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कृष्ण प्रेम में भक्त प्रेम भी समाविष्ट हैं   आज ४६० प्रतियोगी हमारे साथ जप कर रहे हैं। आज न्यूज़ीलैण्ड से चैतन्य प्राण प्रभु भी हमारे साथ जप कर रहे हैं। उन्होंने मुझे लिखा कि वे सपथ लेते हैं कि जब तक वे अपनी १६ माला पूरी नहीं कर लेंगे तब तक वे अन्न तथा जल ग्रहण नहीं करेंगे। इस प्रकार बहुत से भक्त अधिक से अधिक मात्रा में जप करने के लिए प्रेरित हो रहे हैं तथा वे इसमें और अधिक दृढ भी बन रहे हैं। एक विचार हैं जो मैं आप सभी के साथ साझा करना चाहूंगा , यहाँ अहमद नगर में अथवा प्रत्येक स्थान पर जब भी पर्दा बंद होता हैं तो भगवान के दर्शन नहीं होते हैं। इस समय मैं सोच रहा था कि यद्यपि भगवान के रूप के दर्शन रुक गए हैं परन्तु भगवान का नाम हमारे साथ हैं। अतः एक प्रकार से यह अधिक फर्क पैदा नहीं करता हैं कि दर्शन खुले हुए हैं अथवा बंद। भगवान के श्री विग्रह हमारे सामने हैं अथवा नहीं  परन्तु यह हरिनाम सदैव हमारे साथ हमारे मन में तथा ह्रदय में हैं : हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। अभिन्नत्वात नाम नामिनो ...... नाम तथा नामी में कोई अंतर नहीं हैं।  अतः यह हमारे विचारों के लिए आहार हैं। यह एक विषय हैं जिस पर हमें चिंतन करना चाहिए कि किस प्रकार भगवान का नाम तथा भगवान स्वयं अभिन्न हैं। कल मैं बता रहा था कि हम वैष्णव अपराध करने में बहुत दक्ष हैं।  हम प्राकृतिक रूप से तथा स्वतः ही वैष्णवों समेत अन्य जीवों के प्रति अपराध करते हैं। यह हमारे मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध हैं। यह हरिनाम के प्रति भी अपराध हैं।  जब हम वैष्णवों का अनादर करते हैं तो हरिनाम हमसे रुष्ट हो जाता हैं।  आप यह सोच सकते हैं , " हे मेरे भगवान ! मैंने तो वैष्णवों का अनादर किया हैं परन्तु मैंने आपको तो कुछ नहीं कहा हैं। अतः यह किस प्रकार से एक अपराध हुआ ?" परन्तु हमें यह समझने की अत्यंत आवश्यकता हैं कि वैष्णव भगवान को सर्वाधिक प्रिय हैं।  वैष्णव भगवान से ही संबंध रखते हैं। सांसारिक व्यक्ति कहते हैं , " यदि आप मुझसे प्रेम करते हैं तो मेरे कुत्ते से भी प्रेम कीजिए। " पश्चिम के देशों में इस वाक्य को सुनना आमबात हैं। यदि आप मेरे कुत्ते से प्रेम करते हैं तो इससे यह साबित होता हैं कि आप मुझसे भी प्रेम करते हैं।  आपको उस समय उस प्रेम को अलग से व्यक्त नहीं करना होता हैं। आप केवल मेरे कुत्ते से प्रेम कीजिए तथा उससे मैं समझ जाऊंगा कि आप वास्तव में मेरे से प्रेम करते हैं।  चूंकि मैं उससे प्रेम करता हूँ अतः यदि आप भी उससे प्रेम करेंगे तो मैं यह मानूंगा कि आप मुझसे प्रेम करते हैं। इस प्रकार यह आपस में सम्बंधित हैं। यह मात्र एक स्थूल उदाहरण हैं परन्तु इसी प्रकार का सम्बन्ध भगवान एवं उनके भक्तों - विष्णु तथा वैष्णवों के मध्य हैं।  हरिनाम के प्रति दस अपराध हैं। हम प्रतिदिन उन्हें पढ़ते हैं तथा स्वयं को उनका स्मरण करवाते हैं। वे हमें कंठस्थ हैं तथा हम उन्हें यथारूप उगल देते हैं। क्या हम उन्हें अपने ह्रदय से कहते हैं अथवा क्या हम उन्हें ठीक प्रकार से समझ कर कहते हैं ? क्या मैं वास्तव में यह समझता हूँ कि ये अपराध हैं तथा मुझे इनसे बचना चाहिए ? हमें इन अपराधों को केवल कंठों से ही नहीं बोलना चाहिए अपितु हमें उन्हें अपने ह्रदय की गहराइयों से पूरी समझदारी के साथ कहना चाहिए। तत्पश्चात हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हम उन्हें अभ्यास में ला रहे हैं। हमें इन अपराधों से बचना चाहिए। दुर्दैवामीदृशं इहाजनि न अनुराग:  शिक्षाष्टकम के द्वितीय श्लोक में चैतन्य महाप्रभु कहते हैं , " हे भगवान  ! मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि मुझे हरिनाम का जप करने में आकर्षण नहीं होता हैं। " दुर्दैवं : यह मेरा दुर्भाग्य हैं कि मेरा हरिनाम के जप के प्रति आकर्षण नहीं होता हैं यद्यपि मैं इसकी महिमा को जानता हूँ। २- नामनाम कारी बहुधा निज सर्वशक्तिस , तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः। एतादृशी तव कृपा भगवन ममापी , दुर्दैवं ईदृश मिहा जनी ना अनुरागः।।   