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*जप चर्चा* *पंढरपुर धाम से* *4 दिसंबर 2021* हरे कृष्ण!!! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 929 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। आप प्रतिभागियों की जय हो! हरि !हरि! बंसी वदन ठाकुर की जय! बंसीवदन ठाकुर नासिक से पंढरपुर पधार चुके हैं। उनका भी स्वागत है। आगे बढ़ते हैं। कल हमने कृष्ण को देखा था। देखा था या नहीं? कल हमने कृष्ण को देखा था जब मैंने यह कहा तो यह बात सही है या मैंने ऐसे ही कहा? देखा था या नहीं? किन को याद है या कौन स्वीकार करना चाहते हैं कि कल हमने कृष्ण को देखा था? ठीक है। कुछ हाथ ऊपर उठ रहे हैं। वैसे कृष्ण को तो यज्ञ पत्नियों ने देखा था लेकिन जब वे देख रही थी तब हमने भी देखा था। यह शुकदेव गोस्वामी ने सुनाया और फिर उसी को आगे श्रील व्यास देव ने लिखा है या पहले ही लिखा था, ऐसा भी कह सकते हैं। श्रील व्यास देव ने भागवत की रचना की। तत्पश्चात शुकदेव गोस्वामी ने वही कथा/ लीला राजा परीक्षित को सुनाई। जैसे कि हम बता रहे थे कि उसके अंतर्गत कल के ही दिन में अर्थात एक ही दिन में दो लीलाएं हुई हैं। वैसे कई सारी लीलायें एक ही दिन में होती है लेकिन दो बड़ी-बड़ी लीलाएं अथवा विशेष लीलाएं एक ही दिन में हुई। हम ऐसा ही आपको स्मरण दिला रहे थे। वह दिन मार्गशीर्ष पूर्णिमा का था। प्रातः काल में चीरहरण लीला संपन्न हुई थी। यह लीला गोपियों के संबंध में थी। भगवान् ने गोपियों के वस्त्रों का हरण किया था। तत्पश्चात दिन में लगभग मध्यान्ह के भोजन के समय एक और लीला हुई थी। पहली लीला श्री मदभागवतं के दसवें स्कन्ध के 22 वें अध्याय में वर्णित है व दूसरी लीला यज्ञ पत्नियों के साथ जो लीला भगवान ने खेली थी ( कल बताया था नाग पत्नियां और यह यज्ञ पत्नियां) अर्थात यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों की पत्नियों के साथ भगवान की यह लीला संपन्न हुई थी। ये यज्ञ पत्नियां एक वन में पहुंची। एक वन में कहने की बजाय हम उपवन कह सकते हैं। भागवतम में उपवन कहा है लेकिन आचार्यों ने उस उपवन का अर्थ समझाया हैं कि उप मतलब छोटा होता है। जैसे आप राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति का अंतर समझते हो, वैसे ही वन और उपवन का अंतर समझ सकते हो। उस वन का नाम अशोक वन था। वहां कृष्ण को भूख लगी हुई थी (इससे थोड़ी रिविजन हो जाती है। जब हम यह कहते रहते हैं, ठीक है। हम सीधा वही कह देते हैं) यज्ञ पत्नियां भगवान के लिए भोजन लेकर आई और कृष्ण को खोज रही है। कृष्ण कहां है? कृष्ण कहां है? कृष्ण कहां है? उन्होंने कृष्ण को ढूंढ ही निकाला। वैसे कल बताया ही था (वही रिवीजन की बात ) उन्होंने पहले कृष्ण के संबंध में सुना था कि कृष्ण कैसे दिखते हैं, कैसे वस्त्र पहनते हैं इत्यादि इत्यादि। यज्ञ पत्नियां उनके हावभाव का वर्णन सुन चुकी थी। यहां अब वे इतने लाखों बालकों के बीच में कृष्ण को यहां ढूंढ रही है कि कृष्ण कौन से हैं? *श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्ह धातुप्रवालनटवेषमनव्रतांसे । विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं कर्णोत्पलालककपोलमुखाब्जहासम् ।।