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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक १०.०३.२०२१ हरे कृष्ण! आज इस कॉन्फ्रेंस में 775 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। हरिबोल। आप सब ठीक हो! मैं भी ठीक हूँ। यदि कोई आई. सी. यू. में भी लेटा है, उससे भी पूछा जाए तो वह भी कहता है कि मैं ठीक हूं। हम लोग बिना सोचे कहते ही रहते हैं कि मैं ठीक हूं, मैं ठीक हूं लेकिन अधिकतर समय हम ठीक नहीं होते किन्तु हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। करने से हम ठीक हो जाते हैं, तब हम कुशल मंगल हो जाते हैं। यह हरे कृष्ण जपने और खुश रहने की बात है। ( चैंट हरे कृष्ण एंड बी हैप्पी) उसके लिए जप ( चैंटिंग) भी कैसा होना चाहिए। हमारा जप ध्यानपूर्वक होना चाहिए। ध्यानपूर्वक व प्रेम पूर्वक जप करने से आनन्द ही आनन्द है। सच्चिदानंद.. भगवान् का आनन्द। भगवान का एक नाम आनंद भी है। आप समझते हो? भगवान का एक नाम आनंद है। एक देवानंद भी हुए, वैसे देवानंद नाम तो भगवान का ही होता है। कृष्ण किसका नाम है? किसी का नाम कृष्ण हो सकता है, अथवा किसी को कृष्ण नाम दिया जाता है लेकिन नाम तो कृष्ण का होता है और किसी को दे देते हैं। जैसे एक बार किसी ने कहा कि मैं कृष्ण हूं और मेरी पत्नी का नाम राधा रानी है। (ऐसा था उनका नाम कृष्ण था और उनकी पत्नी का नाम राधारानी था) तब हमने कहा कि नहीं! नहीं! तुम कृष्ण दास हो और तुम्हारी धर्मपत्नी राधा रानी देवी दासी है। तुम्हारा नाम कृष्ण है इसलिए तुम कृष्ण नहीं हो, वास्तव में तुम कृष्णदास ही रहोगे। वास्तविकता में सभी नाम भगवान के नाम हैं। जैसा कि मैं बता रहा था कि उसमें से एक नाम आनंद भी है, आनंद भगवान का नाम है। याद रखो हम लोग देवानंद, कृष्णानंद, रसिकानंद,विवेकानंद आदि जैसे कई सारे नाम आनंद के साथ जोड़ देते हैं। भगवान का नाम आनंद है, उनका नाम लेने से हम भी आनंद को प्राप्त करते हैं। वे आनंद के स्त्रोत हैं। जैसे ब्रजवासी कह रहे थे कि नंद के घर आनंद भयो, नंद के घर में आनंद हुआ। आनन्द ही आनंद गड़े। नंद के घर में आनंद हुआ है अर्थात हर्ष, उल्लास भी हो रहा है। आनंद हुआ मतलब कृष्ण हुए हैं, जिनका नामआनंद है, अर्थात कृष्णानंद। नंद के घर आनन्द भयो। आनंद हुआ, कृष्ण हुए। हरि! हरि!आनंद को कृष्ण से अलग नहीं किया जा सकता! कृष्ण आनन्द की मूर्ति हैं। श्री कृष्ण मूर्तिमय आनन्द हैं। यह सब आपको समझ में आ रहा है ना? भाषा हिंदी है, कुछ बातें समझ में तो आएगी ही किंतु इसके जो भावार्थ अथवा गुड अर्थ है, हमें उसको भी समझना चाहिए। यह बातें भी ठीक है लेकिन आज श्रीपाद ईश्वरपुरी का तिरोभाव तिथि महोत्सव भी है। श्रीपाद ईश्वर पुरी तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय! श्रीपाद ईश्वर पुरी भगवान् चैतन्य महाप्रभु अथवा गौर भगवान के गुरु बन गए। गुरु तो कई होते हैं और कई हुए भी लेकिन भगवान का गुरु होना कितना महिमावान होने की बात है। वैसे भगवान को गुरु की आवश्यकता तो नहीं होती क्योंकि भगवान स्वयं ही गुरु हैं। वसुदॆव सुतं दॆवं कंस चाणूर मर्दनम् ।दॆवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दॆ जगद्गुरुम् ॥ भगवान् श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु शिष्य बन जाते हैं। उन्होंने ईश्वरपुरी को अपना गुरु बनाया। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु पूरे संसार के समक्ष शिक्षा के लिए अपना आदर्श रख रहे हैं। तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम्। शाब्दे पारे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्।। ( श्रीमद् भागवतम् ११.३.२१) अनुवाद:- अतएव जो व्यक्ति गंभीरतापूर्वक असली सुख की इच्छा रखता हो, उसे प्रामाणिक गुरु की खोज करनी चाहिए और दीक्षा द्वारा उसकी शरण ग्रहण करनी चाहिए। प्रामाणिक गुरु की योग्यता यह होती है कि वह विचार विमर्श द्वारा शास्त्रों के निष्कर्षों से अवगत हो चुका होता है और इन निष्कर्षों के विषय में अन्य को आश्वस्त करने में सक्षम होता है। ऐसे महापुरुष, जिन्होंने समस्त भौतिक धारणाओं को त्याग कर भगवान की शरण ग्रहण कर ली है उन्हें प्रमाणित गुरु मानना चाहिए। ऐसी वेदवाणी है। शास्त्र कहता है कि आपका गुरु अवश्य होना चाहिए। गुरु की शरण में जाओ और गुरु को स्वीकार करो। यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता ३.२१) अनुवाद:- महापुरुष जो जो आचरण करता है, सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं | वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आदर्श प्रस्तुत करता है, सम्पूर्ण विश्र्व उसका अनुसरण करता है। श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु को गुरु की आवश्यकता नहीं होने पर भी उन्होंने गुरु धारण किया। उन्हें गुरु की क्या आवश्यकता है? वे उन से कौन सा ज्ञान अर्जन करेंगे, ऐसा कौन सा ज्ञान है जो उन्हें अर्जन नहीं है अथवा भक्ति अर्जन करेंगे। वैराग्यविद्या निज-भक्ति- योग-शिक्षार्थमेक: पुरुष: पुराणः। श्रीकृष्ण- चैतन्य- शरीर- धारी कृपाम्बुधिर्य़स्तमहं प्रपद्ये।। ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला ६.२५४) अर्थ:- मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करता हूं, जो हमें वास्तविक ज्ञान, अपनी भक्ति तथा कृष्णभावनामृत के विकास में बाधक वस्तुओं से विरक्ति सिखलाने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं। वे दिव्य कृपा के सिंधु होने के कारण अवतरित हुए हैं। मैं उनके चरण कमलों की शरण ग्रहण करता हूं। शिक्षा देने के लिए पुरुष: पुराणः पुराने पुरुष हुए। गोविन्दम् आदि पुरुषं हुए। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु शिक्षार्थमेक देने के लिए अथवा सारे संसार को सिखाने के लिए शिष्य हुए। वे गोलोक में श्रीकृष्ण थे। अब वे स्वयं चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट होने वाले थे। कृष्ण अभी गोलोक में ही हैं। उन्होंने व्यवस्था की और कही भक्तों को एडवांस में( पूर्व में ही) आगे भेज दिया। श्रीकृष्ण ने गोलोक वृंदावन से अपने सहायकों अथवा परिकरों को पहले ही भेज दिया। उसमें से एक ईश्वर पूरी भी थे, अद्वैत आचार्य , श्रीवास पंडित, शची माता और जगन्नाथ मिश्र भी थे क्योंकि उनको प्रकट होना है तो उनके माता-पिता भी होने चाहिए ना। इसीलिए उनको पूर्व में ही (एडवांस में) भेज दिया। उन्होंने नामाचार्य हरिदास ठाकुर को भी भेजा।