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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक ०६.०३.२०२१ हरे कृष्ण! आज इस कॉन्फ्रेंस में ७२१ स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। बुरा नहीं है। (नॉट बैड) क्या आप तैयार हो ? हरि! हरि! मैं भी तैयार हूं। वेणु माधव, तैयार हो? हरिनाम आश्रय ? शायद आप सब श्रवण के लिए तैयार हो। वैसे तो श्रवण चल ही रहा था और अभी भी चल ही रहा है, यानि आप में से कुछ तैयार नहीं हो। दूसरे प्रकार के श्रवण में लगे हो अथवा हरिनाम के श्रवण में लगे हो। इंद्रा माताजी, थाईलैंड से उनका अभी जप चल ही रहा है। वह हरे कृष्ण महामंत्र का ही श्रवण कर रही है। अब कुछ हरि कथा या कोई आध्यात्मिक चर्चा का भी श्रवण कीजिये। तद्वाग्विसर्गो जनताघविप्लवो यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि। नामान्यनन्तसय यशोअङ्कितानि यत् श्र्ण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः।। ( श्रीमद् भागवतं १.५.११) अनुवाद:- दूसरी ओर, जो साहित्य असीम परमेश्वर के नाम, यश, रूपों तथा लीलाओं की दिव्य महिमा के वर्णन से पूर्ण है। वह कुछ भिन्न ही रचना है जो इस जगत की गुमराह सभ्यता के अपवित्र जीवन में क्रांति लाने वाले दिव्य शब्दों से ओतप्रोत है। ऐसा दिव्य साहित्य, चाहे वह ठीक से न भी रचा हुआ हो, ऐसे पवित्र मनुष्यों द्वारा सुना, गाया तथा स्वीकार किया जाता है, जो नितान्त निष्कपट होते हैं। साधु क्या करते हैं? जब स्त्रियां भी साधु होती हैं तब उनको साध्वी कहते हैं। साधु, साध्वी। आप सभी साधू हो, कुछ साधु हैं तो कुछ साध्वियां हैं। हरि! हरि! केवल ब्रह्मचारी या सन्यासी ही साधु नहीं होते, गृहस्थ भी साधु हो सकते हैं। जब स्त्रियां भी साधु होती हैं, उन्हें साध्वी कहते हैं। श्र्ण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः ऐसा सिद्धांत है। साधु श्रवण करते हैं, गायन करते हैं, स्वीकार करते हैं, ग्रहण करते हैं, धारण करते हैं। लाइफ आफ्टर डेथ (मृत्यु के बाद जीवन)। जैसे ईसाई धर्म है, वैसे जुडिज्म (यहूदी) नामक धर्म भी है, उसके यहूदी साधु होते हैं। वैसे यहूदी साधु चर्चा कर रहे थे और मैं कल उनकी चर्चा सुन रहा था। वे सत्य ही बोल रहे थे, यह सुनकर अचरज भी लग रहा था और प्रसन्नता भी हो रही थी कि वे सत्य बोल रहे थे और सच के अलावा कुछ झूठ नहीं बोल रहे थे। इसलिए मैं उन्हें सुन रहा था, मुझे उनका विषय अच्छा लगा। प्रारंभ में उन्होंने कहा था कि क्या मृत्यु के बाद जीवन रहता है? क्या आप विषय समझ गए। क्या मृत्यु के बाद जीवन बचता अथवा रहता है या समाप्त होता है। इस संबंध में संसार भर में कई सारी मान्यताएं व गलतफहमियां फैली हैं। उन्होंने इस संबंध में एक बढ़िया बात कही कि यह कैसा प्रश्न है कि मृत्यु के उपरांत जीवन बचता है? उन्होंने कहा कि शायद आप जीवन क्या है, इसी को नहीं समझते होंगे, इसलिए आप यह प्रश्न पूछते हो या इस पर विचार भी करते हो कि मृत्यु के उपरांत जीवन रहता है। वे समझा रहे थे लाइफ (जीवन) की मृत्यु होती ही नहीं है। जीवन जीवित रहता है, ऐसी भी एक समझ है कि जो जीवित है, उसको जीव कहते हैं। कौन जीवित है? आत्मा जीवित है, आत्मा का जीवन होता है। आत्मा जीवित है तो जीवन तो जीवित रहेगा ही। जीवन अब जीवित है अथवा जीव अब जीवित है और जीवित जीव सदा के लिए जीता रहेगा। (नो मैटर व्हाट हैपपेन्स) शरीर का जो भी हो, सत्यनाश हो या विनाश हो जिसको मृत्यु कहते हैं, आत्मा को कोई फर्क नहीं पड़ता। आत्मा जीवित है और सदा के लिए आत्मा जीवित रहेगी। पुरुषोत्तम गुप्ता, समझ रहे हो? क्या मृत्यु के बाद जीवन होता है? परम करुणा, इसका क्या उत्तर है? निश्चित ही, आत्मा