* ( श्रीमद् भागवतम २०.२३.२२) अनुवाद:-उनका रंग श्यामल था और वस्त्र सुनहले थे । वे मोरपंख , रंगीन खनिज , फूल की कलियों का गुच्छा तथा जंगल के फूलों और पत्तियों की वनमाला धारण किये हुए नाटक के नर्तक की भाँति वेश बनाये थे । वे अपना एक हाथ अपने मित्र के कंधे पर रखे थे और दूसरे से कमल का फूल घुमा रहे थे । उनके कानों में कुमुदिनियाँ सुशोभित थीं , उनके बाल गालों पर लटक रहे थे और उनका कमल सदृश मुख हँसी से युक्त था । उन्होंने कृष्ण को देखा। देखती-देखती गई, नेति नेति भी चल रहा था। यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं... हां यह है। फिर यज्ञ पत्नियों ने देखा। वह सुंदर वर्णन शुकदेव गोस्वामी ने सुनाया है। यज्ञ पत्नियां देख रही है और उनको जो दर्शन हो रहा है, वह छवि जो उनके मन में बैठ रही है या बैठने जा रही हैं। भगवान के स्वरूप/ दर्शन की यह छवि घर करके वहीं रहेगी। उसको शुकदेव गोस्वामी सुना रहे हैं। यज्ञ पत्नियों ने जो देखा, उसका सुंदर वर्णन शुकदेव गोस्वामी ने सुनाया है। उन बातों को हमने सुना, जो लिखा है, हम पढ़ भी सकते हैं। उसको सुन भी लिया लेकिन जब हम कहीं पढ़ेंगे अर्थात सुनते तो हैं ही, सुनना थोड़ा आसान होता है। पढ़ने के लिए अधिक परिश्रम करना पड़ता है, हम सुनना ही पसंद करते हैं लेकिन पढ़ना भी चाहिए। सुनी हुई बातों को पुनः पढ़ना चाहिए। हरि! हरि! वह जो दर्शन यज्ञ पत्नियों ने किया। *श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्ह* आपको याद है कि उन्होंने क्या-क्या देखा? एक और तो दुनिया वाले अद्वैतवादी, निराकार, निर्गुण पार्टी भगवान का कोई कोई रूप ही नहीं है। ऐसा जबरदस्त प्रचार संसार भर में हो चुका है। भगवान का कोई रूप नहीं है भगवान का कोई रूप नहीं है। जब आप भगवान को रूप देते हो तब आप भगवान को सीमित कर देते हो। आप भगवान को सीमित कर रहे हो लेकिन फिर वह जानते नहीं , वह तथाकथित सीमित रूप असीम ही रहता है। वह लगता अथवा दिखता तो सीमित है लेकिन वह असीमित ही रहता है। भगवान का रूप है, शो मी दिखा दो, उनको देखो। यह भागवतम हमें भगवान का रूप दिखाता है। यज्ञ पत्नियों ने जो देखा, शुकदेव गोस्वामी उसी का वर्णन कर रहे हैं अथवा सुना रहे हैं, दिखा रहे हैं। आपको क्या-क्या याद है? कैसे-कैसे यज्ञ पत्नियों ने कृष्ण को देखा था? बोलो? एक तो श्यामवर्ण देखा था। कल यह भी कहा था और आज भी कहते हैं, जैसा कि यज्ञ पत्नियों ने पहले सुना था कि कृष्ण ऐसे हैं, ऐसे वर्ण के हैं, ऐसे वस्त्र पहनते हैं, ऐसे हंसते हैं। उन्होंने उनके