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*जप चर्चा,* *9 अप्रैल 2021,* *पंढरपुर धाम सें* हरे कृष्ण, 812 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। *गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!* *जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद,* *जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्त वृंद।* *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।* *हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* कल का जो अनुभव रहा, किनका?नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का। वैसे तैयारी तो की थी और प्रार्थना भी की थी। तो भगवान ने उनकी प्रार्थना भी सुनी। मरणा हो तो कैसे मरें?नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के जैसे,मरण प्राप्त हो।नही तो कया होगा?जय श्रीराम हो गया काम। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का जीवन भी आदर्श और मरना भी आदर्श। आचार्य अपने आचरण से सिखाते हैं। अपने उदाहरण से वह दूसरों को प्रेरित करते हैं। शिक्षा देते हैं। जप तो करते ही रहिए। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम* *हरे हरे।।* वह कितना सारा जप करते थे यह भी आदर्श हैं। थोड़ा भी नहीं कितना अधिक जप करते थे। कीर्तनीय सदा हरी का वह बड़ा उदाहरण हैं।उनका जीवन चरित्र एक आदर्श जीवन हैं। *संख्यापूर्वक का नामगान नति ही ही* ऐसा षडगोस्वामीयो के संबंध में भी हम कहते हैं। *संख्यापूर्वक नामगान नति ही ही* संख्यापूर्वक नामगान और नति ही ही मतलब विनम्रता के साथ। *तृणादपि सुनिचेन तरोरपि सहिष्णुना।* *अमानिनामानदेन कीर्तनीय सदाहरी।।* नाम आचार्य हरिदास ठाकुर संसार के समक्ष आदर्श रहे।उनका जीवन भी एक आदर्श और मरना भी एक आदर्श। तो कल हमने,मैं कहने जा रहा था,कि कल हमने सुना, लेकिन जब सुनते हैं तब देखते भी हैं। हमने देखा नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का परायन, प्रस्थान।हम उनके तिरोभाव महोत्सव को देख रहे थे। जैसे सुन रहे थे उसी के साथ देख भी रहे थे। देखने के लिए सुनो।सुनेंगे तो देखेंगे भी। हम कानों से देखते हैं,पहले सुनते हैं, फिर देखते भी हैं। हमने देखा कि कैसे नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का मरण भी आदर्श रहा। हरि हरि, *जन्म मृत्यु जरा व्याधि दुख दोषानुवर्षन* हमारे दुख के यह चार कारण हैं। श्रीकृष्ण ने कहा जन्म,मृत्यु, जरा और व्याधि। वैसे जन्म भी दुख का कारण हैं। जब आप कपिल भगवान को श्रीमद भगवतम में सुनोगे ,तो वो आपको जन्म की व्यथा का वर्णन करके सुनाएंगे। जब जीव गर्भ में होता हैं, तो उसको बहुत यातना और कष्ट होते हैं।आप पढ़ोगे, सुनोगे तो,रोंगटे खड़े हो जाएंगे। यह भयावह परिस्थिति है। जन्म भी दुख का कारण है। जन्म,मृत्यु ,जरा व्याधि। मृत्यु का भगवान ने पहले नाम लिया हैं, क्रम से तो नाम नहीं लिया। जन्म, जरा ,व्याधि ,मृत्यु ऐसे कहना चाहिए था। लेकिन,जन्म,मृत्यु, जरा, व्याधि कृष्ण ने ऐसे कहा।