जप चर्चा २६ अक्टूबर २०२१ वृंदावन धाम से, हरे कृष्ण! आज हमारे साथ ९०९ स्थानों से भक्त जप कर रहे है। *नानाशास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्धर्म-संस्थापकौ लोकानां हितकारिणौ त्रिभुवने मान्यौ-शरण्याकरौ।* *राधाकृष्ण-पदारविन्द-भजनानन्देन मत्तालिकौ वन्दे-रूप सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ।।* षड्गोस्वाम्यष्टक! हरि हरि। तो उसमें से एक ये अष्टक है जो मैंने अभी आपको सुनाया। यह षड गोस्वामी वृंद हमारे आचार्य, आचार्योंकी टीम रहीं। चैतन्य महाप्रभु ने इनको नियूक्त किया हुआ था। दीक्षित और शिक्षित भी किए हुए थे। _डायरेक्ट डिसिपल्स, फॉलोअर्स ऑफ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु_! या रूप गोस्वामी को प्रयागराज में शिक्षा दे दिए। और सनातन गोस्वामी को दो महीने वाराणसी में शिक्षा दे रहे थे, और रघुनाथ गोस्वामी को जग्गनाथपूरीमें अपना संग दिया। और भी जो षड गोस्वामी वृदं है वह चैतन्य महाप्रभु के साथ रहे। और चैतन्य महाप्रभु ने उनको स्फूर्ति दी, प्रेम किया किया। ताकि वे कृष्णभावना की स्थापना करें। हरि हरि। ये सब लम्बी कहानी है। एक था राजा एक थी रानी वाली कहानी नहीं है। ये सब.. हमारा इतिहास है सब सच है। लेकिन मुझे कहना तो ये था कि, उनमें से जो रूप गोस्वामी है, यह षड गोस्वामी सभी प्रमुख है। हरे कृष्णमूमेंट का, हरे कृष्ण आंदोलन का, यह सब गौडिय वैष्णव पांचसो वर्ष पूर्व अपने जमाने में नेतृत्व कर रहे थे। और इन सबके प्रमुख थे रूप गोस्वामी! हरि हरि। *श्रीचैतन्यमनोऽभिष्ठं स्थापितं येन भूतले।* *स्वयं रूप: कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्।।* श्री रूप गोस्वामी कहते थे *श्रीचैतन्यमनोऽभिष्ठं स्थापितं येन भूतले।* श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का मन अभीष्ट। चैतन्य महाप्रभु का मन क्या है? इसको रूप गोस्वामी समझाते थे। उनके पास महाप्रभू के मन और हृदय को जानने का हक था। चैतन्य महाप्रभु के क्या क्या विचार हैं, क्या क्या इच्छा है, क्या दृष्टिकोण है? इसको भलि भांति जानने वाले थे रूप गोस्वामी! और *स्थापितं येन भूतले* वो चैतन्य महाप्रभु को यानी भगवान को जानकर ही यानी कृष्ण क्या सोचते है, कृष्ण की क्या इच्छा हैं, कृष्ण का क्या विचार हैं? मतलब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का क्या विचार है वह वे जान पाते थे। हरि हरि। ऐसी गुणवत्ता, ऐसी ख्याति, ऐसा वैशिष्ट्य था रूप गोस्वामी का! रूप गोस्वामी के हम सभी अनुयायी है इसीलिए हम सब रूपानुग कहलाते है! क्या कहलाते है? हम सब कौन है?कौन है हम ? "रूपानुग!"। रूप अनुग। हरि हरि। तो रूप गोस्वामी वृन्दावन में रहे। हम भी वृन्दावन में हैं। रूप गोस्वामी वृन्दावन में रहे। षड गोस्वामी वृन्दावन में रहे। और उन्होंने सभीने मिलकर चैतन्य महाप्रभु के मन अभीष्ट या मनोकामना को पूरा किया। हरि हरि। और वृन्दावन के गौरव की पुनःस्थापना की। उनको विशेष आदेश थे। तो वह रूप गोस्वामी, उन्होंने लिखा भी। उपदेशामृत का भी बता रहे थे। बोहोत सारे ग्रंथ लिखे है। बोहोत सारे शास्त्रों के लेखक रहे। उसमेसे श्रील प्रभुपाद भक्तिरसामृतसिंधु, उपदेशामृतु यह रूप गोस्वामी के कम से कम ये दो ग्रंथों का श्रील प्रभुपाद ने हम संसार भर के साधकों के लाभ के लिए भाषान्तर किया, उसको प्रस्तुत किया है। तो वे रूप गोस्वामी के उपदेशामृतं आप पढ़िए! वैसे जब आप भक्तिशास्त्री कोर्स करते हैं उसमे श्रील प्रभुपाद भी कहते है, चार ग्रंथ पर्याप्त हे। भक्ति शास्त्री कोर्स के लिए चार ग्रंथ का अध्ययन। उसमें है, उपदेशामृत, भक्तिरसामृतसिंधु और इशोपशिनद! एक ही उपनिषद् का प्रभुपाद अनुवाद किए। वैसे उपनिषद तो १०८ है..