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14.08.2019 हरे कृष्ण! मैं अभी भी न्यू वृंदावन में ही हूं और यहाँ पर नेटवर्क बहुत अस्थिर है। फिर भी हम प्रयास कर रहे हैं कि आप इस जप चर्चा को सुन पाएं और इस में किसी प्रकार का कोई व्यवधान उत्पन्न ना हो। यहां न्यू वृंदावन में कई उत्सव हो रहे हैं और यहाँ बहुत सारे भक्त और शिष्य,और मित्र आए हुए हैं। यहां राधा वृंदावन चन्द्र का पुष्प अभिषेक हुआ है और सर्वत्र कीर्तन हो रहा है।आज शाम को भगवान का नौका विहार भी हुआ था। इस प्रकार से यहां कई प्रकार के उत्सव चल रहे हैं। आज जब मुझे थोड़ा समय मिला तो मैं श्रील रूप गोस्वामी जी द्वारा रचित उपदेशामृत में से सातवां श्लोक पढ़ रहा था। इस श्लोक ने मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। हम इस कॉन्फ्रेंस में जप करते हैं,इसलिए हमारे लिए 'उपदेशामृत' के सातवें श्लोक को समझना अत्यंत आवश्यक हो जाता है। यह पवित्र नाम के जाप के लिए बहुत शिक्षाप्रद है। इस श्लोक में श्रील रूप गोस्वामी जी जप करने वाले साधकों को कुछ निर्देश देते हैं।श्रील प्रभुपाद भी समय- समय पर इस श्लोक के विषय में अपने अनुयाइयों और भक्तों को समझाते थे। मैं सिर्फ आपके साथ यह साझा करना चाहता हूं। पहले मैं इस श्लोक का संस्कृत हिस्सा पढ़ूंगा और फिर उसे समझाने की कोशिश करुंगा। स्यात्कृष्णनामचरितादिसिताप्यविद्या- पित्तोपतप्तरसनस्य न रोचिका नु। किन्तवादरादनुदिनं स्त्रखलु सैव जुष्टा स्वाद्वी क्रमाद्भवति तद्गदमूलहन्त्री।। श्रील रूप गोस्वामी जी इस सातवें श्लोक में कहते हैं कि 'स्यात्कृष्णनामचरितादिसिताप्यविद्या' अर्थात निश्चित रूप से कृष्ण के नाम अर्थात हरिनाम के साथ ही प्रारंभ होता है, फिर भगवान का चरित्र, लीलाएं आदि आती हैं। यह पवित्र नाम और सभी लीलाएं अत्यंत ही मधुर हैं। यदि हम इस प्रकार से संस्कृत के एक एक शब्द का अनुवाद करेंगे तो हमें बहुत अधिक समय लगेगा। हम इसको एक उदाहरण द्वारा समझ सकते हैं कि श्रील रूप गोस्वामी जी इसमें क्या कहना चाह रहे हैं, यदि कोई व्यक्ति पीलिया के रोग से पीड़ित है, तब उस व्यक्ति को गन्ना मीठा नही लगता। उसे गन्ना कड़वा लगता है लेकिन वास्तव में गन्ना मीठा ही होता है। चूंकि वह व्यक्ति बीमार है, उसे पीलिया हुआ है,इसलिए उसे उसके मीठेपन का आभास नहीं होता है। मुझे लगता है कि आप सभी को पता होगा कि पीलिया रोग क्या होता है। जब वह व्यक्ति डॉक्टर के पास उपचार के लिए जाता है तब डॉक्टर उसको देख कर कहते हैं कि आपको तो पीलिया हुआ है, इसलिए आप गन्ना खाओ, पीलिया के रोगी को गन्ना मीठा नहीं लगता है लेकिन उस रोग की दवाई गन्ना ही है। जैसे जैसे वो गन्ना खायेगा, उसकी बीमारी कम होती जाएगी, उसका पीलिया ठीक होना शुरू हो जायेगा और उसको गन्ना मीठा लगने लगेगा। श्रील रूप गोस्वामी जी बताते हैं कि ये हरिनाम अत्यंत ही मधुर है, और इसके समान कुछ भी मधुर नहीं हैं परंतु हमें भवरोग लगा हुआ है। इस भवरोग के कारण ही प्रारंभ में यह हरिनाम हमें अत्यंत मधुर नहीं लगता है। तब हम सोचते हैं क्या इसके अलावा कोई अन्य वस्तुएं हैं जो इससे अधिक मधुर हो ? हमारे आचार्य, गुरु, वरिष्ठ वैष्णव कहते हैं, 'नहीं, केवल हरिनाम ही इसका एकमात्र उपाय है। यदि इस हरिनाम में आपकी रुचि नही हो रही है, 'रोचिका नु' लेकिन यदि हम निरंतर हरि नाम लेते रहेंगे, तो इसमें हमारी रुचि जागृत हो जाएगी। हरेर्नामैव केवलम। हम भवरोग के रोगी हैं। हमारी एकमात्र औषधि हरिनाम है जो कि अत्यंत ही मधुर है। प्रारंभ में साधक को हरिनाम इतना अधिक मधुर नही लगता है। उस साधक को हरिनाम में रुचि नहीं होती। जैसा कि चैतन्य महाप्रभु भी कहते हैं, न अनुराग अर्थात मेरा हरिनाम में अनुराग उत्पन्न नहीं होता। इसके लिए हमें क्या करना चाहिए। इसका उपाय भी यही है कि आप निरतंर हरिनाम का जप करते रहिए। इसी प्रकार, पीलिया का रोगी जब गन्ना खाना प्रारंभ करता है तो वह धीरे धीरे ठीक होने लगता है, फिर वो पूर्ण रूप से रोग