हास्य का वर्णन सुना था। वे अलग-अलग अलंकार धारण करते हैं इत्यादि। यह सब उन्होंने सुना था। अब तो वे देख रही हैं। उन्होंने जैसे जैसे सुना था, हूबहू वैसा ही वह दर्शन कर रही थी। कोई अंतर नहीं था। जीरो डिफरेंस। जैसे सुना था, वैसे ही कृष्ण उनको सामने दिखाई दे रहे थे। हमारे साथ भी यही होना है, अगर हम चाहते हैं और यदि ऐसी कोई भगवान के दर्शन की हमारे अंदर तीव्र इच्छा है। दर्शन दो घनश्याम दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी, अँखियाँ प्यासी रे | मन मंदिर की जोत जगा दो, घाट घाट वासी रे || मंदिर मंदिर मूरत तेरी, फिर भी न दीखे सूरत तेरी | युग बीते ना आई मिलन की पूरनमासी रे || द्वार दया का जब तू खोले, पंचम सुर में गूंगा बोले | अंधा देखे लंगड़ा चल कर पँहुचे काशी रे || पानी पी कर प्यास बुझाऊँ, नैनन को कैसे समजाऊँ | आँख मिचौली छोड़ो अब तो मन के वासी रे || निबर्ल के बल धन निधर्न के, तुम रखवाले भक्त जनों के | तेरे भजन में सब सुख़ पाऊं, मिटे उदासी रे || नाम जपे पर तुझे ना जाने, उनको भी तू अपना माने | तेरी दया का अंत नहीं है, हे दुःख नाशी रे || आज फैसला तेरे द्वार पर, मेरी जीत है तेरी हार पर | हर जीत है तेरी मैं तो, चरण उपासी रे || द्वार खडा कब से मतवाला, मांगे तुम से हार तुम्हारी | नरसी की ये बिनती सुनलो, भक्त विलासी रे || लाज ना लुट जाए प्रभु तेरी, नाथ करो ना दया में देरी | तिन लोक छोड़ कर आओ, गंगा निवासी रे || मीराबाई तो कह कर चली गई लेकिन वह घनश्याम आज भी हैं। मीराबाई की आंखें प्यासी थी, भगवान ने मीराबाई की प्यास बुझाई भी। अगर हमारी भी प्यास है, तो प्यास बुझाई जा सकती है। प्यास है? यही समस्या है कि हमारे अंदर प्यास नहीं है। हमें तो दूरदर्शन देखने की प्यास हैं। मुंबई का बॉलीवुड और कैलिफोर्निया का हॉलीवुड.. इसी की प्यास है इसलिए इसी को देखते रहते हैं लेकिन कहां है वह भगवान के दर्शन की अभिलाषा। भगवान तब दर्शन देंगे (किसी ने..अभी नहीं कहूंगा) जब हम सुनते जाएंगे, सुनते जाएंगे। सुन सुनकर भी हमारी प्यास कुछ बढ़ सकती है। थोड़ी-थोड़ी बुझना भी प्रारंभ होगी। बुझना अर्थात कुछ दर्शन होगा। एक समय तो पूरा दर्शन होना है। जैसे यज्ञ पत्नियों ने प्रत्यक्ष दर्शन किया। एक परोक्ष होता है, एक प्रत्यक्ष होता है। यह भी अच्छे शब्द हैं। केवल शब्द ही नहीं। उसके साथ कितनी सारी समझ है। प्रत्यक्ष और परोक्ष। अभी तो हम परोक्ष में भगवान का दर्शन करते हैं। कहीं हैं कृष्ण अर्थात वे अपने धाम में हैं, गोलोक, गोकुल में है। वे लीला खेल रहे हैं। आज भी अब भी राइट नाउ, वही हैं। यह परोक्ष में हुआ। तब प्रत्यक्ष शब्द को कैसे समझेंगे? कई बार समझाया है प्रति- अक्ष अर्थात प्रत्यक्ष। अप्रत्यक्ष प्रति मतलब सामने। अक्ष मतलब आंखों के सामने। प्रत्यक्ष। परोक्ष अर्थात कही और है, दूर नगरी है। हम कुछ कल्पना करते हैं, स्मरण करते