और भी है। ईशा वास्यम जगत सर्वम यह जो उपनिषद है, ईशावास्यम..यह पहला श्लोक है, तो उस उपनिषद का नाम हुआ ईशोपनिषद! यह तीसरा ग्रंथ है। और चौथा है भगवतगीता! इसका अध्ययन होता है। यह सब हमे अध्ययन करना चाहिए।और फिर हम जो यह रूप गोस्वामी का स्मरण कर रहे है, उपदेशामृत लेके बैठे है, और मैं स्वयं भी ये उपदेशामृत वृन्दावन में पढ़ रहा हु! इसमें ग्यारह उपदेश है।या मुख्य ग्यारह उपदेश उन्होंने दिए है। कहना तो कठिन है , ग्यारह कहना, ग्यारह श्लोक है लेकिन उसी के साथ कई सारे उपदेश के वचन भी आते है! *वाचो वेगं मनसः वेगं क्रोधवेगं जिह्वावेगमुदरोपस्थवेगम् ।* *एतान् वेगान् यो विषहेत धीरः सर्वामपीमां पृथ्वीं स शिष्यात्।।* (उपदेशामृत १) यह सुरवात है, उसके बाद आता है, *उत्साहात् निश्चयात् धैर्यात् तत्-तत् कर्म प्रवर्तनात्* (श्री उपदेशामृत श्लोक -३) *ददाति प्रतिगृह्याती...* यह और एक हुआ। यह एक विशेष उपदेश अमृत का समूह है। और उसमें चौथा है,क्या नहीं करना चाहिए! क्या नहीं करना चाहिए? वैसे में जो सोच रहा था वो चौथा नहीं है! अत्याहार। *अत्याहार: प्रयासश् च प्रजल्पो नियमाग्रहl* *लौल्यम् जन-संगस् च षडभीर भक्तिर विनश्यति।।* (उपदेशामृत २) प्रथम चार जो उपदेश आमृत या उपदेश के वचन है,या और भी विशेष है। यहांसे हमारे आध्यात्मिक जीवन की शुरुवात होती है। कई विधि निषेधोका उल्लेख किए ही इन चार उपदेशोंके वचनको...तो यह सब हमको पढ़ना चाहिए, सीखना चाहिए! इसपे अमल करना चाहिए। ग्रंथ ही आधार है! हमारे जीवन आधार ये ग्रंथ होने चाहिए। हैं इन ग्रांथोसे उपदेश लेना है। हरि हरि। राजनेताओंसे, अभिनेताओंसे या शास्त्रज्ञ से या समाजसुधारकोंसे हमे कुछ ज्यादा सीखना, समझना और उनसे स्फूर्ति प्राप्त करना नही चहिए। हम तो रूपानुगा भक्त है।या रागनुगा।तो सावधान! अगर हम ये पढ़ेंगे नहि इन शास्त्रों का अध्ययन नहीं करेंगे तो फिर हम ये संसार या, माया या मायावी लोग हमाको नचाएंगे।उनके हात की हम कटपुतली बनेंगे।या फिर कृष्ण कहे ही है, *प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।* *अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।* भगवतगीता 3.27 तीन गुणोंका प्रभाव हमेशा बना रहेगा! सत्वगुण, राजगुण, तमगुण का प्रभाव हमपे बना रहेगा,और वे प्रकृति के तीन गुण हमको व्यस्त रखेंगे। *प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।* प्रकृतिके ये जो लोग है जनसाधारण लोग है,उनके जो सारे कार्य कलाप है। वह तीन गुण करवाते है।तीन गुण इनको व्यस्त रखते है। उनके अलग अलग लक्षण भी होते है।ये सत्वगुनी है,ये तमोगुणी है,ये रजोगुणी है।उनके कार्य कालापोंसे पता चल जाता है। हरि हरि। और फिर ऐसे लोगोंको कृष्ण कहे "ये मूढ़ है,ये मूर्ख है! *प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्म* गुणोद्वारा.. गुणाभ्याम वैसे। गुनः गुणाभ्यम गुनैह:।तीन गुणोद्वारा।कार्य करनेवालों को कृष्ण कहे , *अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते* कर्ता इति मन्यते।उनकी मान्यता है,की कर्ता वो है।