Hindi

हरे कृष्ण! जप चर्चा, पंढरपुर धाम से, 11 मार्च 2021 जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द । श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि-गौरभक्तवृन्द ॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। आज 722 स्थानों सें अभिभावक उपस्थित हैं। जय गौरांग! गौरांग!गौरांग! अब गौरपौर्णिमा भी आ रही हैं। जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानन्द। जयाव्दैतचंद्र जय गौरभक्तवृंद।। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कि जय...! हरिनाम संकीर्तन कि जय...! जगन्नाथ पुरीधाम कि जय...! रथयात्रा महोत्सव कि जय...! आपके मन में विचार आया ही होगा चैतन्य महाप्रभु के संबंध में और हरिनाम के संबंध में और जगन्नाथ पुरी और जगन्नाथ रथ यात्रा के संबंध में शायद मै कहने जा रहा हूंँ, या कहने का सोच रहा हूँ। ऐसा आपने अंदाजा लगा लिया होगा नहीं तो हम क्यों कहते कि... जगन्नाथपुरी धाम कि जय! रथयात्रा महोत्सव कि जय! हरिनाम संकीर्तन कि जय! गौरांग महाप्रभु कि जय! ऐसी ही कुछ बात हैं जो बातें आपसे करते हैं आप अगर तैयार हो तो आप तैयार है आप यही रहना और कहीं नहीं आना जाना हरि हरि या सुन लेना इन बातों को जो बातें वैसे कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज कि बातें हैं हमारी तो कुछ है नहीं। क्या मूल्य है हमारी बातों का? क्या हमारी बातों का कुछ मूल्य भी है या होगा? और वही बात कृष्णदास कविराज गोस्वामी महाराज कि जय! जो लिखे हैं उन्हीं बातों को हम दोहराते हैं। कुछ समझ के साथ, फिर उसकी कोई कीमत है, मूल्य है और परंपरा में कही गई बातें अदर वाइज सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते... क्या? रिक्त स्थान को पूरा करो! सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते... क्या? प्रियदर्शनी क्या? (प.पु.लोकनाथ स्वामी महाराज ने उपस्थित भक्तों में से एक माताजी को प्रश्न पुछा) निष्फला मताः। सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फला मताः। (पद्म पुराण) अनुवाद:- यदि कोई मान्यता प्राप्त गुरु शिष्य परंपरा का अनुसरण नहीं करता तो उसका मंत्र या उसकी दीक्षा निष्फल है। संप्रदाय या परंपरा के बाहर कि उटपटांग बाते होती है जो परंपरा में बातें नहीं होती संप्रदाय कि और से बातें नहीं होती तो विफल कोई फल नहीं हैं। विफल मतलब असफल। हरि हरि! विफले जनम गोडा़इनु ऐसा भी हमारे वैष्णव आचार्य गीत गाए हैं। अरे अरे मैंने तो ऐसे ही खाली फोकट का जीवन गवाया या बिताया हैं। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज ने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के किर्तन का वर्णन सर्वत्र किए है, वैसे चैतन्य चरितामृत में आदौ, मध्ये अंते हरि: सर्वत्र गीरते *वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा। आदावन्ते च मध्ये च हरि: सर्वत्र गीयते।। अनुवाद: वैदिक साहित्य में, जिसमें रामायण, पुराण कथा महाभारत सम्मिलित हैं, आदि से लेकर अंत तक तथा