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जप चर्चा दिनांक ०९.०१.२०२१ हरे कृष्ण! गौरांगा! एकादशी महोत्सव की जय! लगभग मैं कहने ही जा रहा था कि भगवतगीता महोत्सव की जय! और मैंने कह भी दिया।भगवतगीता महोत्सव की जय! वास्तव में मैं गीता के संबंध में कुछ सोच रहा था। हरि! हरि! यह गीता का समय और सीजन भी है। गीता का ध्यान और गीता का श्रवण कीर्तन अथवा कहा जाए कि गीता का वितरण करने का समय भी है। आज ८७५-८७७ स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। अप-डाउन(वृद्धि- कमी) हो रहा है। एकादशी होने के कारण कुछ अतिरिक्त स्थानों से जप हो रहा है। हरि! हरि! आप में से कुछ भक्त इस कॉन्फ्रेंस में सीजनली या कभी कभार सम्मलित होते हैं जैसे कि आज एकादशी का दिन अथवा प्रसंग है। अच्छा होता, यदि आप प्रतिदिन हमारा साथ देते। हमारा क्या, आप भगवान का साथ देते। जो प्रतिदिन हमारे साथ नहीं होते, अच्छा होता यदि आप प्रतिदिन साथ होते। वह दिन कब आएगा। कबे हबै सेइ दिन हमार। कि आप सभी साथ में रहोगे। क्योंकि हम अभी अभी कल या परसों में पढ़ ही चुके हैं। तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥ ( श्रीमद् भगवतगीता १०.१०) अनुवाद:- जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि सतत्ं। सातत्य शब्द भी कितना अच्छा है। विशेष शब्द है आप 'सतत्' कहो।( प्रतिभागियों से कहते हुए) 'सतत्।' कह रहे हो? कहो सतत्! नहीं कह रहे हो। पुण्डरीक विधानिधि, तुम नहीं कह रहे हो।सतत्। मैंने यह नोट किया है कि जब हम सतत् शब्द कहते हैं तब इसका अर्थ सतत् मतलब सातत्य है । इस शब्द में भी इतना सातत्य है कि इसके एक अक्षर से दूसरे अक्षर से तीसरे अक्षर पर जाते समय कोई खंड नही होता है। सतत् शब्द में हम इतने फटाफट पहुंचते हैं, उसमें कोई खण्ड नहीं है। सतत् बहुत ही विशेष शब्द है। राघव चैतन्य!अमेरिका में बैठे हो। सतत्! इस शब्द को याद रखो तथा इस शब्द को भी समझो। यह सतत्, सातत्य का भी एक प्रतीक है। एक् के बाद एक अक्षर आते हैं और सातत्य बनाए रखते हैं जिसमें कोई खंड नहीं है। सतत् एक अखंड शब्द है जो कि सतत् बनाए रखते हैं। तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । यह सतत् अखंड शब्द है। बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता ७.१९) अर्थ:-अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है। मैं सोचता हूँ कि भगवान ने कुछ सोच कर यह विशेष शब्द बनाया है और उसी शब्द का यहां प्रयोग कर रहे हैं तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् अर्थात जो मेरी सतत् भक्ति करते हैं.... सतत् शब्द का उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूँ कि आप में से कुछ लोग हर एकादशी को ही जॉइन करते हो। वो भी सातत्य हुआ। जैसे मैं कहता रहता हूं कि आप मंदिर आते हो ? तब कुछ कहते हैं कि हां हां, प्रत्येक जन्माष्टमी या मैं हर जन्माष्टमी को आता हूँ। उसमें में सातत्य हुआ ना । सातत्य तो है लेकिन एक जन्माष्टमी से दूसरी जन्माष्टमी तक नहीं आता हूँ, जन्माष्टमी को आता हूँ। जो हर एकादशी को यह ज़ूम सेशन जॉइन करते हैं। कहते हैं कि मैं रेगुलर हूँ, मैं हर एकादशी को आता हूँ। हरि हरि! किन्तु श्रीकृष्ण सतत् की बात करते हैं - तेषां सततयुक्तानां अर्थात युक्त अथवा लगे हैं अथवा व्यस्त हैं, भजतां प्रीतिपूर्वकम् अर्थात जो निरंतर भजन में व्यस्त हैं। अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता १०.