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जप टॉक 30 Sept 2019 हरे कृष्ण !!! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में हमारे साथ लगभग 452 भक्त जप कर रहे हैं, हम आप सब का स्वागत करते हैं और आशा करते हैं कि आप केवल प्रेम पूर्वक ही नहीं बल्कि ध्यानपूर्वक अपना जप कर रहे हैं और अपने जप से संतुष्ट हैं। वास्तव में ध्यान पूर्वक जप ही सर्वश्रेष्ठ जप कहलाता है और इस कांफ्रेंस के माध्यम से हम यही प्रयास करते हैं कि हमारा जप ध्यान पूर्वक रहे। मूलत: हम जो जप करते हैं वह हमारे मन को सुनना चाहिए हम कान से जो सुनते हैं या आंख से जो देखते हैं वह सही में देखना या सुनना नहीं है। हमारा मन जब देखता है , सुनता है या मन किसी सुगंध को ग्रहण करता है तब वास्तविकता में इसे सुनना या समझना कहते हैं। हमारे मन को ध्यान देना होगा कि हम जो जप कर रहे हैं क्या वह हमारा मन सुन रहा है ? ऐसा तो नहीं है, कि हम बेमन होकर जप करें और हमारा इस पर ध्यान ना रहे, तो वास्तविकता में ये हमारा धयानपूर्वक जप नहीं कहलायेगा, अर्थात जिस जप को हमारा मन भी सुन रहा है वही ध्यान पूर्वक जप है। हम मन की बात कर रहे हैं तो यह काफी सूक्ष्म विषय है और मन के विषय में चर्चा करना भी काफी सूक्ष्म होता है, जिस पर हम चर्चा करेंगे। इसे इस प्रकार से समझ सकते हैं की हमारी दिनचर्या में कभी-कभी ऐसी स्थिति आती है कि हमारे आसपास जो कुछ हो रहा है उससे हमें ज्यादा कोई फर्क नहीं पड़ता, हम उससे ज्यादा प्रभावित नहीं होते हैं। बल्कि हम अपने जिस कार्य में लगे हैं उसमें हमारा ध्यान रहता है तो उसी प्रकार से हम जब हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हैं तो हमें हमारे आसपास का जो वातावरण है उससे ज्यादा प्रभावित ना होकर भगवान के नाम में अपना पूरा ध्यान केंद्रित करते हुए जप करना चाहिए। एक बार का प्रसंग है कि जब बुद्धदेव धयानमग्नस्थ थे, तो उस समय एक व्यक्ति ने उनसे पूछा कि क्या आपने एक स्त्री को यहां से जाते हुए देखा है? तो बुद्धदेव ने कहा, मैंने किसी को तो यहां से जाते हुए देखा है किंतु मैं यह नहीं कह सकता कि वह स्त्री थी या पुरुष, उसने नीली साड़ी पहनी थी या सफ़ेद धोती पहनी थी मुझे इतना ध्यान नहीं किंतु इतना ध्यान अवश्य है की यहां से कोई गया है। तो इस प्रकार से ऐसा तो नहीं है की बुद्धदेव निद्रा में थे या सो रहे थे, कि उनको पता नहीं चला कि कौन यहां से गया किंतु बुद्धदेव अपने ध्यान में इतने मग्न थे कि उनको अपने बाह्य वातावरण या आसपास जो कुछ भी हो रहा था उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। श्रीमद्भागवत में भी इसका एक उदाहरण आता है। यहां पर अवधूत दत्तात्रेय के विषय में चर्चा होती है जहां पर उन्होंने 24 गुरु बनाए थे और उनके 24 गुरुओं में से एक गुरु लोहार भी था। तो एक बार ऐसा प्रसंग हुआ कि दत्तात्रेय जी ने देखा कि एक लोहार कुछ बाणो को तीक्ष्ण कर रहा है और उस कार्य में वह इतना मग्न है की उसके आसपास जो कुछ भी हो रहा था वह उससे प्रभावित नहीं हो रहा था। यहां तक कि उसके पास से एक बड़ा जुलुस निकला या हरे कृष्ण महामन्त्र करते हुए भक्तों की एक मंडली निकली हो। किंतु कुछ समय के पश्चात जब उससे यह यह पूछा गया, कि आपने यहां से किसी जुलूस को जाते हुए देखा है? जो शोर-शराबा करते हुए यहाँ से गए हैं। क्या आपको इस बात का पता चला, तो लोहार ने कहा , नहीं मुझे कुछ नहीं पता मैंने कोई जुलूस नहीं देखा, तो दत्तात्रेय जी ने कहा की मै आपको अपना गुरु मानता हूँ क्योंकि मैंने आप से ये सीखा की किस प्रकार अपने कार्य में इतना डूब जाना चाहिए कि बाह्य वातावरण का प्रभाव हम पर ना पड़े। अतः इसी प्रकार जब हम हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हैं या भक्ति करते हैं तो हमें इतना डूब जाना है, हम पर भी बाह्य वातावरण का कोई प्रभाव ना पड़े। इतना मगन हो करके ध्यान पूर्वक हमें जप करना चाहिए। इन दो उदाहरणों से हम ये बताने का प्रयास कर रहे हैं कि ध्यान पूर्वक जप करते समय हमारा मन वहां उपस्थित होना चाहिए। जब हम हरे कृष्ण महामंत्र का उच्चारण अपनी जिव्हा से करते हैं तो यह ध्वनि हमारे मुख से प्रवाहित हो कर हमारे कानो तक पहुँचती है। क्योंकि जिव्हा से कानो की अधिक दूरी