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*जप चर्चा* *श्रीमान आमरेंद्र प्रभु द्वारा* *दिनांक 05 फरवरी 2022* हरे कृष्ण!!! परम पूज्यपाद लोकनाथ स्वामी महाराज के चरणकमलों में दंडवत प्रणाम अर्पित करते हुए मैं प्रारंभ करने का प्रयास कर रहा हूं। सभी एकत्रित वैष्णव वैष्णवी वृन्द के चरणकमलों में दंडवत अर्पण है। *वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।* प्रारंभ करने से पूर्व, महाराज जी आपसे अनुमति चाहता हूं कि मैं आपके आशीर्वाद से कुछ बोल पाऊं। ( महाराज- तुम्हारा स्वागत है) *ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।। श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्।।* *नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।। नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे। निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।* *(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।* *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* आज हम सब एकत्रित होकर बहुत सुंदर उत्सव मनाने का प्रयास कर रहे हैं। गौड़ीय दिन दर्शिका के अनुसार आज बसंत पंचमी का महा महोत्सव है। कई बार हम सोचते हैं कि वर्ष में तीन या चार ऋतु हैं परंतु हमारे ब्रज के दृष्टिकोण के अनुसार और विशेषकर वैदिक दृष्टिकोण के अनुसार छह ऋतु प्रसिद्ध हैं। बसंत ऋतु जिसको अंग्रेजी में स्प्रिंग कहते हैं। ग्रीष्म ऋतु जिसको समर कहते हैं, उसके बाद वर्षा ऋतु जिसे मॉनसून कहते हैं। तत्पश्चात शरद ऋतु, जिसको ऑटम कहते हैं। फिर हेमंत ऋतु, शरद ऋतु (प्री विंटर एंड विंटर) इस प्रकार ब्रज के दृष्टिकोण से छह ऋतु प्रसिद्ध हैं और इसमें भी विशेषकर वसंत ऋतु का बहुत महत्व है। बसंत ऋतु मानो ब्रज में एक उत्सव इसलिए है क्योंकि बहुत शिशिर और हेमंत के बाद, ठंड के बाद ब्रज के वृक्षों में कई सारे पत्ते कई सारे पल्लव, कई सारे पुष्प, फल पकने लगते हैं और लीला के लिए बहुत अनुकूल वातावरण बनने लगता है। इसलिए हम देखते हैं, हरे भरे पत्ते तो बाद में बनते हैं, पहले पीले पत्ते बनते हैं। इसीलिए हर मंदिर के उत्सव में हम देखते हैं कि बसंत पंचमी के उत्सव में राधा कृष्ण के श्रीअंग की सेवा, गहने, मालाएं, वस्त्र और कई जगह पर जो पकवान भी बनाए जाते हैं अथवा भोग पदार्थ भी जो अर्पित होता है सब पीले रंग का होता है। अधिकांश हम सब ने देखा ही होगा। राधा कृष्ण के अलग-अलग मंदिरों में खासकर हमारे इस्कॉन मंदिरों में वस्त्र भी, हार भी और ठाकुर को मिठाइयां भी पवाई जाती हैं, वह भी पीले रंग की होती हैं। वृंदावन में वसंत का एक बहुत सुंदर वातावरण छा जाता है। यह पंचमी इसलिए है क्योंकि चंद्रमा के शुक्ल पक्ष के दृष्टिकोण से यह पांचवा दिन है, इसलिए यह पंचमी है। ऋतु बसंत का है इसलिए बसंत पंचमी है। राधा कृष्ण की कई सारी लीलाएं प्रसिद्ध हैं। जिस प्रकार से शरद काल का शरद पूर्णिमा के दिन रासलीला प्रसिद्ध है। उसी प्रकार वसंत ऋतु का भी रासलीला बहुत प्रसिद्ध है। केवल स्थान का भेद है। शरदकालीन रासलीला यमुना के तट पर प्रसिद्ध है। हम सब ने इसके विषय में सुना है। कार्तिक मास की प्रारंभिक तिथि को हम शरद पूर्णिमा के भाव से इसको मनाते हैं और उसी प्रकार बसंत पंचमी के दिन राधा और कृष्ण बहुत सुंदर रासलीला का रसास्वादन करते हैं। स्थान भेद हम इसलिए कह रहे हैं कि शरद कालीन रासलीला यमुना के तट पर होती है और वसंत ऋतु का रास लीला गोवर्धन पर चंद्र सरोवर के तट पर होती है। इस प्रकार कई सारी अद्भुत लीलाएं हैं। इसके अतिरिक्त दिन दर्शिका के अनुसार बसंत पंचमी के दिन श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर का तिरोभाव दिवस भी है। कल की बैठक में हमनें, इसका विस्तार से तो नहीं कहेंगे पर संक्षिप्त में चर्चा की। इसके साथ श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी का आविर्भाव