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जपा टॉक 06. 05. 2019 हरे कृष्ण! आप सभी का स्वागत है। मैं आस्ट्रेलिया, यूक्रेन, साऊथ अफ्रीका, मॉरीशस, रशिया और पूरे भारत वर्ष से जो भी भक्त जप कर रहे हैं ,उन सभी का स्वागत करता हूँ। आज का स्कोर 332 है।मेरे मोबाइल चार्जिंग की वजह से आज कॉन्फ्रेंस थोड़ी देर से शुरू हुई है। मैं आशा करता हूँ कि आप सभी के जप में निरन्तर सुधार हो रहा होगा।उसके लिए प्रतिदिन जप करना आवश्यक है। आप में से अधिकांश भक्त निरन्तर प्रत्येक दिन मेरे साथ जप कर रहे हैं परंतु वास्तव में सबसे मुख्य बात यह है कि किस प्रकार का जप कर रहे हैं। आज मैं अपने कुछ विचार आप सबसे बाँटना चाहता हूँ। आज के मेरे विचार मुख्यतः नवयोगेन्द्र ने निमी महाराज से जो कहा उस पर आधारित है। वे मुख्यतः इस बात पर जोर डालते हैं कि किस प्रकार भगवान की पूजा की जानी चाहिए। "करोमि यद्यत्त सकलं परस्मै नारायणा येति समर्पयामि" इस श्लोक में मुख्यतः नवयोगेन्द्र महाराज यह बता रहे हैं कि हम जो कुछ भी करते हैं वह हमें भगवान नारायण को समर्पित करना चाहिए। उनके कथन का यह एक भाग है। नवयोगेन्द्र जी, इसके अतिरिक्त कई अन्य विधियां व उपकरण बताते हैं कि क्या-क्या हम भगवान की सेवा में उपयोग कर सकते हैं। "कायेन वाचा मनसे दियैर्वा बुद्धात्मना वा प्रकृति स्वभावात" नवयोगेन्द्र जी बताते हैं कि ये सब साधन भगवान की सेवा में प्रयोग करने चाहिए। वह यहाँ एक सूची बता रहे हैं जिसे आप या तो लिख सकते हैं या मन में धारण कर सकते हैं या फिर सुन सकते हैं। जितने भी उपकरणों या साधनों का वर्णन यहाँ किया गया है, वे सब हम अपने जप में भी प्रयोग कर सकते हैं। हम अपने शरीर का उपयोग करते हैं। हम अपनी वाणी का उपयोग करते हैं। हम अपने मन का उपयोग करते हैं। हम अपनी इन्द्रियों का उपयोग करते हैं। हम अपनी बुद्धि का उपयोग करते हैं। और जो मुख्य रूप से हम अपनी आत्मा का प्रयोग करते हैं जो कि हम स्वयं है। तृतीया विभक्ति में इनका सारा वर्णन किया जा रहा है। संस्कृत वाङ्गमय के अनुसार जप करते समय हमें इन सभी का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि जप करते समय इन सभी उपकरणों का उपयोग करते हैं। वास्तव में इनका उपयोग ही नहीं करना है, बल्कि इन का सेवा में प्रयोग करना है।हरे कृष्ण मन्त्र का जप करते समय इन सभी उपकरणों का समन्वय स्थापित करना है ताकि पूर्ण रूप से इनका उपयोग कर सकें। कायेन मतलब शरीर का उपयोग अर्थात जप करते समय ठीक से बैठना। हम जप-योगी हैं। प्रभुपाद सदैव कहा करते थे, ’ठीक से बैठो।’ इसका मतलब है कि रीढ़ की हड्डी, हमारी गर्दन, हमारा सिर एकदम सीधा होना चाहिए। सीधा बैठना , यह आसन जप के लिए अनुकूल है। यह आसन ध्यान या 'ध्यान-मुद्रा' के लिए अनुकूल है। इनमें से प्रत्येक के लिए बहुत कुछ कहा जा सकता है। वाचा - वाणी, होंठ और मुख का उपयोग जप के लिए किया जाता है। हमे केवल मानसिक जप नहीं करना हैं। हमें जप करते हुए अपने होंठों का प्रयोग करना है। प्रभुपाद जी कहा करते थे कि हमें प्रभु के पवित्र नाम का उच्चारण करने के लिए दोनों होठों का उपयोग करना होगा। बालेन बोलो रे वदन भरी हमारे वैष्णव गीत कहते हैं, बालन तुम अपनी सारी शक्ति, वदन-भूरी का उपयोग करते हो – हमारा जप जो है, वह बहुत ही वदन से भरा होना चाहिए, जैसा कि कहा जाता है कि हमें सिर्फ चिड़िया की तरह से हल्के-हल्के, धीरे-धीरे नहीं बोलना चाहिए। हमें उत्साह के साथ हरिनाम का उच्चारण करना चाहिए। इसके साथ ही