नहीं है किन्तु अगर मन इसे ग्रहण नहीं करेगा तो यह ध्यानपूर्वक जप नहीं कहलाएगा। हम काफी बार यह तो कहते हैं कि ध्यान पूर्वक जप करना है, ध्यान पूर्वक जप करना है किंतु वास्तविकता में ध्यान पूर्वक जप किसे कहते हैं? जब मुख से निकली इस महामंत्र की ध्वनि को कानो द्वारा मन पकड़ कर सक्रिय रूप से गृहण कर लेता है तो इसे ध्यानपूर्वक जप कहेंगे। हमारे मन का यह स्वभाव होता है कि हमारे आसपास जो भी वातावरण है उससे प्रभावित हो जाता है। अपितु इससे पूर्व में कुछ हुआ हो हमारे साथ, या दूर देश में कुछ ऐसे लोग मिले, या कुछ ऐसी घटनाएं जो हमने पहले किया है, कि हमने ये खरीदा वो खरीदा इस सारी बातों से हमारा मन सदैव प्रभावित रहता है। इसलिए भगवत गीता में भगवान कहते हैं हमारा मन जहां-जहां दौड़ कर जाता है हमें उसे वहां से खींचकर लाना है ,और उसे स्थापित करना है। जिससे यह मन हरे कृष्ण महामंत्र के ऊपर ध्यान दें। ताकि, हमारे मन के ऊपर हरे कृष्ण महामंत्र का प्रभाव पड़ सके। हम रोज कुछ ना कुछ प्रयास करते हैं कि आपके विचारों को क्रांति दी जाए ताकि प्रत्येक दिन आप इस विषय पर कुछ न कुछ मनन कर पाएं की किस प्रकार से आप को अपना जप सुधारना है कृपया आप इस विषय को गम्भीरतापूर्वक लीजिये। बाकी बातें तो बाद में आती हैं कि अपराध रहित जप या शुद्ध नाम जप करें। और हमें इस बात का ध्यान देना होगा कि कहीं हम सिर्फ नियम बनाकर महामंत्र का उच्चारण करते ही न रह जाये अन्यथा इससे हमें विशेष लाभ नहीं होगा वरन हमे सक्रिय रूप से हरे कृष्ण महामंत्र का रसास्वादन करना चाहिए। हमारा मन 24 घंटे इसी कार्य में लगा रहता है, संकल्प विकल्प को मानता है, कुछ नहीं मानता है इसलिए भगवान कहते हैं कि एक अवस्था है “प्रसन्नात्मा” जब हमारी आत्मा भगवान का नाम लेकर सदैव प्रसन्न रहती है। भगवान ने भगवत गीता में कहा है ब्रह्भूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति: । अतः यह दो कार्य मन के सक्रिय रूप से चलते रहते हैं , एक है शोचति: दुख करना विलाप करना और दूसरा है काङ्क्षति: किसी चीज के लिए आतुरता, उसे प्राप्त करने का प्रयास करना अतः हमारे मन के दो कार्य सदैव चलते रहते हैं कि किसी चीज के लिए विलाप किया जाए या किसी वस्तु को प्राप्त करने का प्रयास किया जाए। लेकिन जब तक हम ध्यान पूर्वक भगवान का जप करते हैं या ध्यान पूर्वक भगवान का नाम लेते हैं तो आत्मा को उसकी खुराक मिलती है, आत्मा को उसका भोजन मिलता है, और उससे आत्मा प्रसन्न रहती है। और जो भौतिक विषय में मिलने वाला दुख है उन सब से हमारा मन ऊपर उठ जाता है। वह मन और आत्मा हमेशा के लिए प्रसन्न रहती है। अतः भगवान के नाम से हम उसको प्राप्त कर सकते हैं । इस प्रकार से हमें हमारे मन को प्रशिक्षण देना होगा कि हमारा मन क्या कर रहा है, किन विषयों पर किस कार्य में लगा है और जिन कार्यों में लगा है उन सब से खींचकर उसे भगवान के नाम जप में लगाना है। तो क्या आप प्रसन्नात्मा बनना चाहते हैं ,सुखी होना चाहते हैं ,आनंदित होना चाहते हैं ? तो हमेशा सुखी रहने या आनंदित होने के लिए हमारा जप एक कार्य है, जो रोज करना ही है। यह एक विधि के रूप में रोज करेंगे तो उससे हम ज्यादा प्रसन्न नहीं हो पाएंगे, अपितु हमें प्रसन्न रहने या आनंद प्राप्त करने के लिए ध्यान पूर्वक जप करना होगा। जैसा कि हमने सुना है यह हम समझते हैं हरेर्नामेव केवलम हरिनाम के बिना और कोई रास्ता नहीं है। अतः हरिनाम के साथ-साथ यह भी ध्यान देना होगा ध्यानपूर्वक जप एकमात्र रास्ता है आनंदित रहने का, इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है। वैसे काफी भक्त लिख रहे हैं सुंदरआंचल प्रभु मॉरीशस से, प्रधान गोपी माताजी वल्लभ विद्यानगर से और अन्य भक्त भी बता रहे हैं कि उन्हे प्रसन्न रहना है। यह स्थिति तो स्वाभाविक है, कि हम आनंदित रहें, प्रसन्न रहें। मैं आप सब को आशीर्वाद देता हूं कि आप अपने प्रसन्न रहने के प्रयासों में सफल रहें। अतः अब मैं चर्चा को यहीं विराम देता हूं। हरे कृष्ण गौर प्रेमानंदे, हरि हरि बोल।!

English