जन्म का जो द्वंद हैं, उसी को मृत्यु कहां है। जन्म और मृत्यु ऐसा संसार का द्वंद हैं । उसी में हम फसे और पीसे जा रहे हैं। और जरा और व्याधि, जरा और व्याधि का मृत्यु के साथ घनिष्ठ संबंध हैं। जरा और व्याधि मानो मृत्यु के प्रवेश द्वार ही है। हम जब जवान होते हैं,तब हम मृत्यु के संबंध में ज्यादा नहीं सोचते। मृत्यु क्या होती हैं? हमें क्या परवाह हैं इसकी। किसी को इसकी चिंता नहीं है। यह एक अनुभव की बात है। जवानी में या बाल अवस्था में, युवावस्था में मृत्यु की कोई चिंता नहीं करते। मृत्यु को कोई महत्व नहीं देता। विचार नहीं करता,वैसे करना तो चाहिए लेकिन नहीं करते। या ऐसी विचारधारा होती हैं कि मृत्यु के साथ हमारा कोई लेना देना नहीं । किंतु जब हम बूढ़े हो जाते हैं, वृद्धावस्था को प्राप्त करते हैं तब वृद्धावस्था से मृत्यु कोई ज्यादा दूर नहीं होती। वृद्धावस्था में ही किसी भी समय मृत्यु आ जाती है। मर जाते हैं। वृद्ध होना मतलब मृत्यु के निकट पहुंचना और अधिक अधिक मृत्यु के निकट पहुंचना। मृत्यु के विचार आ जाते हैं। मृत्यु के संबंध में सोचने लगते हैं। मृत्यु का जो भय होता है, उससे भयभीत होते हैं। चिंतित होते हैं। इसलिए शंकराचार्य ने भी कहा है। *वृद्धावस्था चिंतामग्न* वृद्धावस्था में व्यक्ति चिंतित रहता है। मृत्यु की चिंता, मृत्यु का भय रहता है और वृद्धावस्था में ही हम थोड़े बीमार चलते हैं। बाल्यावस्था या युवावस्था में हम बीमार नहीं होते। वैसे शरीर जो हैं यह एक यंत्र है। यंत्र पुराना होता है, मोटर गाड़ी पुरानी होती है, तो उसका जो यंत्र हैं,वह गेराज में रिपेयरिंग के लिए भेजना पड़ता हैं।पुरानी गाड़ी रिपेयरिंग मांगती है।शरीर भी एक यंत्र है ।यह भी पुराना होता है।और फिर धीरे-धीरे निकम्मा हो जाता हैं, कुछ काम का नहीं रहता। और काम भी अब थोड़ा कम ही करता है। वृद्धावस्था में जब बीमार हो जाते हैं,कुछ भी काम नहीं करते। मतलब बीमारी है और कई सारी बीमारियां है। कुछ बीमारियां तो धीरे-धीरे मरने कि ओर ले जाती हैं। जैसे धीरे-धीरे हम मर रहे हो, ऐसी कुछ बीमारियां होती हैं। और कुछ बीमारियां तुरंत भी हो सकती हैं। जैसे दिल का दौरा।दिल का दौरा चक्का जाम कर देता है। कुछ बीमारियां तुरंत हमारी जान ले लेती हैं। तो कुछ बीमारियां हमें वृद्धावस्था में धीरे-धीरे मृत्यु देती है। जो भी है मेरे कहने का मतलब तो यही था कि, हम वृद्ध हो जाते हैं और फिर वृद्धावस्था में धीरे-धीरे हम बीमार भी हो जाते हैं। और फिर हम रोगी बन जाते हैं। मरीज बन जाते हैं। मतलब हम मृत्यु के निकट पहुंच रहे हैं,और अधिक निकट पहुंच रहे हैं। कहीं अगल-बगल में नहीं,मृत्यु के पड़ोस मे ही रहते हैं। बीमारी के पड़ोस में ही मृत्यु रहती हैं। वृद्धावस्था कुछ दूर नहीं रहती। हरि हरि।। शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित को एक अंतिम उपदेश दिया हैं।उन्होंने एक अंतिम बात कही हैं, *त्वम तु मरीशीइष्यति पशुबुध्दिम् जही* शुकदेव गोस्वामी ने यह द्वादश स्कंद के चतुर्थ अध्याय में कहा हैं। शुकदेव गोस्वामी ने क्या कहा?उन्होंने कहा पशुबुध्दिम् जही हे राजा। या हे राजर्षि! तुम मरोगे, त्वम तु मरीशीइष्यति।