मुक्त हो जाता है, उसे गन्ने का स्वाद आने लगता है और कुछ समय पश्चात वह पूर्ण रूप से इस पीलिया रोग से मुक्त हो जाता है तो वह कहता है कि अरे यह गन्ना तो अत्यंत ही मधुर है। स्वादिष्ट है, मुझे और गन्ना चाहिए, मुझे और गन्ना चाहिए। एक समय ऐसा था जब वह गन्ने को खाना ही नहीं चाहता था। वो कहता था कि क्या इसके अलावा अन्य कोई वस्तु है, जिसे मैं खा पाउँ। इसका मुझे स्वाद नही आ रहा है। यह मुझे अच्छा नही लग रहा है परंतु धीरे धीरे जब उसने इस गन्ने को खाया और वह रोग मुक्त हो गया और अब वह अधिक मात्रा में गन्ने की मांग कर रहा है। इसी प्रकार रूप गोस्वामी बताते हैं कि दरादनुदिनं अर्थात प्रतिदिन हमें माला करनी चाहिए। माला हमारे लिए एक दवाई के समान है। पहले एक माला, फिर दूसरी माला, उसके बाद तीसरी माला, फिर करते करते जब हम हमारी सोलह माला का जप करते हैं। बाद में हम फिर से सोलह माला, या फिर से सोलह माला या अगली 16 माला उसी दिन या उससे अगले दिन जाप करते हैं परंतु यह अनुदिनं होनी चाहिए, प्रतिदिन होनी चाहिए और इसके पश्चात वे कहते हैं, 'स्वाद्वी क्रमाद्भवति' अर्थात धीरे धीरे हमारी उस में रुचि उत्पन्न होती है। जब हम निरतंर नियमित रूप से नाम का जप करते हैं तो हमारी इस हरिनाम में रुचि उत्पन्न हो जाती है। हमें यह हरिनाम मधुर लगने लगता है। अंत में रुप गोस्वामी बताते हैं मूलहन्त्री अर्थात हम उस बीमारी से मुक्त हो जाते हैं। हम भव रोग, काम रोग आदि बीमारियों से ग्रसित हैं। जब हम इस हरिनाम का अधिक से अधिक मात्रा में जप करेंगे, कीर्तन करेंगे, हम भी इन बीमारियों से मुक्त हो जाएंगे। हम हरिनाम का जप करके इस भव रोग से मुक्त हो सकते हैं। क्या आप श्रील रूप गोस्वामी जी द्वारा दिए इस निर्देश को समझ पाए, यहां हमने जिस तत्व के विषय में चर्चा की है, क्या आप उसे समझ पाएं। आप इस श्लोक को और अधिक पढ़िए।आप इन निर्देशों को पढ़िए। यह उपदेशामृत का सातवां श्लोक है, जिसके विषय में हमने अभी अभी चर्चा की, आप सब उपदेशामृत से इस श्लोक को, इसके अनुवाद को और श्रील प्रभुपाद द्वारा दिए गए इसके तात्पर्य को पढ़िए और इसके महत्व को समझिए। इस प्रकार से आप सदैव जप करते रहिए। मैं आशा करता हूँ, यदि आप निरतंर जप करते रहेंगे, एक दिन निश्चय ही हरिनाम में आपकी रुचि उत्पन्न हो जाएगी।आपकी इसमें आसक्ति उत्पन्न हो जाएगी और उस स्थिति में आप इस हरिनाम को रोकना नहीं चाहेंगे। हमारे आचार्य रूप गोस्वामी जी,इस चीज़ की गारंटी लेते हैं कि यदि हम निरतंर हरि नाम का जप करेंगे, तो हमारी इसमें रुचि उत्पन्न हो जाएगी और हम भवरोग से मुक्त हो जाएंगे। यह एक तत्व है, यह एक विशेष बात है, जिसकी हमनें आज चर्चा की है। आप इसका और अधिक अध्ययन उपदेशामृत से कर सकते हैं। हरे कृष्ण! परम पूज्य लोकनाथ स्वामी गुरु महाराज की जय। श्रील प्रभुपाद की जय। निताई गौर, सीतानाथ प्रेमानंदे हरि हरि बोल।

English

14TH AUGUST 2019 HARINAMA - ONLY REMEDY OF BHAVROG. I am still in New Vrindavan and the network is quite unstable here. Still we are trying so that you can all listen to the Japa-talk and there should not be any difficulties. Lots of devotees and disciples , followers and friends have come to New Vrindavan and there is a festival over here. I was studying Srila Rupa Goswami's Upadesamrta ( Nectar of Instruction) in my free time. I was studying the seventh sloka of Nectar of Instruction. This sloka got my attention. I thought it to be relevant to the chanting that we do on this conference. It is very instructive for the chanting of the holy name. Prabhupada quoted this particular instruction of Srila Rupa Goswami again and again. Many, many times he told us about this or reminded his followers about this instruction. I just want to share that with you. I will read the Sanskrit part and then