८) अनुवाद:- मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है। जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं। भजन्ते मां अर्थात मेरा भजन करते हैं। कैसा भजन? तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् यहाँ जीवन में एक बार या हर एकादशी या हर जन्माष्टमी जैसे सातत्य की बात या अपेक्षा भगवान नहीं कर रहे हैं। भगवान क्षण-अक्षुण्ण अर्थात हर क्षण अर्थात उसके बाद वाला क्षण और उसके बाद वाला क्षण भी चाहते हैं कि हम निरंतर उनका स्मरण करें। अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् । कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥ ( गोपी गीत १५) अर्थ:- (हे प्यारे ! दिन के समय जब तुम वन में विहार करने के लिए चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिए एक एक क्षण युग के समान हो जाता है और जब तुम संध्या के समय लौटते हो तथा घुंघराली अलकों से युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविंद हम देखती हैं, उस समय पलकों का गिरना भी हमारे लिए अत्यंत कष्टकारी हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है की इन पलकों को बनाने वाला विधाता मूर्ख है।। हम आपको याद कर रही हैं। त्रुटिर्युगायते- यह गोपियों का भाव है। त्रुटिर्युगायते। त्रुटि अर्थात क्षण का भी छोटा सा अंश। एक क्षण भी नही, एक सैकंड भी नहीं। उसका भी एक छोटा सा अंश। युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत्‌ सर्व गोविन्द-विरहेण मे।। ( श्री शिक्षाष्टकम श्लोक 7) अनुवाद:-हे गोविन्द! आपके विरह में मुझे एक निमेष काल (पलक झपकने तक का समय) एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है। नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरन्तर अश्रु प्रवाह हो रहा है तथा आपके विरह में मुझे समस्त जगत शून्य ही दिख पड़ता है। आपके बिना, आपके स्मरण के बिना, आपके सानिध्य के बिना अर्थात आपका सङ्ग प्राप्त न होने से , हम जो त्रुटिकाल (त्रुटि जो कि काल का अंश है) के लिए आपसे बिछुड़ गयी हैं और हम आपसे दूर हैं अथवा हमें आपका सानिध्य प्राप्त नही हो रहा है तो हमें लगता है कि कितने युग बीत गए हैं और हम कब से कृष्ण से नहीं मिली हैं। यह सातत्य है, हर क्षण और यहीं लक्ष्य है। यह गोपियों का भाव अथवा विचार है। वह सतत् भगवान का स्मरण करना चाहती हैं। हरि! हरि! तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । यहाँ चार विशेष श्लोकों पर चर्चा हो रही है। उसी के अंतर्गत भगवान ने यह सतत् उल्लेख किया है। ये चार श्लोक (१०.८ से १०.११ तक) आप याद रख सकते हो। रामनाम याद रहेंगे? यह चार विशेष श्लोक अथवा परिभाषित वचन/ वाक्य हैं या चर्तुश्लोकी भगवतगीता है। तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥ ( श्रीमद् भगवतगीता १०.