हमारी बुद्धि का भी प्रयोग भी शुरू हो जाता हैं, जब हम हल्के हल्के बोलते हैं, तो ऐसा हो सकता है कि हम कई शब्द खा जाऐं या बोल ना पाएं या सुन भी ना पाए लेकिन जब हम होंठो का प्रयोग करते हुए ज़ोर-ज़ोर से उच्चारण करते हैं,तब हम सुन सकते हैं कि हम क्या बोल रहे हैं। मनसा:- अगला साधन मन है। यह उपकरण बहुत ही उपयुक्त और आवश्यक है। इसका बहुत बड़ा उपयोग है, यह मन ही है, जो बना सकता है या बिगाड़ सकता है। यह हमारी जीत करवा सकता है और हमें हार भी दिला सकता है। मन से ही हम बंधन में बंध सकते हैं और मन ही हमारी मुक्ति का भी कारण बन सकता है।यह मन बहुत ही महत्वपूर्ण उपकरण है। हमें मुख्यतः मन को ही जप में लगाना है ताकि मन स्थिर रहें। मन को स्थिर करने के लिए जप को सुनना है। हम जब मन को जप में लगाते हैं तो वहीं पर बुद्धि का भाग शुरू हो जाता है। बुद्धि:- बुद्धि अगला उपकरण है। इस विषय पर नवयोगेंद्र जी बताते हैं कि मन और बुद्धि को कंधे से कंधा मिला कर एक साथ कार्य करना है। बुद्धि की जप प्रक्रिया में एक विशेष भूमिका होती है। बुद्धि ही देखती है कि हमारे मन में क्या चल रहा है, किधर जा रहा है, क्या सोच रहा है। यह संपूर्ण संकीर्तन आंदोलन एक बुद्धिमान व्यक्ति का काम है, बुद्धिहीन का नहीं। इसमें बुद्धि का प्रयोग अत्यंत आवश्यक है। हमें इन सभी उपकरणों की धार को तेज बनाना है, विशेष कर बुद्धि को तीव्र बनाना है जिससे वह मन पर नियंत्रण कर सके। मन के स्तर पर क्या चल रहा है, क्या कर रहा है, क्या सोच रहा है,कैसे क्रिया प्रतिक्रिया कर रहा है , ये सब देखने का कार्य वास्तव में बुद्धि का है बुद्धि का कार्य है कि वह देखे की किस प्रकार के विचार आ रहे हैं और उनको इधर उधर जाने से रोके और उसे उपयोगी बनाये, भगवान की सेवा में लगाये। जैसे हमें बताया जाता है कि ठीक से बैठो, तभी हम ठीक से बैठते हैं तो हमें स्वतः अपनी बुद्धि का प्रयोग कर देखना चाहिए कि हम प्रत्येक दिन के जप में ठीक से बैठे हैं कि नहीं। इसी प्रकार जब हम वाणी का प्रयोग करते हैं तो हमें स्वयं देखना चाहिए कि हम हल्के बोल रहे हैं, या साफ़ बोल रहे हैं या ठीक से बोल रहे हैं कि नहीं। उस समय हमें बुद्धि का प्रयोग करना है और देखना है कि वास्तव में हमें प्रत्येक अक्षर सही सुनाई दें। इस प्रकार हमने देखा कि बुद्धि- काया, वाणी तथा मन तीनों को ही सन्तुलित कर सकती है। हम स्वयं ही देख सकते हैं कि हम किस प्रकार से जप कर रहे हैं। हम स्वयं को ही सिखा सकते है कि सही जप कैसा होना चाहिये। कब तक हम दूसरों पर निर्भर रहेंगे कि कोई हमारा जप सुधारे। कोई हमें कब तक चम्मच से खिलायेगा। कब तक सिखायेगा कि तुम ऐसे बैठो, ऐसे जप करो, ऐसे बोलो इसलिए हमें स्वयं अपनी बुद्धि का प्रयोग कर देखना चाहिए कि हमारा जप किस प्रकार प्रतिदिन सुंदर होता जा रहा है। आखिरी उपकरण आत्मा है जो कि बहुत महत्वपूर्ण है। हम आपको समय-समय पर बताते रहे हैं कि वास्तविकता में जो जप करने वाला है, वो आत्मा है, हम स्वयं हैं। यह जिह्वा,शरीर, मुख और मन वास्तव में जप करने वाले नहीं है।जपकर्ता तो वास्तव में आत्मा है। प्रायः हम कहते हैं कि यह बात मैं अपने हृदय के अन्तःकरण से कर रहा हूँ क्योंकि हम हृदय में स्वयं रहते हैं परन्तु हम कभी ऐसा नहीं कहते कि जिह्वा के या शरीर के अन्तःकरण से कह रहा हूँ। निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि कैसे हम इन सारे उपकरणों का सामंजस्य स्थापित कर इन्हें अपने जप में प्रयोग कर सकते हैं। हालॉकि समय समाप्त हो रहा हैं, फिर भी में बताना चाहता हूँ कि किस प्रकार से हम सब अपने अपने उपकरणों का प्रयोग कर अपने जप को प्रभावशाली बना सकते हैं। यहाँ सन्त तुकाराम जी के जीवन से एक घटना लेते हैं।