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जब चर्चा पंढरपुर धाम से, 8 अक्टूबर 2020 आज हमारे साथ 757 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरीबोल! गौरांगा! जप करते रहो, यह चैतन्य महाप्रभु का आदेश है। हरेर्नाम हरेर्नाम हरे मैव केवलम् ।कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥ अनुवाद:-इस कलियुग में आत्म - साक्षात्कार के लिए भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है । " और जप करना है तो केसा करना चाहिए? एक शब्द में कहा जाए तो केसे कह सकते है, जप केसे करो? ध्यानपूर्वक! ध्यानपूर्वक जब करो। और ध्यानपूर्वक जप तभी होगा जब हम अपराधरहित जप करेंगे। अपराधों से मुक्त होंगे तो ध्यान पूर्वक जप होगा।और जब तक ध्यानपूर्वक जप नहीं करेंगे तब तक हम से अपराध होते रहेंगे और सभी अपराधों में बड़ा अपराध या महाअपराध तो वैष्णव अपराध या वैष्णव निंदा है। तुम्हें भगवान का भक्त बनना है तो भगवान कहते है कि, "मेरा भक्त बनने से पहले मेरे भक्त का भक्त बनो!" मेरे भक्त के भक्त बने बिना तुम मेरे भक्त नहीं बन सकते! तो वैष्णव अपराध को टालना है। हरि हरि! हमारी सदियोंसे आदत पड़ी है और अपराध करना हमारा स्वभाव है और अपराध करने में हम बड़े कुशल है। बड़े सहज पद्धति से हम अपराध करते रहते है। हरि हरि! वैष्णव निंदा, वैष्णव अपराध कई प्रकार के होते है हम जब इर्ष्या याद्वेष करते है भगवान गीता में कहे है इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत | सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप || भगवतगीता ७.२७ अनुवाद:- हे भरतवंशी! हे शत्रुविजेता! समस्त जीव जन्म लेकर इच्छा तथा घृणा से उत्पन्न द्वन्द्वों से मोहग्रस्त होकर मोह को प्राप्त होते है। कृष्ण भावना का स्तर तो है, यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः | समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते || भगवतगीता ४.२२ अनुवाद:- जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं | द्वन्द्वातीतो विमत्सरः जो द्वंद से अतीत और मत्सर्य रहित या मत्सर रहित होते है। मत्सर यह बड़ी खतरनाक चीज है! ओरोंका उत्कर्ष, या पदवी या प्रगति जब हमसे सहन नहीं होती तो फिर यही तो है द्वेष! और द्वन्द्वातीतो विमत्सरः मत्सर एक शत्रु भी है ना? कभी सोचा है आपने? मत्सर हमारा शत्रु है! वैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के समय लीला में चैतन्य महाप्रभु हमें अनुभव दे रहे है जिसमें, मायापुर में श्रीवास आंगन में, श्रीवास ठाकुर की जय! श्रीवास ठाकुर के आंगन में उनके परिजनों के साथ कीर्तन हुआ करता था। और यह श्रीवास ठाकुर बड़े सज्जन, चरित्रवान व्यक्ति थे। और ऐसी उनकी ख्याति भी थी किंतु, उसी नगर में, मायापुर में एक गोपाल चापो नाम का बड़ाही ईर्ष्यालु हिंदू रहता था और भी बहुत सारे थे लेकिन यह उनका नेता था। तो उसने योजना बनाई और सोचा कि, श्रीवास ठाकूर सुविख्यात है हम इन्हें कुविख्यात बनाएंगे! उनकी कीर्ति सर्वत्र फैली हुई है हम उनके अपकीर्ति का प्रचार प्रसार करेंगे। "हां हां! आप इतने सज्जन नहीं है और आप चरित्रहीन है और आप वैष्णव नहीं है, वे तो शाक्त है! श्रीवास ठाकूर वैष्णव हे यह शुठ मुठ प्रचार है, वे वैष्णव नही है, पाखंडी है! ये शक्ति का पुजारी है" ऐसा गोपाल चापो सिद्ध करना चाहते थे। तो फिर गोपाल चापो ने योजना बनाई और श्रीवास आंगन में जहां पूरे रातभर चैतन्य महाप्रभु, नित्यानंद प्रभु, अद्वैत आचार्य, गंधाधर पंडित, श्रीवास ठाकुर और सारे गौर भक्तवृंद पूरे रातभर कीर्तन करते। पूरे रातभर जागते थे! उन्हें नींद ही नहीं आती, कृष्ण कीर्तन करना है या उन्हें कृष्ण का कीर्तन उन्हे जगाता! तो एक रात्रि के कीर्तन के उपरांत प्रातःकाल के समय में कीर्तन का समापन हुआ भक्त अपने अपने घर लौट रहे थे, तो जब द्वार खोलते है तो देखते है कि, दरवाजे के बाहर सामग्री थी यह