११) अनुवाद:- मैं उन पर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ। श्लोक को कंठस्थ करो। तत्पश्चात हम कहेंगे कि केवल कंठस्थ ही नहीं करना है उसे ह्रदयंगम भी करना है। केवल कंठस्थ का लाभ नहीं लेकिन प्रारंभ तो कर सकते हैं। पहले कंठस्थ करो, फिर ह्रदयंगम करो। हमें श्लोकों को केवल कंठ में नही बिठाना है जैसे तोता कंठ से बोलता है अपितु हमें इन श्लोकों को ह्रदय में बैठाना है। ह्रदयंगम अर्थात ह्रदय में बैठाना अर्थात आत्म भावस्थो अर्थात आत्मा में बिठाना है। आत्मा ह्रदय में स्थित है। इसलिए ह्रदयंगम या ह्रदयास्थ अर्थात आत्मा में बैठाना है अथवा आत्मा की चेतना में अथवा अंतःकरण में इन श्लोकों/ वचनों और गीता को स्थापित करना है। कृष्ण यहाँ कह रहे हैं कि 'तेषाम' अर्थात उन पर अर्थात जिनका पूर्व में उल्लेख किया है। तेषामेवानुकम्पार्थम अर्थात उन पर या उन पर ही( अभी इतना विस्तार से नहीं समझा सकते, आप कल्पना भी कर सकते हो) तेषाम अर्थात उन पर, जो तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् अर्थात जो सतत् मेरा कीर्तन प्रेमपूर्वक करते हैं, मेरी भक्ति सतत् करते हैं, वह भी प्रीतिपूर्वक भक्ति करते हैं) मैं उन पर ही, उन पर निश्चित ही, दोनों ही अर्थ 'ही' के हो सकते हैं। ही को संस्कृत में अव्यय कहते हैं।'ही' अर्थात निश्चित ही या वहीं। मैं उन पर विशेष अनुकंपा करता हूं। यह अनुग्रह करता हूँ। मैं अनुग्रह के लिए क्या करता हूँ। भगवान आगे कहते हैं कि अज्ञानतम तम् नाशयामिः (यहाँ अहम का अर्थ भगवान् हैं, आप नहीं हो। कृष्ण 'अहम' हैं) अर्थात भगवान कह रहे हैं- अज्ञानतम तम्: नाशयामिः अर्थात मैं अज्ञान के कारण उत्पन्न तम्: अर्थात अंधकार का नाश करता हूँ। ऐसा कुछ भाषान्तर है। (अभी यहाँ भावार्थ नही है। वैसे भावार्थ भी है, लेकिन कह नही रहे हैं) नाशयाम्यात्मभावस्थो अर्थात उनके ह्रदय में स्थित ज्ञान के दीपक द्वारा प्रकाशमान हुए..। श्रील प्रभुपाद ने ऐसा शब्दार्थ दिया है। मैं( भगवान्) उन पर विशेष कृपा करने हेतु उनके ह्रदयों में वास करते हुए (भगवान् हमारे ह्रदय में वास करते हैं तथा वास करते हुए कुछ करने में व्यस्त रहते हैं।) ज्ञानदीपेन भास्वता अर्थात ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा ज्ञान का दीपक जलाता हूं। मैं ह्रदय में वास करता हूँ और उस व्यक्ति के ह्रदय में ज्ञान का दीपक जलाता हूं। ज्ञान के प्रकाश मान दीपक के द्वारा अज्ञान जन्य अर्थात अज्ञान से उत्पन्न अंधकार को दूर करता हूँ। अंधकार दूर हुआ तो प्रकाश होगा। भगवान, गीता का उपदेश सुना कर यही कर रहे हैं। हमारे पूर्व आचार्य श्रीधर स्वामी टीका में लिखते हैं कि यह संसार अंधेर नगरी है। हम इस से मुक्त होंगे, हम इस संसार के अंधेरे में हैं। कहाँ आ रहे हैं, जा रहे हैं, कुछ पता ही नहीं है। हरि! हरि! अंग्रेजी में कहते हैं कि शूटिंग इन द् डार्क अर्थात आपके पास बंदूक है अर्थात अंधेरा है, आप अंधेरे में बंदूक चला रहे हो। बंदूक तो चलेगी परंतु गोली कहाँ पहुंचेगी। कौन जानता है। नो आईडिया। इसलिए कहावत ही है। यह संसार अंधेरा है, अंधेर नगरी है। तमोगुण से उत्पन्न अंधेरे में हम शूटिंग अर्थात लक्ष्यहीन होकर कार्य कर रहे हैं। भगवान विशेष गीता ज्ञान देकर अनुग्रह करते हैं। यह भगवत गीता का महात्म्य हुआ। इस भगवतगीता के ज्ञान प्राप्ति की कितनी उपयोगिता है। यह अंधेरे से बाहर निकालता है और कहा भी है - कृष्ण सूर्य सम; माया हय अंधकार।