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जप चर्चा* पंढरपुर धाम से दिनांक २२ .०२.२०२१ ओम नमो नारायणाय। हरि हरि ।। 714 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। प्रतिदिन या तो कोई चुनौती प्राप्त होती है या कोई सुअवसर प्राप्त होता है।आज के दिन को सुअवसर ही कहना होगा क्योंकि आज का दिन बड़ा महान हैं।आज रामानुजाचार्य तिरोभाव तिथि महोत्सव है।रामानुजाचार्य तिरोभाव तिथि महोत्सव कि जय।हम इतने भाग्यवान है कि हमारे इतने पूर्व आचार्य हो चुके हैं।जीसस भगवान के सच्चे पुत्र रहे। किसी के जीसस है,किसी के मोहम्मद है,किसी के मोसेस है,किसी के इब्राहिम है तो किसी के सेंट पॉल है।ऐसे देश विदेश के धर्मावलंबियों के गिने-चुने आचार्य हैं।जिनका मैंने नाम लिया वह सारे संसार के पूर्व आचार्य रहे।श्रील प्रभुपाद कहते थे कि जीसस क्राइस्ट भी एक आचार्य थे।रामानुजाचार्य,मधवाचार्य,विष्णु स्वामी,निंबार्काचार्य जैसे भी अनेक आचार्य रहे हैं।बहुत समय बीत चुका है,पर यह भी दुनिया वालों को ज्ञान नहीं है।उनका इतिहास तो केवल 2000- 3000 साल पहले से ही शुरू होता है लेकिन यह काल की गन्ना भी अधूरी या गलत है। कई सदियां,कई युग और कई ब्रह्मा के दिन बीत चुके हैं। हरि हरि।। ब्रह्मा अब 50 वर्ष के हो चुके हैं। हम बड़े भाग्यवान हैं ,हम भाग्यवान हैं से पहले मैं कह रहा था कि हम हिंदू बहुत भाग्यवान है या हम गोडिय वैष्णव बहुत भाग्यवान हैं कि हमारे इतने सारे पूर्व आचार्य हुए। बहुत सारे महान भक्त हुए है इस संसार में,लेकिन वे सभी आचार्य केवल एक धर्म तक सीमित नहीं थे।जैसे ईसा मसीह केवल ईसाइयों के ही आचार्य नहीं थे,वैसे ही रामानुजाचार्य भी केवल हिंदुओं के लिए या श्री संप्रदाय के अनुयायियों के ही आचार्य नहीं थे। यह सभी आचार्य भले कहीं भी प्रकट हुए हो परंतु यह सभी ही इस संसार की संपत्ति हैं। इन सभी आचार्यों में या भक्तों में एक हुए रामानुजाचार्य।यहा एक कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि एक कहने से लगता है कि वह छोटे हो गए । हरि हरि।। रामानुजाचार्य तिरोभाव महोत्सव सारे संसार को मनाना चाहिए। यह उनके संस्मरण का दिन है। राम- अनुज यह लक्ष्मण के अशांश रहे। राम अनुज या रामअनुज्ञ। जैसे लक्ष्मण जी गुरु है,बलराम जी गुरु है वैसे ही रामानुजाचार्य सारे संसार के गुरु हुए।यह लगभग 1000 वर्ष पूर्व की बात है।,1017 वह वर्ष है जिसमे रामानुजाचार्य प्रकट हुए और वह इस धरातल पर 120 वर्षों तक रहे।1137 वर्ष पहले आज ही के दिन उनका तिरोभाव हुआ।उनका तिरोभाव श्रीरंगम धाम में हुआ। श्रीरंगम धाम की जय।। उनका जन्म चेन्नई के पास एक स्थान श्री पेरामबुदुर (तमिलनाडु) मे हुआ।उनके पिता का नाम केशव आचार्य था।केशव आचार्य पहले संतान विहीन थे।फिर वह पार्थसारथी भगवान के विग्रह के दर्शन करने चेन्नई गये।वहां मैं भी गया हूं ।पार्थ सारथी भगवान की जय ।। दिल्ली में भी श्रील प्रभुपाद ने पार्थ सारथी भगवान के विग्रह की स्थापना की है,जिन विग्रहो का मैं भी पुजारी रह चुका हूँ।