बीच में भी केवल भगवान हरि कि ही व्याख्या कि गई हैं। चैतन्य चरितामृत में हरिनाम का गान सर्वत्र है प्रारंभ में, मध्य में, अंत में या फिर कहो आदि लीला में, मध्य लीला में, अंत लीलाओ में, ये चैतन्य चरितामृत के तीन विभाग हैं, आदि, मध्य, अंत लीला। कीर्तन का तो वर्णन चैतन्य महाप्रभु के लीलाओं का वर्णन तो सर्वत्र हैं तो भी उन कीर्तनो में जो जगन्नाथ पुरी में और भी जगन्नाथ रथ यात्रा के समक्ष जो कीर्तन होता था, वह कीर्तन विशेष होता था इसलिए भी रहता था चैतन्य महाप्रभु राधा भाव में कीर्तन करते थें। उनके कृष्ण-राधा के कृष्ण विराजमान रहा करते थे रथ में, कृष्ण रथ में, पुरुषोत्तम श्री कृष्ण रथ में और श्री कृष्णचैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य ( चैतन्य भागवत) अनुवाद:- भगवान चैतन्य महाप्रभु अन्य कोई नहीं वरन् श्री श्री राधा और कृष्ण के संयुक्त रूप हैं। राधा रानी रथ यात्रा के समक्ष यह जगन्नाथ के समक्ष और कृष्ण के प्रसन्नता के लिए हरी हरी! चैतन्य महाप्रभु राधा भाव में फिर वो राधा ही बन जाते। वैसे वे राधा तो थे ही, नाम तो हो चुका है श्री कृष्ण चैतन्य कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः नाम है कृष्ण चैतन्य किंतु श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु... अन्त: कृष्णं बहिर्गौरं दर्शिताड़़्गादि-वैभवम्। कलौ सड्कीर्तनाद्यै: स्म कृष्ण- चैतन्यमाश्रिता:।। (चैतन्य चरितामृत आदि लीला 3.81) अनुवाद: -मैं भगवान श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आश्रय ग्रहण करता हूंँ। जो बाहर से गौर वर्ण के है,किंतु भीतर से स्वयं कृष्ण हैं इस कलयुग में भगवान के पवित्र नाम का संकीर्तन करके अपने विस्तार अर्थात अपने अंगों तथा उपांगो का प्रदर्शन करते हैं। ऐसे चैतन्य भागवत में लिखा हैं। वे दो रुप तो एक ही है अंदर छिपे हुए है कृष्ण रूप में और बाहर राधा रानी हैं टू इन वन। या राधा के पीछे छुपे हैं श्री कृष्ण। बाहर है राधा तो राधा तप्तकांचन गौरांगी है,बाहर हैराधा तो बाहर से गौरांग दिख ही रहे हैं। देख रहे हैं कि नहीं आप? गौरांग! गौरांग!गौरांग! उनके अंग का रंग गौर वर्ण का हैं। वह गौरांग बाहर से गौर वर्ण अंदर है श्री कृष्ण। जगन्नाथपुरी में जिनका नाम लिखा है अंतिम लीलाएँ है मतलब जगन्नाथपुरी में जो अंतिम लीलाई संपन्न हो रही हैं। उन लीलाओं में चैतन्य महाप्रभु राधा रानी ही है राधा रानी भी तो थे तो अधिक राधा रानी कि भूमिका निभाते। कृष्ण भी साथ में है राधा और कृष्ण दोनों मिलकर एक रुप बना है लेकिन कृष्ण सक्रिय नहीं है कृष्ण हैं लेकिन उनमें से राधा और कृष्ण युगल रूप है उसमें से राधा रानी सक्रिय हो जाती हैं आगे आगे रहती है कहो, वही अपनी भूमिका निभा रही है और कृष्ण देख रहे हैं। विशेष रुप से जब रथ यात्रा, जगन्नाथ रथ यात्रा महोत्सव संपन्न होता है जगन्नाथपुरी में वहा तो राधा रानी पूरी सक्रिय हैं क्योंकि कृष्ण रथ में है और गौरांग महाप्रभु में से जो राधा रानी है गौरांगी है वह केवल उपस्थित ही नहीं है या केवल खड़ी ही नहीं हैं, चैतन्य महाप्रभु राधा भाव में कीर्तन करते और जब चैतन्य महाप्रभु कीर्तन प्रारंभ करते थे तो उनके साथ उनका नृत्य भी शुरू होता है ऐसे कभी नहीं हुआ कि चैतन्य महाप्रभु कीर्तन कर रहे हैं और नृत्य नहीं हो रहा हैं महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्‌-मनसो-रसेन। रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥2॥ (श्री श्री गुर्वोष्टक) अनुवाद: -श्रीभगवान्‌ के दिवय नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान्‌ श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। महाप्रभु का कीर्तन और कीर्तन के साथ नृत्य प्रारंभ होता हैं। कीर्तन करते शुरुआत करते कीर्तन की और उसको जैसे सुनते उनमें जो चैतन्य नाम भी चैतन्य उन के सारे कार्यकलापों में भी चैतन्य। एक होता है जड़ और दूसरा होता है चैतन्य। चैतन्य जग जाता और फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कीर्तन के साथ नृत्य प्रारंभ करते। रथ यात्रा के समय वाले जो चैतन्य महाप्रभु का नृत्य और कीर्तन एक विशेष उत्सव। जगन्नाथ रथयात्रा महोत्सव कि जय...! जगन्नाथ रथ यात्रा महौत्सव तो हो रहा है और उसके केंद्र में चैतन्य महाप्रभु और उनके कार्य कलाप जो कीर्तन और नृत्य हैं वही उत्सव बन जाता या वही मुख्य उत्सव का अंग कहो या उत्सव का प्रकार हैं। चैतन्य महाप्रभु का कीर्तन और नृत्य श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु यात्रा के समय स्वरुप दामोदर और एक हो गए चैतन्य महाप्रभु दूसरे हो गये स्वरुप दामोदर जो बढीया गायक और वे ललित ही है ऐसी टीम हैं। चैतन्य महाप्रभु राधा रानी और स्वरूप दामोदर ललिता है और आठ भक्तों का चयन होता और यह 10 लोग मिलकर,लोग कहना अच्छा नहीं लगता लेकिन क्या कहा जाए ऐसे व्यक्तित्व चैतन्य महाप्रभु यह सारे मिलकर कीर्तन गायन प्रारंभ करते 10 व्यक्ति कीर्तन का संचालन (लीड) कर रहे हैं और रथ यात्रा के समय आपने सुना होगा चैतन्य महाप्रभु भी रथयात्रा के समय वहां के उपस्थिति या वहा पहुंचे हुए भक्तों को साथ अलग-अलग दलों में, मंडलियों में उनका विभाजन करते और उसमें से कुछ सामने हैं फिर कुछ दाएं-बाएं हैं एक-एक और कुछ पीछे हैं और यह 10 चैतन्य महाप्रभु और स्वरुप दामोदर और 8 भक्त संचालन (लीड) करते तो अनुसरण करने वाले सारे मंडली उनके पीछे कीर्तन गाते और चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते समय वैसे कहा हि हमने कि उनका नृत्य प्रारंभ होता है और रथ यात्रा के समक्ष वाला जो चैतन्य महाप्रभु का नृत्य अद्वितीय सा नृत्य उस नृत्य को उदंड नृत्य भी चैतन्य चरितामृत में लिखा हैं,फायरब्रांड( तेजतर्रार)कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने कहा है।