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17 अगस्त 2019 हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्री अद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौर भक्त वृंद। आज की जप चर्चा कल की जप चर्चा का आगे का अंश है, कल हमने जहां पर इस जप चर्चा को विराम दिया था वहां गुरु महाराज बता रहे थे कि किस प्रकार से हम अपनी आत्मा को नेगलेक्ट करते हैं उसकी तरफ ध्यान नहीं देते हैं,और चैतन्य महाप्रभु जीव जागो जीव जागो इसके माध्यम से हमारी आत्मा को जगाने का आह्वाहन करते हैं। इस प्रकार से आज की जप चर्चा कंटिन्यूएशन है जहां हमने कल इसे विराम दिया था, वहीं से अभी यह पुन: शुरू हो रही है। इस प्रकार गुरु महाराज अपनी जप चर्चा प्रारंभ करते हैं, आज वे कहते हैं कि बहुत समय से हमारी यह आत्मा सो रही है, जब हम जीव जागो जीव जागो कहते हैं, वास्तव में जीव शरीर नहीं है शरीर तो जग ही जाता है परन्तु आत्मा तब भी सोई रहती है। शरीर, जब हम भूखे होते हैं तब भी उठता है, जब हमें ऑफिस जाना होता है तब भी शरीर उठता है, परंतु मुख्य बात यह है की जब यह शरीर उठ जाता है, उस समय भी यह आत्मा सोई रहती है। जीव जागो जीव जागो गोरा चांद बोले ये भजन आत्मा को जगाने के लिए है तथा जब हम यह समझ जाते हैं कि वास्तव में मैं कौन हूं? जब हम स्वयं को समझ जाते हैं कि मैं यह शरीर नहीं अपितु मैं आत्मा हूं, तब ठीक प्रकार से जप कर सकते हैं। वास्तव में हम इस हरे कृष्ण महामंत्र के जप के द्वारा आत्मा का पोषण करते हैं, आत्मा का संबंध स्थापित करते हैं अथवा एक प्रकार से कहे तो इस हरे कृष्ण महामंत्र के द्वारा हम आत्मा को भोजन करवाते हैं। परन्तु आप इस बात का ध्यान रखें कि अत्यंत ध्यानपूर्वक आत्मा का पोषण हो, आत्मा का भोजन हो और यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारी आत्मा ठीक प्रकार से भोजन कर रही हो। इसे हम ऐसे समझ सकते हैं कि हम जप तो करते हैं परंतु उसका श्रवण नहीं करते अथवा जब हम जप करते हैं तब हमारा मन अन्य किन स्थानों पर घूमता रहता है। इस प्रकार से हमारी एक माला से दूसरी माला और इस प्रकार यह चलता रहता है। परन्तु मन उस जप का श्रवण नहीं करता है, वह कहीं अन्यत्र ही रहता है। तो हमें यह करना चाहिए कि इस मन को जप के समय श्रवण पर लगाएं। ओर वो जहां कहीं पर भी हो उसे वहां से पुन: खींच कर लाएं, और इस हरिनाम का श्रवण मन को करवाएं। इसके द्वारा इसके परिणाम स्वरूप मन भगवान के नामरूप, गुण, लीला और धाम आदि का चिंतन करें । जब इस प्रकार हरे कृष्ण महामंत्र का श्रवण होगा तो भगवान से संबंधित चिंतन होगा। इस प्रकार से जब एक मां अपने बच्चों को भोजन कराती है तब वह चम्मच से उस बच्चे को भोजन खिलाती है, स्पून फीडिंग अथवा मां स्वयं अपने हाथ से चम्मच पकड़ कर बच्चे को भोजन कराती है अथवा बच्चा चम्मच नहीं उठा सकता या उठाना नहीं चाहता तो मां उस चम्मच को पकड़ती है उसमें भोजन लेती है और बच्चे को खिलाने का प्रयास करती है। कभी-कभी बच्चा मुंह नहीं