परन्तु उसके पश्चात तीसरे श्लोक में वे कहते हैं : ३ - तृणादपी सुनीचेन , तरोरपी सहिष्णुना। अमानिना मानदेन , कीर्तनीय सदा हरी:।।   इस प्रकार वे इसे समझाते हैं। उन्होंने अभी द्वितीय श्लोक के अंत में ही कहा कि मेरा इसके प्रति कोई अनुराग नहीं हैं।  (हरीबोल !!! सोइये मत !! जीव जागो जीव जागो गोराचांद बोले।  कौन कह रहा हैं ? हम नहीं , गोराचांद बोले ! चैतन्य महाप्रभु बुला रहे हैं।  वे कह रहे हैं।  भगवान् ऐसा नहीं कहते हैं , " हे शरीर ! तुम उठो। " अपितु वे कहते हैं, " हे आत्मा ! तुम उठो।  यद्यपि शरीर उठ जाता हैं परन्तु फिर भी आत्मा सो ही रही हैं। )    द्वितीय श्लोक के अंत में महाप्रभु ने कहा कि मुझे हरिनाम में प्रीती नहीं होती हैं तथा उसके पश्चात वे तृतीय श्लोक में ही कहते हैं , " कीर्तनीय सदा हरी" अर्थात निरंतर हरिनाम लो। तो इन दोनों के बीच में ऐसा क्या होता हैं, जिससे हरिनाम के प्रति आकर्षण नहीं हैं और उसके पश्चात कीर्तनीय सदा हरी होता हैं ? अत इसके मध्य हैं : तृणादपि सुनीचेन अर्थात हमें एक घास के तिनके से भी अधिक नम्र बनना चाहिए। अंग्रेजी भाषा में इस श्लोक का अनुवाद इस प्रकार होता हैं , " मन की ऐसी अवस्था में कोई निरंतर हरिनाम का उच्चारण कर सकता हैं। वह मन की कौनसी अवस्था होती हैं ? तृणादपि सुनीचेन , यह कहने में अत्यंत सरल हैं परन्तु ऐसा बनना अत्यंत कठिन हैं। ' घास के तिनके से भी अधिक नम्र बनना ' ऐसा कहने में केवल कुछ सेकंड लगते हैं परन्तु ऐसा बनने में पूरी जिंदगी लग जाती हैं। मन की ऐसी अवस्था को, यदि आप भाग्यशाली हैं तो एक जीवन काल में , प्राप्त कर सकते हैं अन्यथा इसमें कई जीवन लग सकते हैं। कितना नम्र ? पेड़ तथा घास के तिनके से भी अधिक नम्र होना चाहिए। इससे अगली पंक्ति में वे कहते हैं : ' अमानिना मानदेन ' - यहाँ अमानिना तथा मानदेन दो अलग अलग क्रियाएं हैं। ये दो कार्य हैं: अमानिना तथा मान दा। ' द ' धातु का अर्थ होता हैं देना। स्वयं के लिए हमें कोई सम्मान नहीं चाहिए तथा उसी चेष्टा भी नहीं करनी चाहिए, परन्तु इसके विपरीत हमें निरंतर यह योजना बनानी चाहिए कि ' मैं किस प्रकार वैष्णवों तथा भक्तों की और अधिक सेवा कर सकता हूँ ' . यदि हम ऐसा करते हैं तो शीघ्र ही हम उन सभी भक्तों का, जो अधिक मात्रा में पुस्तक वितरण करते हैं तथा जो अन्य सेवायें करते हैं , उनका सम्मान करने लग जाएंगे। यह अनुकरणीय हैं।  अतः मन की ऐसी अवस्था में हमें यह कार्य करना चाहिए। अमानिना मानदेन कीर्तनीय सदा हरी: मन की ऐसी अवस्था में कोई निरंतर हरिनाम का जप कर सकता हैं।   सततं कीर्तयन्तो मां , यतन्तश्च दृढ व्रतः। नमस्यान्तश्च मां भक्त्या , नित्य युक्त उपासते।।   सदा मेरी महिमा का गुणगान करके , दृढ निश्चय के साथ प्रयास करते हुए , मुझे प्रणाम करते हैं ,ऐसे दिव्य जीव भक्ति पूर्वक मेरी आराधना करते हैं। (भगवद गीता ९.१४) तब भगवान उन्हें क्या प्रदान करते हैं ? वे कहते हैं   तेषां सतत युक्तानां , भजतं प्रीती पूर्वकम। ददाति बुद्धि योगं तम, येन मां उपयान्तिते।।   जो निरंतर प्रेम पूर्वक मेरी आराधना करते हैं , मैं उन्हें वह बुद्धि प्रदान करता हूँ जिससे वे मेरी ओर आ सके।  (भगवद गीता १०.१०)   अहैतुकी तथा अप्रतिहतां का अर्थ हैं बिना किसी लालसा के तथा अविरल भक्तिमय सेवा। मन की ऐसी अवस्था में ही हम निरंतर जप , आराधना , स्मरण तथा सेवा कर पाएंगे। इसीलिए ' मैं मात्र एक विनम्र दास हूँ ' ऐसा भाव होना चाहिए।   अयि नन्दतनुज किंकरं , पतितं मा विषमे भवाम्बुधौ। कृपया तव पाद पंकज , स्थित धूलि सदृशं विचिन्तय।।   " हे मेरे भगवान ! हे श्री कृष्ण ! हे नन्द महाराज के पुत्र , मैं तो आपका सनातन सेवक हूँ , परन्तु अपने लालसमायी कार्यों के कारण मैं इस अज्ञानजन्य अत्यंत कष्टप्रद भौतिक सागर में गिर गया हूँ। अब आप कृपया मुझपर अपनी अहैतुकी कृपा कीजिये , तथा मुझे अपने चरण कमलों के रज का एक कण बनने का सौभाग्य प्रदान कीजिये। "   (चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.