वह कीर्तन कैसा? या नृत्य कैसा? उदंड नृत्य! कीर्तन करते समय चैतन्य महाप्रभु उची कुद लगाते लेते और फिर नीचे आ जाते और नित्यानंद प्रभु सदैव तैयार रहते ताकि चैतन्य महाप्रभु पुरा जमीन पर ना गीरे या बाह्य ज्ञान नहीं रहा तो वैसे भी वह गिर सकते थें। महाप्रभु फिर लौटने लगते थे उसे बचाने के लिए नित्यानंद प्रभु ने चैतन्य महाप्रभु जहा भी जाते हैं केवल उड़ान ही नहीं भरते ऊची कूद ही नहीं करते किंतु चैतन्य महाप्रभु गोलाकार कीर्तन करते स्वयं को गोलाकार घुमाते भी और स्पीनींग करते हुए गोल गोल घूमते इतनी तेजी से घूमते थे एक साथ गोल भी घुमते इतने तेजी से वे घुमते चैतन्य के साथ जैसे इलेक्ट्रिसिटी(बिजली) कितने तेज़ी दौड़ती हैं, या उसका संक्रमण होता हैं। 1,00000 स्ट्रीट लाइट्स (सडक का प्रकाश प्रबंध) है तो हम स्विच ऑन(चालू) करते ही वैसे एक के बाद दूसरे के बाद दुसरे के बाद तिसरे, तिसरे के बाद चौथे ऐसे बल्ब जलने चाहिए।और ऐसे बल्ब जलते भी है और ऐसे लगता है कि वे एक साथ चलते हैं इतनी तेजी से एक बाद एक ऐसे बल्ब जलते तो है लेकिन वह गति इतनी तेज होती है कि, लगता है एक ही जल रहे हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के इस कीर्तन में चलायान चैतन्य महाप्रभु एक स्थान से दूसरे स्थान इतनै तेजी से वे चलते हैं तो कृष्ण दास कविराज गोस्वामी लिखते हैं हमारे हाथ में कोई इलेक्ट्रिसिटी की बात की तो आंख तो मान लो किसी ने या मैंने अपने हाथ में मशाल ली हुई है। मशाल जल रही है उसको हम बड़े तेजी से घुमाएंगे गोलाकार तो क्या आप अनुभव करोगे? वह आग सर्वत्र एक ही साथ सब जगह है।एक्शन तो एक ही स्थान पर होता है लेकिन वह इतनी तेजी से हम जब घूमाते हैं तो हमारा अनुभव होता है कि तो फायर ब्रांड सर्वत्र हैं। तद्भव चैतन्य महाप्रभु उस कीर्तन में नृत्य भी कर रहे है और इतने तेजी से वे घूम रहे हैं।वहां के उपस्थित भक्त ऐसा अनुभव किया करते थे कि चैतन्य महाप्रभु सर्वत्र है और अग्नि जैसा उनका तेज भी गौरांग जो है तप्तकाञ्चनगौराङ्गि गौरांग वह सुनहरा रंग लेकिन कैसा सुनहरा रंग? तप्तकाञ्चन ,तप ने वाला सोना है और भी चमकता हैं। सबको लगता कि चैतन्य महाप्रभु सब स्थानों पर है और फिर नित्यानंद प्रभु वह हमेशा तैयार रहते थे चैतन्य महाप्रभु जहां भी जाते हैं। इस तरफ़, उस तरफ़आगे, पीछे, गोलाकार तो नित्यानंद प्रभु बिल्कुल उनके पास रहते हरि हरि! यह नित्यानंद प्रभु का रोल है नित्यानंद प्रभु संकर्षण है, नित्यानंद प्रभु अनंत शेष है, जैसे अनंत शेष कि शैय्या होती है,जो आधार बनता है,विष्णु जब पहुडते हैं। किस पर पहुडते हैं? शैय्या पर! वह अनंत शेष होते हैं। जो बलराम के विस्तार होते हैं, संकर्षण के विस्तार होते हैं। वही पात्र यहां पर भी नित्यानंद प्रभु का हुआ करता था। ऐसा संबंध ऐसी सेवा है नित्यानंद प्रभु कि आदि संकर्षण होने के कारण और पीछे से अद्वैताचार्य भी रथ यात्रा के समय पूरे बंगाल से जगन्नाथपुरी पहुंच जाते थें अव्दैताचार्य उस दल का संचालन भी करते थे और जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कीर्तन और नृत्य कर रहे है तो अव्दैताचार्य भी कीर्तन और नृत्य कर रहे हैं। वैसे नित्यानंद प्रभु भी नृत्य और कीर्तन कर रहे हैं और साथ में सेवा भी कर रहे हैं नित्यानंद प्रभु चैतन्य महाप्रभु कि और अव्दैताचार्य भी सेवा कर रहे हैं,तो पिछे से अव्दैताचार्य जोर जोर से बोलते हैं हरि बोल...! हरि बोल...! हरि बोल...! चैतन्य महाप्रभु को और प्रेरित कर रहे हैं।