होती है और सदा रहती है। हम यह यहूदी धर्म के एक प्रचारक की बात सुना रहे थे। श्रील प्रभुपाद जब मास्को में कोत्स्वकी नाम के प्रोफेसर को मिले थे। उन्होंने प्रभुपाद को रशिया यात्रा हेतु आमंत्रित किया था। वह प्रभुपाद से बात करते हुए कह रहे थे, स्वामी जी! जब शरीर समाप्त हो जाता है तो सब कुछ समाप्त हो जाता है। पुनर्जन्म का कोई प्रश्न ही नहीं है, जब शरीर समाप्त हुआ अथवा उसका निधन हुआ तो सब समाप्त हुआ। यहां पर भी इस विचार के भी कई सारे लोग हैं। इस संसार में वैसे चार्वाक तो है, हो सकता है चार्वाक ने ही सिखाया हो और आज यह सारे चार्वाक के चेले वही बात भी कर रहे हैं व करते रहेंगे। यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः भवेत्।। ( चार्वाक मुनि) अनुवाद:- जब तक मनुष्य जीवित है, तब तक घी खाए। यदि आपके पास धन नही है, तो मांगिए, उधार लीजिए या चोरी कीजिये, किन्तु जैसे भी हो घी प्राप्त कर जीवन का भोग कीजिये। मरने पर ज्यों ही आपका शरीर भस्म हो जाएगा, तो सब कुछ समाप्त हो जाएगा। जब इस देह की भस्म राख होगी, तब पुनर्जन्म किसने देखा है, यह अज्ञान है। चार्वाक का दिया हुआ ज्ञान या मास्को वाले प्रोफेसर कोटस्वकी का ज्ञान जोकि कहते हैं कि शरीर समाप्त तो सुब कुछ समाप्त। यह अज्ञान है। ज्ञान क्या है। न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता २.२०) अनुवाद:- आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु। वह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है और न जन्म लेगा। वह अजन्मा, नित्य, शाश्र्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता। भगवान कृष्ण ज्ञान की बात कर रहे हैं। न जायते म्रियते कदाचित अर्थात यह जीवात्मा जन्म नहीं लेती। आत्मा का जन्म नहीं होता है। आत्मा अजन्मा है, ना म्रियते, न ही उसका मरण होता है। आत्मा का जन्म नहीं है, आत्मा का मरण नहीं है। जन्म और मरण शरीर का है। शरीर का जन्म व शरीर का मरण होता है। हरि! हरि! इस संबंध में भी कृष्ण कहते हैं लेकिन हम लोग तो आधा भाग ही सुनते रहते हैं। जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता २.२७) अनुवाद:-जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है | अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए। जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु। ध्रुवो मतलब निश्चित ही। जन्म लिया है तो मरोगे ही लेकिन भगवतगीता में कृष्ण उसके दूसरे भाग में कहते हैं। र्ध्रुवं जन्म मृतस्य च, एक ही वाक्य में भगवान दो बार र्ध्रुवं कहते हैं। एक र्ध्रुवं अर्थात जो जन्म लेगा, उसकी मृत्यु निश्चित है। दूसरा र्ध्रुवं अर्थात जो मरेगा उसका जन्म निश्चित है अथवा मरने के उपरांत जन्म निश्चित है। यदि शरीर ने जन्म लिया है, तब मृत्यु निश्चित है। एक शरीर का मृत्यु होने के उपरांत जीव को दूसरा शरीर या दूसरा जन्म प्राप्त होना भी निश्चित है अर्थात मृत्यु के बाद आत्मा रहेगी। ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता १८.६१) अनुवाद:- हे अर्जुन! परमेश्र्वर प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित है और भौतिक शक्ति से निर्मित यन्त्र में सवार की भाँति बैठे समस्त जीवों को अपनी माया से घुमा (भरमा) रहे हैं। जीवन के लिए दूसरा शरीर रहेगा। हरि! हरि! भगवान कृष्ण जो भगवत गीता का उपदेश सुना रहे हैं, वे एक मूल महत्वपूर्ण बात समझा रहे हैं, वह है आत्मा की बात सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता १०.