दिवस है। रघुनाथ दास गोस्वामी कौन हैं? हमारी गौड़ीय संप्रदाय के रस और तत्व सिद्धांत के अनुसार सबसे सर्वश्रेष्ठ जो साध्य है, वो है- राधा कृष्ण की प्रेम प्राप्ति। इसको प्रयोजन माना गया है। श्री चैतन्य महाप्रभु की वाणी के अनुसार- कृष्ण संबंध, भक्ति अभिदेय, प्रेम- प्रयोजन। राधा कृष्ण के चरण प्राप्ति और प्रेम सेवा को स्पष्ट रूप से गीत के माध्यम से, श्लोकों के माध्यम से, प्रार्थना के माध्यम से इस जगत में प्रकाशित करने वाले प्रयोजन तत्व आचार्य हैं श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी। राधा कुंड के तट पर बैठकर उन्होंने 50 साल भजन किया। उनके विषय में कई सारी लीलाएं हैं। ये सब महानुभाव, इतने महानुभाव हैं कि इन सब यदि सात सात दिन भी कथा हो, फिर भी बोलने के लिए बहुत बच जाएगा क्योंकि हम सब बहुत छोटे हैं। हम छोटे जीव हैं और इनकी महिमा अपरंपार है। हम इनकी गणना नहीं कर सकते। रघुनाथ दास गोस्वामी फुदक फुदक कर राधा रानी के विप्रलम्भ भाव अग्नि में दग्ध होकर ऐसे रोते थे कि राधा कुंड के जो भी साधु होते थे, वह रो रो कर राधा रानी से यह प्रार्थना करते थे कि हे राधा रानी! आप हमें मिलो या ना मिलो, इस बाबा को मिल जाओ क्योंकि इतने विरह के भाव में यह रो-रो कर पुकारते थे। हे राधे! ब्रज देविके! ललिते नंदसूत, रघुनाथ दास गोस्वामी के विषय में कहने के लिए तो बहुत कुछ है। इसके साथ साथ आज एक और बहुत बड़ी हस्ती, एक और नित्य परिकर, नित्य पार्षद का आविर्भाव दिवस है। वह कौन है? वह श्रीचैतन्य महाप्रभु की अर्धांगिनी श्रीमती विष्णुप्रिया देवी हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का विवाह श्रीमती श्रीविष्णु प्रिया के साथ हुआ। विष्णु प्रिया देवी साक्षात नारायण की शक्ति, राधा कृष्ण की शक्ति रूप आविर्भूत हुई। तत्व के अनुसार देखा जाए तो नारायण की विशेषकर तीन शक्तियां हैं। एक श्रीशक्ति अर्थात जो लक्ष्मी देवी हैं, एक लीला शक्ति जो लीलाओं को परिपूर्ण करती है और एक भू शक्ति हैं। यह तीनों शक्तियां महाप्रभु की लीलाओं में अवतरित हुई। श्री शक्ति, लीला शक्ति और भू शक्ति। यह तीनों अवतरित हुई- लक्ष्मी प्रिया, नवद्वीप धाम और विष्णु प्रिया के माध्यम में। आज विष्णुप्रिया देवी का भी आविर्भाव दिवस है। महाप्रभु की अर्धांगिनी है -लक्ष्मी प्रिया देवी। वह भी अर्धांगिनी है, कैसे जाना जाए? चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं में यह वर्णन है कि जब चैतन्य महाप्रभु का विवाह लक्ष्मी प्रिया देवी से हुआ। उसके बाद महाप्रभु बांग्लादेश में यात्रा करने गए। आज के काल में बांग्लादेश जोकि नदिया से दूर है, महाप्रभु दूर बांग्लादेश गए। तब लक्ष्मी प्रिया देवी का देहांत हुआ। वे अपनी लीलाओं को संपन्न करके गोलोकधाम अंतर्ध्यान हो गई। लीला कथा के अनुसार ऐसे वर्णन आता है कि सर्प के डसने से उनकी मृत्यु हुई या उनका तिरोभाव हुआ पर यह कोई सामान्य सर्प नहीं था। वृंदावन दास ठाकुर चैतन्य भागवत में कहते हैं कि महाप्रभु से बिछड़ने का विरह ही विप्रलम्भ सर्प रूप में आकर डसने लगा। मानो कोई सर्प के डसने से मृत्यु नहीं हुई। यह सर्प कौन है? यह कोई जगत का सर्प नहीं था। उनके हृदय में उभरते हुए महाप्रभु के विरह विप्रलम्भ भाव ही सर्प रूप में अवतार लेकर उनको डरने लगा। ऐसा कहते हैं कि सर्प के डसने के कारण उनकी मृत्यु हुई या उनका तिरोभाव हुआ। वास्तविकता में वह सर्प विप्रलम्भ सर्प था। अब यह होने के बाद महाप्रभु तो लौट गए। महाप्रभु लौटे तब शची माता ने कहा कि "जब तुम चले गए तो लक्ष्मीप्रिया देवी का देहांत हुआ" महाप्रभु बहुत गंभीर हो गए। क्यों गंभीर हो गए? हम सब को यह शिक्षा देने के लिए कि इस जगत में कोई भी ऐसा रिश्ता नहीं, कोई भी ऐसा संबंध नहीं जो स्थाई हो, जो शाश्वत हो। सब कुछ क्षणिक है। सब कुछ क्षण भंगुर है। आज है तो कल नहीं। जहां भी प्रीति होती है, जहां