३२) चैतन्य महाप्रभु कहते हैं , " हे भगवान ! मैं तो केवल आपका एक दास हूँ। कृपया मुझे आपके चरण कमलों में एक धूल का कण बनने का सौभाग्य प्रदान कीजिये। किंकरं - किम करोमि ? हे भगवान ! क्या ऐसा कुछ हैं जो मैं आपके लिए कर सकता हूँ ? जो निरंतर भगवान से यह मांगते हैं कि क्या हम आपकी कोई सेवा कर सकते हैं ? हमें भी कुछ सेवा करने का मौका दीजिये। अतः ऐसे व्यक्ति को " किंकर " अथवा " किंकरी " कहते हैं। चूँकि यहाँ समय सीमित होता हैं अतः हम यहाँ कुछ ही चर्चा करते हैं। यदि भागवत कथा हो तो हम निरंतर ' कीर्तनीय सदा हरी ' कर सकते हैं। आदू मध्ये अन्ते हरी सर्वत्र गीयते। यहाँ चैतन्य महाप्रभु कहते हैं कि मैं आपका नौकर हूँ ,सामान्यतया नौकरों को दैनिक , साप्ताहिक अथवा मासिक वेतन मिलता हैं। अतः चैतन्य महाप्रभु , चैतन्य चरितामृत में इस पर टीका करते हुए कहते हैं, " मेरे प्रिय प्रभु , कृपया मुझे मेरा पारिश्रमिक (वेतन) दीजिये। मुझे यह वेतन कृष्ण प्रेम के रूप में दीजिये। चूँकि तुमने सम्पूर्ण दिवस अथवा सम्पूर्ण मास मेरी सेवा की  हैं अतः यह आपका वेतन हैं। मुझे वह वेतन कृष्ण प्रेम के रूप में चाहिए अर्थात उस वेतन में मुझे कृष्ण प्रेम प्रदान कीजिये। सुख संपत्ति घर आवे कष्ट मिटे तनका ........ यह हिन्दुओं द्वारा गाई जाने वाली आरती हैं। ' गर्व से कहो हम हिन्दू हैं ' परन्तु गौड़ीय वैष्णवों को यह गर्व नहीं होता हैं , उनमे अभिमान नहीं होता हैं।  अभिमान के परिणामस्वरूप ये प्रार्थनाएं गाई जाती हैं। गौड़ीय वैष्णवों में तथा हिन्दू, मुस्लिम , सिख , ईसाईयों में यही अंतर हैं। ' हे प्रभु  हमें हमारा दैनिक भोजन दीजिये। ' वहीं हरे कृष्ण भक्त केवल कृष्ण प्रेम मांगते हैं। इसमें हम भक्त प्रेम को भी सम्मिलित कर सकते हैं। इस कृष्ण प्रेम में भक्त प्रेम समाहित रहता हैं। हम इस प्रकार की निरर्थक प्रार्थनाएं नहीं गाते हैं , " सुख संपत्ति घर आवे कष्ट मिटे तनका ...."  यह कर्म मिश्रित भक्ति हैं। इस भक्ति में कर्म तथा ज्ञान का मिश्रण होता हैं। इसीलिए ऐसा कहा जाता हैं :   हरेर नाम हरेर नाम हरेर नाम इव केवलं। कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिर अन्यथा।।   इसे तीन बार क्यों कहा गया ? क्योंकि यहाँ इस पर बल दिया गया हैं , न तो कर्म से , न ज्ञान से और न ही योग से .......   कृष्ण भक्त निष्काम अतएव शांत। भुक्ति मुक्ति सिद्धि कामी सकली अशांत।।   " चूँकि भगवान कृष्ण का भक्त निष्काम होता हैं अतः वह सदैव शांत रहता हैं। कर्मी  व्यक्ति सांसारिक सुख चाहते हैं ,ज्ञानी मुक्ति चाहते हैं , तथा योगी भौतिक समृद्धि चाहते हैं। इसलिए ये सभी कामी हैं अतः इन्हे कभी भी शांति प्राप्त नहीं हो सकती हैं। "  इसका अर्थ हैं कि कर्म युक्त भक्ति , तथा ज्ञान अथवा सिद्धि युक्त भक्ति से हमारी सहायता नहीं हो सकती हैं , एकमात्र हरिनाम ही हमारी सहायता कर सकता हैं। भगवान के पवित्र नामों का जप तथा कीर्तन करके ही हम भगवान का अनुभव कर सकते हैं। परन्तु निस्संदेह वह जप अपराध मुक्त होना चाहिए।   अपराध शून्य हइया लहो कृष्ण नाम।   हम इस सत्र को यहीं विराम देते हैं , आप सभी से पुनः भेंट होगी। हरे कृष्ण .....

English

KRISHNA-PREMA INCLUDES BHAKTA-PREMA We have 460 participants today. Today we had one chanter , Chaitanya Prana Prabhu from New Zealand. He wrote to me of taking a vow that he will not eat or drink till he has completed his 16 rounds. So some devotees are getting inspired to chant more and more also they are getting determined. There was just a thought that when the curtains closed here in Ahmednagar, the Deities were inside and there is no darsana now. I was thinking the form is hiding, but the name is with us. Now we have to deal with the name. Name is not different from the form. So it really doesn't make difference in one sense. The Deities are in front or the Deities are not in front of us, we have HARE KRISHNA HARE KRISHNA