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30 अगस्त 19
हरे कृष्ण
क्या आप भक्त मुझे सुन पा रहे हो, भारत के भक्तों के लिए यह समय अनुपयुक्त है जप के लिए, क्योंकि यह रात का समय है। भारत से अधिकतर भक्त हैं जो हमारे साथ अभी जप कर रहे हैं, साथ ही निमाई प्रभु भी हैं लंदन से, वे हमारे साथ जप कर रहे हैं। इसके साथ ही साथ यूक्रेन मिडल ईस्ट आदि जगहों से भी भक्त हमारे साथ जप कर रहे हैं। इस कॉन्फ्रेंस की रिकॉर्डिंग कल सुबह भारतीय समय अनुसार वहां पर पुनः चलाई जाएगी। राधा प्रेम प्रभु जो कि दक्षिण अफ्रीका से है वे भी अभी हमारे साथ में जप कर रहे हैं। आप में से कुछ भक्तों के लिए यह समय उपयुक्त है जोकि भारत के अलावा अन्य देशों से है। लंबी यात्रा करने के पश्चात आज मैं चेक रिपब्लिक आया हूं, एक समय में इस देश को चेकोस्लोवाकिया कहते थे। अभी यह देश 2 देशों में बट गया है एक नाम है चेक रिपब्लिक और दूसरा स्लोवाकिया। मैं अभी चेक रिपब्लिक में हूं और राधा देश के समान यहां पर भी एक विशाल प्रोजेक्ट है। यहां गोशाला है, मंदिर है, फार्म है और यह भी ग्रामीण क्षेत्र है यह विशाल प्रोजेक्ट है और इसे कृष्ण ध्रुव के नाम से जाना जाता है। यहां पर आपके गुरु भाई और मेरे शिष्य वर्णाश्रम प्रभु हैं, जो यहां पर इसकी देखरेख करते हैं वे यहां पर पुन : वर्णाश्रम धर्म को स्थापित करने के लिए अत्यंत ही प्रयास कर रहे हैं।
श्रील प्रभुपाद वर्णाश्रम को स्थापित करना चाहते थे और एक समय प्रभुपाद जी ने कहा भी था मेरा अभी भी 50 प्रतिशत कार्य बाकी है, जब श्रील प्रभुपाद जी से पूछा गया की प्रभुपाद जी वह 50% कार्य क्या है, प्रभुपाद जी ने यही कहा कि मैं वर्णाश्रम स्थापित करना चाहता हूं। आज मैं आप सभी को यह बताना चाहता हूं और मुझको अत्यंत हर्ष हो रहा है आपको बताते समय की आज मैं कृष्ण ध्रुव जो हमारा फार्म हाउस है, जब मैं यहां पर पहुंचा तो यहां पर लगभग संपूर्ण यूरोप से जो 30 40 फार्म है, वहां के सभी लीडर जो कृषि और गोपालक में अग्रणी है सभी यहां पर आए और यहां पर हमारी एक बड़ी कॉन्फ्रेंस भी हुई।गौ रक्षा और कृषि पर इस्कॉन की मिनिस्ट्री भी है। यहां पर यह होता है कि प्रत्येक वर्ष जितने भी फार्म के लोग (जो कृषि करते हैं) यहां के भक्त 1वर्ष में एक फार्म पर जाते हैं और अगले वर्ष दूसरे फार्म पर जाते हैं और वहां पर इनकी कॉन्फ्रेंस होती है।
इस वर्ष ये सब यहां पर आए हैं और मुझे भी यह मौका मिला मैंने भी उन्हें कृषि और गौ रक्षा के ऊपर संबोधित किया। मैं अभी-अभी यहां पर आया हूं और यहां का प्रोजेक्ट अत्यंत ही विशाल है, मैं फिर कभी आप सभी को यहां के विशाल प्रोजेक्ट के बारे में बताऊंगा कि किस प्रकार से यहां पर कौन-कौन सी चीजें हैं। क्या आप सभी भक्त अपना जप कर रहे हैं? हम सभी से महाराज यह प्रश्न पूछ रहे हैं, वे कहते हैं कि आपने शपथ ली है प्रतिदिन जप करने की, अपना जप निरंतर चालू रखिए। आप अपना जप करते रहिए, जब मैं यहां पर आया वर्णाश्रम प्रभु ने मुझे बैठने के लिए एक कुर्सी अथवा उच्च आसन दिया। उन्होंने उस पर मुझे बिठाया, वे समझ रहे थे कि ये महाराज हैं और इसलिए भी इन्हें महाराज के समान एक उच्च आसन पर बैठना चाहिए। परंतु जब मैंने जप करना प्रारंभ किया तो मुझे वह सीट उपयुक्त नहीं लगी, क्योंकि जप करने के लिए उच्च सिंहासन पर बैठ कर जप करना ठीक नहीं है। वह अत्यंत ही भव्य सिंहासन था, वहां पर बैठकर जप करना (तृणादपि सुनीचेन) इसको चरितार्थ नहीं कर सकते, इसलिए जब मैंने जप करना प्रारंभ किया तो मैं उस सिंहासन से नीचे आ गया और मैं सामान्य आसन पर बैठकर जप करने लगा, क्योंकि इस प्रकार से हम स्वयं (तृणादपि सुनीचेन) इसके अनुरूप जप कर सकते हैं।