भी आसक्ति होती है, वहां काल के चक्र के अनुसार धोखा होता है। आज जन्म है तो कल मृत्यु है। आज किसी से मिलते हैं तो कल बिछड़ते हैं। कई बार माता-पिता छोड़ कर चले जाते हैं और कई बार पुत्र जिंदा होकर भी अलग देश में रहता है। जहां संयोग है वहां वियोग अनिवार्य है। यह दर्शाने के लिए, यह शिक्षा पूरे जगत को देने के लिए महाप्रभु के जीवन में जब लक्ष्मी प्रिया के साथ बिछड़ने की लीला का वर्णन हुआ तब महाप्रभु गंभीर हो गए। गम्भीरचित से प्रभु का स्मरण करने लगे। महाप्रभु तो ऐसा कर सकते हैं पर शची माता, मां का हृदय तो नवनीत के समान होता है। पुत्र के जीवन में यदि थोड़ी भी अग्नि रूपी दुख आ जाए तो मां का नवनीत रूपी चित पिघलने लगता है। शची माता सोचने लगी, चैतन्य महाप्रभु अकेले हो गए। हमारे निमाई पंडित, हमारे विश्वम्भर मिश्र अकेले हो गए। क्यों? इसमें दुविधा क्या है? दुविधा ऐसी है कि शची माता के हृदय में पीड़ा अथवा दुख प्रदायक विचार यह है कि उनके जो पहले पुत्र थे, उनका नाम था विश्वरूप। विश्वरूप ने अकस्मात (अचानक) संन्यास ले लिया। उसके बाद शची माता कभी अपने पुत्र को देख नहीं पाई। आज के सत्र में जो एकत्र माताएं हैं वह शायद इस बात को और अधिक गहराई से समझ पाएगी। मैं तो बस मुख से बोल रहा हूं लेकिन मां का जो हृदय होता है, वही इस बात को समझ पाएगा। शची माता का एक पुत्र विश्वरूप ने, उनको छोड़कर सन्यास ले लिया। तत्पश्चात कभी लौटकर फिर घर वापस नहीं आए, संन्यास लेने के बाद। शची माता ने, यदि देखने की इच्छा रखी भी तो भी देख नहीं पाई। अब ह्रदय में यह बात उमड़ने लगी कि हमारे छोटे बेटे शचीनन्दन गौर हरि, अभी तक तो विवाहित थे तो मुझे चिंता नहीं थी। अब अकेले हो गए। लक्ष्मी प्रिया देवी अब छोड़ कर चली गई, प्राण छोड़ कर चली गई। अपनी लीलाओं को संपन्न करके गोलोकधाम प्रस्थान हो गई। अब यह अकेले हैं। शास्त्र वगैरह सब कुछ तो जानते हैं, शास्त्र का सार, निचोड़, न्याय, व्याकरण, तत्व, रस, सिद्धांत सब कुछ ग्रहण करके बैठे हैं। वैसे तो भगवान हैं परंतु उनकी नरवत लीला में भी पंडित शिरोमणि हैं और सब कुछ जानते हैं। शास्त्र का सार क्या है? जगत से विरक्ति। हर छोटे भाई से अपेक्षा यही होती है कि वह सज्जन बड़े भाई जो हैं, उनके पद चिन्हों पर अनुगमन किया जाए। यदि हर दृष्टिकोण से देखा जाए तो मां के हृदय में यह दुख या यह सन्देह या यह विचार अंदर से उनके सुख को खा रहा था कि कहीं विश्वरूप के पीछे पीछे विश्वम्भर भी संन्यास ना ले ले। यदि संन्यास लेने से पहले पुनः इनका विवाह करा दूं तो यह गृहस्थ जीवन में सुखी रहेंगे। यह मेरे निकट रहेंगे। ये सुखी तो मैं भी सुखी। ऐसा मां सोच रही थी। अब क्या करें? इनके विवाह के लिए पुत्री ढूंढनी होगी? शची माता, रोज गंगा के तट पर जाकर गंगा मैया की आराधना किया करती थी। नवद्वीप में है तो गंगा के तट पर वास है। जब वह जाती थी, तो एक बहुत सुंदर, एक बहुत सुकोमल, सुशील, बहुत सुंदर लक्ष्मीवती स्त्री का दर्शन करती थी। जिनका नाम था विष्णुप्रिया। विष्णुप्रिया कौन हैं? विष्णुप्रिया देवी, सनातन मिश्र नाम के एक बहुत बड़े विद्वान प्रकांड नवद्वीप में थे, वह इतने बड़े विद्वान थे कि वह सभी ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ हैं, सभी श्रीमंत धनाढ्य व्यक्तियों में शिरोमणि, चूड़ामणि और सर्वश्रेष्ठ थे, उनका सर्वोपरि स्थान था, सनातन मिश्र की पुत्री अथवा कन्या विष्णुप्रिया देवी थी। विष्णुप्रिया देवी हर दृष्टिकोण से सर्वसंपन्न थी। हैं लक्ष्मी, भगवान की नित्य अर्धांगिनी, ऐसा नहीं कि अभी विवाह हो रहा है। शाश्वत, सर्वदा, सर्वकाल के लिए संयोगित हैं। ऐसी लक्ष्मी हैं, जो कभी बिछड़ती नहीं।