एक बार सन्त तुकाराम के घर एक विद्वेषी(द्वेष करने वाला) आया और पूछा तुकाराम कहाँ है? मैं उनसे मिलना चाहता हूँ। उसे बताया गया कि तुकाराम जी शौचादि क्रियाओं के लिए किसी मैदान में गए हुए हैं। वह व्यक्ति संत तुकाराम जी के लौटने का इंतजार करने लगा।थोड़ी देर बाद उसने सन्त तुकाराम को आते देखा। उस व्यक्ति ने देखा कि सन्त तुकाराम हरे कृष्ण हरे कृष्ण ,जय जय राम कृष्ण हरि, पांडुरंग पांडुरंग का नाम जप करते हुए आ रहे थे। इस विद्वेषी व्यक्ति ने कहा- “ए तुकाराम कैसे हो तुम? स्नानादि किए बिना, तुम हरि नाम कैसे जप कर सकते हो? अभी-अभी शौच निवृत्ति से लौट रहे हो और भगवान के नाम का जप कर रहे हो ? सन्त तुकाराम जी ने कहा कि मैं क्या करूँ बिना नाम जप किए बिना मैं नहीं रह सकता और ये अपने आप से होता है। मेरे मुख से हरि नाम निकलता रहता है। मैं तो असफल हो गया हूँ। क्या आप मेरा जप रूकवाने का प्रयास कर सकते हो? तब इस व्यक्ति ने तुकाराम जी की ओर बढ़ कर ,उनका मुख कस कर के बंद कर दिया। उनके कानों के छिद्रों को बंद करके शरीर को भी कस कर पकड़ लिया परन्तु किसी भी प्रकार से तुकाराम महाराज का जप बन्द नहीं हो रहा था। तुकाराम महाराज के मुख में कम्पन हो रहा था क्योंकि उनका हरिनाम रुक नहीं रहा था। उनके शरीर के रोमकूप से हरिनाम निकल रहा था। पूरे शरीर में कम्पन हो रहा था क्योंकि तुकाराम महाराज सिर्फ मुख से ही जप नहीं कर रहे थे उनकी आत्मा, उनका शरीर, उनका मन ,उनकी बुद्धि सब कुछ जप कर रहे थे। ये जो मूर्ख व्यक्ति थे, वे तुकाराम महाराज को किसी भी प्रकार रोक नहीं सके। तुकाराम महाराज जी ही वास्तव में हमारे नायक हैं, आचार्य हैं। यही हमारा लक्ष्य है। हमें इन सभी आचार्यो के चरणों में कोटी- कोटी प्रणाम करके उनके पथ पर चलने की आज्ञा लेनी चाहिए। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर, श्रील प्रभुपाद, षड गोस्वामी हैं। श्री कृष्ण-चैतन्य महाप्रभु भूलोक नायक,वैकुंठ-नायक हैं। उन्होंने ही इस धरा धाम पर खुद आकर हम सब को नाम जप की विधि सिखाई है। हमें इन सब के चरणों में प्रार्थना करनी चाहिए, इनके पथ का पथानुगमन कर सकें। यह सब आपका आज का गृहकार्य है। हमने जो सुना है, उसका अभ्यास करना होगा। मैं बहुत जल्दी, कल के जपा टॉक के विषय में एक घोषणा करूंगा। कल अक्षय तृतीया है। यह बहुत ही पवित्र दिन है, नए-नए कार्य-कलापों को प्रारंभ करने के लिए बहुत अच्छा दिन है। कल एक यूरोपियन भक्त, नित्यानंद जो संस्कृत में बहुत ही एक्सपर्ट हैं, संस्कृत का उच्चारण बहुत स्पष्ट और सुंदर रूप से करते हैं। साथ ही वो संस्कृत का उच्चारण भी ऑनलाइन सिखाते हैं। संसार भर में उनके बहुत अनुयायी हैं और मैं स्वयं सभी इस्कॉन भक्तों को ठीक से उच्चारण करते देखना चाहता हूँ। मैंने इस विषय पर एक किताब भी लिखी है- “संस्कृत उच्चारणम्” हो सकता हैं – आप में से कई भक्तों ने देखी हो। उसका विशेष लक्ष्य यही है – संसार के सभी भक्त संस्कृत का उच्चारण सही प्रकार से कर सकें। मैंने नित्यानंद प्रभु को तैयार किया है कि वह ऑनलाइन आकर आप सभी को कुछ सुझाव दें जिससे आप सबका संस्कृत का उच्चारण ठीक हो सके। उच्चारण, आचार, विचार यह सब एक के बाद बनते हैं, नित्यानंद प्रभु को सुनने के लिए आप सब तैयार रहिएगा। हरे कृष्ण!

