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जप चर्चा 10 अगस्त 2020 806 स्थानों से आज भक्त जप कर रहे हैं। गौर प्रेमनान्दे हरी बोल कृष्ण कन्हैया लाल की जय। छोटे कृष्णा छोटी छोटी गईया छोटे छोटे ग्वाल छोटो सो मेरो मदन गोपाल छोटे कृष्ण को कन्हैया भी कहते हैं कान्हा द्वारका में वैसा नहीं कहेंगे वृंदावन में कन्हैया लाल कहते हैं कन्हैया लाल इस कान्हा की मधुर लीला और बाल लीला और भी मधुर है वह बाल लीला इतनी मधुर है यशोदा कृष्ण के बाल लीलाओं का गायन करती है। लाला के बाल लीलाओं का गायन होता है स्मरण करती है गायन करती हो यशोदा के लिए भी उनका लाला स्मरणीय है स्मरण करने योग्य है या अविस्मरणीय है भूलने से भी वह भूल नहीं सकती अविस्मरणीय वह प्रसंग अविस्मरणीय है। इस प्रकार सभी भक्त सभी बृजवासी कृष्ण का स्मरण करते हैं। कृष्ण के नाम रूप गुण लीलाओं का गान करते रहते हैं। तो हमको भी सीखना है ब्रज वासियों से बृजवासी हमारे लिए आदर्श है और इसी विशेष ब्रज वासियों को आदर्श बना कर हम अपनी भक्ति करते रहते हैं उसी को राग अनुज्ग भक्ति भी कहते हैं। रूप अनुग है या नंद महाराज अनुग है राधा अनुग है या गोपी अनुग है या सुबल सखा अनुग है या बिल्व मंगल अनुग है । कृष्ण तो है ही लेकिन यह सारे बृजवासी भी हमारे लिए आराध्य है वे कृष्ण का स्मरण करते हैं उनका हमें स्मरण करना चाहिए जो कृष्ण स्मरण करते हैं। हमारे परंपरा के आचार्य भी हैं जिन्होंने अपना जीवन भगवान की सेवा में व्यतीत किया समर्पित किया श्रीराधिकामाधवयोर् अपार माधुर्यलीला गुण रूप नाम्नाम्। प्रतिक्षणा स्वादन लोलुपस्य वंदे गुरो: श्रीचरणारविन्दम् श्रीगुरुदेव प्रतिक्षण श्री श्रीराधा-माधव की दिव्य लीलाओं, गुणों, रूप तथा नामों की असीमित मधुरता का आस्वादन करने के लिए लालायित रहते हैं, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। या और भी भक्त भगवान का स्मरण करते हैं तो हम उनका स्मरण कर सकते हैं। उनके चरणों का अनुगमन कर सकते हैं या फिर गोलोक से हमारे आचार्य वृंद हरे कृष्ण फैमिली के हमारे साधु समाज भक्त समाज के ऐसे कई सारे भक्त भक्तों का स्मरण वे भी स्मरणीय है । यह लीला तो नहीं हुई किंतु ऐसा विचार भगवान ने मन में लाया और हमने कहा भगवान ने कहलवाया । तो भगवान से प्रेम करना है और भगवान के भक्तों से भी प्रेम करना है मैत्री करनी है केवल भगवान के प्रेमी बनना पर्याप्त नहीं है भगवान के भक्तों के भक्त बनना है इसे हम दासा नु दास भी कहते हैं। या प्रभु भी कहते हैं प्रभु मतलब स्वामी अन्य भक्तों आपके प्रभु है। पुरुष भक्त प्रभु है या मातृ वृंद भक्त प्रभु जी उनका भी स्मरण करो भगवान प्रसन्न होंगे केवल कृष्ण की सेवा करोगे तो उससे प्रसन्न होते ही है लेकिन भगवान पूरे प्रसन्न होते हैं जब हम उनका भी स्मरण उनके भक्तों का भी स्मरण उनकी भी सेवा भक्तों की भी सेवा उनके साथ भी संबंध भक्तों के साथ भी संबंध। जन्माष्टमी के मध्य रात्रि को जन्मे श्री कृष्ण गोकुल पहुंचे और गोकुल में कई लीलाएं संपन्न हुई और वहां से प्रस्थान किए अकेले नहीं सभी गोकुल वासियों के साथ और अब वे वृंदावन पहुंचे है। यह बताया कि क्या गोकुल वृंदावन नहीं है क्या अलग-अलग बनो की अलग-अलग नाम भी है एक वन वृंदावन के नाम से ही जाना जाता है और सभी वन उनके अलग-अलग नाम होते हुए भी सभी को वृंदावन कहते ही हैं। द्वादश कानन बारा वन मिलकरभी वृंदावन है और उसमें से भी एक वन वृंदावन है । तो उस वृंदावन पहुंच गए गोकुल वासी कृष्ण कन्हैया लाल की जय और वहां वे वत्सपाल बने और उनकी लीलाएं संपन्न हो रही है। कुछ असुरों का वध भी किए हैं जैसे वत्सा सुर बकासुर अघासुर सरकोली नाम के गांव में अघासुर का वध किए और फिर बहुत समय बीत गया तो फिर लंच का समय हुआ है तो सभी को पता चला फिर कन्हैया मध्य में बैठे हैं उस दिन बलराम