उत्साहित कर रहे हैं।वैसे चैतन्य महाप्रभु बड़े सक्रिय थे और फिर पीछे से अद्वैताचार्य जोर-जोर से पुकारते हरि बोल...! हरि बोल...! हरि बोल...! वे अपना हर्ष उल्हास व्यक्त करते हरि बोल...! हरि बोल...! हरि बोल...! कहते हुए। बीच में चैतन्य महाप्रभु का कीर्तन चल रहा है नृत्य चल रहा है और फिर जगन्नाथ का दर्शन भी कर रहे हैं।अभी स्तंभित हुए हैं। स्तंभित होना भी एक है भक्ति का विकार है अष्ट विकारों में से एक विकार है। स्तंभित होना स्तंभ मतलब खंबा। ना हिल रहा है ना डुल रहा हैं। अचानक अब बिजली जैसा नृत्य कर रहे थें। कीर्तन और नृत्य हो रहा था लेकिन अब अचानक रुक जाते हैं और स्तंभित हो जाते हैं और जगन्नाथ कि ओर देखते हैं। अपलक नेत्रों से और प्रार्थनाएं प्रारंभ होती हैं नमो ब्रह्मण्य देवाय गोब्राह्मण हिताय च । जगत् हिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः ॥(विष्णु पुराण 1.19.65) अनुवाद:में भगवान श्री कृष्ण को प्रणाम करता हूँ,जो की गायों,ब्राह्मणों और पूरे जगत के हिट चाहने वाले हैं I में बारम्बार उन गोविंद को प्रणाम करता हूँ जो इंद्रोयों को तृप्त करने वाले हैं। जयति जयति देवो देवकी नंदनो सौ जयति जयति कृष्णो वृष्नी वंस प्रदीपह(च च मध्यलीला 13.78) अनुवाद:आपकी जय हो,जो देवकी के पुत्र के रूप में विख्यात हैं,आपकी जय हो जो वृष्नी के वंशज के रूप में विख्यात है। नहं विप्रो न च नरपतिर न अपि वैश्यो न शुद्रो ,नाहं वर्णी न च गृह पतिर नो वनस्तो गतिर्व। किन्तु प्रोड्यां निखिल परमानंद पूर्णा मृताबधेर गोपी भर्तु: पद कामलयोर दासदासानुदास: (च.च. मध्य लीला 13.80) अनुवाद : मैं न तो ब्राह्मण हु , न क्षत्रिय , न वैश्य न ही शुद्र हू। नहीं मैं ब्रह्मचारी गृहस्थ वानप्रस्थ या सन्यासी। मैं तो गोपियों के भर्ता भगवान श्री कृष्ण के चरण कमलों के दास के दास का भी दास हु। अमृत के सागर के तुल्य है और विश्व के दिव्य आनंद के कारणस्वरूप है । वे सदैव तेजोमय रहते है । ऐसी प्रार्थना है ।और प्रार्थनाएं भी हैं। ये कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने चैतन्य चरिता मृत में लिखी है। जगन्नाथः स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे ॥१॥(जग्गनाथष्टकं) अनुवाद: है जग्गनाथ स्वामी,आप कृपया सदैव मेरे नेत्रो के समक्ष रहिये और फिर स्तंभित ( स्तंभ यानी खम्बा)हुए हैं दर्शन कर रहे हैं। प्रार्थनाएं हो रही हैं। फिर कीर्तन और आगे बढ़ता है और जगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा मंदिर तक अखंड कीर्तन चलता रहेगा। यह कीर्तन उत्सव है। श्रवण उत्सव है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और जो भी सब वहां पर उपस्थित हैं उन सभी को वह नचा रहे हैं और कीर्तन करवा रहे हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। तो यह सब चल रहा है ।