३२) अनुवाद:- हे अर्जुन! मैं समस्त सृष्टियों का आदि, मध्य और अन्त हूँ | मैं समस्त विद्याओं में अध्यात्म विद्या हूँ और तर्कशास्त्रियों में मैं निर्णायक सत्य हूँ। अध्यात्म विद्या आत्मा की बात, आत्मा के लक्षण। वह आत्मा है और रहेगी इसकी बात समझा रहे हैं। देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता २.१३) अनुवाद:- जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है | धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता। यहां से भगवान् कृष्ण की भगवत गीता के वचन का प्रैक्टिकल प्रवचन शुरू होता है।कौमारं यौवनं जरा। आत्मा कभी कौमार अवस्था में शरीर में होती है, तत्पश्चात यौवनं अर्थात शरीर युवक बनता है। तत्पश्चात वृद्धावस्था को प्राप्त करता है, आत्मा तो वही है। आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं हो रहा है। आत्मा कौमार शरीर में है अथवा आत्मा युवक व युवती के शरीर में है अथवा आत्मा वृद्धावस्था के शरीर में है। तथा देहान्तरप्राप्तिर्। भगवान क्या कह रहे हैं, गौर से सुनो , एक एक अक्षर को सुनो (पूरे वाक्य को नहीं सुनना चाहिए वैसे वाक्यों को भी सुनना चाहिए, लेकिन वाक्यों में जो शब्द हैं, उन शब्दों को सुनना चाहिए। उन शब्दों में जो अक्षर है उनको समझना चाहिए। तब हम इसे थोड़ा गहराई से समझ पाएंगे।) तथा मतलब यथा जब यथा कहते हैं, उसके उपरांत तथा होना ही चाहिए और आता भी है। यथा तथा, भगवान् कृष्ण कह रहे हैं तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति । भगवान कृष्ण कह रहे हैं। इस जन्म में भी देहांतर हो रहा है, कुमार अवस्था से देहांतर हुआ। तत्पश्चात यौवन शरीर में प्रवेश किया। देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ अनुवाद:- जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है | धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता । इस प्रकार एक देह से दूसरे देह में अंतर हुआ। बाल अवस्था से कुमार शरीर में देहान्तर हुआ, कौमारं यौवनं जरा कुमार शरीर से युवक के शरीर में, और युवक के शरीर से हमनें वृद्ध शरीर में प्रवेश किया अथवा हमारा देहान्तर हुआ तथा देहान्तरप्राप्तिर् बहुत बड़ा देहान्तर हुआ। वैसे हमारा देहान्तर तो हर क्षण हो रहा है, कल का शरीर आज नहीं रहा। आज के शरीर में सांयकाल तक बहुत से परिवर्तन होते रहते हैं। हम नोट नही करते परंतु छोटे छोटे सूक्ष्म परिवर्तन होते रहते हैं लेकिन मृत्यु के समय बहुत बड़ा परिवर्तन एक बड़ा अंतर आ जाता है अथवा कोई नया शरीर या नई योनि प्राप्त होती है। शरीर का छोड़ना तो हर क्षण चलता ही रहता है।'तथा देहान्तरप्राप्तिर् ' कृष्ण पुनः कह रहे हैं कि आत्मा शाश्वत है। आत्मा का मरण नहीं है, वह एक शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर में प्रवेश करती है। हरि! हरि! जीवन का अंत नहीं है। हम पहले भी कहते ही रहते हैं और आपने सुना भी होगा। आत्मा अब भी जीवित है और आत्मा जीवित रहेगी। जहां तक शरीर की बात है, शरीर अब भी मृत शरीर है अर्थात इस समय भी जब आप मुझे सुन रहे हो और मैं भी आपको सुना रहा हूँ यह मृत है। हमारा शरीर हमेशा मृत है, शरीर मृत ही अथवा निर्जीव होता है। जब यह संजीव हो जाता है, तब हम संजीव शरीर (लिविंग बॉडी) अर्थात लिविंग बॉडी कहते हैं। तब यह संजीव लगता है क्योंकि उस समय हाथ पैर हिल रहे होते हैं अथवा कोई डुल रहा होता है। आप सुन पा रहे होते हो, यह जीवन के लक्षण हैं। यह शरीर संजीव सा लगता है अर्थात आत्मा होने के कारण यह जीवित शरीर सा लगता तो है लेकिन शरीर मृत होता है। तत्पश्चात एक दिन मृत हो ही जाता है। जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता २.२७) अनुवाद:- जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है | अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए। शरीर कभी भी संजीव शरीर नहीं होता। आत्मा कभी मरती नहीं, आत्मा सदा के लिए जीवित रहती है। शरीर सब समय मृत ही होता है। शरीर मृत ही होता है क्योंकि यह शरीर आठ अलग अलग भौतिक तत्वों से बना है। भगवान् कृष्ण कहते हैं- भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता ७.४) अनुवाद:- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार – ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्ना (अपर) प्रकृतियाँ हैं। इन आठ अलग तत्वों से अर्थात पांच स्थूल और तीन सूक्ष्म तत्वों से यह शरीर बना है। बाहर जो मिट्टी है, सर्वत्र है, वैसे ही मिट्टी का शरीर बना है। हरि! हरि! हम शाश्वत हैं, जीव शाश्वत है, नहीं तो कृष्ण यह क्यों कहते? ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता १४.१८) अनुवाद:- सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं, रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं । जब हमनें शरीर छोड़ दिया,तब मृत्यु हो गयी अर्थात हम शरीर से अलग हो गए। अब व्यक्ति जाएगा ऊर्ध्वं गच्छन्ति। स्वर्ग लोक जाएगा या नीचे पाताल लोक जा सकता है। वैसे लक्ष्य तो भगवान् के धाम जाने का है, ऐसा हो तो बढ़िया है। स्वागत है। जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता ५.९) अनुवाद:- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है। कृष्ण ने तो कहा है कि जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है और जिसकी मृत्यु होती है, उसका जन्म भी निश्चित है लेकिन अगर हम भक्त बने हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। जब हम श्रवण कीर्तन जप करते हैं, तब हमारी जान में जान आ जाती है या हम अनुभव करते हैं कि हम कौन हैं? हम शाश्वत हैं, हम भगवान् के हैं। भगवतधाम है। ऐसा भी कुछ कहते हैं ना हाथी है ना घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है। लेकिन वैकुण्ठ का विमान भी आता है। हमें ले जाता है अगला जन्म कहां होगा.? तब अगला जन्म वैकुण्ठ होगा। वहाँ शरीर नहीं, केवल आत्मा ही होगी, आत्मा व्यक्ति है। आत्मा के सारे अंग व अवयव हैं। आत्मा देख सकती है, शरीर तो देख ही नहीं सकता। शरीर में देखने की क्षमता ही नही है। आंखों में देखने की क्षमता नहीं है, कानों में सुनने की क्षमता नहीं हैं। सुनने और देखने वाली वैसे आत्मा ही है क्योंकि जब मृत्यु होती है आँख तो रहती है (लेकिन दिखती है) लेकिन यदि उससे पूछो बता दो, कितनी है ये उंगलियां, क्या व्यक्ति बता देगा आँख तो है? लेकिन मरे हुए व्यक्ति की आंख खुली रहती है। आधी या कभी पूरी खुली रहती है? उसकी आँखों के सामने दो उंगलियां या पांचों उंगलियां दिखाओ और पूछो कि कितनी उंगलियां हैं। वह ना तो कुछ बोलेगा ना ही देखेगा क्योंकि आंख नहीं देखती, यह कान भी नहीं सुनते, कान भी होते हैं। यदि मरे हुए व्यक्ति के कान में बम मारा जाये। पहले तो कहा जाता था कि हे। चुप रहो। शांति! शांति! शांति! शोर गुल मत करो थोड़ा शांत रहो। कोई फुसफुसाहट भी करता था, तब कहते थे शांत रहो, शांत रहो। लेकिन अब यदि कोई बम भी मारेंगे अथवा यदि बम भी फट जाएगा तो उसको सुनाई देने वाला नहीं है। कान नहीं सुनते हैं, क्योंकि सुनने वाली आत्मा है। हरि! हरि! इस आत्मा को जानना है। ऐसे आत्म साक्षात्कार के लिए ही मनुष्य जीवन है लेकिन हम तो शरीर के साक्षात्कार के लिए जीते हैं। जिससे हमें शरीर का पता चले, जबकि यह जीवन आत्म साक्षात्कार या भगवत साक्षात्कार के लिए है। यह मूर्ख वैज्ञानिक, तथाकथित शास्त्रज्ञ अनाड़ी है । उन्होंने ऐसा निष्कर्ष निकाला है और दूसरे मूर्ख नंदी बैल जैसे ( नंदी बैल समझते हो ना? मुंडी हिलाते रहता है) वैसे