नहीं थे इसलिए केवल कृष्ण ही मध्य में बैठे हैं वैसे तो कृष्ण और बलराम बैठते है लेकिन कुछ दिन होते हैं कृष्णा अकेले ही होते हैं बलराम के बिना और फिर बलराम साथ में नहीं होते तो फिर कुछ उपद्रव भी मच जाता है समस्या खड़ी हो जाती है तो आज के दिन ऐसी समस्या उपस्थित होने वाली है क्योंकि बलराम साथ में नहीं है तो कृष्ण कन्हैया लाल यमुना के तट पर अपने असंख्य मित्रों के साथ वह गोलाकार बैठे हैं कृष्ण मध्य में बैठे हैं फिर भोजन चलता है एक दूसरे को भोजन अपने घर का अपने मैया ने पकाया हुआ भोजन कोई विशेष व्यंजन औरों के साथ शेयर करते हैं विशेषता कृष्ण के साथ कभी कभी हो सकता है कोई मीठा पकवान आधा खा लिया हो और वह पकवान इतना मीठा है तो उसे कृष्ण को खिलाना चाहिए था तो आधा खा लिया आधा बचा हुआ कृष्ण आप खाओ तो यहां कन्हैया अपने मित्रों का झूठन खाते हैं । ऐसा है उनका प्रेम मैत्री जो समान होते हैं उनके मध्य में मैत्री होती है और ऐसा भाव है भी तुम कौन बड़े लोग तो यह जो वन भोजन हो रहा है यमुना के तट पर उसको ब्रह्मा देख रहे थे अघासुर वध जब हुआ तो सभी देवता पहुंचे और उन्होंने अपना हर्ष उल्लास व्यक्त किया और बाकी देवता वहां से प्रस्थान किए लेकिन ब्रह्मा वही रुके रहे और वे देख रहे हैं यह भोजन की लीला उनका जो साख्य है मित्रों के साथ का यह ब्रह्मा के पल्ले नहीं पड़ रहा था। ब्रह्मा को समझ में नहीं आ रहा था वह का यह सख्य भाव या साख्य कोई सख्य रस ऐसा कैसा भगवान मैं तो गा तो लिया,, गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि। यह आदि पुरुष है ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानन्दविग्रह:। अनादिरादिर्गोविन्द: सर्वकारणकारणम्। श्रीगोविन्द के नाम से विख्यात् श्रीकृष्ण ही परम भगवान् हैं। उनकी देह सत् (शाश्वतता), चित् (ज्ञान) और आनन्द से परिपूर्ण है। वे प्रत्येक वस्तु के स्रोत हैं और स्वयं उनका कोई स्रोत नहीं है। वे समस्त कारणों के परम कारण हैं। यह परमेश्वर है सभी कारणों के कारण आदि पुरुष और देखो यह क्या तमाशा है क्या मित्रों का भी कोई झूठा भोजन भगवन खायेंगे यह कैसे भगवान तो ब्रम्हा के मन मे यह शंका उत्पन्न हुई। यह तो साधारण बालक है यह भगवान कैसे इनको भगवान मानना तो कठिन है इनके जो सारे कार्यकलाप मैं देख रहा हूं तो ब्रह्मा के मन में ऐसे विचार जब उठ रहे हैं क्योंकि कृष्ण ने नोट किया है कि ब्रह्मा क्या सोच रहे हैं या ब्रह्मा को उनकी यह मधुर लीलाएं यह भाव समझ में नहीं आ रहा है यह सख्य भाव समझ में नहीं आ रहा है। और यह देखकर कई सारे प्रश्न ब्रह्मा के मन में उठ रहे हैं शंकाएं उत्पन्न हो रही हैं यह मुझे साधारण समझ रहे हैं। *” अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् | परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्र्वरम् भगवद्गीता 9.11* अनुवाद:- जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं | वे मुझ परमेश्र्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते | साधारण मनुष्य जैसी तनु या अकार्यात मनुष्य आकृति मैं ऐसा हुँ समझने वाले इस ब्रह्मा को मैं कुछ सबक सिखाऊंगा या ऐसा कुछ दर्शन या प्रदर्शन होगा ताकि ब्रह्मा समझ जाएंगे या और भी संभ्रमित होंगे या अंततोगत्वा कुछ सीखेंगे सही सिद्धांत को तत्वतः समझेंगे। मेरा जो तत्व है ये तो कठिन समझने में फिर भगवान कृष्ण ने एक लीला की वह लीला तो बड़ी विस्तृत है वह लीला वैसे पूरे साल भर के लिए चलती रही तब ऐसे लीला चल रही थी अभी कुछ महिमा बता सकते हैं उस लीला की उसे थोड़ा मोटा मोटी सागर को गागर में भर देते हैं अब जब भोजन होई रहा था तब कुछ मित्र बीच में ही उठ कर देख रहे थे ओ बछड़े बगल में ही चल रहे थे तब कुछ मित्रों ने उठकर देखा वह आए कि नहीं तब उन्होंने कहा ओ मेरा बछड़ा नहीं है तब दूसरा उठा उसने भी