अष्ट विकारों में से यह एक विकार है, जैसे तुकाराम महाराज भी कहते हैं जब आनंद से मन भर जाता है तो आनंद के आंसू बहने लगते हैं । यह चैतन्य महाप्रभु में भी होता था। लेकिन चैतन्य महाप्रभु की आंखों से अश्रु की धारा निकलती थी जैसे होली के समय पिचकारी से हम औरों तक रंगीन जल पहुंचा देते हैं, ऐसे चैतन्य महाप्रभु के नेत्रों से इतनी बड़ी जल की धारा बहती है। नयनं गलदश्रुधारया वदनं गदगदरुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥६॥( शिक्षाष्टकं) हे प्रभु, कब आपका नाम लेने पर मेरी आँखों के आंसुओं से मेरा चेहरा भर जायेगा, कब मेरी वाणी हर्ष से अवरुद्ध हो जाएगी, कब मेरे शरीर के रोम खड़े हो जायेंगे ॥६॥ शिकष्टकं में भी चैतन्य महाप्रभु ने इस बात का उल्लेख किया है ।वह एक साधक के रूप में कह रहे हैं कि ऐसा कब होगा भविष्य में कि हमारे जीवन में ऐसा दिन आएगा ,जब मेरे नेत्रों से ऐसे प्रेमाश्रु होंगे ?चैतन्य महाप्रभु के आसपास गोलाकार में नृत्य हो रहा है। सभी पर अश्रुओं की धाराएं पहुंच जाती हैं। स्नान हो जाता है। उन सभी का अभिषेक हो जाता है। सब लोग भीग जाते हैं । चेतोदर्पणमार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम् श्रेयः-कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम् । आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम् सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम् ॥१॥( शिक्षाष्टकं ,1) चित्त रूपी दर्पण को स्वच्छ करने वाले, भव रूपी महान अग्नि को शांत करने वाले, चन्द्र किरणों के समान श्रेष्ठ, विद्या रूपी वधु के जीवन स्वरुप, आनंद सागर में वृद्धि करने वाले, प्रत्येक शब्द में पूर्ण अमृत के समान सरस, सभी को पवित्र करने वाले श्रीकृष्ण कीर्तन की उच्चतम विजय हो॥१॥ यह आत्मा का स्नान है। जब कीर्तन होता है तब हरिनामामृत से भी स्नान हो रहा है ।और जगन्नाथ रथ यात्रा में , चैतन्य महाप्रभु के आंसुओं से भी स्नान हो रहा है। वहां उपस्थित भक्तों को कोई परेशानी नहीं। कोई अपनी जान बचाकर नहीं भाग रहा ।वे चाहते हैं कि मेरा भी पूरा अभिषेक हो जाए। मैं अभी पूरा तो नहीं भीगा हूं, अभी भी माया ने पछाड़ लिया है किउच आंशिक रूप से। मैं पूरी तरह से कृष्ण भावना भावित होना चाहता हूं ।मेरे सर्वांग को, आत्मा को ,बुद्धि को भिगाईये प्रभु ।नाम अमृत से, अपने अश्रुओं से। कीर्तन चल रहा है और सब जा रहे हैं गुंडिचा मंदिर की ओर। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने ऐसी बातें लिखी हैं, ऐसी घटनाएं जैसी घटित हुई थी। उस समय के रघुनाथ दास गोस्वामी हैं वह क्या करते थे वह एक दैनंदिनी जिसे हम डायरी कहते हैं। वह रखते थे तो किसी दिन जो लीला देखी, अनुभव किया ,या साक्षात्कार किया, तो लिख लेते थे। उन्हें स्वरूपेर रघुनाथ नाम दिया। स्वरूप दामोदर, रघुनाथ दास गोस्वामी का विशेष ध्यान करते थे। चैतन्य महाप्रभु ने स्वरूप दामोदर को कहा था कि रघुनाथ दास गोस्वामी का विशेष ध्यान देना। इसीलिए उनका नाम पड़ा स्वरूपेर रघु। रघुनाथ दस गोस्वामी जब वृंदावन पहुंचे तो, कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने रघुनाथ दास गोस्वामी की डायरी की मदद से चैतन्य चरितामृत की रचना की। तो चैतन्य चरित्रामृत के लेखक ने तो चैतन्य महाप्रभु को कभी देखा भी नहीं था। उस प्रकट लीला में फिर लीला का दर्शन तो दूर की बात है। और रथयात्रा में भी कभी नहीं गए ।