KRISHNA KRISHNA HARE HARE HARE RAMA HARE RAMA RAMA RAMA HARE HARE Nama is in our mind, in our heart. abhinnatvat nam namino. There is no difference between nama and nami. So this is just food for thought to you. This is the subject to be contemplated on , how name of Lord and Lord Himself are non different. Yesterday I was saying that we are very expert in offending Vaisnavas. We naturally or spontaneously offend other living entities including devotees. That's the biggest stumbling block. It is the offence against the holy name. When we offend Vaisnavas , the holy name is displeased with us. You may think, ‘I offended a Vaisnav. I didn't offend you, Dear Lord. So how does this becomes an offence?’ But one has to understand that a Vaisnav is very dear to the Lord. A Vaisnav belongs to the Lord. They say ,'If you love me , love my dog.’ In the West it is very common. If you love my dog , then I know you love me. You don't even have to express your love differently. You just love my dog and I will take that as your love for me. I love him, and if you love him then I love you. This is the connection. So this is the gross example, but something similar in connection with the Lord and the Lord's devotees - Visnu and Vaisnavas. There are ten offences against the holy name. We say that every morning to remind ourselves of it. They are sitting in our throat and we vomit it. Do we say that from our heart or say them from understanding what we are saying. Do I really mean it then I say these are offences and I should avoid them. We should not utter those number of offences from the throat but from the bottom of our heart with full understanding. With full understanding while remembering we should say those offences and then practice not to commit those offences. Then we have to make sure, that we are putting them into practice. Not committing offences. durdaivam īdṛśam ihājani nānurāgaḥ at the end of second verse of Siksastakam , Chaitanya Mahaprabhu said, ‘I am so unfortunate o! Lord, I have no attraction for chanting the holy names of the Lord.’ Durdaivam - great misfortune that I have no attraction for chanting although I am aware (2) nāmnām akāri bahudhā nija-sarva-śaktis tatrārpitā niyamitaḥ smaraṇe na kālaḥ etādṛśī tava kṛpā bhagavan mamāpi durdaivam īdṛśam ihājani nānurāgaḥ But then there is third verse (3) tṛṇād api sunīcena taror api sahiṣṇunā amāninā mānadena kīrtanīyaḥ sadā hariḥ Then he talks. He has just said, I have no attraction for chanting at the end of the second verse. (Haribol!! Don't sleep!! Jiva Jago Jiva Jago gaurachanda bole. Who is saying? - not us, Gaurachanda bole! Gauranga Mahaprabhu is calling , He is talking, Lord doesn't say , ‘O! Body, you wake up!’ but ‘ O! Soul you wake up!’ Even if the body wakes up, still the soul is sleeping.) Just at the end of second verse Mahaprabhu had said , I have no attraction and then in the third verse he says, kīrtanīyaḥ sadā hariḥ. Chanting the holy names of the Lord constantly. So what happened in between ? Something happened in the middle, that's why the travel from 'no attraction’ to kīrtanīyaḥ sadā hariḥ. What happened in the middle is tṛṇād api sunīcena, ie becoming more humble than the blade of grass. English translation says, ‘In such a state of mind one can chant the holy names of the Lord constantly.’ What is that mental state? ‘t tṛṇād api sunīcena’ is easier said than done. To say it takes a few seconds, ‘To be humbler than the blade of grass’ to achieve the perfection of this stage may take a whole lifetime. To achieve such a state of mind one may require one lifetime if you are lucky, or it may even take many, many lifetimes. How humble? More than the trees,and blade of grass. Then in next paragraph he says, amāninā mānadena - amāninā and mānadena are the two activities. Two actions. amāninā and māna da. da means giver . amani - not expecting respect for oneself. And mana-da of which ‘mana’ means respect, and ‘da’ means giver. For ownself there is no respect and expectations. But in turn we make plans, ‘How am I going to serve Vaisnavas and devotees.’ Soon we'll be honouring those who distributed lots of books and other services. That's good. In such a state of mind we should be doing this. amāninā mānadena kīrtanīyaḥ sadā hariḥ In such a state of mind, one can chant the holy names if the Lord constantly. satataṁ kīrtayanto māṁ yatantaś ca dṛḍha-vratāḥ namasyantaś ca māṁ bhaktyā nitya-yuktā upāsate Always chanting My glories, endeavoring with great determination, bowing down before Me, these great souls perpetually worship Me with devotion.( BG. 9.14) Then what Lord gives them? He says teṣāṁ satata-yuktānāṁ bhajatāṁ prīti-pūrvakam dadāmi buddhi-yogaṁ taṁ yena mām upayānti te To those who are constantly devoted to serving Me with love, I give the understanding by which they can come to Me.( BG. 10.10) Ahaituki and apratihata means unmotivated and uninterrupted devotional service. Constant chanting, worshipping, remembering, serving will happen in such a state of mind. That is why , ‘ I am just humble servant’. ayi nanda-tanuja kiṅkaraṁ patitaṁ māṁ viṣame bhavāmbudhau kṛpayā tava pāda-paṅkaja- sthita-dhūlī-sadṛśaṁ vicintaya  ‘O My Lord, O Kṛṣṇa, son of Mahārāja Nanda, I am Your eternal servant, but because of My own fruitive acts I have fallen into this horrible ocean of nescience. Now please be causelessly merciful to Me. Consider Me a particle of dust at Your lotus feet.’ ( CC Antya 20.32) Caitanya Mahaprabhu said - ‘I am just a servant. O! Lord, please fix Me as a dust particle at Your Lotus Feet. Kinkara - Kim karomi? Is there anything that I can do O! Lord? Those who keep asking, what service they can do for the Lord? Give some service. So such a person is called 'kinkara’ or 'kinkari’. Here time is limited, so we have a short talk. If Bhagavat Katha is there , then we can go on - kirtaniya sada Hari. Adu madhye ante Hari sarvatra giyate. So Caaitanya Mahaprabhu having said that I am your servant , he said, servants usually get a salary at end of day, week or month. So Caitanya Mahaprabhu while giving His own commentary on Caitanya Caritamrita said, ‘My dear lord give Me remuneration. Give me My salary in the form of Krsna-prema. He had served the whole day or whole month, so here is Your salary. Let that salary be in the form of Krsna-prema. Sukha sampatti ghar aave kasta mite tanaka…. This is Hindu prayer. ‘Garva se kaho ham Hindu hai!’ Gaudiya Vaisnavas don't have this garva( pride). There is no pride. With pride such prayers come up. That is the difference between Gaudiya Vaisnava and Hindu or Sikha or Muslim or Isai. They pray 'O! Lord, give us our daily bread.’ Hare Krishna chanter is only begging - give us Krsna-prema. We could also add , give us Bhakta-prema. This Krsna-prema includes Bhakta-prema. We don't do useless prayers like ‘ sukha sampatti ghar aave kasta mite tanaka’. This is Devotion mixed with karma. There is Devotion mixed with karma or jnana etc. That's why it's said - harer nama harer nama harer namaiva kevalam kalau nasty eva nasty eva nasty eva gatir anyatha Why it's said three times? To emphasize that not by karma, not by jnana not by yoga…… kṛṣṇa-bhakta — niṣkāma, ataeva ‘śānta’ bhukti-mukti-siddhi-kāmī — sakali ‘aśānta’ “Because a devotee of Lord Kṛṣṇa is desireless, he is peaceful. Fruitive workers desire material enjoyment, jñānīs desire liberation, and yogīs desire material opulence; therefore they are all lusty and cannot be peaceful.( CC Madhya 19.149) ….. means this devotion mixed with karma , or with jnana or devotion mixed with siddhi is not going to help , but only Harinama. By chanting the holy names of the Lord the Lord could be realised. Of course, but that chanting has to be offence less chanting. aparadh sunya haiya laho krsna nama So we will end now. We will meet again. Hare Krishna

Russian

Джапа сессия 29.03.2019 КРИШНА-ПРЕМА ВКЛЮЧАЕТ БХАКТИ-ПРЕМУ У нас сегодня 460 участников. Сегодня у нас был один воспевающий, Чайтанья Прана Прабху из Новой Зеландии. Он написал мне об обете, что он не будет есть и пить, пока не завершит свои 16 кругов. Некоторые преданные вдохновляются воспевать все больше и больше, и они становятся решительными. У меня была мысль, когда здесь, в Ахмеднагаре, закрыли шторы, Божества были внутри, и даршана небыло. Я подумал, что форма скрылась от нас, но имя осталось с нами. Теперь мы имеем дело с именем. Имя не отлично от формы. Так что на самом деле, в каком-то смысле не имеет значения перед нами Божества или нет, у нас есть Харе Кришна Харе Кришна Кришна Кришна Харе Харе Харе Рама Харе Рама Рама Рама Харе Харе Нама- в нашем уме, в нашем сердце.'бхиннатван нама-наминох. Нет никакой разницы между намой (святым именем) и наминох (тем, кто носит это имя).. Так что это вам пища для размышлений. Это тема для размышления о том, как имя Господа и Сам Господь не отличаются. Вчера я говорил, что мы очень искусны в оскорблении вайшнавов. Мы естеств енным образом или спонтанно оскорбляем других живых существ, включая преданных. Самый большой камень преткновения, оскорбление святого имени. Когда мы оскорбляем вайшнавов, святое имя недовольно нами. Вы можете подумать: «Я обидел вайшнава. Я не обидел тебя, дорогой Господь. Так как же это становится оскорблением?». Нужно понимать, что Вайшнав очень дорог Господу. Вайшнав принадлежит Господу. Как говорится: «Если ты любишь меня, люби мою собаку». На Западе это очень распространено. Если ты любишь мою собаку, то я знаю, что ты любишь меня. Вам даже не нужно выражать свою любовь по-другому. Ты просто любишь мою собаку, и я приму это как твою любовь ко мне. Я люблю его, и если ты любишь его, то я люблю тебя. Это связь. Это грубый пример, но есть нечто похожее в отношении Господа и преданных Господа - Вишну и Вайшнавов. Есть десять оскорблений святого имени. Мы повторяем их каждое утро, чтобы помнить о них. Они сидят у нас в горле, и мы извергаем их. Мы повторяем их, мы произносим их из сердца произносим с пониманием того, что мы говорим. Если я действительно понимаю, что это оскорбления, я должен избегать их. Мы должны перечислять эти оскорбления не только горлом, а из глубины нашего сердца с полным пониманием. Помня, что мы должны перечислить эти оскорбления, а