वही कहा ओ मेरा भी बछड़ा नहीं है। कहां गया चलो मैं जाता हूं ढूंढने के लिए तब कृष्ण कहते हैं नहीं नहीं बच्चों तुम बैठ जाओ आप सब भोजन करो मैं ही जाता हूं बछड़ों को ढूंढने के लिए मैं उन्हें ले आऊंगा आप प्रेम से भोजन करते रहो तब कृष्ण जाते हैं और बच्चों को सर्वत्र खोजते हैं जब बछड़े नहीं मिलते तब लौट आते हैं उसी स्थान पर जहां भोजन हो रहा था तब देखते हैं कि उनके मित्र नही हैं हरि हरि तब कृष्ण सोचते हैं। तब उन्हें पता चलता है ओ ये तो ब्रह्मा की करतूत है उन्होंने पहले बछड़ों की चोरी की और बाद में उन्होंने मेरे मित्रों की चोरी की ब्रह्मा ने अभी संध्या का समय भी हो रहा है अध्यान अप्राण काल सन्ध्याकाल अब मुझे लौटना होगा अब मैं अकेले तो नहीं लौट सकता तब कृष्ण ने उनके जितने भी मित्र थे उस दिन बछड़े चराने के लिए आए हुए थे उतने मित्र कृष्ण बन गए हुबे हुब और साथ ही उतने ही बछड़े भी बन गए उस दिन जो लाए गए थे। और फिर उन बच्चों के साथ मित्रों के साथ कृष्ण लौटे नंदग्राम या लौटे जहां की हो बालक थे मित्र थे और बछड़े भी जिन गौशाला के जिन गायों के थे उन घरों में कृष्ण पहुंचे अलग-अलग रूपों में उन बछड़ों के रूप में भी अलग-अलग गायों के पास पहुंचेऐसे ही हरि हरि और फिर अगले दिन प्रात कालीन समय में वैसे ही जाया करते थे ग्वाल बाल भी और बछड़े भी पर यह सभी कृष्ण ही थे बछड़े भी कृष्ण थे और बालक भी कृष्ण ही थे। और यही सब चलता रहा पूरे 1 वर्ष के लिए लीला खेल रहे थे श्री कृष्ण उस दिन बलराम नहीं थे जिस दिन ब्रह्मा ने मित्रों की ओर बछड़ों की चोरी की थी तब 1 साल पूर्ण होने में 5,6 दिन बाकी ही थे तब बलराम जी ने ध्यानपूर्वक देखा बछड़ों का और गायों के प्रति उनका स्नेह और प्रेम और साथ ही सखाओं का उनके पिता के साथ विशेष प्रदर्शन देखा तब बलराम चकित हुये। गायों का बछड़ों के साथ इतना प्रेम और जो बुजुर्ग गोप है उनका अपने पुत्रों के प्रति इतना प्रेम यह कुछ असाधारण प्रेम का प्रदर्शन हो रहा है तब कृष्ण को बलराम जी को बताना पड़ा कि उस दिन तुम नहीं थे तुम आए नहीं थे हमारे साथ कुछ दिन क्या हुआ वह ब्रह्मा है ना उसने बछड़ों को और मेरे मित्रों को चोरी किया तो मैं क्या करता तब मुझे ही बछड़े और मित्र बनना पड़ा यह जो बुजुर्ग अपने पुत्रों से प्रेम करते तुम देख रहे हो यह पुत्र कोई साधारण पुत्र नहीं है वह सब मैं ही हूं। इसीलिए इतना सारा स्नह और प्रेम आनंदाम्बुधिवर्धनं चेतोदर्पणमार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम् श्रेयःकैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम् । आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम्सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम ।। (शिष्टाअष्टकम 1) अनुवाद:-चित्त रूपी दर्पण को स्वच्छ करने वाले, भव रूपी महा अग्नि को शांत करने वाले, चन्द्र किरणों के समान श्रेष्ठ, विद्या रूपी वधु के जीवन स्वरुप, आनंद सागर में वृद्धि करने वाले, प्रत्येक शब्द में पूर्ण अमृत के समान सरस, सभी को पवित्र करने वाले श्रीकृष्ण कीर्तन की उच्चतम विजय हो । इतने सारे बालक जो तुम देख रहे हो वह सब मैं ही हूं और गाये जो इतना अपने बछड़ों से प्रेम और स्नेह कर रही है जो गाये बछड़ों को सुंग रही है या चाट रही है यह सारे बछड़े मैं हूं मुझे बनना पड़ा बछड़ा तब बलराम जी ने कहा धन्यवाद तुमने यह सब कुछ स्पष्ट किया अब मैं समझ सकता हूं तब ऐसे ही यह लीला निर्विघ्न संपन्न ना होती रही ऐसी लीला जो भगवान खेल रहे हैं क्योंकि ब्रह्मा को कुछ सबक सिखाना है या कुछ साक्षात्कार कराना है वह भी एक कारण है इस लीला के पीछे साथ ही साथ वृंदावन की जो बुजुर्ग गोपिया है वह भी चाहती थी कृष्ण जैसे बालक कभी मुझे भी प्राप्त होगा और ब्रज की सभी गाये भी चाहती थी कि कृष्ण कभी गौशाला में आके सीधे हमारे