30 SEPTEMBER 2019 HEAR WITH THE MIND! I welcome you all. I hope you had a good time chanting and enjoyed the chanting and that you are satisfied with your chanting. I hope so and we pray for your happy chanting. Attentive, meditative chanting is real chanting and that is what we wish to practice on during this japa conference. Ultimately we do not hear with the ear, but with the mind. We do not see with the eyes, but seeing is more complete when the mind is involved. So we see with the mind and like that all the senses are connected with the mind. They all report to the mind. What we are hearing as we are chanting has to be heard by the mind and if the mind is hearing then we call that attentive chanting. So attentive chanting means the mind has taken note of what you are chanting and what you are hearing. The mind is registering thinking, observing , hearing, listening. It is not mindless or absent minded. Some call this is a very subtle topic. Mind is very subtle to understand. When we talk of the mind a lot of subtle things are involved. There is something called oblivious to the surrounding. Lots of times we are so absorbed in thinking of something, we are anticipating something. Then although a lot of things are happening and a lot of actions are going around, our mind doesn't perceive that because we are oblivious to the surrounding. Like that we should also become oblivious to what is around us while we are chanting. We have to think only of Krsna, remember Krsna. As we hear we should become oblivious to the surroundings and become absorbed in thinking about Krsna, remembering Krsna and be engrossed in remembering His names and following His pastimes. One time Buddha was asked if he saw some lady passing by. His response was that maybe someone had passed by, but he could not say whether it was a lady or a gentleman, whether she wearing a blue saree or was he wearing a white dhoti. “I don't know. I didn't pay attention.” Buddha was not sleeping nor were his eyes closed. He was observed in meditating and he did not pay attention to what was going around. He was just absorbed in meditation. So that is one example. In Bhagavatam there is an example of Avadhuta Dattatreya. He had 24 gurus and one of his guru was a lohar, a blacksmith who was sharpening arrows. He was sharpening the arrow and he was totally absorbed in sharpening the arrow, fully attentive and totally unaware of surroundings. When he was asked some time ago if he had seen a big grand procession had passed by here, he responded, “I didn't see grand procession. Hare Krishna Nagar sankirtan has passed few kilometres long, but he said I didn't see. I didn't hear anything.” Why? Because he was observed in what he was doing , sharpening of the arrow. He didn't take note of anything around. So this Avadhuta Dattatreya said, “You are my guru. I make you my guru. Oh arrow sharpener, how attentively you are sharpening.” We also have to absorb ourselves in this kind of activity and in our case we must be absorbed in chanting. So that's the goal as to how we should approach chanting - attention on hearing like that sharpener. His mind was fixed in what he was doing. We had to hear, the mind has to hear. I am trying to point out that its not the ear that hears but the mind. We say be attentive, pay attention or chant attentively. What is it? It says our mind has to be attentive. The tongue has already uttered the holy name. The tongue has done its job. It will reach the ear unless there is a mind that is paying attention to what is entering the ear and what it is hearing. We will not hear our chanting. Unless the minds involvement is there we are not going to do attentive chanting. Your attention has to be on