खोलता है अथवा यदि वह होठ खोल देता है तो वह अपने जबड़े और दांतो को कसकर टाइट रखता है, जिससे चम्मच अंदर नहीं जाए, हमने ऐसा देखा है कि किस प्रकार से मां बच्चे को भोजन कराने का प्रयास करती है। इस स्थिति में वह मां अपने बच्चे का ध्यान इधर-उधर से हटाती है और किस ना किसी प्रकार से उसके होंठ खोलकर और थोड़ी जगह बनाकर वह चम्मच उसके मुंह में डालती है। आपको कभी ऐसा अनुभव हुआ है या हो सकता है कि आपके स्वयं के पुत्र के साथ ही ऐसा हुआ हो कभी, लेकिन आपने देखा होगा बहुत से बच्चे ऐसा करते हैं और जब यह चम्मच उस बच्चे के मुंह में चला गया है परंतु वह भोजन जो उसके मुंह में है, वह बच्चा उसे चबाता नहीं है वह उसे मुंह में हीं रखें रखता है। अंत में जब वह बच्चा उसे चबाता है, उसके पश्चात जब वो उसके पेट में चला जाता है वहां पर उसके पचने की प्रक्रिया चालू होती है। इस प्रकार से जब वह भोजन पचता है तभी उसके शरीर को ऊर्जा मिलती है। तब वह अपने दैनिक कार्य कर सकता है अथवा उसका शरीर चलता है, इस प्रकार से जब हम श्रवण और कीर्तन करते हैं तब हमारा मन एक रुकावट है, जिस प्रकार बच्चे के मुंह और दांत एक रुकावट हो रहे थे जब वह भोजन ग्रहण कर रहा था उसी प्रकार हमारा मन भी रुकावट है। यह हमारा शत्रु है, भगवान श्री कृष्ण भगवत गीता के 6 अध्याय में अष्टांग योग का वर्णन करते हैं, वहां पर भगवान कहते है बंधुरात्मैव और रिपुरात्मनः इस प्रकार से मन हमारा मित्र भी है और यह मन हमारा शत्रु भी है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि किस प्रकार इस मन को हम हमारा मित्र बनाएं और यह शत्रु ना बने। इस प्रकार से भगवान् छठे अध्याय में बताते हैं उद्धरेदात्मनात्मानम (भ.गीता-6.5) इस पूरे श्लोक में केवल आत्मा का ही वर्णन किया गया है आप प्रत्येक बार आत्मा आत्मा कहते हैं तो यहां प्रत्येक जो आत्मा है एक स्थान पर वह आत्मा है दूसरे स्थान पर वह बुद्धि है और तीसरे स्थान पर वह मन है तो भगवान जब कहते हैं की आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मैव अर्थात ये आत्मा ही आत्मा की मित्र है। यहां जो प्रथम आत्मा है वह मन है, इस प्रकार से यह आत्मा आत्मा की मित्र है इसका अर्थ है यह मन हमारी आत्मा का मित्र है अथवा मित्र हो सकता है दूसरे भगवान कहते हैं आत्मैव रिपुरात्मनः अर्थात यहां पर भी कहते हैं आत्मा आत्मा का शत्रु है तो इसका भी अर्थ है कि यह मन हमारे आत्मा का शत्रु है अर्थात यह बुद्धि आत्मा का मित्र है या शत्रु है उद्धरेदात्मनात्मानम-यहां भगवान कहते हैं एक आत्मा का दूसरी आत्मा से उद्धार होना चाहिए। गुरु महाराज कहते हैं कि मैं आपको कंफ्यूज नहीं करना चाहता हूँ इसके माध्यम से। परन्तु मैं यह बताना चाहता हूं कि यहां भगवान जो तीन बातों का वर्णन करते हैं वे क्या हैं भगवान कहते हैं आत्मा का उद्धार मन तथा बुद्धि के प्रयोग से हो सकता है। हमें मन बुद्धि के सहयोग द्वारा इस आत्मा का उद्धार करना चाहिए आत्मा को मुक्त होना चाहिए उसके लिए हम संयमित