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हरे कृष्ण जप चर्चा पंढरपुर धाम 17 जून 2021 928 स्थानो से भक्त जब कर रहे हैं । ठीक है !अभयचरणारविंद । तो अच्छा दृश्य है जब आप सबको जप करते हुए देखते हैं । हरि हरि !! और ऐसे मैं ही आपको नहीं देखता हूं , आप मुझे भी देखते हो या नहीं ? आपको जप करते हुए मुझे भी प्रसन्नता होती है । संभावना है कि आप मुझे जप करते हुए भी प्रसन्न होंगे । यहां तो कई सारे जप करते हैं । 928 स्थानों से हैं । जप करने वाले तो कुछ 1000/ 1500 तो आराम से हे ही । तो इतने सारे , कई साथ जप करते हैं । तो यह हो गए भी संकीर्तन ही हुआ । कर रहे हैं कीर्तन , कर रहे हैं जप किंतु जब मिलजुल कर रहे हैं ZOOM कॉन्फ्रेंस कल को इकट्ठा करती है । एक मंच बनता है या फोरम कहो , एक मंच पर हम जप करते हैं । यह बहुत शक्तिशाली अनुभव है । हरी हरी !! तो हम दूसरों से प्रेरित होते हैं । वह भी जप कर रहा है यह भी जप कर रहा है और यह करना सही है । सभी जप कर रहे हैं । मैं पागल नहीं हूं । (परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज एक भक्तों को संबोधित करते हुए) करुणा भी पागल नहीं है अकेले जप कर रहे हैं ! ऐसी तो बात नहीं हैं । अभी तो 1000 भक्त जप कर रहे हैं । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ वहां ऑस्ट्रेलिया में भी धिर प्रशांत भी जप कर रहे हैं । क्या करना सही है ? सभी जगह, नगर आदी ग्राम तो नहीं पहुंचे अबतक । कई नगरो में कई ग्राम में पहुंचे तो है लेकिन.. पृथ्वीते आछे यत नगर आदी ग्राम । सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम ॥ (श्री चैतन्य चरितामृत मध्य-लीला 25.264) अनुवाद:- इस पृथ्वी के प्रत्येक नगर तथा ग्राम में मेरे नाम का प्रचार होगा । इस पृथ्वी पर जितने नगर आदि ग्राम है इतने तो हम नहीं पहुंचे हैं किंतु मंजिल कुछ दूर नहीं है । वह दिन आने वाला है । अच्छे दिन आएंगे । और यह कोई सरकार की मोदी की घोषणा या भविष्यवाणी नहीं है । यह भविष्यवाणी तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की (जय) ! श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी हे तो उन्होंने कहा भविष्यवाणी की "पृथ्वीते आछे यत" पृथ्वी पर जितने हैं नगर आदी ग्राम "सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम" ऐसा होना ही है । भारत में अच्छे दिन आएंगे या नहीं आएंगे कौन जानता है, कब आएंगे ? हरि हरि !! किंतु इस अंतरराष्ट्रीय श्री कृष्ण भावना मृत संघ में तो अच्छे दिन आएंगे । आने वाले ही हैं ! यह हरि नाम सर्वत्र फेल के रहने रहना ही है । यह हरि नाम हरि ही है । तो कहने वाले ने या श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा मेरा नाम "पृथ्वीते आछे यत नगर आदी ग्राम" ,"सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम" मेरे नाम का प्रचार होगा । मेरा नाम पहुंचेगा हर नगर ग्राम में । भगवान क्या कह रहे हैं ? मैं पहुंचुगा । मुझ में, मेरे नाम में कोई अंतर नहीं है । तो मेरा नाम पहुंचेगा जो मैं कह रहा हूं तो सब कहे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु 500 वर्ष पूर्व की बात है तो मेरा नाम है तो मैं ही पहुंचुगा । तो भगवान जो भी इच्छा करते हैं , भगवान की इच्छा शक्ति भी है और कई सारे शक्तियां भी है । जैसे कि भगवान की ज्ञान सकती है , भगवान की इच्छा शक्ति है , भगवान की क्रिया सकती हैं । तो भगवान इच्छा करते ही हो गया यह जो कोई विचार मन मे प्रकट हो जाए तो ,तो हो गया बाकी सब व्यवस्था हो