तुम मरोगे या मैं मरूंगा यह पशु बुद्धि हैं। देहात्म बुद्धि हैं। ऐसा सोचना भी नहीं कि मैं मरूंगा। शुकदेव गोस्वामी और कुछ कहने वाले नहीं हैं।यह उनका फाइनल स्टेटमेंट है। तो अंतिम बार वह याद करा रहे हैं, राजा परीक्षित को। क्योंकि अंत में क्या करना हैं, अंते नारायण स्मृतिः। नारायण का स्मरण करना हैं। अंत में मृत्यु का स्मरण नहीं करना हैं। मृत्यु का स्मरण मतलब पशु बुद्धि हैं। मैं मरूंगा, यह देहात्म बुद्धि हैं। क्योंकि *न जायतें न म्रियते कदाचिन* श्रीकृष्ण ने कहा, हे अर्जुन!वह अर्जुन को कह रहे हैं। और यहां शुकदेव गोस्वामी राजा परीक्षित को कह रहे हैं।बात वही है,आत्मा अजर अमर है। वह कभी बूढ़ा नहीं होता। न जायतें न म्रियते। उसका जन्म भी नहीं होता,मृत्यु भी नहीं।जन्म से जायते संजयायतें उपजायते न जायतें। आत्मा का कभी जन्म नहीं होता। न म्रियते आत्मा का जन्म नहीं होता तो मृत्यु भी नहीं होती। आत्म साक्षात्कार की बात चल रही है। आत्मसाक्षात्कारी बनो और फिर आत्मसाक्षात्कारी के साथ में भगवत साक्षात्कारी बनो। *पशुबुध्दिम् जही* यह देहात्म बुद्धि हैं। *गुणपेत्रधातुके* गुणपेत्रधातुके अथार्त तीन प्रकार के धातु हैं,कफ,वायु,पित्त। आयुर्वेद के अनुसार यह शरीर इनसे बना है।यह शरीर इन तीन प्रकार के धातु से बना हैं, कफ, पित्त,वायु। गुणपेत्रधातुके यह देहात्म बुद्धि है। देह को ही आत्मा समझना। नहीं नहीं। तुम देह नहीं हो और हम भी,हम सब जो यह सुन रहे हैं, हम सब भी देह नहीं आत्मा है। इसी बात का शुकदेव गोस्वामी स्मरण दिला रहे हैं। तुम आत्मा हो और मैं परमात्मा भगवान हूं। तुम्हारा जन्म मरण से कोई संबंध नहीं है। ऐसी देहात्म बुद्धि त्यागो और मेरा स्मरण करो। *अंते नारायण स्मृतिः* तो जब शुकदेव गोस्वामी ने कहा कि ऐसी पशु बुद्धि त्यागो और पूछा भी थोड़ा आगे जाकर किं *भूय: श्रोतुमिच्छसि* और कुछ सुनना चाहते हो, और कुछ जिज्ञासा हैं?राजा परीक्षित ने उसके उत्तर में कहा *सिद्धोऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि भवता करुणात्मना*।जितना भी आपने सुनाया हैं, मैं आपका आभारी हूं। *अनुगृहीतोऽस्मि* आपका अनुग्रह मुझ पर हुआ है, मैं आपका आभारी हूं।कृतज्ञ हूं और *सिद्धोस्म्यि* और मैं सिद्ध हो चुका हूं। *अहं सिद्ध अस्म्यि* मतलब क्या? मैं सिद्ध हुआ हूं। तो सिद्ध मतलब क्या? मैं पूरा भगवत साक्षात्कारी, आत्म साक्षात्कारी बन चुका हूं। या जब हम साधना करते हैं, जब हम जप कि साधना करते हैं तो जप के साधन की सिद्धि किसमे है? कब कह पाएंगे हम कि हम साधन सिद्ध हो गए?हमारे साधना की सिद्धि किस में है? कृष्ण प्रेम प्राप्ति में। *श्रीमद् भागवतम प्रमाण अमलम प्रेम पुमार्थो महान* सिद्धि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में नहीं हैं, यह अधूरी बातें हैं। कृष्ण प्रेम, कृष्ण सेवा मे भाव उत्पन्न होना ही,जीवन की सार्थकता और साधना की सिद्धि हैं।