затем практиковаться, чтобы не совершать их снова. дурдаивам идришам ихаджани нанурагах в конце второго стиха Шикшастакама Чайтанья Махапрабху сказал: «О мой Господь, по доброте Своей Ты дал нам возможность легко приблизиться к Тебе, воспевая Твои святые имена, но я настолько неудачлив, что не чувствую влечения к ним.» (2) намнам акари бахудха ниджа-сарва-шактис татрарпита нийамитах смаране на калах этадриши тава крипа бхагаван мамапи дурдаивам идришам ихаджани нанурагах   О мой Господь, одно Твое святое имя способно даровать благословение всем живым существам, а у Тебя сотни и миллионы таких имен, как Кришна и Говинда. В эти трансцендентные имена Ты вложил все Свои трансцендентные энергии, и нет даже строгих правил воспевания Твоих имен. О мой Господь, по доброте Своей Ты дал нам возможность легко приблизиться к Тебе, воспевая Твои святые имена, но я настолько неудачлив, что не чувствую влечения к ним. Но тогда есть третий стих (3) тринад апи суничена тарор ива сахишнуна аманина манадена киртанийах сада харих Следует воспевать святое имя Господа в смиренном состоянии ума, считая себя ниже соломы, лежащей на улице. Нужно стать терпеливее дерева, освободиться от чувства ложного престижа и быть готовым оказать почтение другим. В таком состоянии ума можно воспевать святое имя Господа постоянно. Кто-то скажет. Он только что сказал: "Мне не нравится повторять" в конце второго стиха. Haribol!! Не спи!! JivaJago Jiva Jago gaurachanda bole. Кто это сказал? - не мы, gaurachanda bole - Гауранга Махапрабху зовет! Господь не сказал: «О! Тело, просыпайся! » нет, Он сказал « О! Душа, просыпайся!» Даже если тело просыпается, душа все равно спит. Как раз в конце второго стиха Махапрабху сказал: « но я не чувствую влечения к ним, а затем в третьем стихе он говорит: «киртанийах сада харих» постоянное повторение святых имен Господа. Итак, что случилось между ними? Что-то произошло посередине, из «не чувствую влечения» в «киртанийах сада харих». То, что произошло посередине, - это тринад апи суничена, то есть мы становимся смиреннее травинки. Английский перевод говорит: «В таком состоянии ума можно постоянно воспевать святые имена Господа». Что это за состояние ума? «тринад апи суничена» легче сказать, чем сделать. Сказать это требуется несколько секунд: «быть смиреннее травинки», но чтобы достичь совершенства на этой стадии может потребоваться целая жизнь. Чтобы достичь такого состояния ума, вам может понадобиться одна жизнь, если вам повезет, а может даже может потребоваться много, много жизней. Насколько скромно? Смиреннее чем дерево и травинка. Затем в следующем абзаце он говорит: Простите была ошибка в английской версии,  я не заметила сразу в русской.  аманина манадена, аманина и манадена- это два вида деятельности. Два действия.  «амани» - не ожидая уважения к себе. мана-да, из которых «мана» означает уважение, «да»- означает дающий. Мы не ждем уважения к себе. Но при этом мы строим планы: «Как я буду служить вайшнавам и преданным». Вскоре мы будем прославлять тех, кто распространил много книг, и преданных выполняющих другие виды служения. Это хорошо. Мы должны это делать в таком состоянии ума аманина манадена киртанийах сада харих В таком состоянии ума можно постоянно повторять святые имена Господа.. сататам кӣртайанто мам йатанташ ча дрдха-вратах намасйанташ ча мам бхактйа нитйа-йукта упасате Неустанно прославляя Меня, служа Мне с великой решимостью, падая ниц передо Мной, эти великие души всегда поклоняются Мне с любовью и преданностью.