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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक 12 जून 2021 हरि हरिबोल! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 909 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। आप सब का स्वागत है। क्या आप सब तैयार हैं? ॐ नमो भगवते वासुदेवाय: *जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द। जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥1॥ अर्थ: श्रीचैतन्यमहाप्रभु की जय हो, श्री नित्यानन्दप्रभु की जय हो। श्री अद्वैतआचार्य की जय हो और श्रीगौरचंद्र के समस्त भक्तों की जय हो। आज हम भागवतम और चैतन्य चरितामृत दोनों ग्रंथों से चर्चा करेंगे। हरि! हरि! कल आपने अथातो ब्रह्मजिज्ञासा (वेदांतसूत्र (१.१.१) के विषय में सुना था। जो ब्रह्मजिज्ञासु होते हैं, वही मनुष्य है। यह बात भागवत के प्रथम स्कंध के दूसरे अध्याय के दसवें श्लोक में संक्षिप्त रूप में अर्थात एक भाग जो जिज्ञासा का उल्लेख करता है, में भी कही गई है। कामस्य नेन्द्रियप्रीतिलाभो जीवेत यावता । जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थों यश्वेह कर्मभिः ॥ ( श्रीमद्भागवतम् 1.2.10) अनुवाद:- जीवन की इच्छाएँ इन्द्रियतृप्ति की ओर लक्षित नहीं होनी चाहिए । मनुष्य को केवल स्वस्थ जीवन की या आत्म - संरक्षण की कामना करनी चाहिए , क्योंकि मानव तो परम सत्य के विषय में जिज्ञासा करने के निमित्त बना है । मनुष्य की वृत्तियों का इसके अतिरिक्त, अन्य कोई लक्ष्य नहीं होना चाहिए । (आप इसे नोट भी कर सकते हैं) जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा। मनुष्य जीवन का लक्ष्य जिज्ञासा के लिए है। कैसी जिज्ञासा के लिए? कोई भी जिज्ञासा नहीं। क्या मैं आपकी सहायता कर सकता हूं कई सारे पूछताछ के काउंटर होते ही हैं, लोग जिज्ञासा करते हैं कि इसका क्या भाव है, आदि आदि। वैसी जिज्ञासा नहीं, तब कैसी जिज्ञासा? जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा अर्थात जीव को तत्व या भगवान या भगवान् के तत्व के संबंध में भी जिज्ञासा करनी चाहिए। सूत गोस्वामी ने यह बात कही। वैसे जिज्ञासा तो अभी है। शौनक आदि मुनियों ने जिज्ञासा की थी। श्रीमद् भागवतम् में यह संवाद नैमिषारण्य में हो रहा है। सूत गोस्वामी आसनस्थ है अर्थात आसन पर आरूढ़ है। वहां ८८००० ऋषि मुनि एकत्रित हुए थे। दोनों में संवाद हो रहा था। जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा। वैसे शौनक मुनि, अन्य मुनियों की ओर से कई सारी जिज्ञासाएं कर रहे थे। यह 10 वां श्लोक था, तत्पश्चात अगले श्लोक में कहा है जोकि सिद्धांत की दृष्टि से भागवतं का बहुत बहुत महत्वपूर्ण श्लोक अथवा वचन है। वैसा ही महत्वपूर्ण वचन चैतन्य चरितामृत में भी है। निश्चित ही हम सुनाएंगे। इससे यह भी सिद्ध होगा कि श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु एक ही हैं। जब हम इस तत्व अथवा सिद्धांत को सुनेंगे तब हमें साक्षात्कार होगा कि श्री कृष्ण और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु में कोई भेद नहीं है। नमो महा - वदान्याय कृष्ण - प्रेम - प्रदाय ते । कृष्णाय कृष्ण - चैतन्य - नाम्ने गौर - त्विषे नमः ।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 19.53) अनुवाद " हे परम दयालु अवतार ! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं । आपने श्रीमती राधारानी का गौर वर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के शुद्ध प्रेम का उदारता से वितरण कर रहे हैं । हम आपको सादर नमस्कार करते हैं । बस नाम का भेद है। एक का नाम कृष्ण है और दूसरे का नाम कृष्ण चैतन्य है। साथ में चैतन्य जोड़ दिया बस। श्रीकृष्ण द्वापर युग के अंत में प्रकट हुए थे। तत्पश्चात वे पुनः प्रकट हुए और उन्होंने कृष्ण नाम के अंत में चैतन्य जोड़ दिया। श्रीकृष्ण, चैतन्य की मूर्ति बने। जैसा गुण है वैसा ही उनका नाम हुआ। इसलिए वे श्रीकृष्ण चैतन्य हुए। वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् । ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥ (श्रीमद् भागवतं 1.2.11) अनुवाद:- परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवादी ( तत्वविद ) इस अद्वय तत्त्व को बहा , परमात्मा या भगवान् के नाम से पुकारते हैं। श्रील प्रभुपाद इस श्लोक का उदाहरण बारंबार किया करते थे। वैसे भी यह आधारभूत मंत्र है। तत्पश्चात मंत्र से तंत्र होते हैं फिर तंत्र से यंत्र बनते है। वदन्ति अर्थात कहते हैं,( कौन कहते हैं) वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं जो तत्ववित्त है, वित मतलब जानकार। तत्ववित्त कहो या तत्ववेता कहो, एक ही बात है। तत्ववेता वदन्ति अर्थात वे तत्ववेता कहते हैं कि तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्। भगवान का तत्व अद्वय है, द्वयम् मतलब दो।अद्वय अर्थात दो नहीं हैं। उसके साथ में अ जोड़ दिया है। इस वचन में यह बताया जा रहा है कि भगवान को तीन रूपों व स्वरूपों में जाना जा सकता है। भगवान् मुख्य तीन स्वरूपों में हैं, किंतु वे तीनों स्वरूप एक ही हैं।यज्ज्ञानमद्वयम्। यह शब्द भी महत्वपूर्ण है । तीन अवस्थाओं व तीन स्वरूपों में भगवान को जाना जा सकता है। वे स्वरूप हैं। ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते। ब्रह्मेति एक हुआ। ब्रह्म और इति। इति मतलब यह (दिस वन)। तत्पश्चात परमात्मेति हुआ, भगवानिति शब्द्यते। इन तीन शब्दों में कहो। ब्रह्म एक शब्द हुआ, परमात्मा दूसरा और भगवान तीसरा शब्द हुआ। इन नामों से भगवान का तत्व जाना जाता है अर्थात इन तीन स्वरूपों में भगवान को जाना जा सकता है। वे ब्रह्मेति,परमात्मेति,भगवानिति है। हरि! हरि! वे अद्वय अर्थात तीनों एक ही हैं। यही बात चैतन्य चरितामृत में आदि लीला के प्रथम अध्याय श्लोक संख्या 3 में वर्णित है। भागवतम् में भी प्रथम स्कंध के द्वितीय अध्याय अर्थात प्रारंभ में ही यह तत्व की बात कही गई है। वही तत्व चैतन्य महाप्रभु पर भी लागू होता है। इसलिए चैतन्य चरितामृत के प्रारंभ में ही इसका वर्णन है। जैसे भागवतम् में व्यासदेव लिखते हैं, वैसे ही कृष्ण दास गोस्वामी, चैतन्य चरितामृत में लिखते हैं- यदद्वैतं ब्रह्मोपनिषदि तदप्यस्य तनु - भा । य आत्मान्तर्यामी पुरुष इति सोऽस्यांश - विभवः ।। षड् - ऐश्वर्यः पूर्णो य इह भगवान्स स्वयमयं न चैतन्याकृष्णाजगति पर - तत्त्वं परमिह ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला १.३) अनुवाद- जिसे उपनिषदों में निर्विशेष ब्रह्म कहा गया है , वह उनके शरीर का तेज मात्र है और जो भगवान अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में जाने जाते हैं, वे उनके अंशमात्र हैं । भगवान चैतन्य छहों ऐश्वर्यों से युक्त स्वयं भगवान् कृष्ण हैं । वे परम सत्य हैं और कोई भी अन्य सत्य न तो उनसे बड़ा है, न उनके तुल्य है । वे कहते हैं कि उपनिषदों में कभी कभी यह संकेत होता है या यह सुनने में आता है कि यदद्वैतं ब्रह्मोपनिषदि अर्थात अद्वैय यह दो नहीं है अर्थात यह भगवान से अलग नहीं है। यहां ब्रह्म की बात हो रही है। ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्दते। ब्रह्म जिसका उल्लेख उपनिषदों में मिलता है। यह क्या है? तदप्यस्य तनु - भा अर्थात इसी को ब्रह्म ज्योति कहा है। इसमें ही मायावादियों की अहं ब्रह्मास्मि वाली बातें आ जाती हैं। यह जो ब्रह्म अथवा ब्रह्म ज्योति है। यह तनु की भा है। तनु मतलब विग्रह या शरीर। भा मतलब प्रकाश। यह ब्रह्मज्योति जो है, यह चैतन्य महाप्रभु के विग्रह का प्रकाश है। भगवान स्वयं प्रकाशित हैं। भगवान प्रकाश के स्तोत्र हैं। जिस प्रकाश को शास्त्रों में ब्रह्मज्योति कहा है।, वह ब्रह्मज्योति, उस विग्रह अथवा इस रूप, मूर्ति से अलग नहीं है और न ही अलग की जा सकती है। जैसे सूर्य और सूर्य का प्रकाश। सूर्य व सूर्य की रश्मि अथवा किरणें। यह नहीं कह सकते कि यह देखो कि यह सूर्य की किरणे हैं और यह सूर्य है। सूर्य और सूर्य की किरणें दो नहीं हैं। सूर्य से ही किरणे आती हैं। किरण को अलग नहीं किया जा सकता। सूर्य प्रकाश का स्तोत्र है। हम प्रायः सुनते रहते हैं कि कृष्ण सूर्य सम अर्थात कृष्ण कैसे हैं। कृष्ण सूर्य के समान है। सूर्य की रश्मि अथवा सूर्य का प्रकाश है। यहां कृष्ण और कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की बात हो रही है। उनके अंग से निकलने वाली जो कांति है या प्रकाश है उसका नाम ब्रह्म ज्योति है। भगवान की ज्योति,भगवान से अलग नहीं है। इसीलिए अद्वय कहा गया है। चैतन्य चरितामृत में ब्रह्मेति की बात हुई। य आत्मान्तर्यामी पुरुष इति सोऽस्यांश - विभवः, जिस को परमात्मा कहते हैं।आत्मान्तर्यामी पुरुष, यह परमात्मा अंश - विभवः है अर्थात अंश है। ब्रह्म ज्योति भी भगवान का ही अंश है। अंशी कौन है? भगवान। कल हम अंश और अंशी के विषय में चर्चा कर रहे थे। श्रीकृष्ण भगवान अंशी हैं। श्री गौर भगवान चैतन्य महाप्रभु अंशी हैं। यह दोनों एक ही हैं। एक अंश ब्रह्म ज्योति है। अंशी के अंश है। भगवान का व्यक्तित्व है, उनका रूप है, उनका विग्रह है। 'श्री विग्रह' जिसकी आराधना भी होती है, उन्ही विग्रह से ज्योति निकलती है। वह भी एक अंश है। ब्रह्म ज्योति भी अंश है और परमात्मा भी भगवान् का अंश है। ब्रह्मज्योति के और परमात्मा दोनों के स्तोत्र भगवान हैं।परमात्मा भी स्वतंत्र नहीं है। परमात्मा का स्वरूप और अस्तित्व स्वतंत्र नहीं है। वह भगवान पर ही निर्भर है व भगवान से ही उत्पन्न होता है ।लेकिन हम ऐसा कोई इतिहास भी नहीं कह सकते कि फलाने दिन अथवा उस कल्प में सृष्टि के प्रारंभ में परमात्मा नहीं थे। हम ऐसी बात नहीं कह सकते। ऐसा कोई समय नहीं था जब भगवान नहीं थे, ऐसा कोई समय नहीं था जब परमात्मा नहीं थे, ऐसा कोई समय नहीं हो सकता कि जब ब्रह्म ज्योति अर्थात भगवान के अंग से निकलने वाली जो कांति है, वह नहीं थी। हम पुनः सूर्य की ओर बढ़ते हैं । श्रील प्रभुपाद सूर्य का उदाहरण दिया करते थे। सूर्य की किरणों की तुलना