जप करने के लिए सिंघासन पर बैठना उपयुक्त नहीं था। आज पुनः मैं Chaitanya charitamrita सुन रहा था, चैतन्य चरितामृत मे, मैं यहश्रवण कर रहा था जब चैतन्य महाप्रभु वाराणसी में थे, उस समय उन्होंने वहां पर जो लीला संपन्न की उसका श्रवण कर रहा था, वाराणसी वासी जो मुख्य रूप से मायावादी हैं चैतन्य महाप्रभु के इस प्रकार जप कीर्तन नृत्य के विरुद्ध थे, और वे यह सोच रहे थे यह सन्यासी अत्यंत भावुक है। इस प्रकार से वह भावना को प्रकट कर रहा है वह ऐसा क्यों कर रहा है उसे तो धीर गंभीर होना चाहिए। एक समय चैतन्य महाप्रभु इन मायावादियों के गुरु (मायावादियों के अग्रणी प्रकाशानंद सरस्वती) मिले। जब वे प्रकाशानंद सरस्वती से मिले तो उन्होंने चैतन्य महाप्रभु को कहा कि आप तो एक सन्यासी हो आपको गंभीर होना चाहिए क्यों इस प्रकार कीर्तन नृत्य करते हो, आप भूमि पर लौटते हैं, रुदन करते हैं, आपको ऐसा नहीं करना चाहिए, आपको अत्यंत गंभीर होना चाहिए। इस पर चैतन्य महाप्रभु ने अत्यंत विनम्रता के साथ उनको उत्तर दिया (लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने ऐसा नहीं कहा प्रकाशानंद सरस्वती को, परंतु वह कह सकते थे कि एक समय वह निमाई पंडित के नाम से जाने जाते थे जो अत्यंत ही विद्वान थे, चैतन्य महाप्रभु ने यह नहीं कहा कि मैं निमाई पंडित के नाम से जाना जाता था
वह ऐसा कह सकते थे) उनकी दीक्षा हुई गुरु महाराज ईश्वर पुरी से, जब उनकी दीक्षा हुई उसके बाद उनमें यह परिवर्तन हो गया। चैतन्य महाप्रभु कहने लगे कि मैं दीक्षा के पश्चात में बदल गया मेरे भीतर यह परिवर्तन होने लगा, आप भी यह परिवर्तन मुझ में देख सकते हैं कि मैं किस प्रकार कीर्तन रुदन नृत्य करता हूं और जब मैंने भी यह परिवर्तन देखा तो पुनःअपने गुरु महाराज के पास गया और मैंने उनसे पूछा ( किबा मंत्र दिला गोसाईं किबा तारे बल जपिते जपिते मंत्र करीला पागल) गुरु महाराज आपने मुझे यह कौन सा मंत्र दिया है और इस मंत्र में क्या बल है इसका जप करते-करते मैं पागल हो गया हूं, ऐसा मुझे भी लगता है और अन्य लोग भी ऐसा कहते हैं। मैं यह जप करते हुए पागल हो गया हूं इस प्रकार चैतन्य महाप्रभु यह बात प्रकाशानंद सरस्वती को बता रहे हैं। इसके पश्चात ईश्वर पुरी और चैतन्य महाप्रभु के मध्य में क्या अन्य वार्ताएं हुई वह आगे प्रकाशानंद सरस्वती को बताते हैं। चैतन्य महाप्रभु प्रकाशानंद सरस्वती को वह संवाद बताते हैं जो चैतन्य महाप्रभु और उनके गुरु महाराज ईश्वर पुरी के मध्य हुआ, चैतन्य महाप्रभु कहते हैं कि जब मैंने गुरु महाराज से इस प्रकार पूछा, गुरु महाराज ने मुझे उत्तर दिया कि हे निमाई तुम क्यों आश्चर्यचकित हो रहे हो इससे तुम में परिवर्तन हो रहा है यह परिवर्तन अत्यंत ही शुभ है और स्वाभाविक है।