अब यहां लक्ष्मी प्रिया, विष्णु प्रिया बिछड़ने का संयोग.. यह लीलाएं तो भूतल पर नरवत लीला होती हैं परंतु यदि नित्यधाम की बात करें, प्रभु और अपनी शक्ति शक्ति शक्तिमतयो अभेदः वह अभेद भी है और उनमें काल और स्थान का प्रभाव होकर बिछड़ने की लीला वहां नहीं होती। वो वियोग और विप्रलम्भ की लीलाएँ तो यहां दर्शाने के लिए होती हैं ताकि पत्थर रूपी चित्त को पिघलाकर प्रभु की लीलाओं में, प्रभु के गुणों में, प्रभु के रूपों में, हम भी भावविभोर हो सके। इसीलिए विरह की लीला यहां हमारे लिए दर्शाई जाती है किन्तु नित्य धाम, श्वेत दीप नवद्वीप जो आध्यात्मिक जगत हैं । वहां तो संयोग है, नित्य है, नित्य अर्धांगिनी है। सनातन मिश्र की सुकन्या/ सुपुत्री विष्णु प्रिया देवी, वो भी सभी शास्त्रों में कुशलिनी, निपुण, रूप सौंदर्य की दृष्टिकोण से अतुल्य, चित्त के शुद्धिकरण के अनुसार सुशीला, हर दृष्टिकोण से, हर गुण से देखकर परखने पर भी कहीं कोई दोष नहीं क्योंकि नित्य शक्ति है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो बहुत बड़ी तपस्विनी, दिन में तीन बार गंगा स्नान करती थी। गंगा की आराधना, तुलसी की आराधना, नारायण की आराधना, निर्जला एकादशी व्रत करती थी और जो सभी बड़े वरिष्ठ हैं, विष्णु प्रिया उनके सामने नम्रभाव में झुकती थी। हर दृष्टिकोण से परफेक्ट( जो कहते हैं ना एकदम परफेक्ट) शची माता जब विष्णुप्रिया को देखती थी, हृदय द्रवित होता था, पिघलने लगता था। एक बार विष्णुप्रिया देवी ने चरण स्पर्श करके दंडवत किया/ पंचांग नमस्कार किया, शची माता ने आशीर्वाद दिया- हे विष्णुप्रिये! मैं आशीर्वाद देती हूं कि तुम्हें सबसे उत्तम पति मिले। सबसे उत्तम पति जो सभी शास्त्रों में निपुण हो। सभी दृष्टिकोण से उत्तम हो। जिनके ऊपर तो भूल जाओ, जिनके आसपास भी कोई ना हो। योग्यतानुसार आशीर्वाद तो दे दिया। विष्णुप्रिया देवी ने मंद मंद मुस्कुराकर आशीर्वाद ग्रहण कर लिया। तत्पश्चात शची माता गंगा के तट से निकलकर चलते-चलते घर की ओर पहुंच रही थी। तब यह विचार आया कि एक मिनट, मैंने तो विष्णुप्रिया को आशीर्वाद दिया कि सर्वश्रेष्ठ पति मिले, ऐसा हो जिसके ऊपर कोई ना हो, सर्वगुण संपन्न हो। यह कोई मां का दिल नहीं कह रहा। यह तो सब जानते हैं कि पूरे नवद्वीप में/ पूरे नदिया में सर्वश्रेष्ठ तो निमाई पंडित है। शची माता का हृदय अब तो आनंद और उल्लास से फटने लगा। यह आतुरता होने लगी, व्याकुलता बढ़ने लगी कि अगर निमाई पंडित, विश्वम्भर मिश्र का विवाह यदि विष्णुप्रिया देवी से हो, ओ हो हो... यह तो बस मानो कि मेरे जीवन की सबसे सर्वश्रेष्ठ पूर्ति होगी पर बात कैसे छेड़ी जाए। देखिए उस समय में ऐसा नहीं होता था कि कोई लड़का लड़की से मिले और बात करें। परिवार भी परिवार से मिलकर विवाह संबंधी बात नहीं करते थे। ऐसा होता था कि हर गांव में एक ब्राह्मण होता था जो विवाह का आयोजन करने में सक्षम होता था। उस को अंग्रेजी में मैचमेकर कहते हैं अर्थात जो भी विवाह आयोजन करने योग्य जो भी बातें हैं, वह सब जानने वाले पंडित हैं। पंडित जानते थे कि गांव में कौन-कौन से लड़के हैं जो जो शादी करने के लिए तैयार हैं। कौन-कौन सी लड़कियां हैं जो शादी करने के लिए तैयार हैं। विवाह करने के लिए तैयार हैं। उनकी आयु में क्या भेद है। कौन ब्राह्मण है, कौन क्षत्रिय है, शास्त्र के अनुसार क्या प्रतिकूल है? क्या अनुकूल है? ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कितने गुण मिलते हैं? सब जानने वाले ब्राह्मण थे। नवदीप में भी ऐसे ब्राह्मण थे, उनका नाम था काशिश्वर पंडित। शची माता, तत्क्षण उसी दिन काशिश्वर पंडित से मिली और कहने लगी। मैं कुछ कहना चाहती हूं। काशिश्वर पंडित ने कहा- हा मैया, आप तो जगत माता हो। कहिए! क्या आज्ञा है? शची माता कहने लगी कि ह्रदय में एक इच्छा जागृत हुई है। मेरे पुत्र का विवाह यदि सनातन मिश्र की पुत्री विष्णु प्रिया से हो सके तो ... मुझे पता है, यह छोटे मुंह बड़ी बात है। मैं इसलिए कह रही हूं क्योंकि सनातन मिश्र का जो स्थान है, वह जगन्नाथ मिश्र से भी ऊपर है। पांडित्य अनुसार, श्रीमन्त