(БГ 9.14). Тогда что Господь дает им? Он говорит тешам сатата-йуктанам бхаджатам прити-пурвакам дадами буддхи-йогам там йена мам упайанти те Тех, кто постоянно служит Мне с любовью и преданностью, Я наделяю разумом, который помогает им прийти ко Мне.(БГ 10.10). Ахайтуки и апратихата означает немотивированное и непрерывное преданное служение. Постоянное воспевание, поклонение, памятование, служение происходит в таком состоянии ума. Вот поэтому «я просто покорный слуга». айи нанда-тануджа кинкарам патитам мам вишаме бхавамбудхау крипайа тава пада-панкаджа- стхита-дхули-садришам вичинтайа О сын Махараджи Нанды [Кришна], я — Твой вечный слуга, но так уж случилось, что я пал в океан рождения и смерти. Прошу Тебя, вызволи меня из этого океана смерти и сделай одной из пылинок у Твоих лотосных стоп. (ЧЧ Антья 20.32) Чайтанья Махапрабху сказал: «Я просто слуга. O! Господь, пожалуйста, прими Меня как частицу пыли на Твоих Лотосных Стопах». Кинкарам - Kimkaromi? Есть ли что- нибудь, что я могу сделать O! Господь? Тех, кто постоянно спрашивают, какое служение они могут сделать для Господа называют «кинкара» или «кинкари». К сожалению время ограничено, поэтому мы поговорим коротко. Если есть Бхагават- катха, тогда мы можем продолжать - киртания садха хари. Adumadhye ante Hari sarvatra giyate. Поэтому Чайтанья Махапрабху сказал, что я твой слуга, сказал он, слуги обычно получают зарплату в конце дня, недели или месяца. Поэтому Чайтанья Махапрабху, комментируя Чайтанью Чаритамриту, сказал: «Мой дорогой Господь, дай Мне вознаграждение. Дай мне Мое вознаграждения в форме Кришна-премы. Он служил целый день или целый месяц, поэтому вот твое вознаграждение. Пусть оно будет в форме Кришна-премы. Sukha sampatti ghar aave kasta mite tanaka…. Это молитва на хинди. ‘Garva se kaho ham Hindu hai!’ у Гаудия –Вайшнавов нет этой garva (гордости).Такие молитвы приходят с гордостью. В этом разница между Гаудия-вайшнавом и индуистом, или сикхой, или мусульманином, или исаем. Они молятся ‘О! Господь, дай нам наш хлеб насущный. Воспевающий Харе Кришна, просит только, дай нам Кришна-прему. Мы могли бы также добавить, дай нам Бхакти-прему. Кришна-према включает в себя бхакти-прему. Мы не произносим бесполезных молитв, таких как ‘ sukhasampatti ghar aave kasta mite tanaka’. Это преданность, смешанная с кармой. Существует преданность, смешанная с кармой или гьяной или йогой. Вот почему сказано - харер нама харер нама харер намаива кевалам калау настй эва настй эва настй эва гатир анйатха Почему это сказано три раза? Что бы подчеркнуть это не карма, не гьяна, и не йога ... кршна-бхакта — нишкама, атаэва ‘шанта’ бхукти-мукти-сиддхи-камӣ — сакали ‘ашанта’ «Поскольку преданный Кришны свободен от всех желаний, он умиротворен. В отличие от него, карми одержимы желанием материальных удовольствий, гьяни стремятся к освобождению, а йоги — к материальным достижениям. Все они обуреваемы материальными желаниями и потому не способны обрести умиротворение». (ЧЧ Мадхья 19.149) … .. означает, что эта преданность, смешанная с кармой, или с гьяной, или преданность, смешанная с сиддхами, не поможет, только Харинама. Мы можем понять Господа только воспевая Его святые имена. Конечно это повторение не должно быть оскорбительным. aparadh sunya haiya laho krsna nama Так что мы закончим сейчас. Мы встретимся снова. Харе Кришна!