स्तनों से दूध पान करेंगे। और सारी युवतियां भी ब्रज की सोच रही थी क्या कृष्ण जैसा पति हमको प्राप्त होगा होना चाहिए होगा भी या नहीं होना चाहिये इस प्रकार भगवान ने यह लीला खेल कर सारे बुजुर्ग गोपियों के पुत्र बने हैं कृष्ण सभी गायों के बछड़े बने हैं कृष्ण और सारे युवतियों के तब तो ऐसे घोषणाएं भी हो रही थी यही शुभ मुहूर्त है आपके पुत्री या उनकी विवाह करने की उम्र हो चुकी है तो उनका विवाह कर डालो उस समय सारे युवतियों के विवाह हो गए जो सारे युवक थे जिनके साथ उन सारी युवतियों का विवाह हुआ वो सारे कृष्ण थे। *श्री वैष्णव प्रणाम वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः* अनुवाद:-' "में भगवद्भक्त वैष्णवों को सादर प्रणाम करता हू जो कल्पवृक्ष के समान प्रत्येक इच्छा को पूर्ण करते है , जो दया के सागर है एवं पतितो का उद्धार करते है' ना कैसे हैं वांछाकल्पतरु कृष्णा स्वयं ही है कल्पतरु कल्पवृक्ष वांछा जो जो वांछा यह ब्रजवासी अलग अलग कर रहे थे माताएं, गाये,युवतियां कर रही थी उन सभी की वांछा की पूर्ति हेतु भी कृष्ण ये लीला खेले है। और जो ब्रह्मा जी ने उनके मित्रों की और बछड़ों की चोरी कर के लेकर गए हैं और परलोक में कहीं छुपा कर लौट आए और देखते हैं कि भगवान की लीला में कुछ अंतर नहीं आया है कुछ बिगाड़ नहीं है उनकी लीला तो निर्विघ्न संपन्न हो रही है उन्हें लगा कि कृष्ण ने वहां पर जाकर अपने मित्रों को और बछड़ों को वापस लाया और उनके साथ खेल रहे हैं और गायों के बछड़ों को चरा रहे हैं। तब पुनः ब्रह्मा जी वहां जाकर देखते हैं कि अरे नहीं नहीं यह तो यही है जहां ब्रह्मा जी ने उन्हें रखा था तब पुनः ब्रह्माजी लौटते है और उस लीला का पुनः दर्शन करते हैं तब भगवान उस लीला का दर्शन कराते हैं कैसा दर्शन है सारे मित्र और सारे बछड़े को भगवान ही थे उन सभी ने चतुर्भुज रूप धारण किया है वह सब भगवान हैं और उन भगवान के जितने भी मित्र बने थे बछड़े उन्होंने भी जब भगवान का रूप चतुर्भुज रूप धारण किया है उनके बहुत सारे आराधक हैं उन स्वरूपों की आराधना कर रहे हैं। तब ब्रह्मा जी के दिमाग में प्रकाश आया और उनकी आंखें खुल गई तब उन्हें पता चला कि यह लीला कैसे निर्विघ्नं पण चल रही थी कृष्ण स्वयं ही बने हैं सारे मित्र सारे बछड़े और साथ ही भगवान ने अपने शक्ति और वैभव का ऐसे प्रदर्शन किया, तब ब्रह्माजी समझ गए कि यहीं गोविन्दम आदि पुरुषं तम अहं भजामि जिसको मैंने कहा यही हैं। ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानन्दविग्रह: । अनादिरादिगोविन्द: सर्वकारणकारणम । ब्रम्हसंहिता 1 अनुवाद:-सच्चिद्रानन्दविग्रह श्रीगोविन्द कृष्ण हीँ परमेश्वर हैँ,वे अनादि, सबके आदि और समस्त कारणों के कारण हैं ये परमेश्वर हैं। तब ब्रह्मा अपने यान हंस पर विराजमान थे तब वहीं से नीचे उतरे और प्रणाम करते गिरे कृष्ण के चरण कमल में और अपने मुकुट जिसके चार मुकुट है 4 सिर वाले चतुर्मुख ब्रह्मा सभी सिरों से उन्होंने कृष्ण के चरण कमलों का स्पर्श किया है और उनके आंखों से अश्रु धाराएं बह रही है और वहां के ब्रज की रज में ब्रह्मा लोट रहे हैं और क्षमा याचना मांग रहे हैं कुछ समय के उपरांत कृष्ण के समक्ष हाथ जोड़कर खड़े हैं और विशेष स्तुति की है ब्रह्मा जी ने और वह स्तुति श्रीमद भागवतम के दसवें स्कंध का 14 वा अध्याय एक विशेष अध्याय हैं ब्रम्हा ने की हुई स्थूति हैं। उसे आप पढ़िए गा इस लीला को ब्रह्म विमोहन लीला कहा गया है ब्रह्मा को भी मोहित किया भगवान ने मधुर लीला से मोहित हुए ब्रह्मा यह इतनी मधुर लीला को समझ नहीं पा रहे थे संभ्रमित हुए ब्रह्मा तब ब्रह्मा जी को भगवान ने अपना कृष्ण तत्व या लीला तत्व उन्हें समझाया और प्रदर्शन किया। कृष्ण कन्हैया लाल की जय..... अभी तो दो ही दिन बचे हैं कृष्ण आ रहे हैं तब आपकी मन की स्थिति बनाए रखिए और भगवान से प्रार्थना करिए जैसे देवताओं ने की श्री कृष्ण के जन्म से पूर्व ठीक है जप करते रहिए। कृष्ण लीला या भागवत पढ़िए और बाकी लोगों को भी सुनाओ। हरे कृष्ण..