धनाढ्य धन के अनुसार, सामाजिक दृष्टिकोण से जो स्तर है, उसके अनुसार और ब्राह्मणत्व में भी दोनों मित्र हैं। सनातन मिश्र भी मिश्र हैं, जगन्नाथ मिश्र भी मिश्र हैं। पर फिर भी जाति में भी उपजाति होता है। उस दृष्टिकोण के अनुसार भी सनातन मिश्र की जाति वह और ऊपर है। मानो या छोटे मुंह बड़ी बात, शची माता कह रही है परंतु फिर भी इच्छा करने में क्या है। मुझे लगता है यदि मेरे पुत्र विश्वम्भर मिश्र का विवाह सनातन मिश्र की पुत्री विष्णुप्रिया से हो तो मेरी सर्वश्रेष्ठ इच्छा की पूर्ति इसी से हो जाएगी। काशिश्वर पंडित ने कहा-' अरे! मैं तो रुका था, उस दिन के लिए, जब आप आकर यह बात छेड़ेगी। मैं अकेले आकर कैसे बात करूं, मैया! आप यदि इस बात से प्रेरित हो जाए तो तब हम जाकर आगे कहें। मेरे हृदय में भी यह बात उमड़ रही थी लेकिन मैं...यदि दो परिवार ना बोले... मैं क्या बीच में बोलूं पर आपने यह बात कह दी .. ओह्ह ओह्ह.. मानो आपने मेरे हृदय की बात छीन ली हो। शची माता ने कहा... पर हमें तो फिर ज्योतिष शास्त्र के अनुसार देखना पड़ेगा। काशिश्वर पंडित ने कहा कि अरे! हम पहले से सब देख चुके हैं। सब सही है। मैंने तो पहले से तुलना कर ली। सब ठीक है। तो अब क्या करें ? मैं जाकर बात करूं सनातन मिश्र से? शची माता ने कहा- 'हां! बस यही इच्छा थी कि अगर आप जाकर बात कर ले। यह हमारी इच्छा है तो फिर दो परिवार जाकर बाद में मिल लेगें। काशिश्वर पंडित ने कहा कि ठीक है! अब उस पक्ष में देखते हैं। सनातन मिश्र जी अपने घर में नारायण की सेवा करते थे। उनके पास नारायण विग्रह थे। रो-रो कर सेवा करते थे। सनातन मिश्र की पत्नी ने पूछा-'आपसे, मैं कुछ पूछना चाहती हूं। आप रोज नारायण की इतनी भाव विभोर होकर रो रो कर आप नाम पुकार पुकार कर आप सेवा करते हो। क्या हृदय में कोई अपूर्ण इच्छा की पूर्ति हेतु करते हो ? कोई इच्छा है क्या आपके हृदय में? सनातन मिश्र ने अपनी पत्नी से कहा- 'अब तुमसे क्या छुपाऊं। मैं देखता हूं कि हमारी बेटी बड़ी हो रही है। इसलिए पिता के हृदय में चिंता है कि अब कोई अच्छा लड़का मिले।' तुम पूछ रही हो, इसलिए मैं कह रहा हूं।' सनातन मिश्र अपनी पत्नी से कहते हैं। अगर हमारी पुत्री विष्णुप्रिया को शची माता और जगन्नाथ मिश्र के जो पुत्र हैं निमाई पंडित, वह मिल तो नहीं सकते। मुझे पता है। निमाई पंडित बहुत बड़े पंडित हैं, उनके जैसा कोई लड़का अगर मिल जाए तो विष्णुप्रिया का जीवन तो सफल हो जाएगा। उनकी पत्नी ने कहा- 'उनके जैसे तो केवल वही हैं। दूसरा कोई नहीं है।' सनातन मिश्र ने कहा- 'यही तो हृदय की बात है। मैं नारायण की सेवा इसीलिए करता हूं कि अगर वो दिन आ जाए जब हमारी पुत्री विष्णुप्रिया का विवाह जगन्नाथ मिश्र और शची माता के पुत्र विश्वम्भर मिश्र, श्रीमन महाप्रभु शची नंदन गौर हरि के साथ अगर विवाह निश्चित हो जाए तो मेरा पिता होने का सर.. मैं उस भाव से कह रहा हूँ । मेरा जीवन तो सफल हो जाएगा। जब ऐसे माता-पिता विष्णुप्रिया के विषय में बात कर ही रहे थे, तब काशिश्वर पंडित दरवाजा खटखटाते हैं। काशिश्वर पंडित जी आते हैं और कहते हैं- 'सनातन मिश्र जी, आपसे बात कहनी थी।' सनातन विष्णु जी ने कहा- 'आप तो जिनके भी घर जाते हो, आप तो जीवन सँवारने की बात ही करते हो। बताइए।' काशिश्वर पंडित ने कहा- 'आपकी बेटी विष्णुप्रिया देवी के विवाह के लिए बहुत बहुत अच्छा आयोजन आया है।' सनातन मिश्र ने कहा- 'बताइए।' काशिश्वर पंडित ने कहा- शची माता और जगन्नाथ मिश्र के विषय में तो आपने सुना ही होगा। हां! हां! उनके बारे में किसने नहीं सुना है?' काशिश्वर पंडित ने कहा- उन्हीं के पुत्र, विश्वंभर मिश्र हमारे श्रीमन महाप्रभु शचीनन्दन गौर हरि के लिए हम विष्णु प्रिया का हाथ मांगने आए हैं। यदि आप ठीक समझो तो मैं जाकर शची माता को हाँ कह दूं।' जब जैसे ही काशिश्वर पंडित ने कहा- सनातन मिश्र और उनकी पत्नी सीट से खड़े हो गए। जोर से चीख चीख कर चिल्लाने लगे। हे प्रभु! हे नारायण !