वहां जाकर उन्होंने पार्थ सारथी भगवान की विशेष आराधना की और उसका फल यह प्राप्त हुआ कि उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। और उनका नाम हुआ रामानुज। रामानुज अपनी माता के भ्राता के संपर्क में आए और उनके सत्संग से प्रभावित होने लगे और इस तरह वे श्री संप्रदाय के अनुयायी बनने लगे।उनके पिता ने रामानुज का विवाह कम उम्र में ही कर दिया। उनके पुत्र के विवाह के 1 साल के अंदर ही उनका देहांत हो गया। उस समय रामानुज ने अपनी पत्नी के साथ कांचीपुरम के लिए प्रस्थान किया। जिस कांचीपुर के वरधराज प्रसिद्ध है।जहां भगवान वरधराज की आराधना होती है। मैं भी गया हूं वहां। शिव कांची और विष्णु कांची दो कांचिया है वहां।कांची पूर्ण महाराज विष्णु कांची के वरधराज कि आराधना कर रहे थे,यानी वहां के आचार्य कांची पूर्ण महाराज थे। तो उस समय रामानुजाचार्य कांचीपूर्ण के संपर्क में आए और उनसे शिक्षा ग्रहण करने लगे। कांचीपूर्ण रामानुजा के शिक्षा गुरु बन गए। उन्होंने कांची पूर्ण महाराज को अपने घर भिक्षा ग्रहण करने के लिए बुलाया। वह आए तो सही लेकिन वह थोड़ी जल्दी आए और प्रसाद ग्रहण करके प्रस्थान कर गए।कांची पूर्ण जन्म से ब्राह्मण नहीं थे। वे किसी और जाति के थे। रामानुजाचार्य की धर्मपत्नी का जात पात में बड़ा विश्वास था। उसने कांची पूर्ण महाराज को भोजन तो खिलाया लेकिन जब उन्होंने वहां से प्रस्थान किया तो उनका जो जूठन था उसको ऐसे ही कहीं भी फेंक दिया ।नहाई धोई और फिर अपना भोजन बनाया। जैसे ही रामानुजाचार्य आए उनको थोड़ा अचरज हुआ कि उनके महाराज आए भी और भोजन करके प्रस्थान भी कर गए । हरि हरि।। तो जैसे ही वह आए उन्होंने पूछा कि क्या कुछ महाप्रसाद रखा है मेरे लिए? उसने नहीं रखा था तो वह समझ गए कि उसने महाप्रसाद का क्या किया होगा। इस वाक्या से रामानुजाचार्य का अपनी पत्नी से नाराज होना प्रारंभ हो गया और धीरे-धीरे और भी कारण बनते गए। श्रीरंगम क्षेत्र के आचार्य यमुनाचार्य थे। अब उनके प्रस्थान का समय आ चुका था,वह यह जानते थे तो उन्होंने उनके एक शिष्य को जिसका नाम महा पूर्ण था, कांची पूर्ण भेजा और कहा कि रामानुज को बुलाकर लाओ। इन रामानुज के बारे में यमुनाचार्य ने खूब सुना था और वह इनसे बहुत प्रभावित थे और इनसे बहुत ही प्रसन्न थे। वो रामानुज को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। वह उनको श्रीरंगम के मठाधीश बनाना चाहते थे ।तो जब रामानुज को बुलाने महा पूर्ण गए तो इन महापूर्ण से भी रामानुज ने कुछ शिक्षा या दीक्षा प्राप्त की। इन महा पूर्ण महाराज के साथ भी रामानुजाचार्य की पत्नी का व्यवहार ठीक नहीं था। जैसे ही महा पूर्ण रामानुज को बुलाने आए रामानुज ने अपनी पत्नी को मायके भेज दिया और कांचीपुरम में सन्यास ले लिया।जब वे कांचीपुरम पहुंचे तो बहुत देर हो चुकी थी यमुनाचार्य ने अपना देह त्याग कर दिया था।