गोपाल चापो की योजना थी। उसने वहां पर दुर्गा पूजा की सामग्री को रखा था, उसमें कुछ विशेष फूल होते हैं जो दुर्गा देवी को अर्पित होते हैं लाल लाल फूल होते हैं जिसको अंग्रेजी ने हीबिस्कस कहते है, जिसे वैष्णव उपयोग में नहीं लाते लेकिन दुर्गा पूजा में उसमें उपयोग किया जाता है। और उस सामग्री में शराब थी, मांस था और ऐसे भक्षण जो विष्णु या वैष्णव जन ग्रहण नहीं कर सकते थे ऐसे पदार्थ वहां पर रखे हुए थे। तो जैसे ही कीर्तन मंडली द्वार से बाहर आ रही थी तो गोपाल चापो ने अपना एक मंडल वहां पर खड़ा किया और गोपाल चापो कहने लगा कि, "देखो देखो! कैसा है यह श्रीनिवास, यह सामग्री देखो यह वैष्णव नहीं है! यह शाक्त है!" कोई वैष्णव होते हे, शैव होते हे, सौर होते हे, शाक्त होते है, गणपत्य होते हे ऐसे पंचोपासणा को हम बताते रहते है। हरी हरी! तो ऐसे निंदा के वचन गोपाल चापो ने श्रीवास ठाकुर से कहें और श्रीवास ठाकुर का नाम बदनाम करने का अपनी तरह से पूरा प्रयास किया। सिर्फ बोलकर ही नहीं तो सामग्री दिखाकर वह कह रहा था और इसका परिणाम यह निकला कि कुछ ही दिनों के अंदर अंदर यह गोपाल चापो को कुष्ठरोग हुआ और उसके शरीर का बड़ा बुरा हाल हुआ, उसका नाक गल गया और सारे शरीर में खुजली हो रही थी और बड़ा ही परेशान था ये गोपाल चापो और आगे बहुत समय के उपरांत भगवान ने उसको मुक्त किया। जब वह चैतन्य महाप्रभु के पास पहुंचा और कहने लगा कि मुझे माफ कीजिए! मैंने जो अपराध किए हैं उसके लिए मुझे क्षमा कर दीजिए! तो महाप्रभु बोले कि, "मैं माफ नहीं करूंगा! जिनके चरणोंप्रति तुमने अपराध किए है उनके पास जाओ अगर वे तुम्हें माफ करते हैं तो मैं भी तुम्हें क्षमा कर दूंगा!" तो ऐसी लीला या ऐसी घटना घटी मायापुर में और यह है वैष्णव अपराध! अपराध का एक परिणाम ऐसा भी हो सकता है। वैसे कई परिणाम हो सकते है, मृत्यु भी हो सकती है, हम मरते रहेंगे जीते रहेंगे अपराध के कारण या वैष्णव अपराध के कारण! बोलो ‘कृष्ण, ‘भजकृष्ण, कर कृष्ण-शिक्षा। अपराध-शून्य ह’ये लह कृष्ण-नाम अनुवाद:- हे सच्चे, वफादार वयक्तियों, हे श्रद्धावान, विश्वसनीय लोगों, हे भाइयों! भगवान्‌ के आदेश पर, मैं आपसे यह भिक्षा माँगता हूँ, “कृपया कृष्ण के नाम का उच्चारण कीजिए, कृष्ण की आराधना कीजिए और कृष्ण की शिक्षाओं का अनुसरण कीजिए। ” तो इसलिए भक्ति विनोद ठाकुर कहते रहते है की, अपराध-शून्य ह’ये लह कृष्ण-नाम तो देखा आपने वैष्णव अपराध का परिणाम देखा? चैतन्य चरितामृत या चैतन्य भागवत दिखा रहा है हमें! शास्त्र का चश्मा पहनो और देखो तो 500 वर्ष पूर्व जो घटना घटी वैष्णव अपराध का जो परिणाम निकला वह परिणाम आप अभी भी देख सकते हो! इसके संबंध में सुन के जैसे अब हम सुना रहे है, या फिर चैतन्यभागवत पढ़के भी उसका दर्शन कर सकते है। शास्त्रचक्षुशाम! और फिर सावधान! साधु सावधान! ऐसा भी हो सकता है या कुछ अलग अलग परिणाम निकल सकते है। और उसी के साथ होता यह है कि, हमारी प्रगति नहीं होती अधोगति होती है! अपराध करने से और विशेष करके वैष्णव अपराध करने से! तो जीवेदया! जीवो को दया करनी चाहिए हमे, जीवो कि सेवा करनी चाहिए। वैष्णव से प्रेम करना चाहिए हमें ना कि उनके प्रति अपराध करने चाहिए! हरि हरि। पहले तो नाम में रुचि आती थी बहुत अच्छा लगता था जब हम जप करते थे, लेकिन आजकल तो ऐसे नहीं लगता, अब तो आनंद नहीं आता है! तो ऐसा अगर कोई कहता है तो हमें सोचना चाहिए की, वैष्णव अपराध तो नहीं हुआ? तो ऐसे व्यक्ति को अंतरमुख होकर ऐसा सोचना चाहिए! या फिर दूसरा उदाहरण है तो 500 वर्ष पूर्व की बात में गोपाल चापो की बात बताई, तो ऐसे गोपाल चापो हमें हमारे वैष्णव समाज में या गुड़िया वैष्णव परंपरा में। वैसे हम गौडीय वैष्णव बन ही नहीं पाएंगे जब तक हम गोपाल चापो रहेंगे या गोपाल जागो जैसी चपलता दिखाएंगे या उसके जैसे व्यवहार करेंगे या उसके जेसे वैष्णव के चरण में अपराध करेंगे! हरि हरि! है तो जेसे ने के रहा था कि, 5000 वर्ष पूर्व सौभरी नाम के मुनि थे वह कालियादह मै निवास करते थे। जल में ही ध्यान करते रहते थे! और तल्लीन रहा करते थे। उनका मन एकाग्र है, र्वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः । ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥ श्रीमद भागवत स्कंद १२ अध्याय १३ श्लोक १ अनुवाद:- सूत गोस्वामी ने कहा : ब्रह्मा , वरुण , इन्द्र , रुद्र तथा मरुत्गण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों , पद - क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं , सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं , सिद्ध योगी अपने को समाधि में स्थिर करके और अपने को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता - ऐसे भगवान् को मैं सादर नमस्कार करता हूँ । ध्यान अवस्था में भगवान का ध्यान किया करते थे। तो ऐसे समय बीत रहा था और उन्हें पता भी नहीं चल रहा था। तो वह परमात्मा का ध्यान कर रहे थे कृष्ण की सेवा नहीं कर रहे थे! वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् । ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥ श्रीमद भागवत स्कंद १ अध्याय २ श्लोक ११ अनुवाद:- परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवादी ( तत्त्वविद ) इस अद्वय तत्त्व को ब्रह्म , परमात्मा या भगवान् के नाम से पुकारते हैं । ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते तो भगवान बन जाते हैं परमात्मा, भगवान बन जाते हैं ब्रह्म! तो भगवान को ऐसे अलग-अलग अवस्था में जाना जाता है। तो फिर हुआ कि, एक दिन गरुड़ आए कालियादह के किनारे और उनको भूख लगी थी तो कुछ मछलियां खा कर चले गए! तो कुछ मछलियां नहीं रही उस कालियादह में उनकी मृत्यु हो गई क्योंकि गरुड़ उनको खा कर चले गए तो वहां के मछली समाज बड़े क्रोधित हुए और बोलने लगे "इस गरुड़ ने क्यों खाया हमारे कुछ भाई या बहनों को? तो सारे मछलियों की सभा बुलाई गई, सारी मछलियां आ गई उन्होंने अपने अपने स्थान ग्रहण कर लिए। और गरुड़ मुर्दाबाद! गरुड़ मुर्दाबाद! गरुड़ ऐसा है, गरुड़ वैसा है ऐसे नारे लगा रहे थे। तो सौभरी मुनि का ध्यान गया इस सभा में तो वे भी उस सभा में सम्मिलित हो गए और कहने लगे "कौन होता है गरुड़ मछलियों को खाने वाला? मैं उसे श्राप देता हूं कि, पुन्हा गरुड़ यहां कालियादह के पास नहीं आ सकता अगर आएगा तो ये होगा वो होगा" ऐसे सौभरी मुनि ने मानसिक और वाचिक अपराध किया। शरीर से अपराध, वाचिक अपराध, मानसिक अपराध ऐसे कई सारे अपराध होते है! तो इस सभा के उपरांत सौभरी मुनि अपने स्थान पर लौट गए और अपने ध्यान पर बैठ गए। ध्यान लगाने का प्रयास कर रहे थे लेकिन वे ध्यान नहीं लगा पा रहे थे! पहले तो उनका मन शांत और था और वे संसार के किसी द्वंद से वह विचलित नहीं होते थे। लेकिन अब कालियादह की मछलियों में भी दो प्रकार की मछलियां होती है, एक पुरुष और एक नारी ऐसे हर योनि में होता है। और वे जब यह देख रहे थे कि वह आपस में लैंगिक क्रिया या आकृष्ट हो रहे है, हो सकता है कि वह चुम रहे है या ऐसा बहुत कुछ! तो उसके और उनका ध्यान जाने लगा और उसी के संबंध में वह सोचने लगे और उनके अंतःकरण में कामवासना पुन्हा जगने लगी और इतनी प्रबल हुई कि उनको कालियादह छोड़ना पड़ा। और अब अपनी कामवासना की तृप्ति के लिए वे भ्रमण करने लगे और अंततोगत्वा राजा मांधाता के 50 पुत्रियों के साथ साथ इनका विवाह हुआ। एक स्त्री से उनकी कामना की तृप्ति नहीं होने वाली थी इतनी प्रबल कामना उनकी जग गई थी। हरि हरि! तो जैसे एक समय उनका ध्यान लग रहा था मन शांत था प्रगति हो रही थी आध्यात्मिक जीवन में किंतु फिर उनसे वैष्णव अपराध हुआ! विष्णु के दास या भगवान के सेवक के प्रति अपराध हुआ। वैष्णव विष्णु का सेवक या दस कहलाता है। गरुड़ के चरणों में सौभरी मुनि ने अपराध किया तो तब से उनका ध्यान, एकाग्रता या मन की शांति समाप्त हो गई! भगवान