हरिदास ठाकुर गोलोक से नही थे, उन्हें ब्रह्मलोक से इस धरातल पर भेजा। ये सब बंगाल में अलग-अलग स्थानों पर प्रकट हुए ताकि जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं प्रकट होंगे, ये सारी मंडली चैतन्य महाप्रभु की प्रकट लीला में अपना योगदान देगी। ऐसे बड़े भक्तों के समूह अथवा भक्त मंडली जो पहले भेजी गई थी, वह चैतन्य महाप्रभु से पहले की पीढ़ी थी, चैतन्य महाप्रभु तो सेकंड जनरेशन( दूसरी पीढ़ी) में हुए। ईश्वरपुरी बंगाल में कुम्हार हट नामक स्थान पर जन्मे थे। हरि! हरि! एक समय ईश्वरपुरी नवद्वीप आए थे। वह गोपीनाथ आचार्य के घर पर रहा करते थे। उन दिनों में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु (श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अभी निमाई ही थे अर्थात शची माता के निमाई ही थे) कुमार ही थे अथवा युवावस्था को प्राप्त कर रहे थे। तब ईश्वरपुरी और निमाई की मुलाकात होती है। ईश्वरपुरी के मिलन और दर्शन से निमाई बड़े प्रभावित हो जाते हैं। ईश्वरपुरी उन दिनों में ही निमाई को कुछ शिक्षा देना प्रारंभ करते हैं। दीक्षा तो बाद में होगी पहले शिक्षा होती है, शिक्षा होते होते फिर दीक्षा होती है। ईश्वरपुरी ने कृष्ण लीलामृत नामक ग्रंथ की रचना की थी। ईश्वरपुरी उसे ही निमाई को सुनाया करते थे व भगवान की लीला और भगवत तत्व विज्ञान समझाया करते थे अथवा सुनाया करते थे। ईश्वर पुरी अपने शिष्य निमाई को सेवा में लगाना चाहते थे। उन्होंने निमाई को कहा कि मेरे ग्रंथ का थोड़ा एडिटिंग, संपादन करो। उसकी आवश्यकता तो नहीं थी लेकिन निमाई ने उस आदेश का पालन किया और सम्पादन अथवा एडिटिंग करना प्रारंभ किया। चैतन्य महाप्रभु के ऐसे उद्गार हैं। जैसे भगवान् को विष्णवे नमः कहना होता है। विष्णवे नमः अर्थात विष्णु को नमस्कार। सही संस्कृत अथवा व्याकरण की दृष्टि से यहां परिष्कृत भाषा अथवा शब्द का प्रयोग हुआ था किंतु कभी कभी लिखते हुए सिर्फ आउट ऑफ टंग या त्रुटिवश अंकन (टाइपिंग एरर) हो जाता है वैसे ही उन्होंने विष्णवै: लिखने के स्थान पर विष्णायः लिख दिया जैसे कभी कभी रामाय: या कृष्णाय: लिखा जाता है ना । कोई भी शब्द आता है, तो उसे आय आय लिखते हुए किसी ने रामाय शिवाय भी लिखा। चैतन्य महाप्रभु ईश्वरपुरी से कह रहे थे, भावग्राही जनार्दन: अर्थात जनार्दन तो भाव को ग्रहण करते हैं। आपकी गलती की ओर ध्यान नहीं देते हैं। आपको विष्णवै: नमः कहना था लेकिन आपने विष्णायः नमः कहा अथवा लिखा। आप विष्णु को ही नमस्कार करने की बात लिख रहे हो अथवा विचार भी वैसा ही हो रहा है, व्याकरण की दृष्टि से इस में त्रुटि रही। चैतन्य महाप्रभु ने कहा इसमें कोई चिंता की बात नहीं है, भावग्राही जनार्दनः। ऐसा भी संवाद ईश्वर पुरी और चैतन्य महाप्रभु के बीच में होता है अथवा नवद्वीप में हो रहा है। एक बार ईश्वरपुरी ,जगन्नाथ मिश्र तथा अपने निमाई के घर पर भी पहुंचे थे। शची माता ने उनको एक विशेष प्रसाद खिलाया था। इस प्रकार निमाई और