हैं। एक दिन प्रत्यक्ष दर्शन करना है या नहीं? इसलिए पहले सुनना होगा। उस दर्शन/ रूप के बारे में कुछ सुनना होगा। सुनने के उपरांत क्या-क्या करना होगा? श्रवण के उपरांत या अध्ययन के उपरांत क्या करना होगा? उपरांत का मतलब समझते हो ना? क्या करना होता है? चिंतन करना होता है। क्या आप में से किसी ने सोचा था? आपकी आवाज मुझ तक नहीं पहुंच रही है लेकिन क्या किसी के मन में विचार आ रहा था कि श्रवण के बाद चिंतन करना होता है। किसी ने सोचा था ,हाथ ऊपर कीजिए। अगर सोचा होगा तो? (हम जानते हैं कि आपके हाथ हैं। ऐसे हाथ नहीं दिखाना हैं। मेरा भी हाथ है। ओके।) आप कुछ प्रशिक्षित हो रहे हो। ट्रेनेड हो रहे हो। पिछले दो-तीन सालों में कम से कम दस- बीस बार तो बताया ही होगा। श्रवण के उपरांत सुनी हुई बातें या अध्ययन के बाद पढ़ी हुई बातों का चिंतन करना होता है। जैसे धुंधकारी चिंतन कर रहा था जबकि अन्य श्रोता सुनी हुई बातों को वही छोड़ रहे थे और अपने काम धंधे में लग गए थे। बातों का विचार चिंतन नही किया। वे श्रोता सुनी हुई बातों का पूरा भूल गए। मानो जैसे सुनी ही न हो। अब दुबारा सुनेंगे, अगले दिन सुनेंगे, टू भी कंटिन्यूड.(आगे जारी रहेगा।) इसका परिणाम कुछ अच्छा नहीं निकला था। गोकर्ण ने भागवत कथा सभी को सुनाई थी। उस भागवत कथा के अंत में एक छोटा सा विमान वहां पहुंचा। हरि! हरि! वहां जो एयर होस्ट थे (एयर होस्टेस की बात नहीं है) एयर होस्टेस पुरुष अर्थात विमान परिचारक, वे केवल धुंधकारी को वैकुंठ ले जा रहे थे।तब गोकर्ण अर्थात स्पीकर अथवा जपा टॉक देने वाले ने उनसे पूछा। वे एयर होस्ट( विमान परिचारक) विष्णु दूत ही थे। भगवान विष्णु ने ही उनको वैकुण्ठ से भेजा था। "केवल धुंधकारी को लेकर आओ।" जब धुंधकारी हवाई जहाज( विमान) में बैठने के लिए सीढ़ी से चढ़ रहे थे। विमान उड़ान भरने ही वाला था, इतने में गोकर्ण ने पूछा। यह सब भागवत माहात्म्य पदम पुराण में वर्णित है। इस कथा /भागवत माहात्म्य को 6 अध्यायों में सुनाया गया है। हमने भी कई बार भागवत माहात्म्य की कथा सुनाई है। अब तो नहीं भूलनी चाहिए। वहां पर गोकर्ण ने पूछा- क्या हुआ/ क्या हुआ ? उन्होंने कहा कि और क्या होना है, जो होना था, वह हो गया। हम तो एक व्यक्ति को ही वैकुंठ ले जा रहे हैं। बैक टू होम, बैक टू गोड़हेड। वैकुंठ धाम प्राप्ति के लिए एक व्यक्ति अधिकारी या पात्र बन चुका है। पदम पुराण में गोकर्ण और विष्णु दूतों के मध्य में यह संवाद हुआ है। आप उसे पढ़िएगा या सुनिएगा। हमनें पदम पुराण / भागवत माहात्म्य के विषय में कई बातें कही हैं। वहां कई बातें हुई कि क्या कसूर या क्या गलतियां हुई। अन्य हजारों श्रोता जो कथा में बैठे थे ,उन्होंने क्या त्रुटि की, उनके भाव में क्या कमी रही। उसमें एक आइटम( मद) था मननम। चिंतन, मनन एक ही बात है। उन्होंने मनन ही कहा है कथा तो सभी ने सुनी लेकर चिंतन (मनन) जो