पर वह सब लिख तो रहे हैं ।कैसे लिख रहे हैं? क्या यह कल्पना है ?नहीं। करचाओं की मदद से लिखते जाते हैं। दैनंदिनी या करचाओं की मदद से चैतन्य चरितामृत की रचना हुई। रथ यात्रा में जैसे-जैसे घटना हुई वैसे वैसे रघुनाथ दास गोस्वामी इत्यादि लिखते जाते थे। तो वही आधार है । रथयात्रा आगे बढ़ रही है गुंडिचा मंदिर की ओर कीर्तन और नृत्य चल रहा है। ऐसे कीर्तन और नृत्य करने वाले चैतन्य महाप्रभु के सभी निकटतम आना चाहते हैं। आकर उनके चरणों का स्पर्श करना चाहते हैं या वे सोचते हैं कि कब चैतन्य महाप्रभु उनको आलिंगन देंगे ।ऐसी आशा से सब उनके चरणों की ओर दौड़ पड़ते हैं। फिर इससे उनके नृत्य में विघ्न उत्पन्न होता है ।इसीलिए चैतन्य महाप्रभु के आस पास तीन अलग-अलग गोलाकार बनाकर भक्त खड़े होते हैं। ताकि चैतन्य महाप्रभु को लोगों से दूर रख सकें ।पहला गोला नित्यानंद प्रभु और कुछ भक्त बनाते हैं ।दूसरे गोले में काशीशवर और गोविंद जो चैतन्य महाप्रभु के निजी सेवक हैं। कल भी हमने सुना कैसे ईश्वर पुरी ने काशीश्वर और गोविंद को चैतन्य महाप्रभु के निजी सेवक के रूप में भेजा ।और तीसरा गोला जो है वह राजा प्रताप रूद्र और उनके मंत्रिमंडल का था बड़े बड़े गोले बनाते हैं पहले से दूसरा गोला बड़ा और दूसरे से तीसरा गोला उससे बड़ा ।उद्देश्य रहा था कि कोई चैतन्य महाप्रभु के पास ना जाए। केवल बोल देने से काम नहीं बनता दूर रहो, दूर रहो ,ऐसा गोला बनाना पड़ता था ताकि चैतन्य महाप्रभु अपनी मस्ती में रहे और भावविभोर होकर कीर्तन एवं नृत्य करते रहें .।कभी रथ एक स्थान पर रुक जाता था। जगन्नाथ स्वामी चैतन्य महाप्रभु के नृत्य का दर्शन करना चाहते तो रथ को रोक देते। जब जगन्नाथ स्वामी रुकना चाहते थे तो खींचने वाले कुछ नहीं कर पाते, क्योंकि यह जगन्नाथ स्वामी की मर्जी है। वह एक स्थान पर रथ में विराजमान होकर अपने अपलक नेत्रों से चैतन्य महाप्रभु या राधा रानी का दर्शन कर रहे हैं। कीर्तन, नृत्य का ।जैसे कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने कहा कि चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ स्वामी का अपलक नेत्रों से दर्शन करते थे अब जगन्नाथ स्वामी की बारी है। तो उस समय एक वर्णन आता है। राजा प्रताप रुद्र भी खड़े होकर दर्शन करना चाह रहे थे पर हो यह रहा था कि वहां बहुत सारे गोले थे। तो जहां प्रताप रूद्र दर्शन कर रहे थे उनके सामने श्रीवास ठाकुर थे जिस वजह से वह दर्शन नहीं कर पा रहे थे। उनके दर्शन में बाधा आ रही थी। राजा प्रताप रुद्र के सहायक मंत्री हरी चंद्र ने उनहे हटाने का प्रयास किया,हरि चंद को उनके नाम और व्यक्तित्व का पता नहीं था कि वह कितने