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जप चर्चा, 4 फरवरी 2022, श्रीमान अमरेंद्र प्रभुजी, विषयः श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर हरे कृष्ण, मुझे ऐसे लग रहा है, जैसे कोई छोटा बच्चा है और उसका कोई मनोभिष्ठ पूरा हो रहा हो। महाराजजीको स्क्रीन पर देख कर मुझे इतना संतुष्ट हो रहा हूं। एक छोटासा संस्कृत श्लोक मुझे याद आ रहा है। उसके पीछे एक छोटी सी कथा है। एक बार एक भिकारी जिस जमीन पर बैठकर भीख मांग रहा है, रास्ते पर भीख मांगता था। उसकी तरफ कोई नहीं देखता था पर, उस राज्य के जो राजा थे उनकी नजर उस पर गयी। दृष्टिपात हुआ इस भिकारी पर। भिकारी को बुलाए, पास बुलाए और बोले कि अपने बारे में कुछ बताओ। वह भिकारी हड़बड़ा गया और बोला कि, आप में और हम में एक समानता है। तो राजा ने कहा, "अरे मैं तो राजा हूं और तुम भिखारी हो हमने और तुम में क्या समानता है।" तो उस भिकारी ने कहा अहं च त्वं च राजेन्द्र लोकनाथावुभावपि । बहुव्रीहिरहं राजन् षष्ठीतत्पुरुषो भवान् ॥ राजा ने कहा, मैं कुछ समझा नहीं। तो उस अधिकारी ने कहा, आप तो लोगों के नाथ हैं। आप सब के स्वामी हैं। इसलिए आप लोकनाथ हो। और मैं भिकारी सभी लोग मेरे नाथ है इसलिए मैं लोकनाथ हूं। मैं उन्हीं की कृपा, उन्हीं की धन, उन्हीं की असीम अनुकंपा के पात्र होने की अभिलाषा रखता हूं। तो फिर उस भिकारी ने कहा, आप भी लोकनाथ मैं भी लोकनाथ। आप लोकनाथ इसलिए है राजा क्योंकि, आप लोगों के नाथ हैं और मैं लोकनाथ इसलिए हूं राजा क्योंकि, लोग मेरे नाथ है। मुझे भी वैसा ही लग रहा है आज क्योंकि, महाराजजी तो लोकनाथ है लोगों के नाथ है। राजा है और मैं भिकारी हूं। तो मुझे आज बहुत सौभाग्य मिला है। इसके लिए मैं धन्यवाद मानता हूं। नमः ओम विष्णु पादाय कृष्ण प्रेष्ठाय भूतले, श्रीमते भक्तिवेदांत स्वामिनी इती नामिने। नमस्ते सरस्वते देवी गौरवाणी प्रचारिणी, निर्विशेष शुन्यवादी पाश्चात्य देश तारिणे।। जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद। श्रीअव्दैत श्रीवास आदि गौर भक्तवृंद।। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। कुछ बोलने से पुर्व में सभी भक्तों के चरणो में नतमस्तक होकर कृपा याचना मांगता हूं। सर्वप्रथम श्री परमपूज्यपाद लोकनाथ स्वामी महाराज के श्री चरणों में नतमस्तक होकर पूर्ण रूप से साष्टांग दंडवत अर्पण कर कर कृपा याचना मांगता हूं। और सभी वरिष्ठ वैष्णव वैष्णवी की भी मैं कृपा अभिलाषा करता हूं। आप कृपा करें ।मेरे लिए प्रार्थना करें ताकि, सही समय पर सही शब्दों से सही भाव से प्रभु की स्तुति हो सके। और हमारे अंतःकरण की शुद्धि हो। जैसे प्रभु जी ने कहा परसों हमारे वैदिक कैलेंडर के अनुसार बहुत प्रमुख दिन है। वसंत पंचमी का महामहोत्सव। जो वसंत का महीना है वृंदावन के ब्रज वासियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यह पहला दिन है, कह नहीं सकते। यह हमारा कल का विषय है परंतु, आज जिस विषय पर हम चर्चा कर रहे हैं, करने का प्रयास कर रहे हैं वह है