ब्रह्म ज्योति से की गई है। जब हम दूर अर्थात पृथ्वी से ही सूर्य की ओर देखते हैं तब हमें एक गोलाकार दिखाई देता है , उस गोलाकार की तुलना परमात्मा के साथ की गई है। जब सूर्य ग्रहण लगता है। तब वह हमें दिखाई नहीं देता है। सूर्य छिप जाता है। वह परमात्मा हुआ। इससे सूर्य का ज्ञान पूरा नहीं हुआ, हमनें केवल सूर्य की किरणें देखी अथवा सूर्य को देखा लेकिन इससे सूर्य का ज्ञान पूरा नहीं होता। अगर हम सूर्य पर पहुंच जाए जो कि कठिन है, हम भस्म हो जाएंगे। यदि पहुंचना सम्भव हो जाए। वह सूर्य देवता हैं “श्री भगवानुवाच इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् |विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् || ( श्रीमद् भगवतगीता 4.1) अनुवाद: भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – मैंने इस अमर योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया। भगवान् ने बहुत लाखों वर्ष पूर्व भगवत गीता का ज्ञान सूर्यदेव को दिया था। हम नहीं लेकिन कोई ना कोई तो वहां जा सकता है। वहां सूर्य देवता है जोकि एक रथ में विराजमान है। इस रथ के सात घोड़े हैं रवि, सोम, मंगल, बुध आदि सात घोड़े हैं। वहां सारी व्यवस्था है। पूरा लोक है। कई सारे जन है। जब हम यह विशेषकर सूर्य का दर्शन करते हैं और यहां दूर से नमस्कार करते हैं और हम समझते हैं कि सूर्य गोलाकार है। समाप्त। इतना ही हमारा ज्ञान होता है। लेकिन हम वहां पहुंचकर सेल्फी वगैरह खींच सकते हैं। सूर्य देवता के पास खड़े होकर सेल्फी खींचकर दिल्ली या फिर जहां के भी हम हैं, वहां लौट कर दिखाएंगे कि हम सूर्य से लौटे हैं। देखो यह सेल्फी है। वैसे सूर्य देवता का दर्शन या उनसे हाथ मिला कर आना, यह भगवान की तुलना जैसे ही है। भगवान का व्यक्तित्व है, नाम है, रूप है, गुण है, भगवान् लीला खेलते हैं। ब्रह्म ज्योति का अपना कोई अलग से नाम, धाम, काम नहीं होता। वह तो भगवान् की ज्योति है। सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् || ( श्रीमद् भगवतगीता 15.15) अनुवाद : मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ। परमात्मा, सभी के हृदय प्रांगण में विराजमान हैं। ब्रह्मज्योति सर्वत्र है, प्रकाश सर्वत्र होता है। परमात्मा हमारे हृदय में है। हम उनको ही भगवान् कह देते हैं। भगवान् लेकिन तकनीकी रूप से भगवान नहीं हैं।वह परमात्मा है। सुनने में आता है और ब्रह्म संहिता में भी कहा है एकोऽप्यसो रचयितुं जगदण्डकोटिं यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्तः । अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं गोविन्दमादिपुरुष तमहं भजामि ॥ ( ब्रह्म संहिता 5.35) अनुवाद - शक्ति और शक्तिमान दोनों अभिन्न ( भेदरहित ) एक ही तत्त्व हैं । करोड़ों - करोड़ों ब्रह्माण्डकी रचना जिस शक्तिसे होती है , वह शक्ति भगवान्में अपृथकरूपसे अवस्थित है सारे ब्रह्माण्ड भगवान्में अवस्थित हैं तथा भगवान् भी अचिन्त्य - शक्तिके प्रभावसे एक ही साथ समस्त ब्रह्माण्डगत सारे परमाणुओंमें पूर्णरूपसे अवस्थित हैं , ऐसे आदिपुरुष गोविन्दका मैं भजन करता हूँ ॥ भगवान् कहाँ कहाँ हैं? अण्डान्तरस्थ अर्थात ब्रह्मांड में भगवान हैं। यहां विष्णु का उल्लेख होता है। क्षीरोदकशायी विष्णु परमात्मा है। ब्रह्मांड के गर्भोदकशायी विष्णु हैं विष्णु के तीन प्रकार है इनको भी अवतार कहा जाता है। पुरुष अवतार। पूरे ब्रह्मांड का एक परमात्मा है। यदि ब्रह्मांड को एक रूप, एक शरीर, एक विग्रह हम मान लेते हैं जैसे कि हमारा शरीर है। हमारे शरीर में परमात्मा है। यह हमारा पिंड हुआ। यह जो ब्रह्मांड रूपी शरीर है उसके परमात्मा गर्भोदकशायी विष्णु हैं। हमारे शरीर, हृदय में जो परमात्मा है, वह क्षीरोदकशायी विष्णु हैं। क्षीरोदकशायी विष्णु हमारे ह्र्दय में ही नहीं हैं अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं अपितु भगवान् कण कण में हैं। आपने सुना है? आप सुनते रहते हो।कण कण में जो भगवान् है, वह परमात्मा है। ब्रह्मज्योति और परमात्मा के स्त्रोत भगवान् हैं। जो अपने धाम में निवास करते हैं इस धरातल पर भी प्रकट होते हैं। कृष्ण जिनका नाम है, गोकुल जिनका धाम है। ऐसे श्रीभगवान को बारम्बार प्रणाम है। ज्योति को प्रणाम करना कठिन है। ज्योति आपके साथ बात इत्यादि नहीं करेगी। जो मायावती अद्वैतवादी या निराकार, निर्गुण वाले होते हैं, वह ब्रह्म की उपासना करते हैं। प्रकाश की उपासना करते हैं और प्रकाश बनना चाहते हैं। ज्योत में ज्योत मिलाना चाहते हैं। जिनको आप योगी कहते हैं। वैसे योगियों के भी कई प्रकार हैं। लेकिन उसमें से जो ध्यान लगाने वाले योगी हैं। दैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैगायन्ति यं सामगाः । ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥ (श्रीमद भागवतम 12.13.1) सूत गोस्वामी ने कहा : ब्रह्मा , वरुण , इन्द्र , रुद्र तथा मरुत्गण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों , पद - क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं , सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं , सिद्ध योगी अपने को समाधि प्र में स्थिर करके और अपने को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता - ऐसे भगवान को मैं सादर नमस्कार करता हूँ । श्रीमद्भागवत के द्वादश स्कंध में यह वचन है कि ध्यान अवस्था में योगी देखते अथवा, दर्शन करते हैं अर्थात वे अपने हृदय प्रांगण में जो विराजमान परमात्मा है उनका दर्शन करते हैं। निराकार निर्गुण मायावादी इत्यादि ब्रह्म ज्योति की उपासना करते हैं। प्रकाश और ब्रह्म ज्योति बनना चाहते हैं। ज्योत में ज्योत मिलाने की बात करते हैं। यह योगी पार्टी परमात्मा की खोज में है। परमात्मा का दर्शन चाहती है। जो भक्ति योगी होते हैं, (आप जैसे भक्ति योगी) वे केवल ब्रह्म ज्योति का साक्षात्कार या दर्शन या केवल परमात्मा का ही ध्यान ( समाधि में रत जो अष्टांग योगी होते हैं, वे भी ध्यान करते हैं) से प्रसन्न नहीं होते। भक्ति योगी भगवान तक पहुंच जाते हैं। कृष्णस्तु भगवान स्वयं कृष्ण, भगवत गीता में कहते हैं। अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः || ( श्रीमद् भगवतगीता 10.8) अनुवाद:-मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत हैं | जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं। भगवान् से सब कुछ निकलता है व प्रभावित होता है। वे कृष्ण हैं, राम व कई उनके अवतार हैं। संभवामि युगे युगे भी चलता रहता है। ऐश्र्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्र्चैव षण्णां भग इतींगना। ( विष्णु पुराण 6.5.47) अनुवाद:- ' पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् उन्हें