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हरे कृष्ण! जप चर्चा पंढरपुर धाम 01 जुलाई 2021 ॥ जय श्री कृष्ण चैतन्य , प्रभु नित्यानंद , श्री अद्वेत , गदाधर , श्रीवास आदि गोर भक्त वृंद ॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ 847 स्थानो से भक्त जप कर रहे हैं । आप सभी का स्वागत है । ( परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज संबोधित करते हुए ) 'धीर प्रशांत' और बाकी सभी भक्तों को भी । आज गुरुवार है , आज तो कोई विशेष तिथि नहीं है । या वैष्णव तिथि के अनुसार या पंचांग के अनुसार आज केवल गुरुवार ही है । या जिसको बृहस्पतिवार भी कहते हैं । बृहस्पति जो देवताओं के गुरु । देवताओं के भी गुरु है बृहस्पति । तो यह दिन गुरुवार के नाम से जाना जाता है । वैसे आज एक घटना घटनी चाहिए थी या प्रारंभ होनी चाहिए थी । किंतु प्रारंभ नहीं होने वाली है और वहां है *"दिंडी"* या महाराष्ट्र में जिसको दिंडी कहते हैं । दिंडी यात्रा ना की दांडी यात्रा । महात्मा गांधी की दांडी यात्रा गुजरात में और किसी उद्देश्य से वह यात्रा की या पैदल यात्रा की । महाराष्ट्र में दिंडी यात्रा कुछ पिछले 700 वर्षों से चल रही है । और आज के दिन वह प्रारंभ होकर 18 दिनों के उपरांत पंढरपुर में पहुंचती है । यह पदयात्रा दिंडी , वह केवल चलते ही नहीं उसके साथ नाचते भी हैं । तो यह यात्रा करने वाले या दिंडी करने वाले भक्तिको वारकरी कहते हैं । महाराष्ट्र में वार मतलब बार (सप्ताहिक वार वाला वार ) । वार और बार एक ही मतलब है । बारंबार तो जो बारंबार या पुनः पुनः जो आते हैं पंढरपुर विशेषकर जो चल के आते हैं उनको वारकरी कहते हैं । उसमें से कई सारे पताका लेकर भी चलते हैं । और हरे कृष्ण दिंडी वाले भी या हरे कृष्ण भक्तों की दिंडी में भी मुझे याद आ रहा है कि पिछले लगभग 20 सालों से हमारे केशव प्रभु , उद्धव प्रभु , पार्थसारथी प्रभु , या राधा श्याम प्रभु पुणे मंदिर के अध्यक्ष उनकी प्रेरणा से या उनके आयोजन से उनके व्यवस्था से पिछले 20/21 सालों से हरे कृष्णा दिंडी भी चल रही थी लेकिन आज नहीं चलेगी नहीं प्रारंभ होगी जो दूर देव की बात है । पिछले साल भी नहीं हुई और इस साल भी नहीं हो रही जा रही है । यह कोरोना का प्रभाव है । हरि हरि !! तुकाराम महाराज भी दिंडी में आया करते थे , यात्रा में आया करते थे । यह 500 वर्ष पूर्व की बात है । या450 वर्ष पूर्व की बात है । तो 1 साल नहीं आ पाए बीमार थे । जनानी के लिए तो बड़े लालाइत और बड़े उत्कंठीत् थे । फिर उन्होंने एक पत्र लिखा विट्ठल भगवान को । वह पत्र अभी उपलब्ध है आप उसे पढ़ सकते हो । पत्र लिखकर उन्होंने अपने मित्र के पास दीया । तो उस मित्र ने दिंडी में आने वाले थे तो वे आए भी 18 दिन चल के । 1 दिंडी तो , इस दिंडी में कुछ 5,00,000 वारकरी पैदल यात्रा करते हैं । यह कुछ वर्ल्ड रिकॉर्ड या गिनेस वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी आ सकता है । 