के ध्यान और भगवान से प्रेम जग रहा था या कुछ प्राप्त हो रहा था उसके स्थान पर अब काम जगने लगा और काम प्रबल हुआ। और प्रगति के बजे अधोगति हुई! क्यों? क्योंकि वैष्णव अपराध किया था। हरि हरि! तो है साधु सावधान! या वैष्णव सावधान! अगर आप ध्यान पूर्वक जप करना चाहते हो तो, अपराधों से बचना चाहिए और उसमें भी वैष्णव अपराध बड़ा ही भयानक अपराध है कोई बगीचा है या कोई उद्यान है और वहां पर जब हाथी पहुंच जाए, तो वह हाथी उस उद्यान का सत्यानाश करता है तो वैसे ही वैष्णव अपराध से हमारे जीवन में या हमारे ह्रदय प्रांगण में जो हम खेती कर रहे है, हमारे हृदय प्रांगण में हमने भक्ति लता का बीज बोया है और कुछ अंकुरित हुआ है या बढ़ रहा है और बढ़ते बढ़ते उसको गोलोक तक पहुंचना है, और भगवान के चरण कमलों के स्पर्श से फिर वहां कृष्ण प्रेम का फल प्राप्त होना है या चखना है। और हम जो साधक है हरिनाम का जप करने वाले भक्त है तो हमारी तुलना भी एक उद्यान के माली से की गई है! क्योंकि हम भी मन को या अंतःकरण को तैयार करते है, जैसे किसान बीज बोने से पहले खेत को तैयार करता है और फिर बीज होता है और उसके उपरांत ही बीज अंकुरित होता है। और साथ ही साथ कुछ-कुछ अंकुरित होता है जिसको घास बोलते हैं वैसे ही इसकी तुलना हम अनर्थ से कर सकते हैं जिसको उन्होंने नहीं बोया था फिर भी वह उगते है तो उनको उखाड़ कर फेंकना होता है, तभी तो हमारा भक्ति लता बीज से भक्ति लता अंकुरित होगी और आगे फलित होगी, फूलेगी खुलेगी तो हम भी एक किसान जैसे ही है। और हम भी एक उद्यान बना ही रहे है हमारे ह्रदय प्रांगण में लेकिन, वह वैष्णव अपराध अगर हमसे हुआ तो मतलब आप ने हाथी को वहां पर प्रवेश करवाया तो हाथी हमारे उद्यान का उल्टा पुल्टा करने वाला है! हरि हरि! गौरांग! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! किसिका कोई प्रश्न या कोई विचार है? उदयपुर से अजय गौरांग प्रभु :- महाराज जी, कई बार ऐसा होता है कि हम मंदिर के मैनेजमेंट में होते है, तो सीनियर से बात करते समय मतभेद होता है तो वैष्णव अपराध होता है तो उस समय हमें कुछ बोलना चाहिए या नहीं बोलना चाहिए? श्रील लोकनाथ स्वामी महाराज:- तब आप उस अधिकारी के उन ऊपर के अधिकारियों से भी बोल सकते हो तो यह भी सदाचार है। या फिर आप उनसे एकांत में बोल सकते हो अलग से समाज में या सभी के समक्ष में नहीं। और पूरे विनम्रता के साथ बोल सकते हो और यह देखना है कि आप कोई द्वेष के वशीभूत होकर कुछ कह रहे हो या बोल रहे हो तो कंस्ट्रक्टिव क्रिटिसिजम (रचनात्मक आलोचना) होता है। और दूसरा होता है डिस्ट्रक्टिव क्रिटिसिज्म ( विनाशकारी आलोचना)। और उनके फायदे की कोई बात है या उनको और ऊपर उठाने की बात है, नीचे गिराने के नहीं तो ऐसा अगर आप करोगे तो अधिक ऊपर उठोगे तो यह कंस्ट्रक्ट क्रिटिसिज्म की चीज होती है। एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक होता है। तो जो सकारात्मक है वह अच्छा है लेकिन नकारात्मक है वह विनाशकारी है। और ऐसी बातें अकेले में करने में अच्छी है! किसी की सहारना करना है तो सबके सामने कर सकते हो लेकिन कुछ विरोध करना है तो उसे एकांत में करना अच्छा है या फिर जैसे मैंने कहा कि वह संदेशा आप किसी और के जरिए उनको पहुंचा सकते हो। आप उनके सीनियर से वो बात केहलाओ तो वे उसका स्वागत कर सकते हैं लेकिन आपसे सुनेंगे तो वह मानेंगे नहीं ऐसी संभावना है। हरि हरि! और आप जो भी कहते हो या आपका कहना या निरीक्षण है उसको कहने से पहले आप साधु, शास्त्र, आचार्य की सलाह लेकर और उसको चर्चा कर सकते हो तो ऐसा करोगे और उनसे निश्चित करो कि वह सही है और फिर बोलो! तो ऐसे हम आगे बढ़ सकते है। उस बात से निपटने का प्रयास कर सकते है ताकि हम से अपराध ना हो हमारा सुधार हो। लेकिन वह सुधार करते समय हम से गलती ना हो जाए अपराध ना हो जाए। ठीक है! भुनेश्वर से वैकुंठनायक प्रभु :- तो यह सौभरी मुनि जो तपस्या कर रहे थे