try to explain it. syāt kṛṣṇa-nāma-caritādi-sitāpy avidyā- pittopatapta-rasanasya na rocikā nu kintv ādarād anudinaṁ khalu saiva juṣṭā svādvī kramād bhavati tad-gada-mūla-hantrī Here Srila Rupa Goswami is instructing that certainly beginning with Krsna's name , then it comes his caritra, His past times etc. It is very juicy. The holy name is very, very sweet. I was trying to say that one who is afflicted with the disease of jaundice , then sweet sugar candy does not taste at all sweet to that person. Candy is sweet, but the eater of the sweet candy who is afflicted with the disease , goes to the doctor. The doctor diagnoses the jaundice and the prescription is to eat sugar candy. He had tried sugar candy and it did not taste very sweet. But the doctor says sugar candy is the only cure for your jaundice. So here in this sloka, he is instructing that the holy name is the only medicine for the bhavarog, with which we have been contaminated. The sweet holy name doesn't initially taste sweet for the beginner. So one may feel, ‘How could I experience the sweetness of the holy name? Then acarya's and spiritual masters and Rupa Goswami Prabhupada here say - na rocikā nu - you are not tasting the sweetness of the holy name, but that holy name is the cure for the diseased, contaminated condition in which we are. Chanting is that cure. harer nama eva kevalam. There is no other way. Doctor tells the jaundiced patient , there is no other cure other then this sugar candy. You have to eat sugar candy. The chanter of the holy name is not interested. He has no ruci. Caitanya Mahaprabhu also says - na anuragaha - He has no attraction for the chanting. But the prescription is you have to chant. You have to keep chanting. Going back to that example of jaundice and prescription of sugar candy. When the jaundiced patient eats sugar candy, this candy cures the jaundice and as he gets cured more and more, then he begins tasting the original sweetness of sugar candy. When he is fully cured of disease, “Give me more! More sugar candy!” He was not willing to eat sugar candy as it was bitter, but he was told that this is the only cure, so he goes on. Then he gets cured and starts asking for more and more. So likewise Rupa Goswami says ādarād anudinaṁ carefully and anudinaṁ. Over again and again , day after day , round after round he could say dose after dose. Sixteen rounds after sixteen rounds some day or in few days. saiva juṣṭā svādvī kramād bhavati You will begin tasting. You develop ruci, liking , attraction , taste for the holy name. By this time tad-gada-mūla-hantrī there is a destruction of the disease which is Bhavarog, or Hritrog or Kama-rog, lust. Such diseased conditions of the contaminated consciousness could be cured or purified by mula hantri by chanting the holy name of the Lord. You could read instruction number seven from Upadeshamrta. The verse and translation of the purport , then you will have a better and clearer understanding of this instruction. Have you heard everything? It's the seventh verse from the Nectar of Instruction. So keep chanting and one day you will reach that point where you will have so much attraction for the holy name that you don't want to stop. This is guaranteed by our acarya Srila Rupa Goswami.

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