वैज्ञानिक जो कहते हैं यस यस वही सही है। यह बहुत बड़ी भूल है कि जो रसायनों के अलग अलग रसायन है। उन अलग अलग रसायनों का मिश्रण, संयोग अथवा एक्शन रिएक्शन से यह जो अलग अलग मृत मैटर बनते हैं। यह अलग अलग १०८ धातु या एलिमेंट्स हैं, हम केवल मोटे मोटे नाम पंच महाभूत लेते हैं, पृथ्वी जल आग वायु आकाश कहते हैं। शास्त्रज्ञ को उनका अध्ययन करके १०० से भी अधिक धातुओं का जिसमें कुछ गैसेस भी हैं फिर जिसमें H2o , CO2 या KLMN4 भी है, बना दिया इनके मिश्रण अथवा संयोग से जीवन उत्पन्न हुआ। ऐसा मूर्खों का कहना है। वे यह बकवास करते ही रहते हैं, हम या काफी दुनिया इस बकबक से प्रभावित होकर ऐसा ही समझती है। प्रभुपाद कहा करते थे ठीक है, जो अंडा होता है। अंडे में जो जो रसायन होते हैं, हम आपको दे देते हैं, आप उस अंडे से मुर्गी बना दो। क्या आप समझे, प्रभुपाद क्या प्रस्ताव रखते थे।अंडे में जो जो रसायन हैं, हम आपको दे देते हैं या आप इकठ्ठे करो व मुर्गी बनाओ। यह चुनौती है। यह बहुत पहले की चुनौती है। प्रभुपाद के पहले भी की होगी, जो आध्यात्मिक शास्त्रज्ञ है। मध्वाचार्य या रामानुजचार्य भी हैं, जो शास्त्र को जानता है, उसको शास्त्रज्ञ कहते हैं। इस परिभाषा को भी आप समझो। यह केवल गैलीलियो या यह वह ही शास्त्रज्ञ नहीं है। यह रसायन शास्त्र, विज्ञान या भौतिक शास्त्र, जीवविज्ञान, एस्ट्रोनॉमी इसको जानने वाले शास्त्रज्ञ कहलाते हैं। अध्यात्म शास्त्र को जानने वाले शास्त्रज्ञ कहलाते हैं। गीता भी तो शास्त्र है । इदम शास्त्रं प्रमाणते। कृष्ण ने गीता का प्रवचन सुनाते समय कहा कि यह गीता शास्त्र है। एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम। एको देवो देवकीपुत्र एव। एको मंत्रस्तस्य नामानि यानि। कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा। ( गीता महात्मय ७) अनुवाद:- आज के युग में केवल एक शास्त्र भगवतगीता हो, जो सारे विश्व के लिए हो, सारे विश्व के लिए एक ही ईश्वर हो- श्रीकृष्ण। सारे विश्व के लिए एक ही प्रार्थना हो- उनके नाम का कीर्तन हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। केवल एक ही कार्य हो- भगवान की सेवा। गीता शास्त्र है, यह विज्ञान है। इस शास्त्र को जानने वाला शास्त्रज्ञ है। आप अगर आध्यात्म शास्त्र जैसे गीता, वेदान्त, भागवतं, पुराण को जानोगे तो फिर आप भी शास्त्रज्ञ हो। श्यामा स्मृति, कुछ लिख भी रही है, तुम भी शास्त्रज्ञ हो, शास्त्रज्ञ बनना चाहती हो, शास्त्र का अध्ययन कर रही हो। रिसर्च चलता रहता है, हम खोज रहे हैं, खोज कर रहे हैं। कई सारी खोजें हो जाती हैं डिस्कवर योर सेल्फ। इस्कॉन का एक कोर्स डिस्कवर योर सेल्फ( डी.वाई. एस.) भी चलता है। आप खुद को खोजो, आत्मा को पहचानो। तब आप खोजी हो, यह भाषा अथवा परिभाषा सीखो। शास्त्रज्ञ कौन है? उन शास्त्रज्ञ को क्यों महत्व देते हो। आध्यात्मिक शास्त्रज्ञ को क्यों महत्व नहीं देते हो। माध्वाचार्य, श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज शास्त्रज्ञ रहे, भक्ति वेदान्त श्रील प्रभुपाद शास्त्रज्ञ रहे। यह शास्त्र सर्वोच्च है। परा विधा और अपरा विधा दो प्रकार की विद्याएं हैं। परा विधा को जानने वाले आध्यात्मिक शास्त्रज्ञ हैं। अपरा विद्या जोकि परा नहीं है, निष्कृष्ट है। वैसे एक विद्या उत्कृष्ट है, उत्कृष्ट, निष्कृष्ट अच्छे शब्द हैं। नोट भी करो, ऐसे शब्दों को सीखो। उत्कृष्ट मतलब ऊंचा, निष्कृष्ट नीच। उच्च विद्या या परा विद्या को जानते हो, वह शास्त्रज्ञ है। यहीं पर विराम देते हैं, यह बहुत बड़ा विषय है। कोई प्रश्न या टीका टिप्पणी है तो आप पूछ सकते हैं। हरे कृष्ण

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