वैष्णव चरित्र। वसंत पंचमी के दिन कई सारे भक्तों विशेष करके हमारे गौड़ीय संप्रदाय के आचार्य के आविर्भाव और तिरोभाव मनाए जाते हैं। और उनमें से एक उत्कृष्ट ऐसे महानुभवी वैष्णव गौडीय सिद्धांत के इतने बड़े रक्षक, इतने बड़े पालक, हमारे प्रिय विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर रहे। विशेष करके हमारे श्रील प्रभुपाद श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के तात्पर्य से बहुत प्रेरित रहे। और उन्होंने श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के तात्पर्य अपने भक्तिवेदांता तात्पर्य में उसको सम्मिलित किया। और बारंबार उसका उल्लेख किया। प्रभुपाद श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर भी अपने जीवन में श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर विशेष आसक्त रहे। उन्होंने कहा कि विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ऐसे समय में प्रकट हुए हैं जब गौड़िय सिद्धांत के महाप्रभु के विशेष सिद्धांत को खंडित करते हुए, कई सारे संप्रदाय आविर्भूत भूत हुए। तब चक्रवर्ती पाद जन्म लिया। अविर्भूत हुए और इंसान इन सब गौर शिक्षा प्रतिकूल जो संप्रदाय एकत्रित हुए इन सब का खंडन किया श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने अपने ग्रंथों के माध्यम से, अपनी कथा के माध्यम से, अपने जीवनशैली के माध्यम से और अपनी शिष्यपात्र श्रील बलदेव विद्याभूषण के माध्यम से गौड़ीया सिद्धांत, गौड़ीय शिक्षा रुपारूग धारा को और बहुत मान सम्मान से अपने स्थान पर प्रतिष्ठित किया। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर का नाम विश्वनाथ इसलिए है, श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर कहते हैं विश्वनाथ इसलिए है क्योंकि, उन्होंने इतनी सुंदर तरीके से ब्रजरस का विस्तार किया कि पूरे विश्व में जो भी भक्त है उन सब के नाथ हो गए बहुत सुंदर व्याख्या है। विश्वभर में जो भी भक्त उपस्थित है, रहे हैं और रहेंगे इन सबके के ह्रदय को जीत लिया। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती पादने ऐसे उन्होंने ब्रजराज विशेषकर के माधुर्य प्रेम का उन्होंने सविस्तार वर्णन किया। उसको प्रसारित किया। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर लगभग आज से लेकर 10-11 पीढ़ी पहले आविर्भूत हुए। 1638 में उनका जन्म हुआ। देव नामक ग्राम में उनका जन्म हुआ नदिया में, महाप्रभु के बंगाल में है। चक्रवर्ती पाद अविर्भूत हुए एक बहुत ही सुंदर ब्राह्मण कुल में। नारायण चक्रवर्ती उनके पिता का नाम था। जोकि इतने बड़े वरिष्ठ वैष्णव थे। और नारायण चक्रवर्ती के विशेषकरके 3 पुत्र का उल्लेख है। रामभद्र, पहले पुत्र का नाम था रामभद्र चक्रवर्ती। दूसरे पुत्र का नाम था रघुनाथ चक्रवर्ती और तीसरे पुत्र का नाम हुआ श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती। विश्वनाथ चक्वर्ती ठाकुर के बारे में कहां गया, अपने बचपन से ही इतने आसक्त थे राधा और कृष्ण के बहुत सुंदर