मन अथवा शुद्ध मन के द्वारा ऐसा कर सकते हैं, अथवा वह बुद्धि है जो हमारे मन को संचालित करती है मन को संयमित रखती है। इस श्लोक में तीन आत्माओं का वर्णन हुआ है प्रथम आत्मा और दूसरा है मन आत्मा और तीसरा है बुद्धि आत्मा। मन बुद्धि और आत्मा इन तीनों का वर्णन यहां होता है और तीनो के ऊपर है परमात्मा। परमात्मा है हमें यह बुद्धि प्रदान करते हैं भगवान कहते हैं ददाति बुद्धि योगम भगवान हमें यह शुद्ध बुद्धि प्रदान करते हैं तब हम हमारे मन को बुद्धि के द्वारा नियंत्रण में रखते हैं। यह नियंत्रित मन हमारी आत्मा का उद्धार कर सकता है, उसे मुक्त कर सकता है। तो इस प्रकार से एक अन्य स्थान पर भगवान कहते हैं "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः" अर्थात यह मन हमारे बंधन का ही कारण हो सकता है और हमारी मुक्ति का भी कारण हो सकता है। जब यह मन हमारा शत्रु है तभी हमारे बंधन का कारण है। जब यह हमारा मित्र है तो हमारे बुद्धि का कारण है, इसलिए जब हम कहते हैं की सफलतापूर्वक जप करना बुद्धिमान का कार्य है, बुद्धिमान व्यक्ति ध्यान पूर्वक जप कर सकता है ये एक बुद्धू का कार्य नहीं होता है। इस प्रकार से 2 व्यक्ति होते हैं बुद्धिमान और दूसरा होता है बुद्धू, बुद्धू जो निरा मूर्ख हो, तथा वो बुद्धू है जो जप ठीक प्रकार से नहीं कर सकता है। इस प्रकार से बलराम ने भी उस गधे का वध किया था जो धेनुकासुर के रूप में आया था, उसका वध बलराम जी ने किया था। जो गधा है उसे बिना बुद्धि का प्राणी माना जाता है अथवा वह अपनी बुद्धि का प्रयोग नहीं करता इतना कठिन परिश्रम करता है दिन रात, परंतु उसे यह नहीं पता कि घास तो हर कहीं उपलब्ध है वह कहीं से भी अपना भरण-पोषण कर सकता है। परंतु वह यह सोचता रहता है कि मुझे अपने मालिक का अपने बॉस का अपनी कंपनी सरकार अथवा इस धोबी के लिए जब मैं बहुत अधिक कठोर परिश्रम करूंगा दिन रात, तब मुझे भोजन मिलेगा और तब मैं अपना जीवन यापन कर पाऊंगा तो यह जो मानसिकता है वह उस गधे की मानसिकता है, वह कठोर परिश्रम की मानसिकता है। बलराम आदिगुरु हैं और बलराम उस गधे का वध करते हैं। उसी प्रकार क्योंकि गुरु भी बलराम का प्रतिनिधित्व करते हैं अर्थात वह भी हमारे भीतर छुपे हुए गधे का वध करते हैं। हमारे भीतर का गधा कठोर परिश्रम करवाता है, जो कठोर परिश्रम की मानसिकता रखता है। मानसिकता का गुरु वध करते हैं। यह एक कार्य हुआ उस गधे का दूसरा कार्य है कि वह संभोग करने में रत रहता है,वो गधा सदैव गधी के पीछे भागता रहता है उसके साथ में भोग करना चाहता है, हमारे वृंदावन के कृष्ण बलराम मंदिर में दीनबंधु प्रभु है वे बलराम द्वारा धेनुकासुर का वध, इस लीला का अत्यंत ही रुचि पूर्वक ढंग से वर्णन करते हैं, वे कहते हैं कि वह जो गधा है वे उस गधी के पीछे भागता है गधी उस गधे को लात मारती है कभी-कभी उसके मुंह पर लात मार देती है परंतु इससे भी वह गधा पीछे नहीं हटता है फिर भी उस गधी के पीछे भागता रहता है और अपने मुंह पर लाते खाता रहता है, क्योंकि वह