मैं ऐसी सिद्धि को प्राप्त हो चुका हूं। राजा परीक्षित ने ऐसा कहा। और आगे शुकदेव गोस्वामी को द्वादश स्कंध के छठवें अध्याय में कहा कि *भगवंस्तक्षकादिभ्यो मृत्युभ्यो न बिभेम्यहम्* हें भगवन, क्योंकि वे भी भगवान हैं, क्योंकि वह ज्ञानवान हैं, इसलिए उनको भगवान कहां है। यह जो तक्षक पक्षी अभी मेरी प्रतीक्षा में हैं, उसका समय आ चुका हैं। लेकिन उस तक्षक से या तक्षक द्वारा जो मेरी मृत्यु होगी *अहं ना बिभेम्यि* मुझे उसका भय नहीं है, मैं निर्भय बन चुका हूं। *मामेकं शरणं व्रज* कर चुका हूं। फिर आपने कहा है कि जो भी आपके पूरी शरण में आ जाता है *मा शुचः* डू नॉट फियर ओ डिअर कम नियर आई एम हियर। भगवान ने गीता के अंत में कहा हैं कि डरो नहीं *मा शुचः* । राजा परीक्षित ने कहा की *सिद्ध अस्म्यि* मैं सिद्ध हो चुका हूं, निर्भय बन चुका हूं, मुझे भय नहीं है, मृत्यु का भी भय नहीं है, मैं तैयार हूं और *सिद्धोस्म्यि* मतलब मैं आपका स्मरण कर रहा हूं *अंते नारायण स्मृतिः*। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।* *हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।* तो मरण कैसा होना चाहिए? जैसे हरिदास ठाकुर का था।आपने नोट किया होगा।हरिदास ठाकुर के हाथ भगवान के चरण कमलों का स्पर्श कर रहे हैं और उनकी आंखें गौरांग महाप्रभु के सर्वांग का या मुखमंडल का दर्शन कर रही हैं। उनकी आंखें भ्रमर बन चुकी हैं या भ्रमर जैसा कार्य कर रही है। भ्रमर जैसे कमल पुष्प मे प्रवेश करता है या मंडराता रहता हैं,वहा जहां कमल के पुष्प खिले होते हैं।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की यह जो कमल लोचनी हैं या पद्मलोचनी हैं,वहां श्रील नामाचार्य हरिदास ठाकुर की आंखें स्थिर हैं। मुखमंडल पर स्थिर हैं। सर्वांग सुंदर गौर सुंदर का दर्शन कर रही है। और उनके मुख से नाम निकल रहा है *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।* *हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।* और वैसे ऐसा उल्लेख हुआ हैं कि उन्होंने कहा कि..क्या कहा? कौन सा नाम लिया?उन्होंने श्री कृष्ण चैतन्य कहां। तो पूरा लिंक पूरा भक्ति योग चल रहा है।*ऋषिकेन ऋषिकेश सेवनम भक्तिर उच्चते*। हरिदास ठाकुर अपनी इंद्रियों से भगवान की सेवा, भगवान के विग्रह की सेवा, भगवान की इंद्रियों की सेवा कर रहे हैं। ऐसी अवस्था में और ऐसे भाव भक्ति मे जब हरिदास ठाकुर तल्लीन थे *तब प्राण तन से निकले* तब उनके प्राण निकल गये। *प्राण प्रयाण समये कफ वात पित्तये कंठावरोधन विधो स्मरणम कुतस्ते*। तो इसीलिए इसे स्थगित नहीं करना, अब बूढ़े होने के बाद देखेंगे ऐसी बकवास बातें न करना। बुढ़ापा या वृद्धावस्था का अनुभव करेंगे तो फिर *कफ वात पित्तये कंठावरोधन* कंठ में अवरोध उत्पन्न होगा, फिर से घूर घूर ऐसी आवाज आएगी। नहीं नही।मुझे और नहीं रुकना। *कृष्ण त्वदीय पद पंकज पंजरान्ते* *अद्येव मे विशतु मानस राजहंशः ।* भाव वही है।जैसा हरिदास ठाकुर के साथ हुआ, वैसे ही राजा कुलशेखर भी यह प्रार्थना कर रहे हैं। *कृष्ण त्वदीय पद पंकज पंजरान्ते* पद पंकज यहां पर चरण कमलों की बात कर रहे हैं। आपके चरण कमल सदृश्य है। और मेरा मन यहां मन की बात कर रहे हैं।मेरा मन राजहंस हैं। *मनः षष्ठानी इंद्रियानी* वैसे मन श्रेष्ठ इंद्रिय हैं, इंद्रियों का राजा हैं मन। यहां राजा कुलशेखर कह रहे हैं मेरा मन राजहंस है, इस राजहंस को आपके चरणों का सानिध्य प्राप्त होने दो।