ईश्वर पुरी के मध्य घनिष्ठ संबंध स्थापित हो रहे थे, यह सम्बंध ज्ञान की बात है। हमारा केवल कृष्ण के साथ ही नहीं अपितु कृष्ण के साथ संबंध स्थापित होने से पहले हमारा वैष्णवों के साथ संबंध स्थापित होना चाहिए। उन वैष्णवों में भी हमारा गुरु के साथ संबंध कैसा है, इस पर भी निर्भर रहता है कि हमारा कृष्ण के साथ वाला संबंध कैसा है। ईश्वरपुरी और निमाई को अंग संग एक दूसरे को प्राप्त हो रहा था। हरि! हरि! निमाई तो उन दिनों में निमाई पंडित ही थे। पांडित्य का ही प्रदर्शन चल रहा था अथवा भक्ति का प्रदर्शन नहीं हो रहा था, वह सभी के साथ खूब शास्त्रार्थ करते थे। उनको शास्त्रार्थ में परास्त करते थे, लेकिन तब वह भक्ति तथा प्रेम की चर्चा थोड़ा कम ही किया करते थे जिसके कारण नवद्वीप के निवासी और चैतन्य महाप्रभु के संगी साथी चिंतित थे व प्रार्थना किया करते थे कि हमारा निमाई पंडित तो है किंतु भक्त कब बनेगा, इसको कृष्ण प्रेम कब प्राप्त होगा । यह प्रार्थना भगवान ने सुनी, निमाई ने भी सुनी, ईश्वरपुरी माधवेंद्र पुरी के शिष्य रहे। जैसा कि आप जानते हो और आपने सुना भी है कि हमारे गौड़ीय संप्रदाय के प्रथम आचार्य अथवा एक दृष्टि से कहा जाए गौड़ीय वैष्णव संस्थापक के संस्थापक माधवेंद्र पुरी हैं। इस्कॉन के संस्थापकाचार्य श्रील प्रभुपाद हुए किन्तु गौड़ीय वैष्णव संस्थापकाचार्य तो माधवेंद्र पुरी है। माधवेंद्र पुरी ने बीज बोए, माधवेंद्र पुरी के शिष्य ईश्वरपुरी थे। वैसे माधवेंद्र पुरी के कुछ ज्यादा शिष्य नहीं थे, उनके कुछ गिने-चुने ही शिष्य थे। उनमें से ईश्वरपुरी प्रधान शिष्य थे, वह बड़े प्रेमी शिष्य थे। माधवेंद्र पुरी के अंतिम दिनों में उड़ीसा में बालेश्वर के पास जहां क्षीर चोर गोपीनाथ मंदिर है,भगवान के आदेशानुसार उन दिनों में वहीं पर रहा करते थे। यहां पर माधवेंद्र पुरी का चरित्र प्रारंभ हुआ जो कि चंदन लेने के लिए उड़ीसा आए थे लेकिन भगवान ने कहा अभी तुम गोपीनाथ का ही चन्दन लेपन करो, मैं गोपाल वृंदावन में ही हूं लेकिन तुम्हारी सेवा मुझ तक पहुंच जाएगी। चंदन लेपन सेवा वहीं हुई और वहीं रहने लगे। माधवेंद्र पुरी के अंतिम दिनों में ईश्वर पुरी को उनका अंग संग का सौभाग्य प्राप्त हुआ और वृद्धावस्था में कुछ सेवा भी प्राप्त हुई। इस प्रकार ईश्वर पुरी,माधवेंद्र पुरी की हर प्रकार की सेवा किया करते थे और माधवेंद्र पुरी इस सेवा से बड़े ही प्रसन्न थे। एक दिन उनका विशेष अनुग्रह रहा और आशीर्वाद दिया कि हरि नाम में तुम्हारी रुचि बढ़े और सब तुम्हारी कीर्ति का गान हर समय सर्वत्र करें। माधवेंद्रपुरी ने ईश्वरपुरी का आलिंगन किया और कहा कि तुम्हें कृष्ण प्रेम प्राप्त हो अथवा तुम में कृष्ण प्रेम उदित हो। तत्पश्चात यह सब हुआ भी। ईश्वरपुरी अब तैयार थे। अब बस केवल चैतन्य महाप्रभु से कनेक्शन (संबंध) होने की बात थी। ईश्वरपुरी को जो कृष्ण प्रेम प्राप्त हुआ था, अब वह चैतन्य महाप्रभु अथवा निमाई अथवा विश्वम्भर को दे देंगे। इधर नवद्वीप में जगन्नाथ मिश्र नहीं रहे। निमाई 'गया' पहुंचे। एक बौद्धों की 'गया' है और एक हिंदुओं की भी 'गया' है, गया के दो प्रकार हैं। जैसे विष्णु कांची और शिव कांचीपुर विष्णु भक्तों व शिव भक्तों के लिए है, वैसे ही 'गया' में बौद्ध गया और विष्णुपद है। जहां पर भगवान के चरणों का चिन्ह है। 