कथा के उपरांत करना होता है, वह तो एक ही व्यक्ति ने किया और वह व्यक्ति तुम्हारे भ्राताश्री धुंधकारी हैं। वह बहुत ही गंभीर श्रोता थे, उनकी नम्रता, उनकी दृढ़ श्रद्धा जिसको हम निष्ठा कहते हैं। बाकी सब श्रद्धा के साथ सुन रहे थे लेकिन धुंधकारी तो निष्ठा के साथ सुन रहे थे। श्रद्धा और निष्ठा में जो भेद है, उसको समझना होगा। उसके लिए आपको भक्ति शास्त्री कोर्स करना होगा या भक्तिरसामृत सिंधु को पढ़ना होगा। कौन पढ़ेगा? नहीं पढ़ना है तो मर जाओ। मरो। मरते रहो। हम कहें या नहीं कहें। श्राप तो नहीं दे रहे हैं औऱ न ही देना चाहते हैं लेकिन ऐसा ही होता है। जो ख़ुदा मंजूरे होता है तो खुदा को ऐसा ही मंजूर है। ऐसी ही व्यवस्था है। कहने का तात्पर्य ही है (क्योंकि हमें अभी कहना बंद करना है) तात्पर्य आदि अभी विस्तार से नहीं कह सकते। ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए और सुनने के उपरांत और ध्यान करते रहना चाहिए। मनन चिंतन जारी होना चाहिए। कल हमनें कृष्ण का दर्शन किया। कृष्ण का दर्शन जो अशोक वन में किया, उसका भी चिंतन दिन में करना था। वह किया या नहीं? चिंतन करेंगे तो फिर हम भूलेंगे नहीं। यदि कोई बात भूल रहे हैं तो चिंतन अथवा मनन करने से पकड़ में आएगी। हरि! हरि! एक वे श्याम वर्ण के कृष्ण। हिरण्य परिधि... (शीघ्रता से रिपीट कर रहा हूं। ) उन्होंने पीतांबर वस्त्र धारण किए हुए लेकिन साधारण पीतांबर नहीं है। इसलिए हिरण्यपरिधि कहा है। हिरण्यपरिधि क्या है... इसको समझना होगा। गोल्डन कांप्लेक्शन अर्थात भगवान के वस्त्रों का रंग साधारण पीला रंग नहीं है। वह और कई सारे धातु, रंगीन खनिज पहने हुए हैं। वनमाल्यबर्ह अर्थात वन की माला अर्थात वनमाला पहने हुए हैं। बर्ह मतलब मोर पंख पहने हैं। मोर मुकुट पहने हैं। प्रवाल अर्थात पुष्प के कुछ गुच्छ भी धारण किए हैं। नटवेषम .. संक्षिप्त में कह दिया। उनकी सारी वेशभूषा नट जैसी है। ऐसे वेशभूषा को धारण करते हुए.. अनुव्रतांसे अर्थात अपने मित्र के कंधे पर एक हाथ रखते हैं। विन्यस्त मतलब रख कर... मित्र के कंधे पर एक हाथ रखकर, हस्तमितरेण .. दूसरे हाथ में उन्होंने क्या धारण किया था? दूसरे हाथ में रस्सी को लिए हुए थे, याद है आपको? क्या था हाथ में? हाथ तो हिला रहे हैं लेकिन हाथ में किस को हिला रहे हैं रस्सी हिला रहे थे? वे धुनानमब्जं अर्थात कमल पुष्प को हिला रहे थे। कानों में कुछ कुछ पुष्प धारण किए हुए हैं। यह नट( आर्टिस्ट) हैं। उनके बालों से, कपोल जो चेहरा है, कुछ ढका सा है, हल्का सा ढक गया है। मुखाब्जहासम अर्थात उनके चेहरे पर हंसी है। एक बार पुनः आप दुबारा नोट करो। यह दसवां स्कंध है, तेइसवां अध्याय है और बाईसवां श्लोक हैं। आप कंठस्थ भी और ह्रदयंगम भी कर सकते हो। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!!

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