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10 जून 2019 हरे कृष्ण आज हमारे साथ जप करने में 604 सहभागी हैं। धीरज अग्रवाल एंड मिसेज अग्रवाल कुछ समय से हमारे साथ जप नहीं कर रहे थे लेकिन आज मैं उन्हें वापस अपने साथ जप करते हुए देख रहा हूं और उनका स्वागत करता हूं । मेरी इच्छा है कि अपनी जप में आप सभी स्थिर बनो । यह जपा कॉन्फ्रेंस हमें एक ऐसा प्लेटफार्म दे रहा है जहां हम सब एक साथ मिलकर जप कर सकते हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हर समय जप करते रहते थे। स्थान और अस्थान का अंतर देखे बिना तथा पात्र अपात्र भी देखे बिना वे कहीं भी कभी भी जप करते थे। चैतन्य महाप्रभु हर समय प्रत्येक स्थान पर हर वक्त जप किया करते थे । वे हमारे एक प्रकार से हीरो हैं, हम सभी के लिए उदाहरण हैं या तो वे अपनी माला के ऊपर जप करते थे या कीर्तन और नृत्य करते थे। कीर्तनीय सदा हरि।। वे हमेशा कीर्तन में व्यस्त रहते थे, वे अपना अधिकांश समय हरि कीर्तन में व्यस्त रखते थे और पूरी पूरी रात कीर्तन करते रहते थे, नित्य भागवत का श्रवण करते थे, कृष्ण करणामृत का श्रवण, अन्य शास्त्रों का भी, भक्ति प्रेरक शास्त्रों का अध्ययन करते थे । श्रवण कीर्तन विष्णु स्मरणम यह सभी क्रियाएं एक समान हैं अतः चैतन्य महाप्रभु निरंतर भागवत सेवन किया करते थे। यह श्रवण कीर्तन करना अथवा भगवान की लीलाओं का गुणगान करना फिर वो चाहे हम भागवत से सुने या कृष्ण करणामृत से सुने यह सभी एक समान प्रेरणादायक हैं। जब हम इस प्रकार भगवान का नियमित रूप से गान सुनते हैं, कीर्तन सुनते हैं, तो स्वाभाविक रूप से हमारा उनके प्रति आकर्षण बढ़ता है। हम जप और कीर्तन के माध्यम से भगवान के गुणगान को और अधिक से अधिक कर सकते हैं। जब हम इस प्रकार से भगवान का नाम सुनते हैं या उनका गुणगान सुनते हैं तो निश्चित रूप से उनके प्रति हमारा आकर्षण बढ़ता है। जपा और कीर्तन के माध्यम से हम उनके गुणगान को और अधिक से अधिक कर सकते हैं एक समय श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी के बाजार में कीर्तन और नृत्य कर रहे थे वहां उन्होंने एकत्रित सभी लोगों से पूछना शुरु कर दिया क्या आपने कृष्ण देखे हैं? क्या आपने कृष्ण को देखा है? हां आप किसी ने कृष्ण को सुना है कभी, कृपया मुझे भी दिखाइए । इसी प्रकार से वृंदावन के षड्गोस्वामी गण , वे वृंदावन की गलियों में घूमा करते थे और पूछा करते थे "हे राधे बृज देवीके हे नंद सुतो कुतः। श्री गोवर्धन कल्प पादप तले कालिंदी कूले कुतः श्री राधे।।" आप गोवर्धन की तलहटी में हो क्या?या काली नदी के तट पर हो? कहां पर हो कहां मिलोगे ? कहां विद्यमान हो ?इस प्रकार से वह भी विचरण करते हुए पूछा करते थे। जैसे हम हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करते हैं , यह एक प्रार्थना है। जैसे गोपाल गुरु गोस्वामी अपने तात्पर्य में लिखते हैं - हे भगवान दृश्य ! आप मुझे अपना दर्शन दो । हरे कृष्ण महामंत्र का जप भगवान के सुंदर दर्शन प्राप्त करने हेतु भगवान से की गई प्रार्थना है। जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु एकत्रित लोगों से पूछते थे कि आपने कृष्ण को देखा है तो अधिकांश लोगों को यह पता नहीं था कि वह इसके उत्तर में महाप्रभु से क्या कहें, लेकिन एक भक्त जो अत्यंत चतुर था उसने कहा अच्छा आप कृष्ण को देखना चाहते हो आओ मेरे पीछे आओ, मेरे साथ आओ। इस प्रकार वह चतुर एवं सभ्य व्यक्ति महाप्रभु को अपने पीछे पीछे ले गया और वह जगन्नाथ मंदिर के सिंह द्वार के पास पहुंचा और वहां से अंदर प्रवेश कर गया। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी उसके पीछे-पीछे अबोध शिशु की भांति चल रहे थे और जब वे सिंह द्वार के बाद अन्य द्वारों को पार करते हुए दर्शन मंडप में पहुंचे तो उस व्यक्ति ने जगन्नाथ भगवान की ओर इंगित करके कहा कि यह है भगवान । उस समय जगन्नाथ भगवान ने अपना बहुत सुंदर अद्भुत दर्शन महाप्रभु को दिया । जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ भगवान का दर्शन कर रहे थे तो "जैई गौर सेई कृष्ण सेई जगन्नाथ" तो उस समय स्वयं जगन्नाथ तो कृष्ण ही हैं और वही चैतन्य महाप्रभु हैं अतः इस प्रकार जब गौर सुंदर, गौर महाप्रभु जगन्नाथ भगवान का दर्शन कर रहे थे तो उस समय वे वहां जगन्नाथ भगवान के विग्रह को नहीं देख रहे थे "वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्। पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्। पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्। कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने।।" त्रिभंग मुद्रा में वहां भगवान खड़े हुए थे। वे साक्षात बृजेंद्र नंदन श्याम सुंदर श्री कृष्ण का दर्शन वहां कर रहे थे। अतः जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश करते थे, तो उनके इस प्रकार के अनुभव लोगों को देखने को मिलते थे। वह भगवान के सामने जग जग ही कह पाते थे उनका पूरा नाम भी नहीं ले पाते थे और उनका अश्रुपात शुरू हो जाता था और वह जमीन पर लोटने लग जाते थे। जब पहली बार श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ मंदिर में आए तो लोगों ने देखा किस प्रकार से वह बेहोश होकर गिर पड़े थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के नित्य परिकर तथा सेवक महाप्रभु को जगन्नाथ भगवान के अधिक समीप नहीं जाने देते थे। उनको कभी अकेला भी नहीं छोड़ते थे क्योंकि वे जानते थे यदि ये जगन्नाथ जी के समीप जाएंगे तो इन को संभालना मुश्किल हो जाएगा ।इसलिए वह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को बहुत दूर से जहां गरुढ स्तंभ है वहां खड़े होकर उनके दर्शन कराया करते थे । महाप्रभु उस स्थान के पास, जहां खड़े होकर दर्शन किया करते थे, तो अपने हाथ को उस स्तंभ पर टिकाते थे तो वह स्तंभ पिघल गया था और उनकी उंगलियों के चिन्ह उस स्थान पर गड़ गए थे । इस प्रकार चैतन्य महाप्रभु का जो भाव था, इतना उन में ताप था की उससे स्तंभ भी पिघल जाता था । वह निशान आज भी आपको देखने को मिल सकता है। एक बार मैं भी जगन्नाथपुरी यात्रा के दौरान, जगन्नाथ भगवान के दर्शन लेने के लिए मंदिर के अंदर गया तो एक पंडे ने मुझे उसी स्थान पर ले जाकर के खड़ा किया जहां पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु खड़े होकर दर्शन किया करते थे और उसने मेरे हाथ को पकड़ कर उसी स्थान पर रखा और मुझसे पूछा क्या आप यहां पर कुछ अनुभव कर रहे हो और आप को कुछ छेद लग रहा है, तो मैंने कहा हां यहां पर छेद है। इस प्रकार जब मैंने उसे बताया तो उसने मुझे पूरा दृष्टांत सुनाया, किस प्रकार से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु इसी स्थान पर खड़े होकर इसी प्रकार से स्तंभ को पकड़ते थे। मैं भी वहां पर उसी मुद्रा में खड़ा था, मैंने भी वहां पर हाथ महाप्रभु की उंगलियों के चिन्ह के ऊपर रखे हुए थे और मैं वहां से दर्शन कर रहा था और मेरे दर्शन करने में और महाप्रभु के दर्शन करने में थोड़ा अंतर जरूर था लेकिन मुझे एक बहुत ही अद्भुत प्रकार की अनुभूति हो रही थी वहां पर खड़े होकर और यह स्मरण करके कि किस प्रकार से चैतन्य महाप्रभु वहां खड़े होकर दर्शन किया करते थे। बहुत ही सुंदर अनुभूति हो रही थी और मुझे कुछ विशेष अनुभव हो रहा था। एक अन्य घटना है जब चैतन्य महाप्रभु उसी स्थान पर उस गरुढ स्तंभ को पकड़कर दर्शन कर रहे थे तो एक माताजी वहां पर आई जिनके कूूूूबड़ निकला हुआ था और उनकी पीठ झुकी हुई थी । दर्शन मंडप में उसके आगे कई स्त्री पुरुष खड़े थे और वह दर्शन करने में असमर्थ थी