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जप चर्चा दिनांक २३.०५.२०२० हरे कृष्णा! रेवती रमण, सत्यभामा आप सभी तैयार हो। हरि बोल! मैं आज इस जप चर्चा में आपसे कुछ समय के लिए ही बात करूंगा अर्थात कुछ समय ही चर्चा होगी। तत्पश्चात आप में से कुछ भक्तों की यदि कोई टीका टिप्पणी या प्रश्नोत्तर होगें तो फिर हम थोड़ा समय उन प्रश्नों के उत्तर देंगे। मैं सोच रहा हूँ कि हम समय समय पर ऐसी इंटरेक्शन (बातचीत) की बात करें लेकिन आप केवल लिखते ही हो। उसके जवाब हम कभी देते हैं, कभी नहीं देते हैं। आप कभी कोई कमेन्ट लिखते हो, हम पढते हैं, और भी सभी भक्त पढ़ते हैं, देखते हैं.. आप में से कुछ ही भक्त जिनकी कोई जिज्ञासा है, वे लिख कर पूछ सकते हैं लेकिन अभी नहीं, जब आपको लगभग 7 बजे के आस पास बताया जाएगा, तब ही आप लिखियेगा। भक्त जो प्रश्न लिखेंगे,शान्ताकारं, तुम मुझे वो प्रश्न पढ़ कर सुना सकते हो, ऐसा मैं सोच रहा हूं। सभी को प्रश्न पूछने के लिए दौड़ना नहीं है, केवल दो चार भक्त ही प्रश्न पूछेंगे। क्या ये सही है? शान्ताकारं, क्या तुम समझ गए। भक्तों को जब प्रश्न लिखने के लिए कहा जायेगा। जब वे लिखेंगे और तब तुम पढ़ कर सुनाना, सभी उन प्रश्नों को सुनेंगे। मैं भी सुनूंगा। हरि बोल! आज 796 स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं। हरि बोल! हरि! हरि! जप चर्चा तो चल ही रही है। यहाँ सारी बातें संक्षेप में कहना थोड़ा कठिन ही होता है लेकिन प्रयास करते हैं। हरि! हरि! श्रीमद्भागवतम के पंचम स्कंध में शुकदेव गोस्वामी ने, खगोल के विषय में बताया है। एक होता है भूगोल और दूसरा होता खगोल, इसे एस्ट्रोनॉमी या कॉस्मोलॉजी भी कहते हैं। शुकदेव गोस्वामी उसकी चर्चा करते हैं। तृतीय, चतुर्थ स्कन्धों में वर्णन है कि भगवान ने सर्ग, विसर्ग इस सृष्टि की रचना का प्रारंभ किया और तब ब्रह्मा ने उस रचना को आगे बढ़ाया। उसी का वर्णन 5वें स्कन्ध में शुकदेव गोस्वामी सुनाते हैं। सप्तद्वीप, नौ वर्ष हैं, फिर भारत वर्ष भी है। स्वर्ग, चौदह ग्रहों चौदह भुवन है, उसी के अंतर्गत नरक और पाताल लोक का वर्णन भी है। इस पंचम स्कन्ध के अंत में शुकदेव गोस्वामी वर्णन करते हैं कि पाताल कितने हैं। ये पाप करने से इस पाताल में, और वो पाप करने से उस पाताल में ... कैसे बद्धजीव को अथवा पापी को यम यातना भोगनी पड़ती है, किस प्रकार यम के दूत परेशान करते हैं ऐसी परेशानियां, ऐसा कष्ट, यातनाओं का वर्णन वहाँ पर हुआ है कि रोंगटे खड़े हो जाएंगे, आप डरोगे। राजा परीक्षित तो यह नरक और यम यातना का वर्णन सुन ही रहे हैं। राजा परीक्षित डरे तो नहीं लेकिन राजा परीक्षित को दया आ गई। इसीलिए उन्होंने पूछा "कोई उपाय भी तो होगा जिसे करने से जीवों को नर्क जाना ना पड़े ? क्या क्या करना होगा ? कोई विधि-विधान भी होना चाहिए? जिससे इस नरक यात्रा या यम यातना से बच सकते होंगे, कृपया यह बताइए।" शुकदेव गोस्वामी ने कहा- "धार्मिक बनो और कुछ कर्मकांड करो, प्रायश्चित करो, हिंदू बनो। गर्व से कहो हम हिंदू हैं। हिंदू बनो। आचार्यों ने टीका में लिखा है कि शुकदेव गोस्वामी,राजा परीक्षित की परीक्षा ले रहे थे अर्थात राजा परीक्षित की परीक्षा हो रही है। शुकदेव गोस्वामी ने कहा कि प्रायश्चित कर सकते हैं व कुछ कर्मकांड कर सकते हैं। वह देखना चाहते थे कि राजा परीक्षित क्या इस बात को स्वीकार करेंगे या इस बात से प्रसन्न होंगे या क्या यह बात राजा परीक्षित को मंजूर होगी ? राजा परीक्षित को यह बातें बिल्कुल मंजूर नहीं थी और उन्होंने कहा, इससे काम नहीं बनेगा। क्वचिन्निवर्ततेअभद्रात्क्वचिचरति तत्पुनः। प्रायश्र्चित्तमथोअ्पार्थं मन्ये कुञ्जरशौचवत्।। ( श्री मद भागवतम ६.