य़ाहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार।। ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.३१) अनुवाद:- कृष्ण की तुलना धूप से की जाती है, और माया की तुलना अंधेरे से की जाती है। जहां भी धूप है, वहां अंधेरा नहीं हो सकता। जैसे ही कोई कृष्ण चेतना में जाता है, भ्रम का अंधेरा (बाहरी ऊर्जा का प्रभाव) तुरंत गायब हो जाएगा। माया अंधकार है और कृष्ण सूर्य सम हैं या कृष्ण सूर्य भी हैं। रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः । प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥ ( श्री मद् भगवतगीता ७.८) अनुवाद:-हे कुन्तीपुत्र! मैं जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, वैदिक मन्त्रों में ओंकार हूँ, आकाश में ध्वनि हूँ तथा मनुष्य में सामर्थ्य हूँ। भगवान कहते हैं कि सूर्य तथा चंद्रमा में जो प्रकाश है, प्रभास्मि अर्थात मैं प्रकाश हूँ। सूर्य, चंद्रमा को भगवान की आंखें कहा गया है। भगवान के वैभवों में इनका समावेश है। सूर्य का प्रकाश कृष्ण का प्रकाश है। सूर्य का प्रकाश अपना खुद( स्वयं) का प्रकाश नहीं है। सूर्य का प्रकाश भी भगवान का ही प्रकाश है। कृष्ण का प्रकाश है अथवा ब्रह्म ज्योति है। शास्त्रों में भी कहा है कि कोटि- सूर्य-सम सब- उज्ज्वल- वरण। कभु नाहि शुनि एइ मधुर कीर्तन।। ( श्री चैतन्य चरितामृत ११.९५) अनुवाद:- सचमुच, उनका तेज करोड़ सूर्यों के तेज के समान है। न ही मैंने इसके पूर्व कभी भगवन्नाम का इतना मधुर कीर्तन होते सुना है। कृष्ण के अंग विग्रह से जो कांति प्रकाश निस्तरित होता है, वह कोटि- सूर्य-सम प्रभा के समान होता है। वह प्रभा जो उत्पन्न होती है, वह प्रभा भगवान् से भिन्न नहीं है। वदन्ति तत्तत्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्। ब्रह्मेति परमात्मेती भगवानिति शब्द्यते।। ( श्रीमद् भागवतम १.२.११) अनुवाद:- परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवादी ( तत्त्वविद) इस अद्वय तत्व को ब्रह्म, परमात्मा या भगवान् के नाम से पुकारते हैं। वह ब्रह्म ज्योति अथवा वह प्रकाश भगवान से अभिन्न है। प्रभास्मि शशिसूर्ययोः भगवान कहते हैं कि चंद्रमा और सूर्य में जो प्रकाश है, वह भी मैं ही हूँ। हरि! हरि! भगवान् कृष्ण इस गीता ज्ञान को देते हुए, भगवतगीता के मध्य में पहुंचे हैं अर्थात १८ अध्यायों में से10 अध्याय तक पहुंचे हैं। वे इन गीता के वचनों को कहते हुए कह रहे हैं कि यह अनुग्रह है। तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।। ( श्री मद् भगवतगीता १०.