जाती है भगवान के अलग-अलग शक्तियों और व्यवस्था के अनुसार । इनको मिलना तो कोई खराब बात नहीं है , ऐसे कई सारे उदाहरण है । राजा प्रताप रूद्र तो भगवान श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से नहीं मिल रहे थे । यह राजा है फिर मैं सन्यासी हूं । सन्यासी क्यों मिलेगा ? राजा है तो तो फिर उसके साथ जुड़ा रहता है कामिनी और कांचन के मामले जुड़े रहते हैं । कुछ हिरणय , सोना कश्यपू , खइच आराम एसा जुड़ा रहता है तो चैतन्य महाप्रभु उस दृष्टि से सोच रहे थे नहीं नहीं मैं नहीं मिलना चाहूंगा । किंतु जब उस रथयात्रा के दिन देखा और रथ यात्रा आ रही है । जगन्नाथ पुरी धाम की ( जय ) , जगन्नाथ रथ यात्रा महोत्सव की ( जय ) । रथ बन रहा है । और स्नान यात्रा भी आ रही है तो रथयात्रा भी होगी । तो रथ यात्रा के दिन जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने देखा राजा प्रताप रूद्र को देखा ! कैसे देखा ? बड़े विनम्र भाव में देखा । तृणादपि सु - नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान - देन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥ ( श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.21 ) अनुवाद:- “ जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है , वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है । ' उनके मुंख में भी नाम है । जय जगन्नाथ ! जय जगन्नाथ ! भी कह रहे हैं राजा साथ में मुख में नाम हाथ में काम और राजा काम कर रहा है ! कौन सा ? झाड़ू पोछा लगा रहे हैं । राजा के हाथ में है झाड़ू वैसे तलवार भी थी लेकिन बगल में लटक रही है , तलवार को छु भी नहीं रहे हैं , लेकिन हाथ में लिया है झाड़ू । राजा के हाथ में झाड़ू और जगन्नाथ के समक्ष जिस मार्ग पर चलेंगे जगन्नाथ उस मार्ग को, उस रास्ते को कर रहे हैं साक्षात स्वयं पूरी के राजा प्रताप रूद्र । राजा प्रताप रूद्र झाड़ू लगा रहे हैं । तो यह जब देखा , तो फिर चैतन्य महाप्रभु सोच रहे थे तो उन्होंने अपना इरादा बदल दिया इनको मुझे मिलना चाहिए । हरि हरि !! ऐसी करनी करो ताकि भगवान हमें मिलने या देखने आएंगे । ऐसे श्रील प्रभुपाद कहा करते थे । तुम मिलना चाहते हो तो फिर भगवान मिलेंगे , नहीं मिलेंगे किंतु भगवान फिर तुम से मिलने चाहते हैं तुम ऐसे कार्यकलापों में लगे हो बड़े विनम्र भाव से , प्रेम मई सेवा कर रहे हो । तो फिर भगवान तुमको मिलना चाहेंगे तो फिर कौन रोक सकता है ? क्या भगवान को कौन रोक सकता है ? तो यहां वैसे चैतन्य महाप्रभु राजा प्रताप रूद्र को देख तो रहे थे ही किंतु ऐसा मिलना चाहिए जब चैतन्य महाप्रभु सोचे तो मतलब निकट से मिलना चाहिए । जय कांत में कुछ मिलना चाहिए ऐसा नहीं कि कोई भीड़ भाड़ मैं या जहां शोर शराबा है । तो कुछ दूरी भी है मैं यहां हूं । राजा प्रताप रुद्र दूर झाड़ू लगा रहे हैं तो मैं मिलना चाहूंगा आमने सामने । तो जैसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उन्होंने इच्छा की तो चैतन्य महाप्रभु के मन में इच्छा जगी तो हो गया काम । जय श्री राम ! हो गया काम । तो चैतन्य महाप्रभु सोचते हैं कि मैं राजा प्रताप रूद्र से मिलना चाहता हूं या कह रहे हैं कि भगवान बस भगवान की जैसी इच्छा होती है तो , तो सारी व्यवस्था हो जाती है । उनके खुद के हाथ से पैर से या कुछ करना नहीं होता है । भगवान कोई घटना चाहते हैं । रासक्रीडा चाहते हैं । श्रीबादरायणिरुवाच भगवानपि ता रात्रिः शारदोत्फुल्लमल्लिकाः । वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः ॥ ( श्रीमद् भगवतम् 10.29.1 ) अनुवाद:- श्रीबादरायणि ने कहा : श्रीकृष्ण समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण भगवान् हैं फिर भी खिलते हुए चमेली के फूलों से महकती उन शरदकालीन रातों को देखकर उन्होंने अपने मन को प्रेम - व्यापार की ओर मोड़ा । अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अपनी अन्तरंगा शक्ति का उपयोग किया । उस शरद पूर्णिमा के रात्रि को भगवान ने कुछ मल्लिका, कुछ पुष्प खिले हैं यह भी देखा और यह पूर्णिमा की रात्रि है यह भी अनुभव किया । चंद्रमा , "रन्तुं" रमने की इच्छा हुई श्री कृष्ण मन में "रन्तुं" इच्छा होते ही सारी व्यवस्था हो गई । और कुछ ही क्षणों में रास क्रेडा प्रारंभ हुई । तो बृंदा देवी और कार्यक्रम के प्रबंधक और उसकी सहायता में असंख्य गोपियां उनके अलग-अलग जिम्मेदारियां होती हैं । तो वहां वाद्य पहुंच गए । सर्वत्र पुष्ण खिल गए । और आकाश में तारे टीम टीम आ रहे हैं । सजावट भी हो गए । और भगवान ने भी मुरली बजाई । तो उस मुरली के नाथ को भी सुनी सभी गोपियों ने । अपने अपने घरों में । और जो भी काम कर रही थी सारे काम धंधे वही ठप हो गए । और सारी दौड़ पड़ी उस वन की ओर जिस वन में कृष्ण पहुंचे थे और जहां से मुरली का वादन किए थे मुरली वादक ने मुरली को मस्त-मस्त मुरली को सुनाया था । और जहां से वृंदा देवी ने भी अपने कई सारे दूती (स्त्रियां दूती )स्त्रीलिंग में । वह भी भेजें । ऐसे तोते भी होते हैं । वह पत्र व्यवहार या सूचना देने का कार्य करते हैं । तो यह सब श्री कृष्ण भगवान , "भगवानपि ता रात्रिः" भगवान होते हुए भी यह "रन्तुं" रमने की इच्छा हुई । इच्छा होते ही सारी व्यवस्था हो गई । हरि हरि !! तो वहां पर भी ; तो जगन्नाथपुरी को लौट आईए , श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ऐसी इच्छा की राजा प्रताप रूद्र से मिलना चाहिए तो उसी रथयात्रा के दरमियान जय श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते करते करते गुंडिचा मंदिर की ओर रथ प्रस्थान कर रहा था । किंतु फिर ऊपलूध कहते हैं, फिर भोग लगाने का समय हुआ जगन्नाथ का भोग तो फिर रथ को रोके , भोग लग रहा है तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु बगल के उद्यान में पहुंच गए । थके थे, लेट गए । तो उसी समय सार्वभौम भट्टाचार्य आदि भक्तों ने राजा प्रताप रूद्र को कहे जाओ जाओ यही समय है जाओ मिलो महाप्रभु से जाओ उनके चरणों की सेवा करो । और उनकी चरणों की सेवा , मालिश करो कुछ राहत दो । महाप्रभु ने बहुत कीर्तन नृत्य किए हैं । उनको आराम दो । और मसाच करते समय गोपी गीत गाना हां ! गोपी गीत गाओगे तो चैतन्य महाप्रभु के जो भाव है रथ यात्रा के समय वीरह भाव या गोपी भाव है राधा भाव इसकी पुष्टि होगी । महाप्रभु और प्रसन्न होंगे । उनसे जो गोपी गीत गा रहे हैं । पास से सेवा भी कर रहे हैं । मुख में है गोपी गीत , हाथ में है चरणों की सेवा । ऐसा करोगे तो मिल जाएंगे चैतन्य महाप्रभु, तुमको गले लगाएंगे । पहले से तुम्हारा मुंख भी नहीं देखना चाहते थे । और ऐसे तुम्हारे मन की स्थिति में राजा प्रताप रूद्र श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु तुमको गाढ़ आलिंगन देंगे । तो जब भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपना मन बना लिया राजा प्रताप रूद्र को मिलने का तो तब से फिर उस मिलन उस बल्लभ उद्यान उस उद्यान का नाम जगन्नाथ बल्लभ उद्यान में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु थे गाढ आलिंगन देने तक फिर