5,00,000 या प्लस माइनस कहिए यात्रा करते हुए आते हैं । अलग-अलग स्थानों से आते हैं । एक स्थान तो था तुकाराम महाराज का; देहू गांव ही है । तुकाराम महाराज का जन्म स्थान । या तुकाराम महाराज के जन्म स्थान भी और तुकाराम महाराज के प्रस्थान , बैकुंठ गमन स्थान भी वह देहू या आपको बता ही दें जब कोई एयरलाइन नहीं चलती थी इस पृथ्वी पर लेकिन अब तो एयर इंडिया, एयर फ्रां, या तो गरुड़ एयरलाइंस आजकल इंडोनेशिया देश की एयरलाइंस का नाम है गरुड़ एयरलाइंस । इस समय कोई एयरलाइन नहीं थी । वैसे अमेरिका में कुछ समय पहले (परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज खुद को संबोधित करते हुए ) मैं जब 20/30 पहले जब यात्रा किया करता था तब सिर्फ एक एयरलाइन थी T.W.A उसका नाम था । ट्रांसफर एयरलाइन । तो इस्कॉन के भक्त कहते थे यह ट्रांस डेंटल ( दिव्य ) वर्ल्ड एयरलाइन है । इस जगत के परी वाली । तो सचमुच 450 वर्ष पूर्व ऐसे ही एक TWA , वैकुंठ से विमान आया । और लैंड किया पुणे के पास । फिर देहू गांव है । जिसे पुणे को भी एक समय पुण्य नगरी कहते थे तो वह धीरे-धीरे पुण्य नगरी तो भूल गए पुणे का पुणे हुआ अंग्रेजों ने उसको पूणा कहना प्रारंभ किए । तो उस पुण्य नगरी के पुणे के और उस पर उसमे इंद्रायणी पवित्र नदी के तट पर ये देहू गांव तो वहां यह विमान पहुंचा । और तुकाराम महाराज , वैसे उनकी तीव्र इच्छा थी भगवत प्राप्ति की इच्छा यह नहीं कि उनको भगवत प्राप्ति नहीं हुई थी । तो कहना होगा कि भगवत धाम की प्राप्ति कि तीव्र इच्छा थी । और कई दिनों तक वह कीर्तन कर रहे थे । जय जय राम कृष्ण हरि ,जय जय राम कृष्ण हरि ,जय जय राम कृष्ण हरि । यह गा रहे थे राम कृष्ण हरि । हरे कृष्ण महामंत्र जैसा ही । तो इसमे बीज मंत्र है हरि । राम कृष्ण हरि । और अपने खुद के अभंग भी गा भी रहे थे । उन्होंने कुछ 4500 अभंग लिखे I भगवान के नाम , रूप , गुण , लीला का वर्णन करने वाले 4500 अभंग की रचना तुकाराम महाराज ने की । चक्षुदान दिलो येई, जन्मे जन्मे प्रभु सेइ, दिवय ज्ञान हृदे प्रकाशित । प्रेम-भक्ति याँहा हइते, अविद्या विनाश जाते, वेदे गाय याँहार चरित ॥3॥ अनुवाद:- वे मेरी बन्द आँखों को खोलते हैं तथा मेरे हृदय में दिवय ज्ञान भरते हैं। जन्म-जन्मातरों से वे मेरे प्रभु हैं। वे प्रेमाभक्ति प्रदान करते हैं और अविद्या का नाश करते हैं। वैदिक शास्त्र उनके चरित्र का गान करते हैं। उनके हृदय प्रांगण में दिव्य ज्ञान प्रकाशित होता । ज्ञानी हि नहीं भगवान प्रकाशित होते । प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति । यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ (ब्रम्हसंहिता 5.38) अनुवाद :- जिनके नेत्रों में भगवत प्रेम रूपी अंजन लगा हुआ है ऐसे भक्त अपने भक्ति पूर्ण नेत्रों से अपने ह्रदय में सदैव उन श्याम सुंदर का दर्शन करते हैं जो अचिंत्य है तथा समस्त गुणों के स्वरूप है । ऐसे गोविंद जो आदि पुरुष है मैं उनका भजन करता हूं । अपने ह्रदय प्रांगण में यं "श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं" जो अचिंत्य भगवान का स्वरूप है गुण है रूप है तो तुकाराम महाराज देखा करते थे । भगवान को देखे थे भगवान के साथ भगवान को आह्वान करते थे , भगवान को प्रार्थना करते थे भगवान को देखते थे । भगवान को देखते ही उनकी स्तुती करते थे । उनका रूप माधुर्य का वर्णन करते थे । सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी कर कटावरी ठेवोनिया सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी तुळसीहार गळा कासे पितांबर आवडे निरंतर हेची ध्यान सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी मकर कुंडले तळपती श्रवणी कंठी कौस्तुभ मणी विराजित सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी तुका म्हणे माझे हेची सर्व सुख पाहीन श्रीमुख आवडीने सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी ( अभंग - संत तुकाराम महाराज ) भगवान को देखते हुए, भगवान को देख भी रहे हैं अपने चर्म चक्षु से नहीं देख रहे हैं । चर्म चाक्षु से तो देखा नहीं जा सकता भगवान को । अतः श्रीकृष्ण - नामादि न भवेद्ग्राह्यमिन्द्रियैः । सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः ॥ ( चैतन्य चरितामृत मध्य-लीला 17.136 ) अनुवाद:- इसलिए भौतिक इन्द्रियाँ कृष्ण के नाम , रूप , गुण तथा लीलाओं को समझ नहीं पाती । जब बद्धजीवों में कृष्णभावना जाग्रत होती है और वह अपनी जीभ से भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करता है तथा भगवान के शेष बचे भोजन का आस्वादन करता है , तब उसकी जीभ शुद्ध हो जाती है और वह क्रमशः समझने लगता है कि कृष्ण कौन हैं । ऐसा कहा गया है । हमारे जो इंद्रियां है जो कलुषित है दूषित है , अधूरी है । तो इनसे "न भवेद्ग्राह्यमिन्द्रियैः" ऐसे इंद्रियों से , चर्म चक्षु से और अन्य इंद्रियों से श्री कृष्ण के नाम , रूप गुण , लीला देखा समझा नहीं जा सकता । फिर कहा है ... "सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः" यदि हम क्या करते हैं ? भगवान के सेवा प्रारंभ करते हैं, सेवा करते हैं, साधना भक्ति करते हैं जिसकी शुरुआत कहां से ? जीह्वा से शुरू करते हैं । जीह्वा के क्या रहे हैं ? एक तो खाने का दूसरा गाने का । तो हमें जब भूख लगती है केवल कृष्ण प्रसाद ही खाएंगे । हरि हरि !! कृष्ण प्रसाद खा खा के तो जो नारद बालक थे वह नारद मुनि हो गए । एक दासी के ही पुत्र थे सेविका के पुत्र थे तो प्रसाद ग्रहण करके वह भक्ति वेदांतश जो कथा सुना रहे थे भागवत कथा हो रही थी चतुर्मास्य के महीने में । तो उनके अनुमति से प्रसाद ग्रहण करते थे यह बालक नारद । तो ऐसे बालक नारद ने हीं भगवान का दर्शन किया । "सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ" एक तो प्रसाद ग्रहण करना है और दूसरा क्या है ? हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ राधा माधव के नाम, रूप, गुण, लीला का गुणगान गाना है । साथ ही उसका श्रवण भी करना है । "सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः" हम देखना चाहेंगे तो नेहि मिलेंगे । अगर वह यदि प्रसन्न होते हैं हमारे सेवा भक्ति से । जिस भक्ति की शुरुआत प्रारंभ जिह्वा से होता है , हो सकता है । "स्वयमेव स्फुरत्यदः" तो यह कौन रोक सकता है ? भगवान स्वयं ही प्रकट होंगे उस जिह्वा पर । उन नेत्रों के समक्ष । फिर हम सुनेंगे भी सुनके जब हम सुनेंगे तो फिर सूंघेंगे जिघ्रन्ति भगवान के चरण कमल भी सुगंधित है । नहीं तो वह कैसे चरण कमल ! कमल तो सुगंधित भी होता है । केवल कोमल ही नहीं होता है या केवल श्यामल या केवल सुंदर ही नहीं होता है कमल सुगंधित भी होता है । तो भागवत कहता है कोई जिघ्रन्ति , व्यक्ति सुन भी सकता है जब वह सुनेगा भगवान के चरण कमलों का वर्णन सुनकर भगवान के चरण कमलों को वह सूंघ सकता है । देख भी सकता है सूंघ भी सकता है । हरि हरि !! तो तुकाराम महाराज भगवान को देख चुके थे और मिल चुके थे । तो यहां आकर भी स्वयं मिलते थे, दर्शन करते थे और उनका साक्षात्कार यह था कि जो यह विट्ठल भगवान है पांडुरंगा पांडुरंगा पांडुरंगा यह तो कृष्ण ही है पांडुरंग । पांडू; पीला फिकासा जिनका रंग है ऐसा भी एक नाम है । तो यह गाय चराने वाले श्री कृष्ण गोपाल, तो गाय चराते समय गाय चलती है या नंदग्राम से वनमें जा रही है वन से गाय लौट रही है । 