दिव्य चरणकमलों के प्रति। वैसे तो कहां गया कि, श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती नित्य परिकर, नित्य पार्षद है। राधाकृष्ण के नित्य कुंज से वह अवतरित हुए। निश्प्रपंचात प्रपन्सी अवतरती इति अवतार। व्याख्या करते हैं, अवतार शब्द निश्प्रपंचात अर्थात दिव्य धाम से, प्रपंच इस जगत में अवतरती इति अवतार। जो व्यक्ति अध्यात्मिक धाम से इस भूतल पर निर्मित होते हैं, अविर्भूत होते हैं अवतार लेते हैं जन सामान्य के कल्याण के लिए, यही अवतार है। मुझ जैसा कलि ग्रसित व्यक्ति कर्म बंधन के अनुसार 1 मां के गर्भ से दूसरे मां के गर्भ में प्रवेश करता ह। इसको जन्म कहां गया है परंतु, संत वैष्णव आचार्य जन्म नहीं लेते हैं। वह सूर्य के समान उदित होते हैं। अस्त होते हैं। और उदित होते हैं। अविर्भूत होते हैं और तिरुभावित होते हैंँ। राधा और कृष्ण की लीला में श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती का विशेष स्थान है। राधारानी के चरणों में विनोदमंजरी नामक नित्यसखी या दासी के रूप में श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर विराजमान है। बचपन से ही भागवतमें इतनी आसक्ति। उनके बड़े भाई रामभद्र चक्रवर्ती बड़े प्रवक्ता थे। भागवत में वह व्याख्या करते थे। विस्तार करते थे। श्लोकों का रटन पठन होता था घर में। और शर श्रील विश्वनाथ चक्रवती ठाकुर जन्म से लेकर ऐसे कहां गया, 3-4 साल की उम्र में जब बच्चे यहां वहां खेलते हैं। खेल खिलौनों से आसक्त रहते हैं। तब ऐसा समय रहता है, बालवस्था क्रिडासक्तः तरूणावस्था तरूणीआसक्तः वृध्दावस्था चिंतासक्तः परमब्रम्हे कोपिनासक्तः आदि शंकराचार्य कहते हैं, बचपन में बच्चे क्या करते हैं, क्रीडा जो खिलौने होते हैं उनसे आसक्त रहते हैं। परंतु चक्रवर्ती पाद हमारे गौड़िया शिरोमणि रत्न विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर खेलते नहीं थे। ऐसे कहा गया है, रामभद्र चक्रवती उनके बड़े भाई भागवत बोलते थे तो, विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर उनके चरणों में बैठकर भागवत सुनते थे। श्रुतस्य पुंसां सुचिरश्रमस्य नन्वञ्जसा सूरिभिरीडितोऽर्थः । तत्तद्गुणानुश्रवणं मुकुन्द पादारविन्दं हृदयेषु येषाम् ॥ भागवत के तीसरे स्कंध में कहा गया है कि अनंत जन्म कि, तप, यज्ञ, जप फलीभूत होते हैं। तब भागवत सुनने का, भगवान के विषय में स्मरण करने का और भगवान का जो आदान-प्रदान है इसको सुनने में आसक्ति होती है। रुचि जागृत हो जाती है। चक्रवती पादने दर्शाया की भक्ति करने के लिए कोई वृद्धावस्था को प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं। जिस प्रकार प्रह्लाद जी ने प्राप्त किया। जिस प्रकार ध्रुव जी ने प्राप्त किया। कौमारम आचरेत प्राज्ञोधर्मानि भागवतानि दुर्लभम मानुषम जन्म तदधि अर्थम आदृढ व्याधस्याम चरणम ध्रुवस्यचरणम गजेन्द्र कां कुब्जायानामरूपं अधिकम किं तस्य धनं वंश किं विदुरस्य यादवपते उग्रस्य का पौरूषं भक्तिरतुष्यति नच गुणे भक्ति प्रिय माधवा।। पदावली में रूप गोस्वामी बात कहते हैं भक्ति करने के लिए यदि आप आयु की आवश्यकता होती है तो, बताइए प्रह्लाद और ध्रुव कैसे भगवत प्राप्त हो गए। चक्रवर्ती पाद बचपन से अपने भाई के सानिध्य में बैठकर भजन-कीर्तन करते थे। हजारों के संख्या में नाम जप करते थे। इतनी आसक्ति और ब्रजनिष्ठा थी। 