सारी व्यवस्था के बाद यह होगा उसके बाद वह होगा उसका परिणाम क्या होगा श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु राजा प्रताप रूद्र को मिलेंगे और गाढ आलिंगन देंगे । फिर सारी व्यवस्था , क्रिया शक्ति या अलग-अलग शक्तियां या युक्तियां कार्यार्न्वीत होती है । और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु या कृष्ण कहो उनकी इच्छा की पूर्ति होती है । हरि हरि !! तो मैं यह इसलिए कह रहा था कि चैतन्य महाप्रभु ने इच्छा की है और इच्छा को छिपा के नहीं रखे हैं उसको घोषित किए । और वह इच्छा जिसको हम भविष्यवाणी कह रहे हैं, चैतन्य महाप्रभु के भविष्यवाणी । "पृथ्वीते आछे यत नगर आदी ग्राम । सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम" तो भगवान की अगर ऐसी इच्छा है भगवान की ऐसी भविष्यवाणी है तो क्या होगा ? यह सच होके ही रहेगी । अब तो हम सब अनुभव कट रहे हैं कि हरिनाम कितने सारे नगरों में और कितने सारे ग्रामों में या पद यात्रा के माध्यम से कितने सारे ग्रामों में वैसे कुछ तो हम रिकॉर्ड रखते हैं कुछ संख्या है किंतु असंख्य ग्राम हो रहे हैं जहां बिहारी नाम यह नाम हट्ट भी खुले हैं । बंगाल उड़ीसा में और स्थानों पर भी । वैसे नित्यानंद प्रभु ने ... नदिया-गोद्रुमे नित्यानन्द महाजन । पातियाछे नाम-हट्ट जीवेर कारण ॥1॥ अनुवाद:- (1) भगवान्‌ नित्यानंद, जो भगवान्‌ कृष्ण के पवित्र नाम का वितरण करने के अधिकारी हैं, उन्होंने नदीया में, गोद्रुम द्वीप पर, जीवों के लाभ हेतु भगवान्‌ के पवित्र नाम लेने का स्थान, नाम हाट का प्रबन्ध किया है । आनंद प्रभु ने नाम हाट्ट खुले हैं । (श्रद्धावान जन हे, श्रद्धावान जन हे) ( हे सच्चे, वफादार वयक्तियों, हे श्रद्धावान, विश्वसनीय लोगों, हे भाइयों! ) श्रद्धा बांन लोग उस नाम हट्ट मैं आएंगे । हाट्ट मतलब दुकान/बाजार हाट्ट । मराठी में चलता है बाजार हाट्ट । तो नाम हाट्ट । पवित्र नाम का बाज़ार । तो नित्यानंद प्रभु ने शुरू किया था जब चैतन्य महाप्रभु में नित्यानंद प्रभु को आदेश दिया था जाओ ...दरवाजे से दरवाजे तक आ जाओ बंगाल को और हरी नाम को प्रचार करो । मैंने तो भविष्यवाणी की है । "सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम" उसे सच करके दिखाओ । हे नित्यानंद , हे हरिदास । तो उसी योजना को आगे भक्ति विनोद ठाकुर आगे बढ़ाएं । श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर । गलती कुछ भक्ति विनोद ठाकुर उन दिनों में भी यह बंगाल में सिर्फ चल रहा था हरि नाम का प्रचार प्रसार । तो श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर गोडिय मठ के स्थापना कीए । और सारे भारत भर में फैलाएं । भारत में 60 गोडिय मठ की स्थापना किये ।और 4 मठ भारत के बाहर विदेशों में 4 मठ । तो इस प्रकार 64 मठो कि स्थापना किए श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर । और फिर श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर 1992 में कोलकाता में अभय बाबू से कहें तुम बड़े बुद्धिमान लगते हो, तुम अंग्रेजी भाषा में विदेश में प्रचार करो । तो उस आदेश का पालन करने के लिए पूरे जीवन भर तैयारी कर रहे थे अभय बाबू । फिर 1922 में अभय बाबू थे लेकिन फिर 1932-1933 में "अभयचरणारविंद" अभयचरण बने । उनका नाम "अभयचरणारविंद" और फिर मुझे याद आ रहा है कि 1950 में वैष्णव ने उनको भक्ति वेदांत उनको एसी पदवी दी "भक्तिवेदांत" । 