उसके साथ में भोग करना चाहता है। इस प्रकार दो प्रकार से इसमें गधे का वर्णन है। प्रथम कि वह अत्यंत कठोर परिश्रम करता है। और दूसरा है कि, वह सदैव भोग करने के लिए रत रहता है ओर वह गधी के पीछे भागता रहता है। तो इस प्रकार से उस धेनुकासूर का वध भगवान श्रीकृष्ण भी कर सकते थे परंतु बलराम ने भगवान से कहा नहीं नहीं इसका वध तो मुझे ही करने दो मैं ही इसका वध करूंगा क्योंकि इसके माध्यम से मैं सभी आध्यात्मिक गुरुओं को यह बताना चाहता हूं की उन्हें भी इस गधे रूपी मानसिकता जो उनके शिष्यों के हृदय में रहती है उसका वध करना होगा। इस प्रकार से यह जप बुद्धिमान का कार्य है वह एक बुद्धू का कार्य नहीं है। जब तक यह मानसिकता हमारे हृदय में रहेगी तब तक बंधन रहेगा, तब तक हम मुक्त नहीं हो सकते हैं। हमें इसके लिए बुद्धिमान बनना होगा तो हम बुद्धिमान किस प्रकार से बन सकते हैं।भगवान हमें भी बुद्धि प्रदान करते हैं, हमें यह पता होना चाहिए कि भगवान यह बुद्धि निशुल्क हर किसी को नहीं देते हैं, ये किसे प्रदान करते हैं,इसके लिए भगवान कहते हैं "तेषां सतत युक्तानां" (भ.गीता) भगवान कहते हैं कि जो सतत तथा प्रितिपूर्वकम-जो निरंतर और प्रीति के साथ में मेरा भजन करते हैं अथवा मेरी सेवा करते हैं। जब कोई साधक भक्तिपूर्वक तथा प्रेमपूर्वक स्वयं को भगवान की सेवा में सलंग्न करता है, तब भगवान उसे बुद्धि देते हैं। बाईबल में भी ऐसा कहा गया है एक स्टेटमेंट आता है कि "लव दा लोड विद ऑल द हार्ट विद ऑल द स्ट्रेंथ" अर्थात आप भगवान को अपने पूरे हृदय से और पूरे सामर्थ्य से भगवान को प्रेम कीजिए भगवान की सेवा कीजिए। श्री कृष्ण भी भगवतगीता में ऐसा ही बताते हैं , भक्ति का आधार आध्यात्मिक सेवा ही है। इस आध्यात्मिकता के द्वारा ही हम भक्ति कर सकते हैं और सेवा करने वालों को भगवान यह बुद्धि प्रदान करते हैं। हम जितनी अधिक सेवा करेंगे उतनी ही अधिक मात्रा में हमें यह बुद्धि मिलेगी। इस हरे कृष्ण महामंत्र का जब हम जप करते हैं , यह भी एक सेवा है । कलयुग में हरे कृष्ण महामंत्र का जप सेवा है और जप ही एकमात्र मार्ग है।भगवान आगे कहते हैं कि इस प्रकार से हमें जब यह बुद्धि मिल जाती है तो इसका लक्ष्य क्या होता है परिणाम क्या होता है, अंततोगत्वा "येन मामुपयंति ते" हमारा लक्ष्य है हम पुन: भगवत धाम चले जाते हैं, हम पुनः भगवान के पास जाते हैं। जहां भगवान नित्य रूप से( कृष्ण और बलराम) वहां अपनी लीलाएं करते हैं। जब तक हम इस जगत में है तब तक हम साधन भक्ति करते हैं, हम महामंत्र का जप करते हैं और हम स्वयं को भक्तिमय सेवा में सलंग्न रखते हैं। जब हम इस साधन भक्ति में एक प्रकार से सक्षम हो जाते हैं, दक्ष हो जाते हैं। तब हम पुनः भगवत धाम जा सकते हैं, जहां पर भगवान की नित्य लीला सदैव चलती रहती है। इस प्रकार से यह जप चर्चा पूरी हो गई है, यहां पर इस बात का आप ध्यान रखिए जो प्रमुख बात है। परम पूज्य श्री लोकनाथ स्वामी महाराज की जय।

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