12 स्कंध पढ़ने के बाद रामभद्र चक्रवर्ती ने पूछा, बड़े भाई ने पूछा अच्छा विश्वनाथ बताओ 12 स्कंध पढ़ने के बाद सारांश बात क्या है? विशेष करके तुम्हें पूरे भागवत का निचोड़ क्या प्राप्त हुआ? सार बताओ। ऐसी कौन सी बात निष्कर्ष क्या है, तात्पर्य क्या है? तुमने ऐसी कौन सी बात अपनी हृदय मे ग्रहण की। फिर चक्रवर्ती पाद कहे, भैया मैंने तो सिर्फ कथा सुनी आप पूरे 12 स्कंध 33 अध्याय जो है इनका अगर सर आप एक वाक्य में पूछोगे तो, मैं नहीं जानता हूं। रामभद्र चक्रवर्ती बड़े भाई ने कहा अच्छा इतना भागवत सुनकर तुम साथ नहीं जानते जाओ एक और बार पढ़कर आओ पूरा भागवत और पहले स्कंद से लेकर 12 वे स्कंद तक चक्रवर्ती पाद वापस गए और 1 साल में, 12 महीनों में उन्होंने पुनर्अध्ययन किया। 18000 श्लोकों में, 333 अध्याय में विभाजित 12 स्कंदो को प्रकाशित श्रीमद् भागवत का उन्होंने रटन पाठन मनन चिंतन किया। फिर उत्साह पूर्ण भाव से अपने बड़े भाई के सानिध्य में आकर कहे, 1 साल के अंदर मैंने 12 स्कंद पुनः पढ़ लिए। अब बड़े भाई ने पूछा अब बताओ सार क्या प्राप्त हुआ। 12 स्कंद पढ़ने के बाद अब सार बताओ। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर मुस्कुराकर कहने लगे, सार एक ही है, भैया राधा-कृष्ण हमारे इष्ट देव हैं। हमारे प्राण प्रियतम हैं। वृंदावन धाम उनका निज महल है। उनका वास स्थली है और उसी वृंदावन धाम से आसक्त होकर बृंदावन थाम में निवास करते राधा और कृष्ण का चिंतन करके इंद्रियों से सेवा करना। उनका चिंतन करना ।यही जीवन का लक्ष्य है। यही भागवत का सार हैऋ यह प्रश्न हम पूछ सकते हैं, हम भागवत पढ़ते हैं तो, सार क्या निकलता है, पता है? *आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं* *रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता ।* *श्रीमद भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान्* *श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतामिदं तत्रादशे नः परः ।।* (चैतन्य मंज्जुषा) यदि इष्टदेव है तो श्रीकृष्ण है, यदि धाम है सबसे प्रियतम, निकटतम अगर कोई स्थान है पूरे ब्रह्मांड में हमारा जन्म स्थल नहीं। वह राधा और कृष्ण का लीला स्थली वृंदावन धाम है। सबसे बड़े भक्ति के मूर्तिमान मूर्तिमती स्वरूप प्रतीक के रूप में गोपिया है। श्रीमद्भागवत अब हमारा सबसे प्रियतम निकटतम ग्रंथ है। और पंचम पुरुषार्थ सबसे तुषार्थ शिरोमणि ब्रजवृंद है। ऐसे विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने कहां है। वृंदावन धाम श्रीमद् भागवत का सार है। रामभद्र चक्रवर्ती ने कह दिया, शाबाश! यही सार है, श्रीमद्भागवत का। इसीलिए चक्रवर्ती पादने जब ग्रंथों की रचना की ऐसा कहा जाता है