आपकी जय हो! सभी आराधना, सभी आरती, सभी पूजा सफल हो गई। हमने जो हृदय से प्रार्थना मांगी जो कृपा याचना की, प्रभु! आपने उसकी पूर्ति कर दी।' बस यदि विष्णुप्रिया का विवाह शचीनन्दन से निश्चित हो जाए तो हमारा जीवन सफल है। काशिश्वर पंडित ने कहा- 'यदि बात आपके पक्ष से पक्की है तो शची माता को जाकर बता दूं?' तब सनातन मिश्र जी ने कहा - तत्क्षण, अभी जाकर बता दीजिए।' सनातन मिश्र के घर से काशिश्वर पंडित भावविभोर होकर, गदगद होकर भाग भाग कर शची माता के पास आए और कहने लगे- शची माता! आपकी बात बन गई। सनातन मिश्र और उनकी पत्नी ने हां कर दी। अब आपके पुत्र निमाई पंडित का विवाह विष्णुप्रिया देवी से निश्चित है।' अब तक हमारे महाप्रभु को कुछ भी नहीं पता। देखिए, वैदिक संस्कृति के अनुसार विवाह ऐसे होता था। महाप्रभु को अभी तक पता नहीं है। शची माता, बहुत खुश। सब खुश। इस लीला के पीछे बहुत बड़ा रहस्य छुपा है। क्या रहस्य है? देखिए! विष्णुप्रिया देवी जो महाप्रभु की अर्धांगिनी है। कृष्ण लीला में यही सत्यभामा देवी है। सत्यभामा देवी जो द्वारिका में कृष्ण की अर्धांगिनी हैं, वहीं सत्यभामा देवी विष्णुप्रिया है। विष्णु प्रिया के पिता सनातन मिश्र जी किसके अवतार हैं? सत्यभामा के पिता सत्राजीत के अवतार हैं। सत्राजीत जैसे अपनी पुत्री सत्यभामा का हाथ भगवान श्रीकृष्ण के हाथ देने वाले थे ,वैसे ही अब सत्राजीत के अवतार सनातन मिश्र जी अपनी पुत्री अपनी कन्या विष्णु प्रिया का हाथ शचीनन्दन गौर हरि के हाथ में देने वाले हैं। कृष्ण लीला में एक और बात सिद्ध है। सत्राजीत, जब कृष्ण और सत्यभामा के विवाह के विषय में चर्चा हो रही थी। उन्होंने एक ब्राह्मण से इस विषय में कहा कि तुम जाकर कृष्ण से कह देना, यह इच्छा है। वहीं ब्राह्मण गौरलीला में काशिश्वर पंडित के रूप में अवतरित हुए। एक पक्ष में हैं सत्राजीत जो बन गए सनातन मिश्र फिर उनकी पुत्री सत्यभामा जो बन गई विष्णुप्रिया देवी। इस पक्ष में कृष्ण हैं, जो बन गए शचीनन्दन गौर हरि। जो कृष्ण लीला के ब्राह्मण हैं अर्थात कुलगुरू, वही नवद्वीप में अवतरित हुए। जिनका नाम काशिश्वर पंडित था। अब शची माता से काशिश्वर पंडित कहने लगे कि विवाह के लिए जो भी आयोजन है तत्क्षण शीघ्र अति शीघ्र हमें यह आयोजन करना चाहिए। जो भी शुभ है वह तत्क्षण करें और जो भी अशुभ है उसे सौ बार विचार विचार करके और फिर भी यदि विवेक बुद्धि से सिद्ध है तो करें लेकिन शीघ्र नहीं करना। जो सुख प्रदायक है, उसको शीघ्र करना है। अब उनके विवाह का आयोजन हुआ। (मैं 5 मिनट का और ऊपर समय लूंगा। मुझे पता है कि समय ऊपर जा रहा है।) आयोजन किया गया, अब विवाह बहुत बहुत सुंदर तरीके से आयोजन होने वाला था। अब विवाह के लिए खर्चा भी होगा। धन कहां से आएगा बहुत ख़र्चा होगा । नवद्वीप में एक बहुत धनाढ्य व्यक्ति थे जिनका नाम बुद्धिमंत खान था। बुद्धिमंत खान ने कहा कि देखो धन का तो सुदुपयोग होना चाहिए। ये पूरे विवाह के आयोजन का जो भी खर्चा है, वह बुद्धिमंत खान उठाएगा। मैं उठा लूंगा, अब बुद्धिमंत खान के पास एक व्यक्ति आए। जिनका नाम मुकुंद संजय था। मुकुंद संजय के पास भी धन था लेकिन इतना नहीं। मुकुंद संजय वही थे जिनके प्रांगण में निमाई पंडित अपने शिष्यों को व्याकरण सिखाते थे। मुकुंद संजय ने सोचा- 'अरे! मेरे प्रांगण में निमाई पंडित अपने शिष्यों को सिखाते हैं तो मेरा भी कर्तव्य बनता है कि मैं भी कुछ धन का दान देकर इस विवाह समारोह में कुछ आयोजन करू। वह बुद्धिमंत खान के पास आए और कहने लगे कि मैंने सुना है कि आप धन दान देकर आयोजन करने वाले हैं। आप चिंता ना करें मैं भी योगदान करूंगा। बुद्धिमन्त खान बोले, "अरे! मुकुंद संजय! यह कोई धनहीन ब्राह्मण का विवाह नहीं होने वाला है कि तुम अपना हाथ डाल रहे हो। यह बहुत, सबसे विशाल, सबसे भव्य सबसे सुंदर विवाह होने वाला है। राजा या राजकुमार का विवाह जिस प्रकार होता है। नवद्वीप ने ऐसा विवाह कहीं नहीं देखा। अरे!