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10 August 2020 Bewilderment of the Creator! Hare Krishna! Today we have participants from 806 locations. Gaura premanande Hari Haribol! Krsna Kanhaiya Lala ki jai! Choti choti gaiyan chote chote gwal Choto so mero madan gopāla (song by Sradheya Gaurav Krishna Goswami Ji) Little Krsna is called Kanhaiya Lala. He is called this only in Vrindavan and nowhere else. The pastimes of Vrindavan are sweet and nectarean, of which the Bāla Lila is the sweetest. Agayata bāla caritani Yasoda maiya always remembers and sings the pastimes of Krsna while churning yogurt. These pastimes of Krsna are unforgettable for Yasoda maiya and devotees of the Lord. This way all the devotees are engrossed deeply in thoughts of Krsna. They always glorify the name, form, qualities and pastimes of Krsna. We also must learn this from the Braja vasis. They are role models for us. When we make any one of them our role model then this is called 'Raganuga bhakti' like Rupanuga, Nanda Maharājanuga, Radhanuga or others. Anuga means follower. All the Braja vasis are worshipable for us. We should remember those who remember Krsna. There are ācāryas in our paramparā who spent every moment in rendering services and relishing the pastimes of Krsna. sri-radhika-madhavayor aparamadhurya- lila guna-rupa-namnam prati-kshanasvadana-lolupasya vande guroh sri-charanaravindam Translation The spiritual master is always eager to hear and chant about the unlimited conjugal pastimes of Sri Sri Radhika and Madhava, and about Their qualities, names, and forms. The spiritual master aspires to relish these at every moment. I offer my respectful obeisances unto the lotus feet of such a spiritual master. (Verse 5, Sri Gurvastakam, Srila Visvanatha Cakravarti Thakura) We should follow in the footsteps of these ācāryas. The ācāryas, spiritual master, sādhus, devotees have reached Goloka and their footsteps will also lead us there. This is a food for thought for you. Although these are not the pastimes, it is Krsna who made me share this thought with you all. We have to love Krsna and not only Krsna. That is not sufficient. We also need to love the devotees of Krsna. This is called Dāsānudāsa or servant of the servant. We address others as Prabhu, which means master, so we must have that mood of servant towards the devotees. We must have an amicable and friendly attitude towards devotees. Serve them as well. Krsna will be pleased by that. Krsna is partially pleased when we serve Him, but if we also serve His devotees along with Him, then He is completely pleased. We are hearing Krsna lila in sequence. Being born at midnight, He went to Gokula. He played some pastimes in Gokula and then He went to Vrindavan with Gokula-vasis. Gokula is also in Vrindavan, as the entire Braja is Vrindavan, but within that there are 12 forests, one of which is named - Vrindavan. There He became a Vatsapal, (Calf-herd). There He has killed various demons namely Vatsasura, Bakasura, Aghasura, etc. He has killed