रामानुज अभी रास्ते में ही थे तो वो भगवान की नित्य लीला में प्रविष्ट कर गए। महा पूर्ण जब रामानुज को लेकर पहुंचे तो सभी ने देखा कि यमुनाचार्य के एक हाथ कि तीन उंगलियां बंद थी तो सभी को लग रहा था कि इसके पीछे क्या रहस्य है। रामानुज इस बारे में जानते थे ।रामानुज समझ गए कि यमुनाचार्य की कुछ अंतिम इच्छा थी और अधुरी थी इसलिए उन्होंने तीन उंगलियां बंद करके रखी थी। रामानुज संकल्प लेने लगे। पहला संकल्प यह था कि वेदांत सूत्र पर मैं श्री भाष्य लिखूंगा। ऐसा करते ही एक उंगली खुल गई। दूसरा संकल्प पूरे भारतवर्ष में विशिष्ट अद्वैत सिद्धांत का प्रचार प्रसार करूगा।दूसरा संकल्प लेते ही दूसरी उंगली खुल गई और तीसरा संकल्प यह कि श्री व्यास देव के गुरु श्रील पराशर का नाम अपने किसी अनुयाई को दूंगा।ताकि पराशर की कीर्ति फैलें। तीन संकल्प लेते ही तीनों उंगलियां खुल गई। फिर वहां से वह पुण: कांचीपुरम लौट गये।श्रीरंगम में यमुनाचार्य के वैकुंठ जाने के पश्चात वहां की व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं हो रही थी तो यमुनाचार्य के अनुयायियों की मांग थी कि यहां का प्रचार रामानुजाचार्य देखे।तो रामानुजाचार्य को पुनः बुलावाया गया।फिर वहां आकर उन्होंने श्रीरंगम मंदिर का कार्यभार संभाला।जैसे एक समय श्रील भक्ति विनोद ठाकुर भी जगन्नाथ मंदिर के अध्यक्ष थे। वह उस समय आचार्य तो नहीं थे,डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ही थे लेकिन जब उन्होंने देखा कि सब व्यवस्था सुचारू रूप से होती है तो उन्होंने कार्यभार संभाला।रामानुज अब आचार्य बन गए।रामानुज बन गए रामानुजाचार्य।रामानुज श्री संप्रदाय के आचार्य हैं जो कि लक्ष्मी जी से प्रारंभ होती हैं। यह संप्रदाय सृष्टि के प्रारंभ से ही चल रहा है और चलता रहेगा। चारों ही संप्रदाय जब से सृष्टि हुई तब से है। sampradaya-vihina ye mantras te nisphala matah atah kalau bhavisyanti catvarah sampradayinah sri-brahma-rudra-sanakah vaisnavah ksiti-pavanah catvaras te kalau bhavya hy utkale purusottamat ramanujam sri svicakre madhvacaryam caturmukhah sri visnusvaminam rudro nimbadityam catuhsanah (10.16-22-26) चारों संप्रदाय वैष्णव संप्रदाय भी कहलाते हैं। इसी श्री संप्रदाय के आचार्य बने रामानुजाचार्य।उन्होंने वेदांत सूत्र पर भाषण लिखा जिसका नाम भी रखा श्री भाष्य ।श्री लक्ष्मी जी का नाम है। तो जैसा उन्होंने संकल्प किया था या वादा किया था यमुनाचार्य को कि मैं ऐसा करूंगा तो उन्होंने संसार भर में या भारत वर्ष में प्रचार करा।पहले भारतवर्ष में नेपाल भी था,बर्मा भी था,श्रीलंका भी था,पाकिस्तान भी था, बांग्लादेश भी था,सब कुछ भारत में ही था । कलियुग की चाल है ये कि बांटो और शासन करो ।तो भारत के टुकड़े होते होते अब कुछ ही हिस्सा बचा है ,छोटा सा ही भूखंड जिसको हम अब इंडिया कहते हैं। रामानुजाचार्य ने सर्वत्र प्रचार किया। उनके प्रचार के लिए 7000 सन्यासी शिष्य थे,12000 ब्रह्मचारी शिष्य थे,गृहस्थ शिष्यों कि तो कोई गन्ना ही नहीं थी।