आध्यात्म में प्रगति कर रहे थे तो उन्हें यह क्यों मालूम नहीं पड़ा कि वह अपराध कर रहे है? या वे क्यू समझ नहीं सके कि गरुड़ जी वैष्णव है? श्रील लोकनाथ स्वामी महाराज:- तो मैं ऐसे कह सकता हूं कि सौभरी मुनि अभी वैष्णव नहीं थे। तो एक वैष्णव ही दूसरे वैष्णव को पहचान सकते है। वैष्णव की क्रिया या मुद्रा बड़े-बड़े विद्वान नहीं समझ सकते तो इसीलिए सौभरी मुनि गरुड़ जी वैष्णव थे यह पहचाने नहीं। तो यह उनकी कमी रही या त्रुटि रही कि वह स्वयं ही उच्च श्रेणी के वैष्णव नहीं थे वह ध्यान कर रहे थे, योगी थे, भक्त नहीं थे! तो सावधान! साधना की अवस्था में ऐसे घन और तरल चलता रहता है कभी हमारी भक्ति अच्छी होती है या कभी हम ढीलेे हो जाते है। जब तक माया का प्रभाव है हम जानते रहते है। तो ऐसा ही कुछ हुआ है सौभरी मुनि के साथ! इसलिए उन्होंने अपराध किया तो ऐसा एक उत्तर हो सकता है। और भी कई और बहुत संभावना हो सकती है! भुनेश्वर से वैकुंठनायक प्रभु :- हम तो वैष्णव है फिर भी यह गलती या अपराध हमसे क्यों हो जाता है? श्रील लोकनाथ स्वामी महाराज:- आप कहां वैष्णव हो? यही तो गलती हो जाती है कि हम खुद को वैष्णव समझने लगते है! लेकिन कोई कनिष्ठ अधिकारी होते है, कोइ मध्यम तो कोई उत्तम अधिकारी होते है। तो ऐसे कनिष्ठ अधिकारी अगर भक्ति करें तो वह मध्यम या उत्तम अधिकारी के स्तर पर जा सकते है। हम तो साधक स्तर पर है इसलिए हमसे यह गलतियां होती रहती है लेकिन औरों की गलती सुनकर और उसके परिणामों को सुनकर हमें सीखना है और सुधरना है! इसलिए तो यह सब शास्त्र के उदाहरण दिए जाते है तो हम वैष्णव बनना चाहते है। अभी तक कहां बने है? जब वैष्णव बन जाएंगे तब अपराध नहीं करेंगे जो अपराध करता है वह वैष्णव नहीं है। तो इससे आप समझ सकते हो कि हमसे वैष्णव अपराध क्यों होता है। ठीक है!

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Наставления после совместной джапа сессии 8 октября 2020 г. БЕРЕГИТЕ СВОЮ САДХАНУ ОТ ВАЙШНАВА АПАРАДХИ Харе Кришна! Сегодня с нами воспевают преданные из 757 мест. Добро пожаловать! Нитай Гаур Премананде Хари Харибол! Гауранга! Примите участие в этом процессе воспевания. Это наставление Чайтаньи Махапрабху. харер нама харер нама харер намаива кевалам калау настй эва настй эва настй эва гатир анйата Перевод Шрилы Прабхупады: В этот век ссор и лицемерия единственным средством освобождения является воспевание святых имен Господа. Другого пути нет. Другого пути нет. Другого пути нет. (Ч.Ч. Мадхья-лила 6.242) Если мы должны сказать одним словом, как мы должны воспевать? - Внимательно. Внимательное воспевание возможно только тогда, когда мы избавимся от оскорбительного воспевания. Чтобы избавиться от оскорблений, нам нужно воспевать внимательно и искренне. И наоборот. Самая большая и самая опасная из всех апарадх - это вайшнава апарадха. Критика вайшнавов, оскорбление преданных. Господь говорит: «Прежде чем стать Моим преданным, стань преданным Моего преданного». Таким образом, мы должны стараться избегать этой вайшнава апарадхи. Совершать оскорбления стало нашей второй натурой. Мы этому научились. Есть много способов обидеть преданных. Завидуя преданным, мы оскорбляем их. иччха̄-двеша-самуттхена двандва-мохена бха̄рата сарва-бхӯта̄ни саммохам̇ сарге йа̄нти парантапа Перевод Шрилы Прабхупады: О потомок Бхараты, о покоритель врагов, все живые существа, появляясь на свет, оказываются во власти иллюзорной двойственности, возникающей из желания и ненависти. (Б.