कि, श्री विश्वनाथ चकवर्ती ठाकुर ने 40 ग्रंथों की रचना की संस्कृत में। कई सारे प्रसिद्ध ग्रंथ है। जैसे माधुरी कदंबिनी ग्रंथ है। चमत्कार वर्तिका बहुत प्रसिद्ध ग्रंथ है। राघव रितिका बहुत प्रसिद्ध ग्रंथ है। संकल्प कलपद्रुमा बहुत प्रसिद्ध है। इसके साथ साथ हम देखते हैं श्रील विश्वनाथ चक्वर्ती ठाकुर ने कई सारे शास्त्रों पर टिका की है। भागवत के टीका का नाम है सारार्थ दर्शनी टीका। भगवतगीता के टिका का नाम है सारार्थ वर्षनि टिका। अब सारार्थ नाम क्यों दिया? क्योंकि, उनके बड़े भाई ने इतने सारे ग्रंथ पढ़ने के बाद सिर्फ एक ही प्रश्न पूछा कि पूरे ग्रंथ का सारार्थ क्या है। तो इसीलिए उन्होंने सारार्थ दर्शनी सारार्थ वर्षनी टिका ऐसे उन्होंने प्रस्तुत किया। प्रकाशित किया। इसके साथ उन्होंने श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने ब्रजरीती चिंतामणि नामक बहुत सुंदर ग्रंथ जहां वृंदावन धाम वृंदावन के विशेष स्थलीयों का राधा कृष्ण के बहुत सुंदर लीलाओं का वर्णन भी उन्होंने उस में उल्लेख किया और विस्तारित वर्णन किया। इसके साथ-साथ उन्होंने श्रील रूप गोस्वामी पाद के भक्तिरसामृत सिंधु पर उन्होंने टीका की। रूपगोस्वामी के उज्वल निलमनी पर उन्होंने टीका की। श्रील रूपगोस्वामी के लघु भागवतामृत पर टिका की। इसके साथ-साथ उन्होंने नरोत्तमदास ठाकुर के प्रेमभक्तिचंद्रिका पर टिका की। कविकर्णपुर के ग्रंथों पर टिका की। और हम इस प्रकार से वह टिका करते थ अभी देखीए शीर्षक देख लीजिए। रूप गोस्वामीने ग्रंथ लिखा भक्तिरसामृतसिंधु इसका अर्थ है भक्तिरस अमृतमय सिंधु उन्होंने सिंधु प्रस्तुत किया और श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुरने दैन्य भाव में स्थित होकर कहां, सिंधु तो बहुत दूर की बात है। मेरी टीका को अगर नाम देना हो तो, वह सिंधु नहीं बिंदु होना चाहिए। इसीलिए उन्होंने नाम दिया भक्तिरसामृतसिंधुबिंदु रूप गोस्वामीने महासागर दिया पर, मैं तो एक कनिका दे रहा हूं बस। फिर जब रूप गोस्वामीने उज्वलनीलमणि दिया तो चक्रवर्ती पादने उसका टिका लिखते हुए शीर्षक दिया उज्वल नीलमणि किरण अर्थात भगवान श्रीकृष्ण उज्वल नीलमणि है। बहुत उज्वल प्रज्वलित नीलमणि अर्थात, बहुत सुंदर त्रिभंगा श्यामललित उनका रूप है। तो मानो एक रत्न के समान है भगवान श्रीकृष्ण दिव्य पारमार्थिक रत्न है। और हमारे विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर लिखते हैं। मैं क्या उस रत्न का विशेष वर्णन कर सकूं, रूप गोस्वामी ने तो उस उज्वल नीलमणि का वर्णन किया। मैं तो उद्धृत होकर उस लेश मात्र किरण का मैं ही कृती करूंगा। इसलिए उन्होंने नाम रखा उज्वल नीलमणि किरण। देखीए जब रूप गोस्वामी सिंधु देते हैं तो चक्रवती पाद कह रहे हैं कि मैं बिंदु दे रहा हूं। जब रुप गोस्वामी पूरा मनी दे रहे हैं तो, चक्रवर्ती पाद कह रहे हैं कि, मैं मनी नहीं दे सकता पर, उससे उत्पन्न होने वाला एक किरण लेश मैं प्रस्तुत कर रहा हूं। और जब रूप गोस्वामीजीने भागवतामृत दीया तो, हमारे विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर कह रहे हैं, भागवत का अमृत तो मैं नहीं दे सकता। मेरे टीका का नाम होगा भागवतामृतकण अर्थात भागवत अमृत का एक कण मात्रा में प्रस्तुत कर सकता हूं। इसके अतिरिक्त मेरा सामर्थ्य या क्षमता नहीं है। श्रील कविराज गोस्वामी के भजन कुटीर में वास किए विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर। राधाकुंड मैं निवास किए। वहां उन्होंने वेश के दीक्षा और वहां उनको नाम दिया गया, श्रीहरीवल्लभ। वैसे तो हम उनको श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के नाम से ही जानते हैं पर, श्री हरिवल्लभ यह भी उनका बहुत प्रसिद्ध नाम है। कई सारे ग्रंथों में उनके ग्रंथकार के नाम से श्रीहरिवल्लभ नाम से प्रसिद्ध है। एक बार जब श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर 7 बरस के थे तो, एक बहुत बड़े प्रकांड विद्वान पांडित्य शिरोमणि दिग्विजय पंडित वहां उपस्थित हुए। नदिया आए। सभी दिशाओं में उनकी कीर्ति फैल रही थी। वह आए, अपने विजयपत्र को लेकर आए। बहुत गर्विष्ठ थे। घमंडी थे।क्षजैसे कुंती देवी कहती हैं, जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिरेधमानमदः पुमान् । नैवाहत्यभिधातुं वै त्वामकिञ्चनगोचरम् ॥ २६ ॥ तो जब पांडित्य, शारीरिक सौंदर्य या धनाढ्य स्वभाव या जब हम देख सकते हैं, धन, ऐश्वर्य, शुद्ध और श्री ब्राह्मण कुल में अगर जन्म लिया हो या अगर कोई भी कारण हो गर्व के भौतिक जगत में अपने आप पाया जाता है। वह विद्वान भी बहुत गर्विष्ठ थे। उसे घमंडी भाव से वहां आया विजयपत्र दिखाते हुए कि, कितने दिग्विजय को उन्होंने पराजित किया है। उनके नाम के साथ वह पत्र प्रस्तुत किये। तब 7 बरस के विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर उनके आमने सामने बैठ कर प्रकांड पंडित से कहे वाक युद्ध करना हो शास्त्रार्थ होना हो तो चलिए। तो उन्होंने कहा तुमसे, तुम तो छोटे हो। महाराज के बैठे हैं तो थोड़ी सी मराठी निकल रही है, "मूर्ति लहान पण कीर्ति महान" विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर थे छोटे, "मूर्ति लहान पण कीर्ति महान" 7 बरस के थे। बहुत कीर्तिमान थे। 7 बरस के आयु में बैठ गए शास्त्रार्थ करने के लिए। सबके सामने उन्होंने उस दिग्विजय पंडित के गर्व को खंडित किया, भंजित किया, पूर्ण रूप से उनको फाड दियाऋ सब जय जयकार करने लगे चक्रवर्ती पाद की। और यह दिग्विजय पंडित एक कोने में बैठ कर रोने लगा। कोई भी मान सम्मान की अपेक्षा रखने वाले व्यक्ति को अगर सामाजिक तरह से अपमान हो जाए तो अच्छा नहीं लगता। अगर दैन्य स्वभाव में स्थित होता है, बहुत सुंदर श्लोक है, इस संदर्भ में। अगर कोई दैन्य स्वभाव में स्थित होता है तो, प्रभु सम्मान दें या अपमान दे वह प्रभु की कृपा प्रसाद मान कर लेता है। क्षोनिपठित्वं अथवाएकम अंकिचनत्वम, नित्यम दादासी बहुमानं अथापमानम। वैकुंठवासमअथा नर्केनिवासम, हा वासुदेव मम नास्ति गति त्वदअन्य।। श्री संप्रदाय के एक आचार्य लिखते हैं। हे प्रभु आप मुझे वैकुंठ भेजो या नरक भेजो आप मुझे मान दो या सम्मान दो आप मुझे राजा बनाओ या प्रजा बनाओ। प्रभु आपके पास दो-दो ऑप्शन है। मेरे पास तो एक ही ऑप्शन है। आपका दास बना रहा हूं। एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य। यारे यैछे नाचाय, से तैछे करे नृत्य ॥ आप तो राजा हो हम आपके रंक है। तो वह व्यक्ति बैठ गया। मान सम्मान से पराजित होकर सरस्वती देवी से कृपा मांगने लगा के, देवी मैं तो आपकी पूजा करता हूं फिर, आपने मुझे ऐसे अपमानित क्यों होने दिया? वहा रामभद्र चक्रवर्ती आए। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के बड़े भाई। उन्होंने हाथ रखा उनके कंदों पर और कहा क्यों चिंता करते हो, तुमने जिस से शास्त्रार्थ किया लगता तो है 7 बरस का पर वहां राधा और कृष्ण और श्रीमन महाप्रभु के नित्य परिकर है उनके सामने जो भी बैठता है, पराजित होना ही है। चिंता मत करो, प्रभु के पार्षद के सामने भला कौन खड़ा हो सकता है। ऐसे कह कर उन्होंने सांत्वना दी। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर दैन्य में भाव से महाप्रभु के सिद्धांत को स्थापित करते करते, ऐसे कई सारे दिग्विजय पंडित को पराजित किए। कई लोग कहने लगे राधा और कृष्ण की लीलाएं यह अप्राकृत नहीं है। प्राकृत है। ब्रज की गोपियां यह सबसे बड़ी प्रेमकाष्ठा नहीं है। पराकाष्ठा नहीं है। ब्रजभक्त शिरोमणि नहीं है। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने इन सभी बातों का खंडन किया तो, जो पराजित होने वाले थे दूसरे पक्ष के व्यक्ति थे। विपक्ष और उनको बहुत बुरा लगा। यह आगे की घटना है। उन्होंने बहुत सुंदर योजना बनाई। उनके दृष्टिकोण से, वैसे तो अपराध है, वैष्णव अपराध है। लेकिन उनके दृष्टिकोण से सुंदर योजना थी। चक्रवर्ती पाद जब परिक्रमा करेंगे हम वृंदावन के निकुंज से बाहर निकलकर हत्यार लेकर, उनकी हत्या करेंगे। चक्रवर्ती निडर रहे। भजहुरे मन श्रीनंदनंदन अभय चरणरविंदरे है जो प्रभु के चरणों में स्थित होता है वह भय नहीं जानता। अभयं सत्त्वसंश्रुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः | दानं दमश्र्च यज्ञश्र्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् || वह अभय भाव रहता है। चक्रवर्ती पादने खंडित किया इन सभी बातों को। राधा और कृष्ण के स्वरूप, नाम, लीला, धाम, परिकर इत्यादि को स्थापित किया। इन लोगों को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने योजना बनाई थी, चक्रवर्ती पाद की हत्या होगी चक्रवर्ती पाद की हत्या होगी। चक्रवर्ती पाद परिक्रमा लगा रहे थे वृंदावन कि। यह लोग देखने लगे अरे चक्रवर्ती पाद आ रहे है। आ रहै, चलो तैयार हो जाओ। तैयार हो गए तो देखा, अरे चक्रवर्ती पाद है ही नहीं। एक बहुत सुंदर सखी बहुत आभूषणों से सुसज्जित मानो राधा कृष्ण के नित्यसखी बहुत सुंदर पाल्यदासी चल रही है। और उनके आसपास भी अनेक सखीयों का समूह चल रहा है। क्या कर रहे हैं एक छोटेसा बक्सा है उसमें फूल ले रही है। यह लोग बाहर आ गए और कहने लगे अरे सखी