9,00,000 संख्या में गाय हैं । और मित्रों के भी गाए हैं । जब गाय चलती है तो कुछ धूल उड़ती है । आसमान में उड़ती है उससे कुछ बादल , आसमान में बादल , और धीरे-धीरे क्या करती है वह बादल स्थीर हो जाते हैं या रज है वह जम जाती है आज भी । भगवान के नित्य लीला है । जो ब्रज के रज का जो रंग है उसी रंग के फिर भगवान रंग जाते हैं । और वह रंग कौन सा है ? पांडुरंग । इसलिए विट्ठल को 'पांडुरंग' कहते हैं । 'विट्ठल' भी कहते हैं । ईट पर खड़े हुए इसलिए विट्ठल-विठ्ठ । ईट पर वह खड़े हैं तो विट्ठल कहलाते हैं । और उनका रंग पांडुरंग । यह जो विट्ठल पांडुरंग है तो जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत: । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ( भगवत् गीता 4.9 ) अनुवाद:- हे अर्जुन ! जो मेरे आविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है , वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है । इस विग्रह का जो तत्व है ; इसका साक्षात्कार उनको अनुभव हुआ था इसीलिए वे उनकी मान्यता उनकी साक्षात्कार था कि यह विग्रह साधारण नहीं है । इसको समझाना कठिन है ! तो यह स्वयं भगवान है । इस बिग्रेड की कोई स्थापना नहीं की, प्राण प्रतिष्ठा समारोह संपन्न नहीं हुआ और फिर यह विग्रह बन गए प्राण प्रतिष्ठित । फिर दर्शनीय हुए, पूजनीय हुए इसी बात नहीं । तुकाराम महाराज का यह साक्षात्कार है कि यह भगवान तो द्वारिका से चलकर आए पंढरपुर , तंडिर वन वह सब लीला है । और फिर आए तो वही यहीं पर पुंडलिक को दर्शन दिए और पुंडलिक ने कहा हे प्रभु आप यही रहिए ... ( पाण्डुरंगाष्टकम ) महायोगपीठे तटे भीमरथ्या वरं पुण्डरीकाय दातुं मुनीन्द्रैः । समागत्य निष्ठन्तमानंदकंदं परब्रह्मलिङ्गं भजे पाण्डुरङ्गम् ॥ १ ॥ ( आदि शंकराचार्य जी के द्वारा ) यह भीम रथी जो चंद्रभागा का दूसरा नाम भागवत में उसको भीम रथी कहा गया है । उस भीम रथी के तट पर फिर योगपीठ है । महायोग पीठे है ऐसा शंकराचार्य भी अपने अष्टक में गाऐं हैं । तो योगपीठ जैसे मायापुर में योग पीठ या वृंदावन में राधा गोविंद मंदिर जहां है वह योग पीठ । हर धाम में योगपीठ होता है तो पंढरपुर में भी योगपीठ है जहां विट्ठल रुक्मिणी विराजमान है तो इस भगवान को प्रार्थना की पुंडलिक ने और यहीं रुकने के लिए कहा । तो भगवान रह गए । तो ऐसा वशिष्ठ भी है यह पांडुरंग विट्ठल विग्रह का । तुकाराम महाराज ऐसे विग्रह पांडुरंग का दर्शन करने के लिए आया करते थे । दिंडी में आया करते थे । वह दिंडी आज के दिन प्रारंभ प्रतिवर्ष हुआ करती थी आज इस साल नहीं हो रही है । यह एक दिंडी और एक बड़ी दिंडी उसमें दो ढाई लाख वारकरी चलते हैं । फिर दूसरी भी शुरू होती है हम बता भी रहे थे उसी देहू मे बैकुंठ से आ गया विमान , क्योंकि तुकाराम महाराज लौटना चाहते थे । विमान आया और विमान में बैठे और सभी को अभिवादन किए तुकाराम महाराज । और कहे भी ... आह्मी जातो आपुल्या गावा । आमचा राम राम घ्यावा ॥