मैं कर्ता हूं। मैं करूंगा।अरे तुम क्या करोगे!तुमसे करवाया जा रहा है। उठो जागो समझो! तुम कुछ नही कर रहे तुमसे करवाया जा रहा है। ये तीन गुण तुमको व्यस्त रख रहे है।तो भी मैं कर्ता हू।कर्ता इति अहम मन्यते।कर्ता मैं हूं ऐसा मानता है।तो कृष्ण कहते है, *अहङ्कारविमूढात्मा* और मूढ़ हो मूढ़। गधे हो। हरि हरि। गधे का वध किए बलराम तालवन में।कल तालवन में परिक्रमा थी तो तालवनमें धेनुकासुर का वध बलराम किए। तो बलराम आदिगुरु है। उन्होने धेनुकासूर का, गधे का वध किया। हमको भी प्रार्थना करनी चाहिए की, हम भी जो गधे है, गढ़त्व है, गधा पन जो है उसका वध गुरू ही करते है, भगवान की ओर से! बलराम ने ये लीला खेली, गधे का वध किया। ताकि फिर वहा कृष्ण के मित्र वहांके फल चख सके, तालवृक्षके ताल फल। हरि हरि। तो गाढ़ा बोहोत काम करता है। _वर्किंग लाइक डोंकी_ ऐसा कहा जाता है। धोबी गधे के पीठ पर इतना सारा बंडल रखता है उसको गधा ढोंता रेहेता है। ताकि अंत में कुछ थोडा घास प्राप्त हो सके। इसकी आशा से इतना सारा बोझ वो उठाता रेहेता है। और वो बोझ उठता रहे , ढोंता रहे इसीलिए कभी कभी चालाख धोबी क्या करता है? गाजर बांध देता है। डंडिमे और डंडी बांध देता है उसके सिर के ऊपर। गर्दन के ऊपर डंडी और डंडी के ऊपर गाजर। कैरट..। और ऐसा जब चलता है तो वो गाजर उसके मुख पे आता तो है लेकिन मुख तक नहीं पोहचता है।वो सोचता हैं कि वो खाने ही वाला है इतने में ही पुनः वो गाजर दूसरी ओर जाता है। पेंडुलम की तरह।और आगे चलता है तो पुनः वो गाजर ऊपर की ओर जाता है। ऐसा चलाता है तो वह गाजर उसके मुख के ओर आता तो है लेकिन वह उसे खा नही सकता। वैसेही जीव आज नहीं तो कल प्राप्त होगा, परसो प्राप्त होगा ही, ये होगा, वो होगा ऐसा सोचता रहता है। कृष्ण आसुरी संप्रदाय का वर्णन जिस अध्याय में किए गए है, वहा भी इतना बताते है की, इतना धन मैंने आज कमाया है, मेरी इतनी सारी योजनाएं है। उससे मैं इतना धन कमाऊंगा, ये होगा, फिर घर बनाऊंगा , ओर ऐसा करते करते ही.. मृत्यु सर्व हरस्याहम! भगवान मृत्यु के रुप मे आते है और सब छीन लेते है।ये गधे जैसा ही विचार है। बोझ उठाता रहता है ताकि उसकी सैलरी बढ़े। उसकी सारी आशाएं होती है, महत्वाकांक्षा ए होती है। और गधा गधिनी के पीछे जाता है। _मेल डोंकी रन आफ्टर फीमेल डोंकी_। और ऐसे प्रयास में गधिनी उसके चेहरे पे लाथ मारती है.. फिर भी गधे प्रयास करता ही रेहेता है। संभोग की इच्छा इतनी तीव्र होती है। हरि हरि। _सो बेसिकली वर्किंग हार्ड एंड देन एस्पायर फॉर सम सेक्स_ खूब कष्ट करो उसके बाद संभोग की इच्छा करो! संभोग यानी काम इच्छा की पूर्ति करो। वो योनि तो अलग है। गधा तो गधा है। पर हम कुछ गधे से अलग थोड़ी ही है! गधे की ही प्रवृत्ति है। इसीलिए मनुष्य को द्विपाद पशु ही कहा गया है। प्रभुपाद कहते थे की, पशु अपने चार पैरोंपे दौड़ते है या फ़िर चलते है। हमने चार पैयोंकी गाड़ी बनाई है। दो पहिए से प्रसन्न नही है तो चार पहिए की गाडी में बैठते है और हम पशु जैसा दौड़ते है। एक स्थान से दूसरा स्थान! यहा कुछ नंगा नाच देखो वहासे दौड़ और शराब जो खराब होती है उसे पियो,और कुछ खाओ और सिगरेट पियो। इसीलिए अपने इंद्रिय तृप्ति लिए एक स्थान से दूसरे स्थान लोग दौड़ते रहते है। _लिव लाइक किंग साइज_ ब्रांड्स देखते है, विज्ञापन देखते है फिर खरीद लेते है। ओर फिर अंत में एंबुलेंस बुलानी पड़ती है। फिर से फोर व्हीलर! इस प्रकार हम दौड़ते रहते है। हम इतना परिश्रम करते है ताकि हम कुछ भोग भोग सके। धेनुकासुर लीला! जो कल जहा परिक्रमा थी तो वह लीला का श्रवण करनी चाहिए। बलराम ने वध किया, धेनुकासुर, गधे का। एसी लीला का जब हम श्रवण करते है तो हम में भी ऐसे कुछ दुर्गुण है, या गढ़त्व है उसका विनाश हो। ऐसे दुर्गुनोंसे, दोषों से हम मुक्त होंगे। इसीलिए वृन्दावन में कृष्ण ने *विनाशय च दृष्किता...