऱ बामतः। दक्षिणत् अर्थात दाएं और बामतः बाएं। दाएं में उनके बलराम जी हैं और बामे गदाधर अर्थात बाएं बगल में गदाधर हैं। वृंदावन में कृष्ण बलराम मंदिर में कृष्ण के दाहिने हाथ में बलराम खड़े हैं। याद है आपको? आपने कृष्ण बलराम के दर्शन किए है? वह अंग्रेज का मंदिर तो नहीं है लेकिन लोग कहते हैं 'अंग्रेज मंदिर'। लेकिन वह अंग्रेज मंदिर नहीं है, वह कृष्ण बलराम मंदिर है। कृष्ण के दाहिने हाथ में बलराम खड़े हैं। बलराम हइल निताइ। वही बलराम, नवद्वीप लीला में नित्यानंद प्रभु बने हैं। किबे दक्षिणे निताईचाँद बामे गदाधर'दाहिने हाथ में बलराम अब नित्यानंद प्रभु बने हैं। जब हम पञ्चतत्व का दर्शन करते हैं तब चैतन्य महाप्रभु के दाहिने तरफ नित्यानंद प्रभु का दर्शन करते हैं। आपने राधा श्याम सुंदर का दर्शन किया होगा या राधा माधव या राधा रास बिहारी या राधा पंढरीनाथ या राधा मदन मोहन या राधा गोविंद या राधा दामोदर का इन सारे दर्शनों में राधा रानी कहां खड़ी होती है? बामे गदाधर अर्थात बाएं हाथ अथवा बाय बगल में राधा रानी खड़ी होती हैं। जहां पंचतत्व का दर्शन है, वहां पर भी बाम गदाधर अर्थात बायीं तरफ गदाधर खड़े होते हैं। जैसे राधा रानी उनके बगल में खड़ी रहती हैं। ऐसे भी समझ में आ सकता है और आना चाहिए कि गदाधर राधा रानी हैं। हरि! हरि! नवद्वीप में कई बहुत सारे गौर गदाधर के मंदिर हैं। कभी कहते हैं गदाई गौरांग! गदाई गौरांग! गदाई गौरांग! गदाई के गौरांग के मंदिर हैं। गदाई कौन हैं? राधा रानी! राधा रानी के गौरांग अथवा गौर गदाई। नवदीप में ऐसा ही एक प्रसिद्ध मंदिर है। ऋतु द्वीप में जिसको चंपाहाटी भी कहते हैं, वहाँ पर गौर गदाधर अर्थात प्राचीन विग्रह ( प्राचीन मतलब 500 वर्ष पुराने विग्रह) की आराधना होती है। गौर गदाधर की आराधना एकदृष्टि से राधा कृष्ण की आराधना ही है और गौर निताई की आराधना कृष्ण बलराम की आराधना है। गौर नित्यानंद बोल! हरि बोल! हरि बोल! गौरंगा! नित्यानंद! गौरंगा! नित्यानंद! गौरंगा! नित्यानंद! नवद्वीप में यह सब चलता रहता है। गौर निताई कृष्ण बलराम हैं। गौर गदाधर राधा-कृष्ण हैं। हरि! हरि! एक समय मुकुंद दत्त ने गदाधर पंडित से कहा चलो, मैं तुम्हें एक विशेष महात्मा से मिलवाता हूं। वह दोनों विशेष महात्मा से मिलने के लिए गए। वे विशेष महात्मा पुंडरीक विद्यानिधि थे, वे गृहस्थ थे। वे उनके द्वार अर्थात उनके घर पर भी पहुंचे। उन दोनों (मुकुंद और गदाधर पंडित) ने पुंडरीक विद्यानिधि की लाइफ़ स्टाइल अथवा जीवनशैली को बड़े गौर से देखा। पुंडरीक विद्यानिधि का वैभव अथवा वहां का सारा फर्नीचर, वहाँ का ठाठ और पुंडरीक विद्यानिधि भी एक विशेष आसन पर बैठे थे। और वहाँ सिंपल लिविंग और हाई थिंकिंग का कोई नामोनिशान ही नहीं था। सादा जीवन तो दिख ही नहीं रहा था। सारा वैभव ही था। वहाँ ऐशो आराम की सारी सामग्री मौजूद थी। वे जब अपने नौकर चाकर का नाम पुकारते थे तब उनके सेवक वहाँ 'यस सर' करते हुए आते थे। जब उन्होंने यह सब देखा कि वहां चवरं ढुलाएं भी चल रहा