English

6th May 2019 INSTRUMENTS USED IN CHANTING I am hoping and expecting that your japa is improving day by day. In order to improve, chanting every day is essential. I think you are doing that, at least those who are participating in this conference, I know for them, that they are chanting everyday with me. But I think 'How you are chanting’, that is the crux of the matter. I had some thoughts which I would like to share with you. They are based on one of the statements of Navayogendra’s. They are addressing to king Nimi, wherein he states how to worship the Lord. They say -. kayena vaca manasendriyair va buddhyatmana vanusrta-svabhavat karoti yad yat sakalam parasmai narayanayeti samarpayet tat (SB 11.2.36) They say yat yat karoti - whatever we do, that should be offered unto the service of Lord Narayan. That's the one part of the statement. Then he has mentioned, several items or instruments that we use in service of the Lord. They are kayen manasa buddyatmaneva & like that. He says we should be using all these instruments in service of the Lord. All these means are used to serve the Lord. This is a small list. Take note of this. Either write it down or take mental note, so that you can go back to it & listen to it again. These instruments which he mentioned that we should use in service of the Lord are also the means, which also should be used while chanting of 'Hare Krishna'. So, here is the list. He says Kayen - we use our body. Vacha - we use speech. Manasa - mind, indriye - senses, buddhya - intelligence & last but most important is atmana - soul. They have said it in Tritiya vibhakti according to grammar, as they are instruments, which we use wherever & whenever, they are used in Tritiya vibhakti. So all these words are used here in Tritiya vibhakti as they are mentioned as instruments. We have to remember list of these instruments, which are at our disposal while chanting. Not only they are at our disposal, but they are utilised & also to make sure that all of them are synchronized or they are in alignment, while chanting 'Hare Krishna'. So, Kayen -mind & body - sit properly, not now but while chanting japa. We are japa-yogis. Prabhupada always used to say, ' Sit properly.' It means neck bone, head spine should be straight. That kind of sitting, that posture is favourable for chanting. This posture is favourable for meditation or 'Dhyan' or ‘Dhyan-mudra’. Much more could be said for each of these items. Vacha - Speech, lips and mouth are also is used for chanting. We don't do mental chanting. We utter chanting. Prabhupada used to remind, we have to use both the lips to utter the holy name of the Lord. Not just whisper like a sparrow. Balen bolo re vadan bhori. Our vaishnav song says, balen you use all your strength, Vadan-bhori - it should be mouthful. We have to make sure that, intelligence will come into picture. We should hear all sixteen names in the mantra. If we just whisper, we may utter some names & eat up rest of the names. But when we say loudly, using the lips, then all sixteen names are to be uttered clearly. Manasa - So next mention is of mind. Navayogendra named Hari, is describing this. So this instrument is of prime importance. It has a prime role in activity of chanting. Make it or break it, success or failure, liberation or bondage depends on this item. So we could only say that, make your mind favourable to the chanting. We should chant & chant. Specially while utilizing this mind while chanting, role of intelligence also comes into picture. This is a next instrument, mentioned in the list by Navayogendra, ‘Buddhya' . Mind & intelligence has to work together, hand in hand. Intelligence has a major role or only intelligence has a role, to play on governing the mind, moulding the mind, instructing the mind. Analysing what is on the mind. That is why we have been saying this chanting, is one & only activity or even whole sankirtan movement is a job of a 'Buddhiman' (intelligent) & not of a 'buddhu' (dumb). It is a job of intelligent person & not of a dull headed person. When we sharpen the tools, especially when we will sharpen the intelligence, it will keep an eye on the mind. While we are chanting, mind is functioning, dealing, willing, has to be closely observed by intelligence. Mind function is thinking so mind thinks all sorts of things & runs here & there, as per its nature. So, intelligence has to sort it out & retain only those thoughts favourable for chanting & meditating on Krishna. Even we are sitting properly or not properly, "sit properly?" We have been told like that, so we could use our own brain, God has given intelligence & make sure, whether we are sitting properly or not. So this is about 'kayen'. What about 'vacha’? Whether we are uttering all the sixteen