११) अनुवाद:- मैं उन पर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ। मैं जो ज्ञान दे रहा हूँ, यह मैं अनुग्रह कर् रहा हूँ। यह मेरा तुम पर अनुग्रह है। केवल तुम पर ही नहीं अथवा मेरा लक्ष्य केवल तुम ही नहीं हो। तुम्हें तो मैंने निमित बनाया है। (आप में से कोई मेरा लक्ष्य है - सुंदरलाल! मॉरीशस में भगवान् ने आपको टारगेट बनाया है या मुकन्द माधव आपको लक्ष्य बनाया है) भगवान जब अर्जुन को गीता का उपदेश सुना रहे थे तब जो भी इस संसार के अंधेरे में फंसे है, बद्ध है अथवा बद्धता के कारण त्रसित एवं ग्रसित हैं। सम्भवतः भगवान ने उन सब को लक्ष्य बना कर अथवा स्मरण करते हुए गीता का उपदेश दिया है। भगवान् ऐसा कर सकते हैं। भगवान् एक ही साथ हम सभी का स्मरण कर सकते हैं। कर सकते है या नहीं? कृष्ण के लिए यह सम्भव है। कृष्ण ऐसे ही अद्भुत हैं जिन्होंने कहा भी हैं- वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥ ( श्री मद् भगवतगीता ७.२६) अनुवाद:- हे अर्जुन! श्रीभगवान् होने के नाते मैं जो कुछ भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है, वह सब कुछ जानता हूँ | मैं समस्त जीवों को भी जानता हूँ, किन्तु मुझे कोई नहीं जानता। भगवान कहते हैं कि मैं सब जीवों को जानता हूँ। मैं सभी जीवों के वर्तमान, भूतकाल, भविष्य काल को जानता हूँ। जैसे भगवान इस श्लोक में भी कह रहे हैं अहमज्ञानजं तमः नाशयाम्यि - यह गीता का उपदेश सुनाकर मैं अज्ञान से उत्पन्न अंधकार का नाश करता हूँ। वैसे भागवतम भी है। यदि एक शब्द में कहना है तो वेद कह सकते हैं। सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता १५.१५) अनुवाद:- मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है। मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ। निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ। वेद के अंतर्गत उपनिषद भी आते हैं। इसलिए गीता को भी गीतोपनिषद कहा गया है। इसलिए यह भी वेद हुआ। महाभारत पंचम वेद है। उसके अंतर्गत भगवतगीता आती है। वेद किसलिए हैं- वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो- अर्थात वेद भगवान को जानने के लिए हैं। भगवान का अनुग्रह हम सभी पर है। गीता सुनाते समय भगवान हमारा अर्थात हर एक एक जीव का स्मरण कर रहे थे। यदि भगवान् हमें भूल जाएंगे तो सब समाप्त (फिनिश्ड)। क्या हाल होता हमारा, यदि भगवान् हमें याद नहीं रखते तो, कौन याद करता और कौन हमें बचाता। भगवान ने हमें याद रखते हुए गीता का उपदेश सुनाया है। उनका गीता कहने का उद्देश्य अब सफल हो गया। कब सफल हुआ? जब आज के दिन या फिर कुछ दिनों से स्वरूपानंद भगवतगीता को सुन रहे हैं या जब से हमनें इस गीता का श्रवण अध्ययन करना प्रारंभ किया और अब भी कर रहे हैं, तब भगवान् का जो यह गीता सुनाने का उद्देश्य था , वह उद्देश्य अधिक सफल हुआ। नहीं तो बेकार था। भगवान् ने गीता सुना दी, लेकिन यदि हमनें फायदा नहीं उठाया या हमनें नहीं सुनी और ना ही गीता को समझा तो क्या लाभ परंतु यदि अब हम सुन रहे हैं , पढ़ रहे हैं और फिर पढ़ा भी रहे हैं। अध्ययन और अध्यापन भी हो रहा है तो भगवान् का गीता का उपदेश सुनाते समय जो उद्देश्य था अर्थात गीता के वक्ता का जो उद्देश्य था कि संसार के सभी बद्ध जीव कभी मेरे वचनों को सुने, ऐसा सोचकर भगवान ने बोला था। वह उद्देश्य सफल हुआ। यह अनुग्रह की बात है। अनुग्रहितोअस्मि भगवान् ने हम पर अनुग्रह किया है । जब हमें गीता प्राप्त हुई और अब हम सुन रहे हैं। हमें प्राप्त हुई गीता के लिए अनुग्रहितोअस्मि कहना चाहिए। अनुग्रहितोअस्मि अर्थात मैं आप का आभारी हूँ। धन्यवाद कृष्ण! धन्यवाद कृष्ण! धन्यवाद् कृष्ण! क्या आप अनुग्रहितोअस्मि कह सकते हो? कहो। धन्यवाद तो कहते रहते हो लेकिन अनुग्रहितोअस्मि नहीं कहते हो आप। बजरंगी कहो। हे कृष्ण! मैं आपका आभारी हूँ। आपने जो कृपा प्रसाद अनुग्रह किया है। अर्जुन ने भगवान के अनुग्रह को प्रसाद के रूप में स्वीकार किया है। अर्जुन उवाच नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता१८.