बताओ, तुमने अभी विश्वनाथ चक्रवर्ती को देखा। हमने अभी देखा था उनको पर, दिख नहीं रहे है। आपने देखा क्या उनको? तो उस सखी ने कहा, "विश्वनाथ चक्रवर्ती को हमने भी देखा पता नहीं कहां गायब हो गए, अब प्रकट हो गए।" इस तरह सखी के रूप को देखकर वह मोहित हो गए। और पूछने लगे, अरे सह बताओ तुम कौन हो और कहां से आई हो? वह सखी कहने लगी, मैं राधारानी की किंकरी हूं। उनकी दासी हूं। मैं यावट में रहती हूं। और राधारानी ने आदेश दिया इसलिए मैं यह फूल उनके सेवा में इस बक्से में लेकर जा रहे हुं। उन्होंने कहा, अच्छा राधारानी की सेवा में लेकर जा रहे हो। उन्होंने दंडवत दिया। और जब दंडवत दिया और उठे तो उन्होंने देखा कि, वह सखी नहीं थी। सखियों का समूह नहीं था। उन्होंने देखा कि, वहां पर विश्वनाथ चक्रवती ठाकुर माला की झोली में हाथ डालकर खड़े थे। उन सबको आश्चर्य लगा कि, वहां कोई सखी नहीं थी। वह विश्वनाथ चक्रवती ठाकुर ही थे। अपने नित्य मंजरी स्वरूप में वहां प्रकट हो गए। बताने के लिए कि वह कोई सामान्य मनुष्य नहीं है। वह राधा और कृष्ण के नित्यपार्षद है। तो वह सब पुनः दंडवत करने लगे और बताने लगे कि हम आप की हत्या करने के लिए आतुर हुए थे। व्याकुल थे। आपने हमें वैष्णव अपराध से बचा लिया। अभी आप ही हमें इस भव संसार से भी बचा लीजिए। हे विश्वनाथ जी आपने जो भी राधा कृष्ण के बारे में कहा वह कोई कपोल कल्पित नहीं है। आप उनके नित्य परिकर, नित्य पार्षद हैं। इसलिए आप हमें आशीर्वाद दे, विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने उनको आशीर्वाद दिया और उनको दीक्षा देकर उनका जीवन कृतार्थ किया। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के जीवन में ऐसे अद्भुत लीलाएं प्रस्तुत है। जब और समय हमें उपलब्ध होगा तब और हम इन लीलाओं पर चर्चा करेंगे पर, आज के लिए इतना ही। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर का स्मरण करने से, आचार्यों का स्मरण करनी से, कीर्ति गाने से, सुनने से, चिंतन करने से, हमारा मन शुद्ध होता है। अंतःकरण पवित्र होता है। प्रभु में मन लगने लगता है। मैं आभार प्रकट करता हूं। बहुत सुंदर अवसर आज मुझे प्रदान किया गया ताकि, मैं अपने अंतःकरण को, अपनी जिव्हा को पवित्र कर सकूं। मैं परम पूज्यपाद लोकनाथस्वामी महाराज के चरणो में वापस नतमस्तक होकर नमस्कार करके भीख मांगता हूं। जो भी त्रुटि हो गई है, जो भी गलती हो गई हैं आप क्षमा करें। और सभी भक्तों से भी अनुरोध है साराग्राही भाव से जो भी दो चार बातें आपको प्रेरणादायक लगी हो आप हंस के रूप में दूध को ग्रहण करें और जलन रूपी त्रृटि को छोड़ दें। वांछाकल्पतरूबैष्य कृपसिंधुभ एवच। पतितानां पावनयोभ्य वैष्णवोंभ्य नमोनमः।। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर की जय! पतितपावन श्रील प्रभुपाद की जय! परमपूज्यपाद लोकनाथस्वामी महाराज की जय! समवेद भक्तवृंद की जय! निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!

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