नवद्वीप की बात तो छोड़ दो। स्वर्ग के राजा इंद्र ने भी ऐसा विवाह नहीं देखा। ऐसा विवाह समारोह, ऐसा आयोजन बुद्धिमंत खान करेगा। शचीनन्दन और विष्णु प्रिया के बीच जब इस विवाह की बात मुकुंद संजय ने बुद्धिमन्त खान के मुख से सुनी तो उन्होंने कहा- अच्छा!अच्छा! आप कर लीजिए। यदि कोई सहयोग करने का मुझे अवसर मिले तो मैं अपने जीवन को कृतार्थ समझूंगा। अब विवाह तो कोई एक-दो घंटे की बात नहीं है। कई दिनों की प्लानिंग/आयोजन के पश्चात सोच समझकर कई दिन लगकर इस विवाह का आयोजन हुआ। पहले दिन शचीनन्दन गौर हरि, सभी ब्राह्मणों को आमंत्रित करके, स्वागत करके, सबके चरण स्पर्श करके, चरण धोकर चरणामृत पीकर, सबको चंदन का लेप कर, सबको हार चढ़ा रहे थे व सबको भेंट दे रहे थे। कई ब्राह्मण तो चैतन्य महाप्रभु के रूप सौंदर्य से आकृष्ट होकर बारंबार आकर लाइन में खड़े हो जाते। उनको एक बार तो चंदन का लेप महाप्रभु ने लगा दिया और हार चढ़ा दिया। फिर वे जाते थे उस लेप को धोकर हार रख कर पुनः आकर लाइन में खड़े हो जाते थे ताकि निकटतम स्थान से शचीनन्दन को देख सकें। महाप्रभु करोड़ों कन्दर्प को जीतने वाले शरीर में ऐसी सुंदरता रखते थे। बहुत सुंदर, सर्वगुण संपन्न, दिव्य गुणों की खान थे। श्रेष्ठ उद्गम स्थान थे, स्तोत्र थे। अब दूसरे दिन ऐसा आयोजन हुआ कि निमाई पंडित को पालकी में ले जाकर जगन्नाथ मिश्र भवन से सनातन मिश्र के घर की ओर प्रस्थान का पूरा आयोजन किया गया। महाप्रभु उस पालकी में चढ़े। उस पालकी में निमाई पंडित बैठ गए। बाए, दाएं तरफ, आगे पीछे, हर जगह गायक हैं, नृत्यकार है, ब्राह्मण बहुत सुंदर स्वस्ति वाचन उच्चारण कर रहे हैं। मंत्रों का उच्चारण हो रहा है। कहीं सारे गीत गाने वाले गंधर्व उतर गए। अप्सरा नृत्य करने के लिए उतर गयी। इसके साथ-साथ हर जगह रंगोली लगी है। आम के पत्तों का तोरण लगा है। हर जगह शंख बज रहा है। श्रीचैतन्य महाप्रभु पालकी पर चढ़ गए। चढ़ कर फिर इस गीत और मंत्र की बहुत सुंदर यात्रा से सनातन मिश्र के भवन पहुंच गए। सनातन मिश्र जी ने अपनी खिड़की से देखा। हरि नाम की गूंज चल रही है, हर जगह नृत्य हो रहा है, गीत वाद्य यंत्र बज रहे हैं। अवश्य अवश्य निमाई पंडित आए हैं। उन्होंने दरवाजा खोल दिया। निमाई पंडित का हाथ भर के स्वागत किया। उनको बहुत सुंदर स्थान देकर बैठा कर सनातन मिश्र जी ने चरण धोए। आरती की फिर उन्हें यज्ञ मंडप की ओर ले गए। वहां यज्ञ मंडप में बहुत सुंदर कुंड बना था। जहां पर विवाह का यज्ञ होगा, विष्णुप्रिया देवी बाहर आई। उनका मुख्य आच्छादित था, कवर किया गया था। वह देख नहीं रही थी, छिपा कर आई थी। उन्होंने निमाई पंडित को नमस्कार किया। तत्पश्चात सात परिक्रमा लगाई। हम जैसे परिक्रमा लगाते हैं ठाकुर जी की या तुलसी जी या गुरु की। हम परिक्रमा लगाते हैं कैसे लगाते हैं? हम ऐसे जाते हैं कि ताकि जो हमारे इष्ट हैं, वे हमारी दाई तरफ हो। ऐसी ही परिक्रमा लगाते हैं ना? इष्ट हमारे दाई और होते हैं। हम फिर उस तरह घूमते हैं परंतु विष्णु प्रिया देवी ने उल्टी परिक्रमा लगाई क्योंकि जब हम सीधी परिक्रमा लगाते हैं उसका भाव यह होता है कि मुझे मुक्ति मिले लेकिन विष्णुप्रिया देवी उस विवाह से मुक्ति नहीं चाहती थी। उल्टी परिक्रमा इसलिए लगा रही थी ताकि अपने इष्ट नंदन गौर हरि के साथ सात जन्म का का बंधन बधे। वह कोई मुक्ति की चाह नहीं कर रही थी। वह शचीनन्दन के साथ बंधन में बंध रही थी। इसलिए उन्होंने सात उल्टी परिक्रमा लगाई ताकि सात जन्मों के लिए शचीनन्दन और विष्णुप्रिया साथ रहे। वैसे तो वे अनंत काल से अनंत काल तक साथ हैं। नरवत लीला प्रदर्शित करने के लिए, जनसामान्य के दृष्टिकोण से प्रकाशित करने के लिए ऐसी लीला रचाई गयी। फिर बहुत सारे कार्यक्रम हुए। बहुत सुंदर सुंदर कार्यक्रम