है व पुंडरीक विद्यानिधि के सेवक उन को पंखा झल रहे हैं और भी कई प्रकार से पुंडरीक विद्यानिधि की सेवाएं हो रही हैं। यह सब देख कर गदाधर पंडित सोचने लगे कि हम यहाँ एक महात्मा के दर्शन के लिए आए थे लेकिन यह व्यक्ति अर्थात पुंडरीक विद्यानिधि तो एक साधारण आदमी ही है। यह कैसे संभव है। उनमें कोई लक्षण तो मुझे दिख नहीं रहा है। तब मुकुंद जो बगल में बैठे थे, उनको पता चलने लगा कि गदाधर पंडित क्या सोच रहे हैं। वे कुछ अच्छा नहीं सोच रहे हैं। वे पुंडरीक विद्यानिधि के चरणों में कुछ अपराध कर रहे हैं, उनको एक साधारण व्यक्ति समझ रहे हैं। तब मुकंद ने अचानक अहो बकी यं स्तनकालकुटं जिघांसयापाययदप्यसाध्वी। लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोअ्नयं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम।। ( श्रीमद् भागवतं ३.२.२२) अनुवाद:- ओह्ह, भला मैं उनसे अधिक दयालु किसी और की शरण कैसे ग्रहण करूंगा जिन्होंने उस असुरिनी (पूतना) को माता का पद प्रदान किया, यद्यपि वह कृतघ्न थी और उसने अपने स्तन से पिलाए जाने के लिए घातक विष तैयार किया था? यह उद्धव का गाया हुआ और विदुर जी का सुना हुआ वचन है इसमें भगवान की दयालुता का वर्णन है कि भगवान कितने दयालु हैं। उन्होंने पूतना पर भी कितनी दया दिखाई है। भगवान से और अधिक कौन दयालु हो सकता है?जब ऐसा भाव वाला वचन अथवा श्लोक का मुकुंद ने उच्चारण किया और पुंडरीक विद्यानिधि ने जैसे ही इसे सुना, तब पुंडरीक विद्यानिधि के हाव भाव में पूरी क्रांति हो गयी और उनमें पूरा कृष्ण प्रेम उमड़ आया। उनके शरीर में रोमांच, आँखों में अश्रु धाराएं और जहां जिस आसन पर बैठे थे, वहाँ से वे गिर पड़े और जमीन पर लौटने लगे और कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! पुकारने लगे। अब गदाधर पंडित उनमें सारे अष्ट विकारों व भक्ति के सारे लक्षणों का दर्शन कर रहे थे। उनको यह देख कर अचरज लग रहा था। वे सोच भी रहे थे कि इतने बड़े महात्मा? और मैं इनके संबंध में क्या सोच रहा था कि यह साधारण है, भोगी है, भोग विलास का जीवन जीते हैं। यह देखो कैसा वैभव? देखो कैसा ठाट बाठ ऐसा मैं सोच रहा था लेकिन अब मुझे समझ में आ गया है कि पुंडरीक विद्यानिधि सचमुच ही एक महान भक्त हैं। वे सोचने लगे कि मैंने जो अपराध के वचन सोचे या मैं वैष्णव अपराध कर रहा था, मुझे इस अपराध से मुक्त होने के लिए कुछ करना होगा तो उन्होंने पुंडरीक विद्यानिधि के चरणों में प्रस्ताव रखा कि 'कृपया मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कीजिए'' मुझे अपना शिष्य बनाइए' कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः | यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् || ( श्रीमद् भगवतगीता २.७) अनुवाद: अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चुका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ ।अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ। कृप्या मुझे उपदेश दें। अर्जुन ने भी ऐसा कृष्ण से कहा था, वैसा ही गदाधर पंडित कहने लगे। पुंडरीक विद्यानिधि ने उनको स्वीकार किया। पुंडरीक विद्यानिधि की जय! यह गदाधर पंडित ही राधा रानी हैं। पुंडरीक विद्यानिधि राजा वृषभानु हैं। राधा रानी की जय! महारानी की जय! बरसाने वाली की जय! जय! जय! जो आप कहते हो बरसाना, उसका वैसे नाम वृषभानुपुर है। राजा वृषभानु बरसाने के राजा रहे हैं। तप्तकाञ्चनगौराङ्गि राधे वृन्दावनेश्वरि वृषभानुसुते देवी प्रणमामि हरिप्रिये राधारानी वृषभानु सुता हैं। राधारानी वृषभानु नंदिनी हैं। पुंडरीक विद्यानिधि वृषभानु बने हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीला में वृषभानु, पुंडरीक विद्यानिधि बने हैं। उन्होंने पुंडरीक विद्यानिधि का शिष्यत्व स्वीकार करके अपना जो घनिष्ठ संबंध है, उसको पुनः स्थापित किया है। इस लीला से भी स्पष्ट होता है कि गदाधर पंडित राधारानी हैं। इस प्रकार का ऐश आराम कहो या इसे जीवन की शैली कहो। यह राजा, वृषभानु ही तो प्रकट हुए हैं। उनकी जीवनशैली राजा पुंडरीक विद्यानिधि के रूप में है। हरि! हरि! हम कुछ कुछ लक्षणों से यह संबंध स्थापित कर सकते हैं कि यह चैतन्य महाप्रभु की लीला के जो पात्र हैं या यह वृंदावन में भूमिका निभाने वाले व्यक्तित्व कौन हैं और अब नवद्वीप में यह, वह भूमिका निभा रहे हैं अर्थात वे अब अलग-अलग भूमिकाएं निभा रहे हैं। गदाधर पंडित राधा रानी ही हैं। हम उस दिन बता रहे थे कि जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने संन्यास लिया तो फिर नवद्वीप वासी तो नवद्वीप में ही रह गए और मायापुर वासी, मायापुर में ही रह गए। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपनी मैया शची माता के शिक्षा और आदेशानुसार जगन्नाथ पुरी के लिए प्रस्थान किया। अधिकतर नवद्वीपवासी नवद्वीप में ही रहे। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के परिकर व पार्षद, संगी साथी नवद्वीप में थे लेकिन गदाधर पंडित जगन्नाथपुरी पहुंच जाते हैं बाकी लोग नहीं जाते हैं लेकिन वे जाते हैं और जगन्नाथपुरी में चैतन्य महाप्रभु का सानिध्य अथवा अंग संग प्राप्त करते हैं। महाप्रभु जगन्नाथपुरी में गंभीरा में ललिता, विशाखा के साथ रहते थे अर्थात वह स्वरूप दामोदर और राय रामानंद के साथ रहते थे। स्वरूप दामोदर जो कि ललिता हैं और राय रामानंद, विशाखा है। स्वरूप दामोदर, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की प्रसन्नता के लिए भिन्न भिन्न गीतों का गायन करते हैं। वे चैतन्य महाप्रभु के भावों के अनुसार उनके भावों की पुष्टि व पोषण करते हुए गायन करते हैं अर्थात उनके भावों के अनुरूप कुछ गीत गाते हैं। स्वरूप दामोदर अपने गायन के लिए प्रसिद्ध थे। जहाँ तक कथा सुनने की बात है, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु गंभीरा से टोटा गोपीनाथ मंदिर जाते हैं जो कि कुछ दूरी पर अर्थात गंभीरा, जगन्नाथ मंदिर के पास ही है। वहां से काफी दूर टोटा गोपीनाथ मंदिर है। गदाधर पंडित गोपी नाथ के पुजारी