'गया' ऐसी परिपाटी अथवा स्थान है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु पितृ तर्पण अथवा श्राद्ध सेरेमनी करने के उद्देश्य से वहाँ पहुंच गए। संयोग की बात है कि ईश्वर पुरी भी उन दिनों वहीं पर थे, उनकी चैतन्य महाप्रभु की मुलाकात पहले नवद्वीप में हो चुकी थी, वह पहले से ही एक दूसरे से काफ़ी परिचित थे, चैतन्य महाप्रभु उनके शिक्षा शिष्य थे। चैतन्य महाप्रभु के पिताश्री भी नहीं रहे, इसलिए अब वे ईश्वर पुरी को ही अपना पिता के रूप में स्वीकार करना चाह रहे थे। निमाई ने विशेष निवेदन किया। ईश्वरपुरी ने उनको दीक्षा दी। हरि! हरि! हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। यह मंत्र दिया ही होगा। चैतन्य भागवत में उल्लेख आता है कि उन्होंने गोपाल मंत्र भी दिया ही होगा। गोपाल मंत्र देकर दीक्षा समारोह संपन्न हुआ। इसके साथ ही निमाई के जीवन में हल्का सा परिवर्तन ही नहीं अपितु क्रांति हुई। उस दीक्षा समारोह के उपरांत तत्क्षण इतना कृष्ण प्रेम उदित हुआ कि जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भगवान् नाम का उच्चारण करने लगे तब वह तुरंत वृंदावन की ओर दौड़ने लगे। वृंदावन धाम की जय! वृंदावन धाम की जय! वृंदावन कहां है! वृंदावन कहां है! बड़ी मुश्किल से उनको रोका गया। चंद्रशेखर इत्यादि भक्त जो नवद्वीप से उनके साथ गए थे, वे उन्हें वृंदावन ले जाने की बजाय नवद्वीप ले आए। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु काम से गए, कृष्ण प्रेम में पागल ही हो गए। किबा मन्त्र दिला गोसाञि, किबा तार बल। जपिते जपिते मन्त्र करिल पागल।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला ६.८१) अनुवाद:-" हे प्रभु! आपने मुझे कैसा मंत्र दिया है? मैं तो इस महामन्त्र का कीर्तन करने मात्र से पागल हो गया हूँ। चैतन्य महाप्रभु ऐसा कहने लगे। किबा मंत्र दिला हे गोसाञि, हे गोस्वामी, हे मेरे गुरु महाराज ईश्वरपुरी, आपने मुझे कैसा मंत्र दिया है, 'किबा तार बल' अर्थात यह मंत्र कितना बलवान है। इस मंत्र में कितनी शक्ति है। नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति- स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः। एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥2॥ अर्थ:- हे भगवान्‌! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्‌-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है। चैतन्य महाप्रभु भी अपने शिक्षाष्टक में ऐसा ही कहते हैं। चैतन्य महाप्रभु इस बात को कहने व लिखने से पहले ही हरि नाम की शक्ति का, भक्ति का अनुभव करने लगे थे। किबा मंत्र दिला, गोसाञि, किबा तार बल।जपिते जपिते मन्त्र करिल पागल। ( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला ७.