Aghasura in Sarpoli village. We were discussing that it was the lunch time. Krsna was sitting in the centre of His friends. Balarama was not present with Krsna and His friends that day. Sometimes Krsna goes alone, without Balarama. Usually when Balarama is not there, some problems occur. This is going to happen today as Balarama is not there. Everyone is sitting around Krsna in a circle on the banks of Yamuna. Everyone is eating and sharing the food that they have brought from their homes. Everyone wants to share with Krsna. Many a times it happened that a friend would bite into something and realize that it is indeed delicious and sweet, so he would give the remaining piece to Krsna saying, “It is really sweet. You must taste it, Krsna.” Then Krsna would relish the remnants happily. This is love in friendship - Viśrambha Sākhya rasa. This give and take happened during lunch time. Brahma was witnessing this pastime after glorifying Krsna on the killing of Aghasura. Brahma was unable to digest this Viśrambha Sākhya rasa. He thought, "Is this the same Krsna who is the cause of all causes and the Supreme Personality of Godhead?” ishvarah paramah krishnah sac-cid-ananda-vigrahaha anadir adir govindaha sarva-karana-karanam Translation Krishna, Who is known as Govinda, is the Supreme Personality of Godhead. He has an eternal blissful spiritual body. He is the Origin of all. He has no other origin and He is the Prime Cause of all causes. ( Sri Brahma-samhita, chapter 5, verse 1) How can the Lord of the universe spend such time with His friends and eat remnants of His cowherd friends ? He thought this is an ordinary child. It's difficult to believe that this is the Lord. When Brahma was perplexed with such thoughts, Krsna could sense these thoughts that he is unable to understand this Viśrambha Sākhya rasa. avajānanti māṁ mūḍhā mānuṣīṁ tanum āśritam paraṁ bhāvam ajānanto mama bhūta-maheśvaram Translation Fools deride Me when I descend in the human form. They do not know My transcendental nature as the Supreme Lord of all that be. (B. G. 9.11) Krsna decides to teach Brahma a lesson who misunderstood Him to be an ordinary human and all others with the same thought. One needs to understand Krsna philosophically. Krsna performed a special pastime. This was a long pastime. It lasted for one year. While having lunch, Krsna looked on the other side where the calves were grazing and then all the calf herd friends realised that their calves were not there. They all became anxious regarding their whereabouts. Krsna asked them to wait and continue with their lunch and He went to look for the calves. When He returned with the news that the calves were lost, He found that the calf herds were also gone somewhere. Krsna already knew that this was Brahma's deed. Krsna thought that it was already evening and time to return, but He couldn't return alone. Then He expanded Himself into innumerable forms as the calves and His cowherd friends. Then He, in the form of calves and cowherd friends, returned to their respective places. The next morning, They all went to the forest. Every cow and every Braja vasi gopī had Krsna as their child and this continued for one year. Balarama