१ ॥ ( अभंग तुकाराम महाराज ) अनुवाद : हम अपने गांव जाते हैं । हमारा राम राम ले लो । हम अपना गांव जा रहे हैं । राम राम । तो गए तुकाराम महाराज । बैकुंठ वासी हुए या गोलोक वासी हुए । वही तुकाराम महाराज जो दिंडी में आया करते थे । ऐसी परंपरा है इस दिंडी की । यह सब दिंडी करने वाले । ( परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज अपने पिताश्री को याद करते हुए ) मेरे पिताश्री भी आया करते थे दिंडी । वैसे बड़ी-बड़ी दिंडी यां तो एक तो आषाढ़ मास में, सबसे बड़ी दिंडी तो हो आषाढ़ मास में फिर कार्तिक में फिर माघ मास में फिर चैत्र मास में । ऐसी 4 विशिष् दिंडी यां चलती है और वैसे फिर हर महीने के शुक्ल पक्ष की जो एकादशी होती है तो प्रति मांस भी यह दिन भी चलती है । मेरे पिताश्री भी आया करते थे । और हम सभी का इस दिंडी में आया करते हैं और रास्ते में कीर्तन और नृत्य करते हुए वह पंढरपुर की ओर अग्रसर होते हैं । बिना गाए, या कीर्तन श्रवण के बिना वह आगे बढ़ते नहीं । तो कीर्तन करते हुए , नृत्य करते हुए साथ में तुलसी भी सिर में ढोलते हुए , वीणा बजाते हुए जब भक्त आते हैं तो कुछ पिछले 1 वर्षों से हरे कृष्ण भिंडी वाले भी । हरे कृष्ण वाले भी बन गए दिंडी या वारकरी । तो यह ऐसी प्रथा कहो या दिंडी महाराष्ट्र में प्रसिद्ध है । न जाने मुझे मालूम नहीं श्रील प्रभुपाद ने कैसे पता लगवाए थे के मैं भी एक दिंडी करने वाले परिवार से या इस प्रदेश से हूं । जिस दिंडी में पदयात्रा चलती रहती है । पदयात्रा करते हैं । तो श्रील प्रभुपाद ने जब पदयात्रा प्रारंभ करना चाह रहे थे तो उन्होंने मुझे याद किया । कृपा करके मुझे याद किया । और मुझे पद यात्रा करने के लिए कहे । तो यह सेवा श्रील प्रभुपाद ने मुझे राधा अष्टमी के दिन श्रील प्रभुपाद राधा पार्थसारथी मंदिर न्यू दिल्ली में थे । राधा अष्टमी उत्सव में सम्मिलित होने के लिए श्रील प्रभुपाद हैदराबाद से दिल्ली आए थे और हम लोग हैं उन दिनों में मैं और मेरे गुरु भ्राता हंसदूत स्वामी मैं भी शामिल थे मेरे साथ में । एक निताई गौर वर्ल्ड ट्रेवलिंग संकीर्तन पार्टी का संचालन कर रहे थे । बड़ी जर्मनी बसेस , मर्सिडीज/Mercedes ; एक बस थी मर्सिडीज । दूसरी थी MAM /म्याम बड़ी आरामदायक , बहुत आनंददायक घूमना पूरे उत्तर भारत में । तो हम सभी यात्री, श्रील प्रभुपाद को मिलने उनका दर्शन करने हम भी आ गए दिल्ली उस राधाष्टमी के उत्सव समय में । तो उत्सव के दरमियान श्रील प्रभुपाद ने कहे बुलक कार्ट संकीर्तन यात्रा प्रारंभ कीजिए । पदयात्रा शुरू करो । वैसे बसेस में प्रारंभ था ही । बसेस का भी , जर्मन की वर्सेस था तो इसका भी अनुज्ञा पत्र ( permit ) खत्म होने जा रहा था । बसेस को वापस भेजना का समय हो चुका था तो हमारे पास कोई ट्रैवलिंग का साधन , वाहन रुकने वाला नहीं था तो यह भी एक कारण था । तो श्रील प्रभुपाद ने हमें रास्ता दिखाएं । उतरो- उतरो बस से उतरो और बेल गाड़ी में बैठो । या बेल गाड़ी चलाओ । वैसे मैं ज्यादा कुछ वाहन चलाना नहीं जानता हूं सिर्फ बेल गाड़ी चलाना जानता हूं । बुलक कार्ट ड्राइवर । मुझे वहां चलाना नहीं