महान व्यक्तित्व हैं। उनसे कहा हटो ,हटो ,राजा प्रताप रूद्र दर्शन करना चाहते हैं। थोड़ा साइड हो जाइए। श्रीवास ठाकुर इतने तल्लीन थे कि उन्होंने सुना ही नहीं। वे कुछ भी नहीं सुन रहे थे। वे केवल चैतन्य महाप्रभु पर ही ध्यान दे रहे थे। हरि चंदन ने हाथ से स्पर्श करके हटाने का प्रयास किया। तभी श्रीवास ठाकुर को कोई बाह्य ज्ञान नहीं था। बस फिर एक समय ऐसा हुआ कि श्रीवास ठाकुर को गुस्सा आ गया क्योंकि कोई पीछे से बार-बार उनके दर्शन में विघ्न डाल रहा था ।इसलिए वह मुड़े और एक तमाचा हरी चंदन को लगाया । हरी चंदन भी गरम हो गए और उन्हें धकेलने के लिए तैयार ही थे इतने में राजा प्रताप रूद्र ने कहा नहीं नहीं ऐसा मत करो। अरे यह तो श्रीवास ठाकुर हैं और तुम उनको ढकेल रहे हो। तो हरि चंदन ने कहा उन्होंने मुझे तमाचा जो मारा। तो राजा प्रताप रूद्र ने कहा तुम बड़े भाग्यवान हो भाई। मुझे ऐसा भाग्य प्रताप नहीं हुआ। मुझे ऐसा तमाचा मारते तो मैं अपना जीवन सफल मान लेता ।ऐसे उनको समझाया बुझाया । ऐसे चैतन्य महाप्रभु का कीर्तन और नृत्य रथयात्रा में हुआ करता था। पुनः यह सब इस जगत के परे के अनुभव हैं, दर्शन हैं ,ऐसा कीर्तन ऐसा नृत्य ऐसा उत्सव जगन्नाथ रथयात्रा महोत्सव की जय। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय। चैतन्य महाप्रभु कीर्तन नृत्य की जय। हरि नाम संकीर्तन की जय। गौर भक्त वृंद की जय। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल । यह जगत से परे है, लेकिन गौर भगवान यहां आए गोलोक के नवद्वीप अथवा श्वेत दीप में जो होता रहता है वहीं लीलाएं उन्होंने यहां प्रकाशित की और उन्हीं लीलाओं में से विशेष रूप से कीर्तन लीला का कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने चैतन्य चरितामृत में वर्णन किया है और हम तक पहुंचाया है। एक समय चैतन्य चरितामृत का प्रचार प्रसार केवल बंगाल और उड़ीसा में ही था। फिर श्रील प्रभुपाद ने अंग्रेजी में अनुवाद किया। जैसे भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने श्रील प्रभुपाद को कहा कि अंग्रेजी भाषा में प्रचार करो। फिर जब यह हुआ तो श्रील प्रभुपाद ने कहा जितना ज्यादा से ज्यादा भाषाओं में हो सके इन्हें प्रकाशित करो ।जैसे चाइनीज हिब्रू। हरि बोल। वह लीला हम तक भी पहुंच रही है। या उस लीला का हम भी श्रवण और अध्ययन करते हैं। खुद समझ कर आप भी इसको औरों तक पहुंचाए। यार देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश आमार आज्ञाय गुरु ह्या तारा देश (च.च मध्य लीला 7.128) जहा कही भी जाओ श्री कृष्ण का उपदेश कहो( श्रीमद भगवद गीता और भागवतम),इस प्रकार गुरु बनकर सभी जीवों का कल्याण करो। आप भी कीजिए ताकि कृष्ण भावना मृत का प्रचार बड़े और अधिक से अधिक जीवो को इसका लाभ मिले इसी को कहते हैं जीव जागो जीव जागो गौरचाँद बोले कोटा निद्रा जाओ माया पिसाचीर कोले 1,अरुणय गीत,जीव जागो,भक्तिविनोद ठाकुर अनुवाद:हे जीवों,जागो ,कब तक माया पिशाची की गोद में सोते राहोगें? हरे कृष्ण

English

Russian