७३) अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई । अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ । आपका प्रसाद मिला, आपका अनुग्रह हुआ। त्वत्प्रसादान्मयाच्युत इस भगवतगीता को अर्जुन ने भगवान् के अनुग्रह के रूप में स्वीकार किया है अथवा अर्जुन कहते हैं कि भगवान् ने इस गीतामृत के रूप में मुझे प्रसाद खिलाया अथवा पिलाया है। हरि! हरि! यह चार श्लोक, वैसे अर्जुन पिछले नौ अध्याय से सुन चुके हैं और उन्होंने अब यह चार विशेष श्लोक सुने हैं। अब अर्जुन का साक्षात्कार सुनो लेकिन अभी नहीं सुना पाएंगे। समय पूरा हो चुका है। अर्जुन का साक्षात्कार विशेष साक्षात्कार है। आप सुनोगे तो आप सुन कर आप भी सोच सकते हो कि हमें ऐसा साक्षात्कार कब होगा। देखो! अर्जुन को क्या साक्षात्कार हुआ। अर्जुन ने अभी पूरी भगवतगीता नहीं सुनी है, लेकिन जितनी सुनी है अधिकतर सुन चुके ही हैं। जो सारगर्भित बात है, वह भक्तियोग की बात है या भगवान कौन हैं। भगवान ने कहा ही है और अब अर्जुन कहने वाले हैं। अर्जुन उवाच परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।। आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥ (श्री मद् भगवतगीता १०-१२.१३) अनुवाद:-अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं। यह कृष्ण ने कहा है। वैसे कृष्ण ने बहुत कुछ कहा है लेकिन कहा है कि हे अर्जुन तुम आत्मा हो। ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।। ( श्रीमद् भगवतगीता १५.७) अनुवाद:- इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है, तुम मेरे अंश हो इत्यादि इत्यादि बहुत कुछ कहा है। भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन । ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ॥ (श्री मद् भगवतगीता ११.५४) अनुवाद:- हे अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिसरूप में मैं तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ और इसी प्रकार मेरा साक्षात् दर्शन भी किया जा सकता है | केवल इसी विधि से तुम मेरे ज्ञान के रहस्य को पा सकते हो। भगवान् कहते हैं कि मैं बस भक्ति से केवल प्राप्त होता हूँ। यह सारी बातें कृष्ण ने कही हैं। यह सुनकर अब अर्जुन ने अपने साक्षात्कार को कहा है। भगवान् ने अर्जुन को कहा है कि तुम कौन हो? अब अर्जुन पूरे साक्षात्कार के साथ कहने वाले हैं कि भगवान्, आप कौन हैं? आपने मुझे बताया कि मैं कौन हूँ वैसे आप कौन हो, यह बातें भी मुझे आपने सुनाई है। अब मैं मेरा साक्षात्कार सुनाता हूँ कि आप कौन हो? इस प्रकार हम अर्जुन का आत्म साक्षात्कार और भगवत्( कृष्ण) साक्षात्कार को कल सुनेंगे। कल आगे जारी रखेंगे। हरे कृष्ण!

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