Г. 7.27) йадр̣ччха̄-ла̄бха-сантушт̣о двандва̄тӣто виматсарах̣ самах̣ сиддха̄в асиддхау ча кр̣тва̄пи на нибадхйате Перевод Шрилы Прабхупады: Кто довольствуется тем, что приходит само собой, кто никому не завидует, не обращает внимания на проявления двойственности этого мира и одинаково встречает успех и неудачу, тот, совершая действия, никогда не попадает в рабство их последствий. (Б.Г. 4.22) Человек в сознании Кришны всегда свободен от двойственности и зависти. Зависть очень опасна. аньясйа уткарш а-сахнийа Становится трудно быть свидетелем и выносить что-либо хорошее, происходящее с другими. Это не что иное, как зависть. Зависть - наш враг. Однажды Шри Кришна Чайтанья Махапрабху со Своими близкими спутниками проводил киртан в Шриваса Ангане в Навадвипе, Маяпур, как и в любой другой день. Шриваса был очень принципиальным джентльменом. В те дни в Маяпуре жил очень ревнивый и завистливый индус по имени Гопала Чапала. Он завидовал Шривасе Тхакуру, у которого было очень хорошее имя, как имя чрезвычайно смиренного и набожного вайшнава. Это было невыносимо для Гопалы Чапалы. Таким образом, он решил опорочить Шривасу. Он говорил другим, что Шриваса не такой смиренный, как кажется. Он не вайшнав. Он обманщик и так далее. Затем однажды Гопала Чапала составил план. Один ночной киртан был проведен всеми спутниками Махапрабху вместе с Махапрабху в Шриваса Ангане. После его завершения после всей ночи, когда они открыли дверь, чтобы разойтись по своим домам, они обнаружили некоторые нежелательные атрибуты, хранившиеся на пороге двери: красные цветы, мясо, опьяняющие напитки и другие атрибуты, которые используются для поклонения Шакти деви, Дурге. Как только они вышли, Гопала Чапала попытался доказать не только словами, но и показав людям доказательства того, что Шриваса не вайшнав, а шакта (преданный Дурги) и что он занимается некоторыми другими черными делами. Есть шакты, Ханпатья (преданный Ганеши), Шайва (преданный Шивы), Саура (поклоняющийся Солнцу), что называется Панчопасана. В результате такого проступка апарадхи великого вайшнава Гопала Чапала стал жертвой проказы. Его тело было полностью испорчено проказой. Ему было очень больно. Он пошел к Чайтанье Махапрабху и попросил прощения. Теперь он понял, что поступил неправильно, очень опасная ошибка. Но Махапрабху не простил его. Он сказал, что если вы хотите получить прощение, обратитесь к Шривасе, чьи лотосные стопы вы оскорбили. Это одна из многих реакций на вайшнава апарадху. Вайшнава апарадха может снова и снова вызывать рождение и смерть. апара̄дха-ш́ӯнйа хо’йе лоха кр̣ш̣н̣а-на̄ма кр̣ш̣н̣а ма̄та̄, кр̣ш̣н̣а пита, кр̣ш̣н̣а дхана-пра̄н̣а Перевод: Заботясь лишь о том, чтобы избегать оскорблений, просто примите прибежище Святого Имени Господа Кришны! Кришна — мать, Кришна — отец, Кришна — сокровище твоей жизни! (Аджна Тахал, стих 3 Бхактивинода Тхакур) Бхактивинода Тхакур говорит: «Повторяйте имена Кришны, будучи свободным от любых оскорблений. Это только один из многих примеров. Чтобы избежать этих оскорблений, мы должны ссылаться на такие писания, как Чайтанья Чаритамрита или Чайтанья Бхагавата. Совершая оскорбления, особенно вайшнавов, мы падем. Мы не будем прогрессировать, а будем деградировать. Мы должны любить вайшнавов и служить им. Часто мы чувствуем, что нам не нравится воспевать, как раньше. Если возникает такая мысль, человек должен провести самоанализ, чтобы узнать и выяснить, был ли совершен какой-либо вид вайшнава апарадхи. Мы не можем называться Гаудия-вайшнавами до тех пор, пока мы подобны Гопале Чапале. 