हुए। विष्णुप्रिया देवी के हाथ में हार दिया गया। विष्णुप्रिया देवी बहुत शरमा शरमा के नीचे देख रही थी। उन्होंने हार चढ़ाया नहीं। उन्होंने उस हार को शचीनन्दन गौर हरि के चरणों में अर्पित कर दिया। हार रूपी ह्रदय को आपके चरणों में सेवा भाव से अर्पित कर रही हूं। वैसे तो वह गले में चढ़ाना था। उन्होंने शरमाकर वह हार शचीनन्दन गौर हरि के चरणों में अर्पित कर दिया। शचीनन्दन गौर हरि ने क्या किया? उस हार को उठाकर उन्होंने विष्णुप्रिया देवी को अर्पित कर दिया। दूसरा हार विष्णु प्रिया देवी को मिला। उन्होंने चैतन्य महाप्रभु को अर्पित कर दिया। सब माताएं वहां हू ल्लू लू की बहुत सुंदर शुभ संकेत से इस विवाह की घोषणा करने लगी। शंख बज रहे हैं, मृदंग बज रहे हैं, करताल बज रहे हैं। ओ हो हो हो। अभी तक विष्णुप्रिया देवी ने निमाई पंडित को देखा नहीं है। वह भी वस्त्र से आच्छादित है। अब पंडितों ने आदेश दिया कि शचीनन्दन और विष्णुप्रिया देवी एक दूसरे को देखें क्योंकि यह एक विधि है परंतु विष्णुप्रिया देवी इतनी सांस्कृतिक थी तभी भी शरमा रही थी कि मैं सबके सामने कैसे देखूं। पंडितों ने क्या किया? एक कपड़ा लिया और हर तरफ से आच्छादित कर दिया ताकि और कोई ना देखें। सिर्फ शचीनन्दन और विष्णुप्रिया। आसपास से पूरा एक कपड़ा ढक दिया। तब विष्णुप्रिया देवी ने अपना मुख आच्छादित कपड़े को निकाला। पहली बार विष्णुप्रिया देवी और शचीनन्दन गौर हरि ने कृपा कटाक्ष नहीं प्रेम कटाक्ष से परस्पर स्वीकारा। इस प्रकार बहुत सुंदर तरीके से शचीनन्दन गौर हरि और सनातन मिश्र की सुपुत्री विष्णु प्रिया देवी का विवाह संपन्न हुआ। इसके बाद सनातन मिश्र जी ने बहुत भेंट दी। सभी ब्राह्मणों को भेंट दी,अलंकार दिए, वस्त्र दिए, भूषण आवरण सब कुछ दिया। सभी ब्राह्मण भी इतने खुश हो गए। वे भेंट लेने के बाद बारंबार आकर लाइन में खड़े हो जाते। भेंट को रखते थे फिर वापस आकर... ताकि बार बार मिलें। सनातन मिश्र जी ने बहुत भेंट दी। श्रीचैतन्य महाप्रभु पालकी में चढ़ गए पर इस बार अकेले नहीं, उनके पास विष्णुप्रिया देवी भी बैठी थी। अब उसी प्रकार जैसे महाप्रभु जगन्नाथ मिश्र भवन से सनातन मिश्र भवन की ओर पालकी में आए थे, अब सनातन मिश्र भवन से लेकर जगन्नाथ मिश्र भवन की ओर इस पालकी में श्रीचैतन्य महाप्रभु और उनकी अर्धांगिनी विष्णुप्रिया देवी दोनों विराजमान होकर अपने घर लौटे। इस प्रकार बहुत सुंदर लीलाओं का वर्णन है। हमारी वाणी कहां तक जा सके। प्रभु की अनंत लीलाओं का वर्णन करते करते करोड़ों जीवन भी बीत जाएं फिर भी कई ऐसी बातें हैं जो छूट जाएगी। मैं तो बहुत छोटा पक्षी हूं। यह लीला बहुत विशाल, भव्य है, आकाश है। मैं अपने जिव्हा रूपी पंख को कितना भी फड़फड़ाऊं फिर भी यह भव्य आकाश रूपी नभस्थल रूपी लीलाओं का सविस्तार वर्णन मैं नहीं कर सकता। इसी भाव से कृतज्ञता कर आप सब ने मुझ बहुत सुंदर अवसर दिया। महाप्रभु और विष्णुप्रिया देवी के गुणगान कर अपने जीवन, जिव्हा और हृदय को पवित्र करने का। इसलिए कृतज्ञता भाव से मैं आप सबको धन्यवाद देता हूं। सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ दंडवत प्रणाम मैं परम पूज्य पाद श्री लोकनाथ महाराज के चरण कमलों में जिन्होंने बहुत कृपा करके मुझे यह सेवा का अवसर दिया। सभी वैष्णव वैष्णवी वृन्द को मेरा दण्डवत प्रणाम। *वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।* पदमाली प्रभु को विशेष कृतज्ञता कि उन्होंने संपर्क जोड़ कर मुझे यह सेवा का अवसर प्रदान किया। जो भी त्रुटि हुई हो आप सब मुझे क्षमा करें। यदि प्रभु प्रेरित बात उतरित तो जिससे आपको संतुष्टि प्राप्त हुई हो तो बिना भूले आप सब मुझे आशीर्वाद प्रदान करें। श्रील प्रभुपाद की जय! परम पूज्य पाद श्री लोकनाथ महाराज की जय! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

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