बने हैं। वे टोटा गोपीनाथ की आराधना करते हैं। वहां के विग्रह किनके नाथ है? गोपीनाथ! गोपीनाथ कहो हो या फिर राधानाथ कहो। वहां राधानाथ की आराधना गदाधर पंडित किया करते थे। वहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु गदाधर पंडित से जाकर मिलते थे। गदाधर पंडित भी अपनी कथा के लिए प्रसिद्ध थे। वह श्रीमद्भागवत की कथा सुनाते थे। वह भागवतं के आधार पर कृष्ण की कथा गाथा सुनाते थे। राधा रानी ही गदाधर पंडित हैं,अब जब वह कथा सुनाते तो उस कथा के श्रवण के लिए कृष्ण, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में पहुंचते। इस प्रकार गदाधर पंडित को श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के सानिध्य का लाभ होता। प्रेम वैचित भी एक तरह से प्रेम का प्रकार है। गोपियां या राधारानी या अन्य उच्च कोटि के भक्त इसका अनुभव कर सकते हैं या करते हैं कहा जाए कि ऐसे भक्तों के साथ भगवान है भी तो उनको यह भय बना रहता है कि भगवान कभी भी यहां से जा सकते हैं, फिर मैं अकेली रह जाऊंगी। भगवान श्री कृष्ण अभी राधा रानी के साथ या किसी अन्य भक्त के साथ भाग ले रहे हैं परंतु ऐसा हो सकता है कि वह श्रीकृष्ण मुझे छोड़ कर चले जाएं, वे विरह की व्यथा का अनुभव करती हैं। जबकि कृष्ण तो वहीं उनके पास अथवा बगल अथवा गोद में ही हैं लेकिन ये भक्त सोचते हैं कि कृष्ण जा सकते हैं, तब मैं फिर अकेला रह जाऊंगा/ जाऊंगी या फिर सोचते हैं कि वह चले गए हैं, अब वे मेरे साथ नहीं हैं। भक्तिरसामृत सिंधु में इसे प्रेम वैचित्य कहा है। गदाधर पंडित भी ऐसा ही अनुभव किया करते थे। जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जाना चाहते थे तब गदाधर पंडित भी साथ में जाना चाह रहे थे। वैसे गदाधर पंडित को क्षेत्र संन्यास मिला था। गदाधर पंडित आजीवन ब्रह्मचारी रहे। उन्होंने कभी विवाह नहीं किया। वह किसके साथ विवाह करेंगे, उनका विवाह तो राधा रानी के प्राण वल्लभ के साथ हो ही चुका है। राधा वल्लभी हैं तो कृष्ण वल्लभ हैं। वल्लभ! वल्लभी!, वल्लभ!- वल्लभी! गदाधर पंडित अविवाहित रहे। ब्रह्मचारी रहे। हरि! हरि! पति व्रत का पालन किया। गदाधर पंडित की दृष्टि से चैतन्य महाप्रभु उनके पति थे। वे और किन के साथ विवाह करेंगे? जब वे जगन्नाथपुरी में थे, उनको क्षेत्र सन्यास दिया गया अथवा प्रभुदत्त देश दिया गया। प्रभु अथवा महाप्रभु ने उनको स्थान अथवा देश अथवा प्रदेश दिया कि यहां पर रहो और यहां सेवा करो। कभी कभी ऐसा आदेश, उपदेश गुरुजन /आचार्यजन करते हैं तो इसे प्रभुदत्त देश कहा जाता है अर्थात प्रभु द्वारा दिया हुआ देश। श्री चैतन्य महाप्रभु, गदाधर पंडित को प्रभु दत्त देश दे चुके थे। इसलिए उनका देश जगन्नाथपुरी था। जब चैतन्य महाप्रभु, वृंदावन के लिए प्रस्थान कर कर रहे थे अथवा वृंदावन की ओर जा रहे हैं। वे जगन्नाथपुरी को छोड़कर आगे कटक पहुंच कर और आगे जा रहे थे तो उनके पीछे पीछे गदाधर पंडित जा रहे थे। वैसे कुछ अन्य भक्त जैसे राजा प्रताप रुद्र, राय रामानंद भी