names or are we skipping some, are we using the list while chanting, to utter the names properly, all this also we should be able to discriminate, with the help of intelligence. Then make the adjustments & alterations accordingly. So that was 'Kayen' , 'vacha' then comes 'manasa'. We have been told how intelligence has big role to play, governing the wanderings of mind. So, like that we should be preaching to ourselves, if we are intelligent enough, we could preach to ourselves. Not that we wait for someone else to tell, “This is wrong! This is right Prabhu! Don't do this." This help is offered, but how long? We cannot go on spoon feeding from external sources. We should become self-sufficient at some point in our march or progress on this path & should preach to ourselves, rectify ourselves. Then comes the last & most important item, that we use in the chanting service of the Lord is 'atmana'. Self or spirit soul, our real self ! our being! We have been told from time to time, original chanter is our soul. The tongue or the lips, body they are not the chanters. 'japa-karta' the doer, the chanter is "the soul". Many times we say, 'I say this from bottom of my heart.' we don't say, I am saying this from 'bottom of my throat' or 'bottom of my tongue'. We don't say that because ultimately, we say it from ' bottom of our heart' & that's where the soul is situated. Soul is stationed within the heart. So when we say this, ' I say this from bottom of my heart' it means 'real me is saying this,soul is speaking.' Just to summarize or wind up , we could say, from top to bottom all these items have to be activated, motivated or aligned in or during our japa service. Chanting & meditation on the holy names. I could quickly give one demonstration of how someone was using all these instruments successfully, with the soul during chanting. This is from life of Saint Tukaram. One early morning, one of the opponents of Tukaram, who disliked Tukaram, he had come to Tukaram's home. He inquired, 'Where is Tukaram? I want to meet him.' He was told, he had gone to the fields. Early morning, he had to take care of body by carrying out excretory functions. So this person was waiting for him to return. When Tukaram returned, while returning he was chanting the holy names of the Lord. "Jay Jay Ram Krishna Hari! Jay Jay Ram Krishna Hari! Panduranga! Panduranga!". So this fellow, from enemies camp exclaimed, " oh! Tukaram you haven't even taken the bath & you are chanting the holy names of the Lord. You are just returning from toilet & you are Chanting the holy name of the Lord! How offensive it is!" Tukaram said, " I am sorry. But I can't help it. I can't stop chanting, whether it is before bath or after bath. I just keep chanting. It just happens. It is beyond me. If you are able to stop my chanting, you could try. I have tried. But I couldn't. I have failed. If you want to try, you could try." So this person stepped forward, he held Tukaram's mouth, shut it & held tightly. He was trying to stop other senses. He was trying to close his ears. He was holding his body, so that it doesn't move. But there was no way, he could stop chanting of Tukaram Maharaja. Tukaram Maharaja was not making any extra special efforts for chanting, it was just arousing from deep within his heart. His mouth was still vibrating. His full body was trembling & participating in that chanting, as if his Kayen - his body was chanting his mind was chanting, his lips were chanting, his intelligence was chanting, his soul of course was chanting. So those who witnessed, Tukaram's chanting as this ruffians was trying to stop, they saw, Tukaram chanting, his whole body was chanting. His 'being' was chanting, just by stopping or closing the mouth, or lips, chanting could not be stopped, because he was not only chanting with lips or mouth but his whole body, his whole existence was chanting. So these are our heroes, these are our acharyas. They are our goals. We should follow in their footsteps & pray to their lotus feet. We have Namacharya Haridas Thakur, we have Srila Prabhupada, we have Shad Goswamis of Vrindavan. Of course, ultimately Gauranga is our hero-Vaikuntha-nayak, Goloka-nayak. He also chanted & danced & have set all these paths. Okay, so all this is your homework. What we heard, has to be practised. Tomorrow is Akshaya-tritiya for doing new undertakings. Tomorrow one European devotee, Nityanand who teaches Sanskrit online will address, because I myself want to see all the ISKCON devotees utter the names properly. I also have written a book. Maybe you have seen, " Sanskrituccharanam". Tomorrow that Nityananda Prabhuji will give you some tips. Ucchar, aachar, vichar follow each other. Hare Krishna!

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