तो उसने इधर-उधर देखकर वह इतनी उतावली थी, इतनी उत्सुकता थी उसमें भगवान का दर्शन करने की कि वह आव देखा न ताव जैसे तैसे पकड़ कर के श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का सहारा लेकर और स्तंभ का सहारा लेकर चैतन्य महाप्रभु के कंधे के ऊपर चढ़ गई। एक पैर उसने गरुढ स्तंभ पर रखा और दूसरा महाप्रभु के कंधे पर रखा और इस प्रकार से दर्शन कर वह अपने आप को अत्यंत सौभाग्यशाली समझ रही थी। तब महाप्रभु के निजी सेवक गोविंदजी उन्होंने जब यह दृश्य देखा कि वह महाप्रभु के कंधे के ऊपर चढ़ी है, महाप्रभु जो परम सन्यासी हैं और साक्षात भगवान हैं तो गोविंद इस प्रकार से बोले आप क्या कर रही हो आप भगवान के कंधे पर चढ़ी हो सन्यासी के कंधे पर चढ़ी हो नीचे आओ जल्दी नीचे आओ। अब वह इस प्रकार से माताजी को नीचे आने का इशारा करने लगे, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु तो स्वयं बहुत ही तल्लीन थे भगवान का दर्शन करने में वे बिल्कुल भी शारीरिक चेतना में उपस्थित नहीं थे। इसी प्रकार से वह स्त्री भी जो भगवान के कंधों पर चढ़ी हुई थी उसे भी कोई भान नहीं था, लेकिन जो भगवान के सेवक थे वह उस स्त्री को बार-बार नीचे आने का इशारा कर रहे थे और बहुत विस्मृत थे कि यह स्त्री किस प्रकार से महाप्रभु के कंधे पर चढ़ गई लेकिन महाप्रभु और स्त्री दोनों ही बाह्य चेतना से एकदम शून्य थे। भगवान की रूप माधुरी का सुंदर दर्शन कर रहे थे। गोविंद जब बार-बार उन माताजी को इशारा कर रहे थे, तो उन स्त्री को यह भान हुआ कि वह कोई धरती के ऊपर नहीं खड़ी , साक्षात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु परम भगवान जो सन्यासी के वेश में हैं गौरांग महाप्रभु के कंधे पर खड़ी है तो वह एकदम से विचलित हो गई और नीचे आने लगी लेकिन जब चैतन्य महाप्रभु ने देखा तो वह नाराज हो गए अत्यंत रुष्ट हो गए और बोले गोविंद तुम्हारे अंदर कोई संस्कृति नहीं है, कोई सदाचार नहीं है, कोई समझ नहीं है। तुम किसी को दर्शन करने में अवरोध उत्पन्न कर रहे हो और इस प्रकार से तुम किसी को दर्शन नहीं करने दे रहे हो और महाप्रभु इस प्रकार से अत्यंत रुष्ट हो गए, नाराज हो गए और गोविंद की प्रताड़ना करने लगे और वह वृद्ध माताजी उनसे क्षमा याचना करने लगी। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने वहां एक बहुत सुंदर वाक्य बोला उन्होंने कहा कि आप के अंदर जो जगन्नाथ भगवान के दर्शन करने की लालसा में उत्सुकता है, लोल्यम है । हे माँ! आप मुझे भी आशीर्वाद दो मेरे अंदर भी इस प्रकार का लोल्यम जगे इस प्रकार की उत्कंठा लालसा उत्पन्न हो उत्सुकता आए भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने कि जिस प्रकार से आपके अंदर है। इस प्रकार महाप्रभु भद्र माताजी की भूरी भूरी प्रशंसा करने लगे इस सबका चैतन्य चरितामृत में बड़ा सुंदर वर्णन आता है। अतः जिस प्रकार का लोल्यम व उत्सुकता हमें देखने को मिली वैसी उत्सुकता या लोल्यम हम सभी के अंदर प्रकट हो सकती है बस हमें हरे कृष्णा महामंत्र का नियमित रूप से बहुत ध्यान पूर्वक जप करते रहना है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। हम लोग भी बहुत उत्सुक हो जाएंगे और हमारे अंदर भी बहुत लोल्यम बढ़ेगा भगवान के दर्शन करने के लिए क्योंकि जप का जो परिणाम है वह भगवान का सुंदर रूप का दर्शन करना उनके रूप के प्रति हमारी उत्सुकता हमारे लोल्यं को बढ़ाना है। आप सभी जप करते रहिए मैं आप सभी को आशीर्वाद देता हूं और आशा करता हूं कि आप सभी लोग इसी प्रकार से जप करेंगे जिससे आपके अंदर भी उत्साह बढ़ेगा और आप सबके अंदर भी भगवान का दर्शन करने की उत्सुकता बढ़ेगी लौल्यं बढ़ेगा। परम पूज्य श्री लोकनाथ स्वामी महाराज की जय

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