अभी अभी।या फिर अभी नहीं तो फिर कभी नहीं। ऐसा भी हो सकता है।कल करे सो आज कर आज करे सो अब। शुकदेव गोस्वामी ने कहा कि मुझे आप की करुणा प्राप्त हुई।लेकिन हमको प्राप्त हो रहा है कोरोना। तो यह बीमारी, महामारी, एपिडेमिक फैल रही हैं, तो सावधान भक्तों सावधान। थोड़ा दूर रहो, इस वायरस को दूर से नमस्कार करो या जो वायरस से पीड़ित है उनमें अपने स्वजन भी हो सकते हैं। उनसे भी थोड़ा सुरक्षित अंतर रखो। हमारे भक्त समाज में भी कई सारे गौडी़य वैष्णव, हरे कृष्ण वैष्णव, वरिष्ठ वैष्णव भी इस रोग से पीड़ित और ग्रसित हो रहे हैं। क्या-क्या और किनका किनका नाम कहू। तो उन सभी के लिए प्रार्थना भी करें। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।* *हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।* आज हम उनके लिए प्रार्थना करते हैं, कल कोई और हमारे लिए प्रार्थना करेगा। ऐसे बारी-बारी से हम प्रार्थना करते जाएंगे, जो बचे हैं वह प्रार्थना करते जाएंगे। तो प्रार्थना जारी रखो और सावधान रहो। सारे नियमों का पालन करो और सुरक्षित रहो और कृष्ण भावना को,साधना भक्ति को भी थोड़ा अधिक गंभीरता से अपनाओ। । *व्हेन गोइंग गेट्स टफ टफ गेट्स गोइंग* ऐसी अंग्रेजी में कहावत हैं। जब अगर जीना मुश्किल हो जाता है तो जो ढीले ढाले होते हैं वह कुछ नहीं करते लेकिन जो टफ लोग होते हैं, बुद्धिमान होते हैं वह चलते रहते हैं।किसी कारणवश जब जीना कठिन होता हैं, तो टफ व्यक्ति जो दमदार होते हैं, होशियार होते हैं वह क्या करते हैं ?वह अधिक प्रयास करते हैं अधिक सक्रिय हो जाते हैं। ताकि जो भी समस्या है विघ्न है, उसक उल्लंघन करें, उसको पार करें। उसके लिए कटिबद्ध रहते हैं या तैयार रहते हैं, तैयारी करते हैं, चुनौती का सामना करते हैं। हरि हरि। पूरे देश को, पूरे मानव जाति को, हम सभी को तैयारी करनी होगी। उस तैयारी में जो अपना-अपना रोल है,अपनी-अपनी भूमिका है वह निभानी हैं, जियो और जीने दो ऐसा भी कहते हैं। स्वयं भी जीते रहो, ओर भी जीते रहे। ऐसा लक्ष्य बनाकर हमें अपनी अपनी भूमिकाओं को निभाना चाहिए। यहां सोशल डिस्टेंसिंग इत्यादि नियमों का पालन आपकी खुद की रक्षा के लिए नहीं है ऐसा जब करोगे तो औरों की भी रक्षा होगी। तो यह नियम अपने लिए हैं और औरों के लिए भी है। यह भी हो सकता है कि आप कहे हां मुझे परवाह नहीं हैं, ठीक हैं। अपने लिए ही नहीं तो औरों के लिए तो परवाह करो। आपको औरों की परवाह करनी चाहिए। खुद की चिंता नहीं कम से कम औरों की तो चिंता करो। ऐसा बेजिम्मेदार नहीं होना। जिम्मेदार नागरिक बनिए, भक्त बनिए, साधक बनिए। अपने और अपनों के लिए, पड़ोसियों के लिए कुछ करते रहो, सक्रिय रहो। ताकि भगवान सबकी रक्षा करें। आप प्रार्थना जारी रखो इसीलिए थोड़ा अधिक प्रार्थना करो। और वह प्रार्थना है.. *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।* *हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।*

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