८१) अनुवाद:- " हे प्रभु, आपने मुझे कैसा मन्त्र दिया है? मैं तो इस महामन्त्र का कीर्तन करने मात्र से पागल हो गया हूँ। यहां महामंत्र तो मुझे पागल बना रहा है। यह कैसा मंत्र है। हरि! हरि! चैतन्य महाप्रभु जो एक समय के पंडित थे, वे अब ईश्वरपुरी के अनुग्रह व कृपा से उच्च कोटि के कृष्ण भक्त बन गए थे। हरि! हरि! ईश्वर पुरी के विषय में क्या क्या कहा जाए। वे एक महान भक्त थे, यह तो आप समझ ही सकते हो। अलग से कहने की आवश्यकता ही नहीं है कि वह एक महान भक्त थे। लेकिन हमें समझना तो यह चाहिए कि वह कैसे महान भक्त थे। कुछ उनका महात्मय तो सुनाओ। भक्ति वह ठीक है। लेकिन वे कैसे , क्यों महान थे। ऐसा कोई पूछ सकता है, उनकी महानता का कुछ वर्णन तो करो। ईश्वर पुरी की भक्ति व ईश्वर पुरी का प्रेम आप देख रहे हो। ईश्वर पुरी कृष्णप्रेमप्रदायते थे। उन्होंने कृष्ण प्रेम का दान चैतन्य महाप्रभु को किया। अब चैतन्य महाप्रभु उसे आगे शिष्य परंपरा में कृष्ण प्रेम का वितरण सर्वत्र करेंगे। ईश्वर पुरी ही चैतन्य महाप्रभु को कृष्ण प्रेम देने वाले निमित्त अथवा कारण बने हैं। यह ईश्वरपुरी की गौरव गाथा है, एक बार ईश्वरपुरी एक धर्म सभा में पहुंच गए। सभी को अपेक्षित था कि ईश्वरपुरी आएंगे, लेकिन वे आए और उस बहुत बड़ी धर्म सभा में बीच में कहीं बैठ गए। उन्होंने अपना परिचय भी नहीं दिया कि मैं यह हूं और मेरा नाम यह है.. वह बड़े विनम्र भाव से सभा में बैठ गए लेकिन वहां उपस्थित भक्तों को पता ही नहीं चल रहा था कि इनमें से कौन से ईश्वरपुरी हैं। ईश्वरपुरी अपना परिचय तो नहीं दे रहे है। तब कैसे परिचय होगा कि कौन से ईश्वर पुरी हैं। इसलिए योजना बनी कि हम ऐसा क्यों नहीं करते कि हम कीर्तन प्रारंभ करते हैं। कीर्तन प्रारंभ हुआ महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्‌-मनसो-रसेन। रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥2॥ अनुवाद:- श्रीभगवान्‌ के दिव्य नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान्‌ श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। तब ईश्वरपुरी पहचान लिए गए। उस सभा में जितने उपस्थित थे उसमें से एक व्यक्ति कैसा निकला? वह व्यक्ति जिसके अंग से पसीना निकल रहा है, व शरीर रोमांचित हुआ है, उनकी आंखों से प्रेम अश्रु की धाराएं बह रही हैं। तब सभी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि यह व्यक्ति, यह महाशय ही ईश्वर पुरी है, यही होने चाहिए, यही है। उनके भक्ति के लक्षणों से सब पहचान गए, जान गए कि ईश्वर पुरी कौन है? यह भी ईश्वर पुरी की पहचान है। हरि! हरि! ईश्वरपुरी ने अपने अंतिम दिनों में अपने दो शिष्यों को जगन्नाथपुरी जाने के लिए कहा। उनके शिष्य चैतन्य महाप्रभु के साथ जगन्नाथ पुरी में रहते थे। चैतन्य महाप्रभु की अंतिम लीलाएं वहां संपन्न हो रही हैं। ईश्वरपुरी ने काशीश्वर और गोविंद को जगन्नाथपुरी में जाकर चैतन्य महाप्रभु की सेवा करने का आदेश दिया। वैसे शिष्टाचार के अनुसार गुरु भ्राता से सेवा लेना यह उचित नहीं है। चैतन्य महाप्रभु, काशीश्वर और गोविंद गुरु भ्राता थे लेकिन यह ईश्वर पुरी का आदेश था कि जाओ! अपने गुरु भ्राता श्रीचैतन्य महाप्रभु की सेवा करो। वे दोनों जगन्नाथपुरी में बड़े सेवक हुए। उसमें भी गोविंद का नाम बड़ा नाम है। गोविंद चैतन्य महाप्रभु के