तुम जब हरे कृष्ण महामंत्र का जप कर रहे हो, यह इस हरे कृष्ण महामंत्र का प्रभाव है जिसके परिणाम स्वरूप तुम में यह परिवर्तन हो रहा है। हरिनाम जप का जो रिजल्ट है वह तो वास्तव में यह परिवर्तन ही है जो तुम में अभी हो रहा है, चैतन्य महाप्रभु ने उनसे कहा कि गुरुदेव में क्या करूं अब स्वयं भी मैं अपने वश में नहीं हूं, हरिनाम मुझे अपने वश में करके रखता है। मैं जानबूझकर इस प्रकार से कीर्तन नृत्य रुदन अथवा भूमि पर लोटन नहीं करता हूं, यह सब अपने आप हो जाता है वास्तव में यह अपने आप नहीं होता है हरिनाम मुझसे यह करवा देता है, मुझे इसका पता भी नहीं रहता कि ऐसा कब होता है, वास्तव में तो यह अपने आप नहीं होता, हरि नाम के द्वारा होता है, क्योंकि हरिनाम स्वयं कृष्ण है। इस प्रकार कृष्ण हरिनाम के माध्यम से ऐसा करवाते हैं, चैतन्य महाप्रभु कहते हैं जैसे-जैसे जप करता हूं वैसे वैसे मेरे में यह परिवर्तन होता है। जब प्रकाशानंद सरस्वती ने चैतन्य महाप्रभु से यह सुना( चैतन्य महाप्रभु अत्यंत विनम्रता पूर्वक प्रकाशानंद सरस्वती को ये पूरा संवाद बता रहे थे) इससे प्रकाशानंद सरस्वती अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने भी इस हरिनाम का जप करना प्रारंभ किया। सामान्यता मायावादी हरिनाम का जप नहीं करते और ऐसा कहा जाता है मायावादी कृष्ण अपराधी, उन्हें अपराधी समझा जाता है, और इसका कारण क्या है? मायावादी कृष्ण अपराधी इसलिए है क्योंकि कृष्ण के पवित्र नामों का जप नहीं करते, वे कृष्ण के नाम रूप गुण लीला आदि में इतनी श्रद्धा नहीं रखते हैं । वे समझते हैं
कि जो भगवान है वह तो ब्रह्म है जो एक श्वेत प्रकाश है, इस प्रकार से वे कृष्ण को समझ नहीं सकते कि भगवान के गुण रूप हैं। भगवान का क्या नाम है, इससे मायावादी अनभिज्ञ रहते हैं। इस प्रकार से जब प्रकाशानंद सरस्वती ने चैतन्य महाप्रभु से ये वचन सुने तो वे इससे अत्यंत प्रभावित हुए और उन्होंने चैतन्य महाप्रभु को समर्पण कर दिया। वे चैतन्य महाप्रभु के इस संकीर्तन आंदोलन में सम्मिलित हो गए। प्रकाशानंद सरस्वती एक बहुत बड़े गुरु थे लगभग 60,000 उनके शिष्य थे और एक क्षण में चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें भक्त बना दिया और वह अपने सारे शिष्यों के साथ चैतन्य महाप्रभु के साथ इस संकीर्तन आंदोलन में सम्मिलित हो गए।उन्होंने महाप्रभु की शरण स्वीकार की जब ऐसा हुआ तब चैतन्य महाप्रभु पुनः वाराणसी आए अथवा जिस स्थान पर वे प्रकाशानंद सरस्वती से मिले थे वहां पुनःगए, अपने स्थान पर पाकर सभी ने चैतन्य महाप्रभु को स्वीकार किया और वह इससे अत्यंत प्रसन्न हुए और तब वाराणसी के प्रत्येक स्थान पर हरे कृष्ण महामंत्र का जप होने लगा। प्रारंभ में वहां पर "ओम ब्रह्मचैतन्या" इस प्रकार की ध्वनि होती थी परंतु अब वाराणसी हरे कृष्ण महामंत्र के जप के स्वर से गुंजायमान होने लगी। इस प्रकार से चैतन्य महाप्रभु ने प्रकाशानंद सरस्वती और उनके 60,000 शिष्यों को भक्त बना दिया। आज जप चर्चा को यहीं विराम देते हैं, मैं आशा करता हूं कि यहां पर जो तत्व था उसको आप समझे होंगे और अन्य किसी दिन पुनः जप चर्चा करके हरि नाम के विषय में चर्चा कर सकते हैं।
हरे कृष्ण