1958 में सन्यास लिए तो, तो फिर हुआ । तो स्वामी भी जुड़ गया तो इस प्रकार उनके नाम 'अभयचरण' था 'अभयचरणारविंद' भक्तिवेदांत' हो गए और फिर सन्यास लिए 'अभयचरणारविंद' या अभयचरण को संक्षिप्त में 'अभयचरण भक्तिवेदांत स्वामी' हो गए । और फिर विदेश में प्रचार पहुंचाए 'भक्तिवेदांत स्वामी' तो फिर पहले 'स्वामी जी स्वामी जी' विदेश के न्यू यॉर्क के युवक-युवतीयां । तो उन्होंने पता लगवाया की 'भक्तिवेदांत स्वामी' के गुरु महाराज को उनके शिष्यों प्रभुपाद उन्हें कहते थे । तो अब अमेरिकन शिष्यों ने भी 1 दिन मिले स्वामी जी से और कहेकी स्वामी जी स्वामी जी क्या हम आपको भी प्रभुपात कह सकते हैं ? तो स्वामी जी मान गए । तो फिर नाम हो गया 'अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद की ( जय ) । तो अभयचरण को या A.C संक्षिप्त में । यह AC मतलब एयर कंडीशन बगैरा कुछ संबंध नहीं है यहां । A.C मतलब अभय चरण । तो यह श्रील प्रभुपाद इस हरि नाम को, मतलब देखिए कैसे जो चैतन्य महाप्रभु की इच्छा जो घोषणा किए 500 वर्ष पूर्व । धीरे धीरे वह भविष्यवाणी सच की जा रही है । श्रील प्रभुपाद इसको और आगे बढ़ाया । फीर श्रील प्रभुपाद बन गए जैट् एज् परिब्राकाचार्य । जंबो जेट में ब्रह्मण करने लगे । और 14 बार सारे विश्व का भ्रमण किये । और जहां जहां गए वहां वहां ऐसी भगवान की व्यवस्था से ही ; वहां मांग रहा हरि नाम का, हरि नाम का तो हो या हरि की कहो मांग रही । हरि हरि !! उन जीवो में में कुछ भगवान ने कुछ ऐसी इच्छा लालसा प्रकट की । मांग थी उनकी । हमें कृष्ण चाहिए ! हमें कृष्ण चाहिए ! हमें कृष्ण प्रसाद चाहिए । हमको यह चाहिए प्राचीन भारत की संस्कृति हमें चाहिए । हम सुसंस्कृत होना चाहते हैं । सही मायने में । आधुनिक जगत के लोग असभ्य है । उसको सु संस्कृत कहा नहीं जा सकता । दुनिया कहे सही यह यह आधुनिक सभ्यताएं है । वास्तविक में हम और असभ्यता हो रहे हैं । तो इसीलिए पछता रहे हैं । और हताश हो रहे हैं । और हिप्पी बने थे । आधुनिक सभ्यताओं का परिणाम क्या ? वह आपको हिप्पी बनाता है । किंतु श्रील प्रभुपाद ने उन हिप्पीस् को दीया भगवान का नाम दीया , भगवान को दिया , भगवान का प्रसाद दिया , भगवान की गाय की रक्षा की , सेवा दी । थे गौ भक्षक, प्रभुपाद ने उनको गौ रक्षक बनाया । और ... एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम् । एको देवो देवकीपुत्र एव ॥ एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि । कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ॥ (गीता महात्म्य ७) अनुवाद:- आज के युग में लोग एक शास्त्र, एक ईश्र्वर, एक धर्म तथा एक वृति के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं। अतएव सारे विश्र्व के लिए केवल एक शास्त्र भगवद्गीता हो। सारे विश्र्व के लिए एक इश्वर हो-देवकीपुत्र श्रीकृष्ण । एक मन्त्र, एक प्रार्थना हो- उनके नाम का कीर्तन, हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे। केवल एक ही कार्य हो – भगवान् की सेवा । और दिया फिर वृंदावन धाम , मायापुर धाम दिए । उनको तो कुछ जेरूसलम या मैक्का पता था क्या महीमा है जेरूसलम का , क्या है मैक्का का ? वृंदावन,मायापुर धाम की तुलना में वह नगण्य है । उससे कुछ प्यास पूछ नहीं रही थी जीवात्मा की । हरि हरि !! तो श्रील प्रभुपाद ने इस हरि नाम का और भी आगे ... या हम कह सकते हैं 'अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ" का स्थापना करके संस्थापक आचार्य बने श्रील प्रभुपाद 1966 मे । यह सारी व्यवस्था किसलिए काकी इस्कॉन की भी व्यवस्था स्थापना हुई । यह मंच बन गया । और यह सब के पीछे उद्देश्य क्या है ? या लक्ष्य क्या है ? "पृथ्वीते आछे यत नगर आदी ग्राम । सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम" मेरे नाम का प्रचार सर्बत्र होगा । चेतो - दर्पण - मार्जन भव - महा - दावाग्नि - निर्वापणं श्रेयः कैरव - चन्द्रिका - वितरणं विद्या - वधू - जीवनम् आनन्दाम्बुधि - वर्धन प्रति - पद पूर्णामृतास्वादन सर्वात्म - स्नपन पर विजयते श्री - कृष्ण - सङ्कीर्तनम् ॥ ( श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लिला 20.12 ) अनुवाद:- भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतल और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बना । सङ्कीर्तन् आंदोलन के ( जय !) तो यह सब हम देख रहे हैं । इसी फोरम में इतने सारे भक्त जप कर रहें हैं । कितने नगरो कि , कितने ग्रामो से यहां एकत्रित हुए हो । मायापुर से बैठे हो । और कहां कहां से आप हो । नागपुर के हैं , सोलापुर हैं, पंढरपुर के हैं । कई सारे पुर भी हो गए , कई सारे नगर भी हो गए । कई सारे हरे कृष्ण ग्राम भी बन गए गांव । मारवाड़ी के भी हैं । और भी कई गांव के कहां कहां से हो आप ? सेक्स वीडियो गांव और नगर है । हमारे सामने ही बैठे हैं । कई सारे स्थानों से । 934 मॉरीशस के गांव के नगरों में, यहां थाईलैंड, बर्मा है , या नेपाल के भक्त जप कर रहें हैं । कुछ साउथ अफ्रीका से हैं , यूक्रेन के भक्त , रशिया जिनके रात अभी वह तो विश्राम कर रहे हैं । संध्या आरती की हो गई । संध्या आरती और मंगला आरती के बीच में कुछ विश्राम कर लेते हैं । तो कुछ विश्राम कर रहे हैं तो कुछ जगे हैं । यह सब उठते ही कीर्तन कर रहे हैं, गा रहे हैं । तो यह सब दृश्य देख के दिल खुश होता है । मेरा तो होता है । आपने तो कुछ कहा नहीं । लेकिन आप के मुख के हंसी से पता चल रहा है इतना तो देख रहा हूं । सुनता नहीं रहा हूं लेकिन मुख दिमाग का पटचित्र होता है । आप कीजिए शरीर के जो हाव भाव है से पता चलता है कि आप प्रसन्न होनी चाहिए । शुद्ध भक्त प्रसन्न हो कि नहीं ? प्रसन्न तो लग रहे हो । ठीक है ! चांट् हरे कृष्णा एंड बी हैप्पी ( हरे कृष्ण जप कीजिए और खुश रहिए ) । और औरों को भी खुश देखना चाहते हो ! चाहते हो कि या नहीं ? आप कौन हो ? पर दुखे दुखि या सुखी ? दो प्रकार के लोग होते हैं ! औरों का दुख देखकर कुछ लोग दुखी होते हैं । तो ऐसे भी राक्षस है आधुनिक सभ्यताओं के; असभ्यता के लोग पर दुखे सुखी । औरों का दुख देखकर सुखी हो जाती है । लेकिन आपतो वैष्णव हो । भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्र्वरम् । सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ ( भगवत् गीता 5.29 ) अनुवाद:- मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है । आप औरों की मित्रों भी हो । औरों को सुखी देखना चाहते हैं तो उनको भी जप करने के लिए प्रेरित करो । यह देखो कहीं ना कहीं शुरुआत कर सकते हैं । जप से शुरू कर सकते हैं या गीता का अध्ययन से शुरू कर सकते हैं । मंदिर का दौरा शुरू कर सकते हैं । कहीं ना कहीं उनके अपनी श्रद्धा और समझ के साथ या जो भी उसके अनुरूप जिसके लिए वह तैयार है उनको जोड़िए । कृष्ण के साथ जब वहां जुड़ जाता है सभी सुखी हो जाते हैं । कृष्ण बहुत मीठी है । कृष्ण का नाम मीठा है , कृष्ण के गीतामृत है, कृष्ण के प्रसाद का क्या कहना ! कृष्ण के दर्शन मधुर है... "मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं" तो देख लो । तो लगे रहो । ठीक है । ॥ हरे कृष्ण ॥

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