hearing what the tongue has uttered Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare Sound vibration as it enters into the ear the mind has to not only hear but on the other hand immediately capture and registered that. Then the mind has to be there and should not be going off. If mind is busy elsewhere or already sleeping then we will not hear. If we have an attentive, alert mind then it is ready to hear. In the ear there is a provision to hear. The ear is the tunnel through which sound which has been uttered enters and passes through but at the end of the tunnel we can say there is the mind. Hearing is not going to happen, if there is no mind. What can influence us? We are influenced by what is around us at any given point in time. That is one thing. And what else? Always there is something that we had gone through yesterday or the night before or the year before. We went through some experience. We are shopping. We enjoyed this. So the mind also enjoyed that so it is also going to revisit these places. Your mind and the things that are not around - distant places, distant country , distant people, this and that is going to be coming to you in your mind. This happens all the time and we are busy with that. That keeps our mind busy. You will have to think how to improve your chanting. You will chant with attention and if you take these things seriously you could improve your chanting. Accordingly, I think this kind of topic dhyan purvak japa or attentive chanting is related to offence less chanting. We had routine chanting. We have a ritual that everyday we had to work harder and harder on the mind and sharpen the intelligence so that we really enjoy and our atma become prasanna , satisfied. Chant Hare Krishna and be happy or make our souls happy. Our mind is always busy 24 hours a day with sankalpa vikalpa, mind accepts something, rejects something. All the time: brahma-bhutah prasannatma na socati na kanksati samah sarvesu bhutesu mad-bhaktim labhate param Translation: One who is thus transcendentally situated at once realizes the Supreme Brahman. He never laments nor desires to have anything; he is equally disposed to every living entity. In that state he attains pure devotional service unto Me. (BG 18.54) A Krishna conscious person’s atma is prasannatma. He is self satisfied by chanting and by attentive chanting, pure chanting suddha nama ucaran. Now my mind is prasan, happy and now it is not doing na socati na kanksati, not lamenting not hankering. So this way we lament for something, for this, that again a person is busy na socati na kanksati lamenting, hankering - “I want to get this that I don't have. This kind of business to stop the mind from hankering and lamenting - sankalp , vikalp - accepting something ,rejecting something. 24 hours we are busy. Our mind is busy. We need to work on training our mind and that is attained by practice, purifying our mind by attentive chanting. In order to succeed we should endeavour to do attentive chanting. We should endeavour day in and day out . You want to be prasannatma. You want to be happy but then it is harer nama eva kevalam in order to become prasannatma. There is no other way. One is chanting Hare Krishna and only way in fact ultimately is attentive chanting. hat will make us happy. Make some kind of routine that will not make us happy if we are not chanting. Mundane thoughts that will not make us happy, pray to become happy by attentive chanting and make extra effort. Hare Krishna!

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