कहा जाता है जो छह ऐश्वर्यों से परिपूर्ण हैं- जिनके पास पूर्ण बल, यश, धन, ज्ञान, सौंदर्य और वैराग्य है। चैतन्य चरितामृत में पहले अध्याय के तीसरे श्लोक की तीसरे पंक्ति में कहा है ,जहां ब्रह्म और परमात्मा का उल्लेख हुआ था। जो भगवान् है वह तो यही है। चैतन्य चरितामृत में कहा जा रहा है- यही है अर्थात चैतन्य महाप्रभु हैं। वे ब्रह्म, परमात्मा और स्वयं षड् ऐश्वर्य पूर्ण हैं। ऐसे ऐश्वर्य आपको ब्रह्म या परमात्मा में नहीं मिलेंगे। यह भगवान् का विशिष्ट है, भगवान की पहचान है। यह षड् ऐश्वर्य पूर्ण हैं। ऐश्र्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्र्चैव अर्थात वे षड् ऐश्वर्य पूर्ण भगवान् होते हैं। यह ब्रह्म, परमात्मा में ऐश्वर्य नहीं होता। यह षड ऐश्वर्य केवल पूर्ण भगवान में ही होते हैं। भगवान् स्वरूप में सब प्रकट होता है। यदद्वैतं ब्रह्मोपनिषदि तदप्यस्य तनु - भा । य आत्मान्तर्यामी पुरुष इति सोऽस्यांश - विभवः ।। षड् - ऐश्वर्यः पूर्णो य इह भगवान्स स्वयमयं न चैतन्याकृष्णाजगति पर - तत्त्वं परमिह ॥ अनुवाद- जिसे उपनिषदों में निर्विशेष ब्रह्म कहा गया है , वह उनके शरीर का तेजमात्र है और जो भगवान अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में जाने जाते हैं , वे उनके अंशमात्र हैं । भगवान चैतन्य छहों ऐश्वर्यों से युक्त स्वयं भगवान् कृष्ण हैं । वे परम सत्य हैं और कोई भी अन्य सत्य न तो उनसे बड़ा है , न उनके तुल्य है। न चैतन्याकृष्णाजगति पर - तत्त्वं परमिह (इस पर हमारा ध्यान जाना चाहिए, कि क्या कहा है) दोनों का नाम लिया है। चैतन्याकृष्णा। कृष्ण से या कृष्ण चैतन्य से ऊंचा तत्व इस संसार में नहीं है। पर - तत्त्वं परमिह अर्थात ब्रह्मांड में या संसार में श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु एक ही है।इनसे और कोई और ऊंचा तत्व नहीं है। भगवान् गीता में कहते हैं। मेरे से कोई ऊंचा नही हैं। यहां पर भी कहै जा रहा है हरि! हरि! मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय | मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव || ( श्रीमद् भगवतगीता 7.7) अनुवाद: हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है | जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है। कृष्ण भगवत गीता में कहते हैं कि उनसे कोई और ऊंचा तत्व या व्यक्तित्व नहीं हैं। श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ऐसे व्यक्तित्व हैं। एक ही बात दोनों ग्रंथों में अर्थात श्रीमद् भागवतम् और चैतन्य चरितामृत में हैं। दो लेखक हैं, दो भाषाएं हैं एक में संस्कृत है, एक में बंगाली है। एक के रचयिता श्रील व्यासदेव है और दूसरे के कृष्णदास कविराज गोस्वामी है । दोनों ने एक ही सिद्धांत कहा है। इसे भली भांति ही समझियेगा व और अधिक अध्ययन करके आप अपना समाधान करो। आपस में चर्चा करो। मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ( श्रीमद् भगवतगीता 10.9) अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं। ऐसा करने के उपरांत भी कोई प्रश्न बचता है तब आप कल चैट बॉक्स में टाइप कीजिएगा उस पर विचार करेंगे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। कल मिलेंगे।

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