5000 лет назад был один мудрец по имени Саубхари Муни, который жил в Калия Дах во Вриндаване. Он медитировал, сидя под водой. Раньше он был в глубокой медитации и вышел за пределы времени. арджуна ува̄ча стхита-праджн̃асйа ка̄ бха̄ша̄ сама̄дхи-стхасйа кеш́ава стхита-дхӣх̣ ким̇ прабха̄шета ким а̄сӣта враджета ким Перевод Шрилы Прабхупады: Арджуна сказал: О Кришна, как распознать человека, обладающего этим божественным сознанием? О чем он говорит и как выражает свои мысли? Как он сидит и как ходит? (Б.Г. 2.54) Он медитировал на Господа под водой. Это была его садхана. дхйа̄на̄вастхита тад-гатена манаса̄ паш́йанти йам̇ йогино йасйа̄нтам̇ на видух̣ сура̄сураган̣а̄ дева̄йа тасмаи намах̣ Перевод: Приветствую Того величайшего, светозарного, Которому возносят хвалебные гимны творец Брахма, Варуна, Индра, Рудра, Маруты и все божественные существа; Того, чье величие воспевают стихами Вед, Кого восхваляют певцы «Сама-веды», и Чья слава звучит в хоре Упанишад; Кого своим умом, погруженным в совершенную медитацию, созерцают йоги, Чьих пределов не знают сонмы богов и демонов, Его, прекрасного Господа, являющего удивительные деяния, приветствую я! (МЕДИТАЦИЯ НА ШРИ ГИТУ ом па̄ртха̄йа пратибодхита̄м̇ бхагавата̄ 9) Саубхари Муни медитировал на параматму (сверхдушу) и не совершал никакого преданного служения Кришне. ваданти тат таттва-видас таттвам̇ йадж джн̃а̄нам адвайам брахмети парама̄тмети бхагава̄н ити ш́абдйате Перевод Шрилы Прабхупады: Сведущие трансценденталисты, познавшие Абсолютную Истину, называют эту недвойственную субстанцию Брахманом, Параматмой или Бхагаваном. (Ш.Б. 1.2.11) Брахман и Параматма - это только аспекты Господа. Однажды, проголодавшись, Гаруда подошел к Калия Дах, съел немного рыбы и ушел. Это разозлило там рыбное сообщество. Почему Гаруда съел их друзей и родственников? Все они собрались, чтобы выразить свой гнев. Затем медитация Саубхари Муни была нарушена, и он тоже присоединился к рыбам. Он почувствовал жалость к рыбам и, не задумываясь, обидел Гаруду, проклиная его, что Гаруда больше никогда не сможет прийти в это место. После всего этого он снова сел в медитации. Теперь он не мог медитировать. Он не мог сосредоточиться или взять свой ум под контроль. Он не мог медитировать на Господа. Он начал видеть и наблюдать за рыбой. Он увидел, как спариваются две рыбы, самец и самка. Это вывело из равновесия его сознание. Его желание спариваться физически стало очень сильным. Ему пришлось покинуть Калию Дах и отправиться в царство царя Мандхаты и жениться на его 50 дочерях, одной женщины ему было недостаточно. Как только Саубхари Муни оскорбил Гаруду, который, будучи слугой Господа Вишну, несомненно является великим вайшнавом, он начал падать. Он потерял контроль над разумом и чувствами. Он стал поглощен вожделением вместо того, чтобы любить Господа. Это все из-за вайшнава апарадхи. Поэтому будьте осторожны! Соблюдайте полную осторожность и меры предосторожности. Воздержитесь от вайшнава апарадхи для внимательного воспевания. Подобно тому, как красивый сад полностью разрушается, если в него входит бешеный слон, точно так же и прекрасный сад Бхакти лата, о котором мы заботимся как садовники, в наших сердцах