व्यक्तिगत सेवक थे। काशीश्वर ने भी सेवा की है लेकिन जगन्नाथपुरी में गोविंद चैतन्य महाप्रभु के निजी सेवक हुए। गोविंद, चैतन्य महाप्रभु की छाया के रूप में रहा करते थे। वह रात दिन अपने गुरु भ्राता श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की सेवा करते थे। वैसे काशीश्वर और गोविंद का नाम कृष्ण लीला में भी है, वे कृष्ण के सखा थे। कृष्ण लीला में कवि कर्णपुर उनके भी नाम बताते हैं जो कृष्ण लीला में दो सखा थे और वह अभी भी सखा बने हैं या सेवक बने हैं। यह कोई अचरज की बात नहीं है, उनका कृष्ण के साथ शाश्वत संबंध ही है। हरि! हरि! चैतन्य महाप्रभु एक बार ईश्वर पुरी के जन्मस्थान कुम्हारहट पर गए। अपने गुरु महाराज की जन्म भूमि का दर्शन किया और वहाँ की धूलि में लोटे। वहां की कुछ मिट्टी उन्होंने अपने साथ में रखी और उसे ले आए। उसको वह अपने शरीर पर थोड़ा थोड़ा मल लेते थे अथवा लेपन करते थे अथवा उसके कुछ कण ग्रहण भी करते थे। जब लोगों को पता चला कि चैतन्य महाप्रभु ने ईश्वर पुरी के कुछ जन्म स्थान से कुछ मिट्टी ली है और वे इस प्रकार से मिट्टी का सत्कार सम्मान कर रहे हैं। तब लोग भी वहां जा जाकर वहां से अपने घर या जहां जहां के थे, मिट्टी लाने लगे जिसके कारण वहां बहुत बड़ा गड्ढा ही नहीं अपितु वहां बहुत बड़ा तालाब बन गया जोकि आज भी है। संयोग की बात है। वर्ष 1986 में जब हम पदयात्रा करते हुए नवद्वीप की ओर जा रहे थे, तब हमारी पदयात्रा का पड़ाव ईश्वर पुरी के जन्म स्थान से कुछ ही दूरी पर कल्याणी नामक स्थान पर रहा। वहां पर मैंने कुछ चार शिष्यों को दीक्षा दी, जय और विजय पहले शिष्य बने। ऐसे ही एक का नाम श्याम कुंड था और उनकी धर्मपत्नी राधा कुंड थी और भी थे पर नाम याद नहीं आ रहा। भक्ति चारू महाराज उस समय पुरोहित बने थे, उन्होंने सारी आहुतियां चढ़ाई थी व उस यज्ञ का संचालन किया था, उस यात्रा में जयद्रथ महाराज भी उपस्थित थे। उन दिनों में और भी कई महाराज थे और बड़ी संख्या में भक्त वृंद भी उपस्थित थे। मैनें पहली बार दीक्षा दी थी। उसका संबंध ईश्वरपुरी के जन्म स्थान से हुआ क्योंकि हम कुम्हारहट के पास में ही थे और ईश्वर पुरी का स्मरण कर रहे थे या उन्हीं की कृपा से उन्हीं की परंपरा में दीक्षा देना प्रारंभ किया। हरि! हरि! ईश्वरपुरी तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! आप ईश्वर पुरी के संबंध में और पढ़ो और स्मरण करो, प्रार्थना करो। यह चैतन्य वृक्ष है अर्थात यह सारा कृष्णभावनामृत आंदोलन एक वृक्ष है। इस वृक्ष के बीज माधवेंद्र पुरी और ईश्वर पुरी हैं। यह बीज अंकुरित हो चैतन्य महाप्रभु बने। इस वृक्ष का जो तना है, वह चैतन्य महाप्रभु हैं। तत्पश्चात शाखाएं उपशाखाओं अथवा इस पूरे वृक्ष का स्रोत व मूल माधवेंद्र पुरी और ईश्वर पुरी हैं। हम ऐसे भी जान सकते हैं कि ईश्वर पुरी की महिमा अद्वितीय रही। उनके जैसा कोई नहीं था, वे ही उनके जैसे थे। ठीक है। पंढरपुर के भक्त सुन रहे थे। अच्छा दर्शन शुरू हो गया। श्रृंगार दर्शन की जय। ठीक है। मुझे अब जाना होगा। राम! राम! पुनः मिलेंगे!

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