उनके असंख्य गृहस्थ शिष्य थे।उनमें कई सारे राजा महाराजा भी थे, उद्योगपति भी थे।श्री संप्रदाय का प्रचार रामानुजाचार्य ने सर्वत्र किया। हरि हरि।। और यह सब करने का उद्देश्य या उनके प्राकट्य का ही उद्देश्य था अद्वैतवाद का खंडन।जैसा कल हम सुन रहे थे कि मधवाचार्य प्रकट हुए तो सभी वैष्णवाचार्यो के प्राकट्य का उद्देश्य या उनकी व्यवस्था जो भगवान ने की है वह यही हैं कि अद्वैतवाद का खंडन।अद्वैतवाद का मुख बंद करना। वही बात नमस्ते सारस्वते देवे गौरवाणी प्रचारिणे निर्विशेष शून्यवादि पाश्चात्यदेश तारिणे (श्रील प्रभुपाद प्रणति) उनका कहना है कि भगवान निराकार है,निर्गुण है। भगवान केवल ज्योति है ,रामानुजाचार्य का उद्देश्य इन सब का खंडन करना ही था।इन सब को चैतन्य चरितामृतम में मायावादी,कृष्ण अपराधी कहा गया है। prabhu kahe,--"māyāvādī kṛṣṇe aparādhī 'brahma', 'ātmā' 'caitanya' kahe niravadhi (CC Madhya 6.182) यह बहुत बड़े अपराधी हैं और बहुत अपराध करते रहते हैं इनका कहना है कि हां हां भगवान तो है लेकिन उनका कोई रूप नहीं है,इस कथन पर प्रभुपाद लिखते हैं कि भगवान पूर्ण हैं और आप कहते हैं कि भगवान का रूप नहीं है तो भगवान पूर्ण है तो उनको कोई रूप तो होना ही चाहिए। उस पर यह कहते हैं कि वह भगवान तो है परंतु भगवान का कोई रूप नहीं है वे ब्रह्म ज्योति है ,वें भगवान तो है लेकिन वह चल नहीं सकते मतलब लंगड़े हैं भगवान। भगवान देख नहीं सकते मतलब अंधे हैं। अरे मूर्ख जब तुम देख सकते हो तो भगवान कैसे नहीं देख सकते ।भगवान ने तुमको आंखें दी है तो क्या भगवान की खुद की आंखें नहीं है ?यह सब अपराध के वचन कहते हैं । māyāvādam asac-chāstraṁ pracchannaṁ bauddham ucyate mayaiva vihitaṁ devi ka (चेतनय चरित्रामृत मध्य लीला( 6.182)) असत्य शास्त्रों का जो प्रचार हुआ था,अभी-अभी हुआ था।कुछ 1200 वर्ष पूर्व शंकराचार्य ऐसे प्रचार करते आगे बढ़े ही थे तो कुछ 200 सालों के उपरांत इन चार वैष्णव आचार्यो में से प्रथम आचार्य रामानुजाचार्य ने इन सब बातों का खंडन करने के लिए वैष्णव सिद्धांत की स्थापना की। उनका भगवद्गीता पर भाष्य बड़ा प्रसिद्ध है ।वह भी भगवत गीता यथारूप ही है। श्रीरंगम में रामानुजाचार्य लगभग 50 से 60 वर्ष तक रहे।अपनी आयु का अधिकतर समय उन्होंने श्रीरंगम में ही बिताया। उन्होंने श्रीरंगम को अपना मुख्यालय बनाया, जहां श्रीरंगम भगवान की आराधना होती है। रामानुज संप्रदाय के वैष्णव वृंद लक्ष्मी नारायण के आराधक होते हैं। आज के दिन उन्होंने भी एक उत्तराधिकारी का चयन किया।रामानुजाचार्य की जीवनी तपनामृत नामक ग्रंथ में है। अगर आप इससे कहीं प्राप्त करो तो इसे पढ़ सकते हो। रामानुजाचार्य कि और भी कई जीवनिया हैं। हरि हरि।। जब उनके शिष्य उनके प्रस्थान कि तैयारी कर रहे थे तो उन्होंने अपना सिर गोविंद नाम के अपने एक अनुयाई की गोद में रखा,1 शिष्य कि गोद में उनके चरण थे और यमुनाचार्य कि मूर्ति को सामने रखकर वे अपने गुरु महाराज का स्मरण कर रहे थे और इतने में उनके शिष्य, उनके अनुयायी जिनको यह समाचार मिला कि अब वह प्रस्थान कर रहे हैं,भगवद्धाम लौट रहे हैं,वहां पहुंचने लगे।