जा रहे थे। कुछ गिने-चुने अधिकारी/ भक्त जा रहे थे लेकिन जब उनको चैतन्य महाप्रभु ने कहा की 'अब आप लौट सकते हो'। वे सब लौट गए। लेकिन जब गदाधर पंडित को कहा कि 'लौट जाओ', 'लौट जाओ', जगन्नाथपुरी लौट जाओ ऐसा पुनः पुनः कहने पर भी वे उनका पीछा नहीं छोड़ रहे थे। वे चैतन्य महाप्रभु के साथ जाना चाहते थे। मार्ग में एक नदी आई तो नदी को पार करना था। चैतन्य महाप्रभु नौका में चढ़ गए और गदाधर पंडित उनके साथ जाना चाहते थे कि वह नौका विहार करें या नौका में बैठ कर आगे उनके साथ जाएं लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने उनको साफ मना कर दिया। नहीं 'नदी मत पार करना' उस समय गदाधर पंडित की मनोस्थिति खराब हो गयी। वे वियोग के भाव में बेहोश हो कर उस नदी के तट पर गिर गए और क्रंदन करने लगे ,लौटने लगे और चैतन्य महाप्रभु की ओर देखते ही रहे। यह जो लीला है अथवा प्रसंग है, यह हमको स्मरण दिलाता है कि (क्या आपको याद है, याद आना चाहिए) जब अक्रूर, कृष्ण बलराम को वृंदावन से मथुरा ले गए अथवा ले ही गए, काफी विरोध तो हुआ, राधा रानी ने या गोपियों ने विरोध किया किंतु अक्रूर ने एक नहीं मानी। वे कृष्ण बलराम को ले ही गए। सोडुनीया गोपींना कृष्ण मथुरेसी गेला ।। अकृराने रथ सजविला । कृष्ण रथामध्ये बैसला ।।1।। कृष्ण गोपियों को वृंदावन में छोड़कर मथुरा आ गए। उस समय जो राधा रानी एवं गोपियों की जो मनोस्थिति हुई वैसा ही हाल गदाधर पंडित का हुआ जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी को छोड़कर और गदाधर पंडित को पीछे छोड़कर आगे बढ़ना चाह रहे थे तब गदाधर पंडित भाव विरह में थे। उनकी विरह की व्यथा कौन समझ सकता है। हरि! हरि! गदाधर पंडित की जय! गौरंगा! नित्यानंद! हरि! हरि! हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। जप करते रहो। चैतन्य महाप्रभु स्वरूप दामोदर से कीर्तन भी सुनते थे या गदाधर पंडित से कथा भी सुनते थे इसलिए हमें दोनों ही सुनना है। कीर्तनीय सदा हरि और क्या नित्यम भागवत सेवया करना है। भागवत दो प्रकार होते हैं। ग्रंथ भागवत और व्यक्ति भागवत। व्यक्ति भागवत जो आचार्यगण होते हैं। इस्कॉन संस्थापकाचार्य व्यक्ति भागवत हैं। हमारे गुरुजन व्यक्ति भागवत हैं, उनकी भी सेवा या अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ अथवा इस्कॉन या हरे कृष्णा मन्त्र के प्रचार कार्य की सेवा ही नित्यम भागवत सेव्या है। ग्रंथ भागवत और व्यक्ति भागवत नित्य भागवत है। इसलिए 'डू समथिंग प्रैक्टिकल' हर एक को अपने अपने गुणधर्मों या वर्ण आश्रमों के अनुसार सेवा करनी होती है। हरि! हरि! ग्रंथ वितरण की सेवा है अथवा अर्चा विग्रह की सेवा है या मंदिर मार्जन की सेवा है या फिर फंड धनराशि को जुटाने की सेवा है या मंदिर निर्माण की सेवा है या संडे स्कूल को चलाना है या युवकों के मध्य प्रचार करने की सेवा है। यार देख , तारे कह ' कृष्ण ' - उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु हय तार ' एइ देश ॥१२८ ॥ (चैतन्य चरितामृत) अनुवाद " हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । " यह सब सेवाएं भी नित्यम भागवत सेवया हो गई। श्रील प्रभुपाद इस प्रकार इस प्रकार इसकी व्याख्या करते हैं नित्यम भागवत सेवया केवल भागवतम् को पढ़ना व अध्ययन करना या सुनना नहीं है। व्यक्ति भागवत जो भक्त होते हैं, उनको भागवत कहा जाता है। भगवान के भक्तों को भी भागवत कहते हैं। वैसे द्वादश भागवत तो प्रसिद्ध हैं। इसलिए आपको अचरज नहीं लगना चाहिए कि जब नित्यम भागवत सेवया कहा तो भागवत के दो प्रकार कैसे हो गए? नित्यम भागवत सेवया... भागवत तो ग्रंथ है? ग्रंथ भी भागवत है और साथ में भगवान के भक्त भी भागवत हैं। यह सही समझ है। भागवत विद्या पीठ भी होता है। विद्यापीठ भी भागवत है। जैसे कई भक्त कहते है महाप्रसादे गोविन्दे भागवत है। भागवत महाप्रसाद की जय!भागवत प्रसाद। जो भगवान से संबंधित हैं, उसको भागवत कहते हैं। पाणिनि व्याकरण का इत प्रत्यय लगाने से भगवत शब्द का भागवत शब्द बन जाता है या भागवत नाम बन जाता है।इस प्रकार भागवत कई प्रकार के हैं। व्यक्ति भागवत तो है ही। भगवान के भक्त भी भागवत है। उनकी सेवा वपू सेवा और उनकी वाणी सेवा होती है। वाणी सेवा अर्थात उनके आदेश का पालन करना है। प्रतिदिन 16 माला का जप करो, यह वाणी सेवा हो गई। गुरु ने आदेश दिया या भक्तों का आदेश हुआ या भागवत का आदेश हुआ कि 16 माला का जप करो। यदि हम 16 माला का जप कर रहे हैं तो हमने क्या किया? हमनें वाणी सेवा की। तुम पदयात्रा कर लो, बैलगाड़ी संकीर्तन को चलाओ ऐसा आदेश हुआ और हम कर रहे हैं तो यह वाणी सेवा हुई। हरि! हरि! प्रति घरे गए भरे आमार आज्ञाय होय प्रकाश। ऐसा चैतन्य महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर और नित्यानंद प्रभु को कहा तब हरिदास ठाकुर और नित्यानंद प्रभु प्रचार के लिए निकल पड़े। उन्होंने जब जगाई मधाई को प्रचार किया तब हरिदास और नित्यानंद प्रभु वाणी सेवा कर रहे थे। आदेशों का पालन करना वाणी सेवा है। वे उनके आदेशों का पालन कर रहे थे। हरि! हरि! इस वक़्त यह वाणी सेवा है कि ब्रह्म मुहूर्त में समय पर उठो। मंगल आरती करो, यह वाणी सेवा है ब्रह्म मुहूर्त इज द बेस्ट पीरियड। 24 घंटों में इसके जैसा समय नहीं है। ब्रह्म मुहूर्त भक्ति के लिए अनुकूल समय है। जब हम ऐसे वचन सुनते हैं तो ऐसे करना चाहिए। यह वाणी सेवा हो गई। कई सारे उपदेश सुनने के उपरान्त भी भौतिक आसक्ति बनाये रखना यह दसवां नाम अपराध हुआ। जैसे कई बार बताया है यह करो, वह करो, ब्रह्म मुहूर्त में समय पर उठो, मंगल आरती करो, जप करो, अध्ययन करो, कृष्णार्जन करो लेकिन पुनःपुनः सुनने के उपरांत भी नहीं करना अर्थात वाणी सेवा नहीं करना है। क्योंकि हम भौतिक आसक्ति बनाए रखते हैं। प्रातः काल में जो मीठी नींद का समय है, हम उस मिठास को छोड़ना नहीं चाहते। हरि! हरि !ओके! यदि किसी का कोई प्रश्न या अनुभव तो लिखिए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

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