was not there that day but when a few days were left for year to end Balarama noticed that there was a special and never before love bond between the cows and the calves and the elderly gopas with their children. He was astonished as It was extraordinary. Then he inquired with Krsna about this and Krsna told him everything about how Brahma had stolen all the calves and His friends. Then He had to expand Himself into those calves and cowherd friends. Krsna explained, “This special exchange of love that you see, anandambudhi-vardhanam, the Gopas loving their children or the cows licking and smelling their calves out of love, it's all Me.” Balarama understood everything and this continued till the year ended. The main motive of this pastime was something else. Teaching Brahma a lesson was also the objective, but Krsna also wanted to fulfil the desire of the Braja vasis to see Him as their child. The elderly gopīs wished to see Him play in their laps as their sons and the cows wanted Krsna to drink their milk directly from their udders. Many gopīs desired to marry Krsna. This way Krsna became the child of the gopīs and cows. At that time, some news was getting circulated that it was an auspicious time to get married. All the gopīs got married during that year and all of their grooms were Krsna. vancha-kalpatarubhyash cha kripa-sindhubhya eva cha patitanam pavanebhyo vaishnavebhyo namo namaha Translation I offer my respectful obeisances unto the Vaishnava devotees of the Lord. They are just like desire trees and can fulfill the desires of everyone, and they are full of compassion for the fallen conditioned souls. (Vaisnava Pranams) Krsna is just like a desire tree, vanca kalpataru. In this way, the desires of all the Braja vasis were fulfilled by Krsna in this pastime. Now the year had ended and meanwhile Brahma had hidden the calves and gopas in Brahmaloka. When he looked back he saw that the pastimes were continuing uninterrupted and he thought that Krsna had brought all of them back from Brahmaloka and was playing with them. Brahma rechecked and found that all of them were still there with him and he was now perplexed. When he returned, Krsna revealed to him a special sight. He could see that all the friends and all the calves took the four handed form of Krsna and they were all worshiped. Then Brahma understood that Krsna displayed His opulence in this way. He is Govindam adi-purusham, He is the eternal Govinda, cause of all causes and the Supreme Lord. Then Lord Brahma, who was seated on his swan, landed in Vrindavan. He bowed down to Krsna with all his four heads adorned with four crowns. Tears were flowing from his eyes. He was rolling in the soil of Braja pleading to Krsna with folded hands to forgive him for his foolish mistake. He sang special prayers to glorify the Lord as given in the 14th chapter of 10th canto of Srimad Bhagawatam. You can read this. This pastime is called 'Brahma Vimohan Lila'. Brahma was illumined by the nectarian pastime of Krsna. He was not able to understand the sweet pastimes of the Lord, then the Lord gave him special darsana. Krsna Kanhaiya Lal ki jai!

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