वह सभी रामानुजाचार्य का और भगवान का भी ईष्टोगान कर रहे थे। नारायण नारायण नारायण।। लक्ष्मी नारायण नारायण नारायण।। आज ही के दिन,अपनी तिरोभाव तिथि के दिन ऐसी परिस्थिति में उन्होंने प्रस्थान किया और रामानुजाचार्य के विग्रहों का आप आज भी दर्शन कर सकते हैं। उनको समाधि स्थित तो किया गया किंतु उनकी वपू को जैसे जमीन में गड्ढा होता है वैसे नहीं बिठाया गया है। श्रीरंगम मंदिर के ही आंगन में रामानुजाचार्य के विग्रह रखे गए हैं ।उनको वहा सुरक्षित और संभाल कर रखा गया है। आप उनके दर्शन कर सकते हैं। मुझे भी कई बार उनके दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। हम एक बार वहां पदयात्रा भी लेकर गए थे ।वहां पर यात्रियों का बहुत स्वागत हुआ था। चैतन्य महाप्रभु ने रामानुजाचार्य संप्रदाय से दो बातों को स्वीकार किया। एक तो रामानुजाचार्य संप्रदाय की भक्ति।,शुद्ध भक्ति। अन्य अभिलाषीता शुंयम् ज्ञान कर्मादि अनावृतम् अनुकूलेन कृष्ण अनुशीलनम् भक्ति उत्तमा। । (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 19.167) ऐसी भक्ति जो कर्म और ज्ञान मिश्रित ना हो। एक कर्म मिश्रित भक्ति होती है और एक ज्ञान मिश्रित भक्ति होती है। लेकिन वह शुद्ध भक्ति नहीं कहलाती किंतु रामानुज ने जो भक्ति सिखाई वह शुद्ध भक्ति थी। चैतन्य महाप्रभु ने अपने संप्रदाय में शुद्ध भक्ति को स्वीकार किया और दूसरी बात है संतों कि सेवा या भक्तों कि सेवा, वैष्णो कि सेवा या दासानुदास भाव। चैतन्य महाप्रभु ने इस भाव पर बहुत जोर दिया हैं। trinad api sunicena taror api sahishnuna amanina manaden kirtaniyah sada harihi (शिष्टाकम श्लोक-३) दूसरों का सम्मान करो। इस संप्रदाय में रामानुजाचार्य कि शिक्षा है कि भक्तों का,संतों का सम्मान करो। सभी का सादर सत्कार,सम्मान और सेवा होती है इस संप्रदाय में। और इसके विपरीत होता है वैष्णव अपराध,वैष्णव निंदा। रामानुजाचार्य के श्री संप्रदाय में वैष्णव निंदा का या वैष्णव अपराध का कोई स्थान नहीं था या कोई स्थान नहीं हैं । इस बात को महाप्रभु ने गोडिय वैष्णव संप्रदाय में स्वीकार किया। हमें भी रामानुजाचार्य के चरणों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिए। ताकि हम भी शुद्ध भक्ति करके यह सीख सके कि भगवान की भक्ति नहीं करनी है बल्कि भगवान के भक्तों कि भक्ति और सेवा करनी है। हरि हरि ।। जैसे भगवान कि भक्ति करते हैं ऐसे ही गुरु और वैष्णवो कि भी भक्ति करनी है।यह सिद्धांत भी है और यह वेदवानी भी है । हरि हरि।। रामानुजाचार्य तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय ।। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।।

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