* असुरोंका विनाश किया है। कंस के भेजे हुए असुरोंका संहार करते रहे ग्यारह साल तक, सालों तक। और बलराम ने भी कुछ किया प्रलंबासुर, धेनुकासुर।तो ये लीलाएं जरूर पढ़नी चाहिए। कृष्ण बलराम ने जो अलग अलग असुरों का दृष्टोंका सँहार किया वध किया।ये लीलाएं जरूर पढ़नी चाहिए। ये लीलाएं पढ़ानेसे हमारे अंदर अगर ये दुर्गुण है तो उन दुर्गुनोंस हम दूर होंगे। हरि हरि। तो रुप गोस्वामी हमारे प्रमुख है।और महाजनों ने जो मार्ग बताया है उस मार्ग पे हमे चलना है। ताकि हम तीन गुणोंके प्रभाव से मुक्त होंगे। फिर अहंकार से हम मुक्त होंगे। विमूढ़आत्मा की बात चल रही थी फिर हम गधे नही रहेंगे हम। तीन गुनों द्वारा नचाए नही जाएंगे। भगवान गीता मे १४ अध्याय में कहे है.. *मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।* *स गुणान्समतीत्येतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥* (भगवतगीता १४.२६) भक्तियोगी भव! तो जो भक्तियोगी बनते है। भक्ति कैसी? अव्यभिचारेण। व्यभिचार नही! इन्द्रिय तृप्ति का जीवन! इंद्रिय भोग का जीवन। इन्द्रिय के भोगों को भोगने का जो जीवन जो अव्यभिचारेन है। लेकिन जो अव्यभिचारी है शम, दम, शौच जिसने किए है। जो भक्ति योग में तल्लीन है। तो क्या होता है? तो ऐसा व्यक्ति तीन गुनोंके परेह पोहोचता है। गुणातीत हो जाता है। इसको शुद्ध सत्व स्थिति कहा गया है। एक है तमोगुण, उसके ऊपर रजोगुण, उसके ऊपर सतोगुण, उसके ऊपर का जो स्तर है उसे शुद्ध सत्व कहा गया है।ये तब संभव तब है जब हम अवयभिचारि भक्ति करेंगे। कैसी भक्ती? *अन्याभिलाषिता शून्यम ज्ञान कर्म आदि अनावृतम आनुकुल्येन कृष्णानुशिलनम स भक्ति उत्तमा:।।* उत्तम भक्ति करेंगे तो व्यक्ति कृष्णभावना भवित होगा और फिर हम तयार हो जाते है।हम पात्र हो जाते है और तब हम अधिकारी बन जाते है। *त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।* भगवतगीता 4.9 तब भगवत धाम लौटनेके हम अधिकारी बन जाते है। हरि हरि। तो शास्त्र अध्ययन की बात कर रहे है। श्रील प्रभुपाद के ग्रंथो का अध्ययन करिए। श्रील प्रभुपाद के ग्रंथ ही आधार हैऔर उससे स्फूर्ति प्राप्त करिए। और षड गोस्वामी वृंदो के विचार भी वहा है। महाप्रभुने जो विचार दिए जो, उपदेशामृत का सार हे, *तन्नामरूपचरितादिसुकिर्तनानु स्मृत्यो: क्रमेण रसना म न सी नियोज्य।* *तिष्ठन् व्रजे तदनुरागी जनानुगामि कालं नायेदखिल मित्युपदेशसारम्।।* उपदेशामृत ८ यह श्लोक उपदेश का सार है। भगवान का नाम रुप चरित्र आदि का हम कीर्तन करे। अनुकीर्तन करे। श्रवण करेंगे, कीर्तन करेंगे, स्मरण होगा।इन बातोंको अपनी जिव्हा पर और मन में स्थापित करके, वृन्दावन में रहना चाहिए। मानसिक रूप में वृन्दावन में रहना चाहिए। आप जहां भी हो उस जगह को वृन्दावन बनाओ।और हम कृष्ण की नाम रुप गुण लीला का चिंतन, स्मरण करते रहें। हरे कृष्ण!

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