आता है लेकिन मैं बेल गाड़ी चला सकता हूं । तो इस प्रकार जो दिंडीयां पदयात्रा ऐं यह एक तरह से महाराष्ट्र में सीमित है । और वैसे हमारे देश में और कुछ स्थानों पर ऐसी यात्राएं होती रहती है । लेकिन सबसे अधिक तो महाराष्ट्र ही प्रसिद्ध है ऐसी यात्रा के लिए । तो ऐसी यात्रा करने के लिए मुझे श्रील प्रभुपाद ने मुझे आदेश दिए और मुझको । केबल महाराष्ट्र के सीमित के अंदर या इंडिया सीमितके अंदर नहीं रखना चाहते थे प्रभुपाद ने तो कहे थे जब हमको पहली यात्रा वृंदावन से मायापुर तक जाओ ऐसा आदेश दिए और और गए भी । तो उस पदयात्रा का बुलक कार्ट संकीर्तन पार्टी का उद्घाटन श्रील प्रभुपाद ने किए वृंदावन में । और यह चल रही थी कुछ पदयात्रा भारत के अंदर श्रील प्रभुपाद ने और एक पत्र लिखें, मेरे दूसरे गुरु भ्राता को लिखें नित्यानंद प्रभु को । नित्यानंद प्रभु अमेरिका में थे वहां एक फार्म के लीडर थे । तो उनको लिखे लोकनाथ स्वामी एक यशस्वी पदयात्रा बुलक कार्ट संकीर्तन पार्टी चला रहे हैं इंडिया में तो हमें भी चाहिए लाखों सारे बुलक कार्ट समग्र विश्व में । और इस प्रकार की लाखों-करोड़ों पदयात्रा सारे विश्व भर में होनी चाहिए ऐसी इच्छा श्रील प्रभुपाद में व्यक्त किए । Big thinking (बड़ी सोच) श्रील प्रभुपाद के सोच । श्रील प्रभुपाद कहा करते थे मेरी बीमारी है ! क्या बीमारी है ? कोरोनावायरस बीमार इत्यादि के बारे में सोच नहीं रहे थे । I could not never think small ( मैं छोटी बात कभी नहीं सोचता हूं ) मोटी बात , उच्च विचार के लिए श्रील प्रभुपाद प्रसिद्ध थे । तो बुलक कार्ट की बात millions of carts all over the world ( लाखों करोड़ों पदयात्रा सारे विश्व भर में ) तो फिर यह जो परंपरा पदयात्रा थी दिंडी की महाराष्ट्र में होती थी तो इस्कॉन जीबीसी ने पदयात्रा मिनिस्ट्री पुरी विश्व भर में स्थापना की । और इस पदयात्रा को मिशन क्या मिशन ? रति नगर और प्रति ग्राम पूरे विश्व भर में हरि नाम को पहुंचाना है । वही दृष्टिकोण जो चैतन्य महाप्रभु कहे थे । भविष्यवाणी । मेरा नाम पहुंचेगा हर नगर ग्राम में इस पृथ्वी पर । वहीं दृष्टिकोण वही उद्देश्य पदयात्रा की बन गई । या 1996 हम श्रील प्रभुपाद के 100 जन्म दिवस मना रहे थे इस साल हम 125 वा जन्म दिवस मना रहे हैं । लेकिन 1996 में जन्म शताब्दी मना रहे थे तो उस बर्ष से कई साल हमने अलग अलग पदयात्रा अलग-अलग देशों में पहुंचाना प्रारंभ किया । और 1996 में ग्रांट टोटाल होई 110 तक । 110 देशों में यह दिंडी पदयात्रा, बुलक कार्ट संकीर्तन पार्टी । या कहीं पर घोड़े का यात्रा चलती । और कहीं-कहीं परसों इसको पालकी में ही गौर निताई को विराजमान कराते थे । तो दिंडी का प्रारंभ जो महाराष्ट्र में दिंडी है । यह परंपरा यह प्रथा कहिए और सर्वत्र इस पर अमल हो रहा है और उसी के साथ ... हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ इस नाम को फैलाया जा रहा है । इस धन को फैलाया जा रहा है । इस धन को मुफ्त में बांटा जा रहा है । आप भी इस पद यात्रा बुलक कार्ट संकीर्तन मे शामिल हो जाइए । पदयात्रा की (जय !) आपका भी योगदान प्रार्थनीय है । सारी यह पदयात्रा और उसी के साथ भगवान का नाम फैलता रहे । ॥ हरे कृष्ण ॥

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