может быть полностью разрушен бешеным слоном, таким как оскорбления вайшнавов. Оскорбления также растут в саду сердца, подобно сорнякам или ненужным растениям, которые потребляют питание, предназначенное для Бхакти латы, которая с огромными усилиями выросла из семян, посеянных в наших сердцах. Поэтому остерегайтесь оскорблений вайшнавов. мы остановимся здесь. Нитай Гаура Премананде Хари Харибол! ВОПРОСЫ И ОТВЕТЫ Вопрос 1: Будут ли разногласия или споры со старшими в управлении храмом вайшнава апарадхой? Ответ: Вы можете поговорить с самым старшим преданным, чтобы разрешить ситуацию. Это хорошее поведение, или вы можете поговорить с ними наедине, а не публично и со смирением. Остерегайтесь своего завистливого поведения. Есть конструктивная и деструктивная критика. Если ваша цель - помочь преданным подняться в сознании Кришны, тогда вы также будете прогрессировать. Это конструктивная критика. Цените публично, но смиренно не соглашайтесь наедине. Прежде чем что-либо говорить, проанализируйте свое заключение, иначе вы можете принять предложения или подтвердить от своего наставника, следует ли вам говорить это или нет. Тогда можно сказать. Мы должны стараться не обижаться на улучшение чего-либо в нас. Вопрос 2: Почему Саубхари Муни не мог осознать, что Гаруда вайшнав, и совершил оскорбление? Ответ: Саубхари Муни не был вайшнавом. Он был всего лишь садхаком. Только вайшнав мог узнать другого вайшнава. вайшавера крийа мудра виджнеха на буджхайа Перевод: Даже очень умный человек не может понять поступков чистого вайшнава. Поэтому Саубхари Муни не мог признать Гаруду вайшнавом. Это была его ошибка. Он был йогом, а не преданным. В жизни садхака происходят взлеты и падения. Иногда мы бываем в хорошем настроении, а иногда в очень плохом. Это эффект Майи (иллюзии). То же самое случилось с Саубхари Муни, из-за чего он совершил оскорбление. Это может быть один из ответов. Вопрос 3: Саубхари Муни не был вайшнавом. Следовательно, он совершил оскорбление. Но мы вайшнавы, почему мы все еще совершаем оскорбления? Ответ: Есть у вайшнавов проблема, которую мы обсуждаем. Есть каништа адхикари, мадхьям адхикари и уттам адхикари. Мы можем назвать каништха адхикари вайшнавом, если он прогрессирует до мадхьям адхикари или уттам адхикари. Мы всего лишь садхаки-вайшнавы, а не сиддха (совершенные) вайшнавы. Вот почему случаются ошибки. Поэтому мы должны извлекать уроки из ошибок других и совершенствоваться. Вот почему эти примеры есть в Священных Писаниях. Мы хотим быть вайшнавами, но все же не вайшнавы. Когда мы станем вайшнавами, мы не совершим оскорблений. Если мы совершаем оскорбления, это означает, что мы все еще не сиддха-вайшнавы. Как вы уже слышали, Индия была признана ведущей страной во Всемирном фестивале святого имени. Поэтому 10 октября с 19:30 до 21:30 на хинди проходит праздник. Это будет церемония благодарения, на которой мы поблагодарим преданных из Индии за их работу и наградим их. Пожалуйста, примите участие в программе. Мы уже разослали плакат. Вы можете посмотреть эту программу в прямом эфире на канале Iskcon Desire Tree Youtube или в Facebook Kirtana Ministry. Просьба ко всем присутствовать на программе. Пожалуйста, поделитесь этим и с другими преданными. Харе Кришна! (Перевод Кришна Намадхан дас, редакция бхактин Галина Варламова)