१.९) अनुवाद:- कभी कभी ऐसा व्यक्ति, जो पापकर्म न करने के प्रति अत्यधिक सतर्क रहता है, पुनः पापमय जीवन के फेर में आ जाता है। इसलिए मैं बारम्बार पाप करने तथा प्रायश्चित करने की इस विधि को निरर्थक मानता हूँ। यह तो हाथी के स्नान करने जैसा है, क्योंकि हाथी पूर्ण स्नान करके अपने को स्वच्छ बनाता है, किंतु स्थल पर वापस आते ही अपने सिर तथा शरीर पर धूल डाल लेता है। यह तो ऐसा हुआ पाप करो फिर कुम्भ मेले में जाओ। हर हर गंगे! स्नान करो, फिर हो गए पाप से मुक्त। फिर पुनः अपना बिजनेस हमेशा की तरह अपने काम, क्रोध के धंधे व पाप करते रहो। कुञ्जरशौचवत्..हाथी ने स्नान किया बढ़िया से.. पता ही है... हमारी पदयात्रा में भी हथिनी थी, उसका नाम लक्ष्मी था। हमने देखा कि वे किस प्रकार बढ़िया से स्नान करती थी लेकिन किनारे आते ही सारी धूल अपने ऊपर फैंक देती थी। उस स्नान का क्या फायदा।उसको कुञ्जरशौचवत् कहा जाता है। राजा परीक्षित ने कहा, "क्या फायदा है? पाप करो फिर कुछ प्रायश्चित करो और फिर उस पाप के फल से मुक्त हो जाओ, पुनः पाप करो"। हरि! हरि! प्रायश्चित करने से पाप की वासना नहीं मिटती, इसलिए ऐसा कोई उपाय बताइए ताकि उस विधि विधान को अपनाने से व्यक्ति पाप के विचारों से ही मुक्त हो जाए।" धर्म: प्रोज्झितकैतवोअत्र परमो निर्मत्सराणां सतां वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम्। श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्र्वरः सद्यो ह्रद्यवरुध्यतेअत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् (श्री मद भागवतम १.१.२) अनुवाद:- यह भागवत पुराण, भौतिक कारणों से प्रेरित होने वाले समस्त धार्मिक कृत्यों को पूर्ण रूप से बहिष्कृत करते हुए, सर्वोच्च सत्य का प्रतिपादन करता है, जो पूर्ण रूप से शुद्ध ह्रदय वाले भक्तों के लिए बोध गम्य है। या सर्वोच्च सत्य वास्तविकता है जो माया से पृथक होते हुए सबों के कल्याण के लिए है ऐसा सत्य तीनों प्रकार के संता पोको समूल नष्ट करने वाला है महामुनि व्यास के द्वारा अपनी परिपक्व अवस्था में संकलित यह सौंदर्य पूर्ण भागवत ईश्वर साक्षात्कार के लिए अपने आप में पर्याप्त है तो फिर अन्य किसी शास्त्र की क्या आवश्यकता है जैसे जैसे कोई ध्यान पूर्वक तथा विनीत भाव से भागवत के संदेश को सुनता है वैसे वैसे ज्ञान के संस्कार अनुशीलन से उसके हृदय में परमेश्वर स्थापित हो जाते हैं। भागवत कैसा है? भागवत के अध्ययन से या भागवत के अमल करने से क्या होता है। तापत्रयोन्मूलनम् अर्थात पाप को वासना सहित समूल उसे उखाड़ कर फैकते हैं। आप समूल समझ रहे हो ? स तथा मूल अर्थात मूल सहित अथवा जड़ के साथ। प्रायश्चित करने से कुछ काट-छांट तो हो गई। ट्रीमिंग हो गई जैसे बैंबू है, केला है, एक पेड़ काट भी दिया फिर क्या होता है और केले के पौधे .. केले अच्छा है, केले का तो स्वागत है। लेकिन अभी... ऐसी खराब बातें या विचार भी होते हैं जो ऐसे प्रायश्चित या कर्मकांड से सम्मूल नष्ट नहीं होते। ऐसा कोई उपाय बताइए कि हम समूल पाप की वासना से ही मुक्त हो। कूट, बीज, प्रारब्ध है, उसके पश्चात उसका फल भी है। पुण्य और पाप का भी फल है। यह फल चखने से पहले कूट अथवा बीज है, वहां से उसे कैसे उखाड़ कर फैंका जा सकता है। ऐसा होना चाहिए, तभी तो सदा के लिए जीव का कल्याण होगा और उसका फायदा होगा। हरि! हरि! वह मुक्त होगा।तत्पश्चात उसी के अंतर्गत शुकदेव गोस्वामी ने इतिहास बताया। वह इतिहास अजामिल का था कान्यकुब्जे द्विजः कश्र्चिद्दासीपतिरजामिलः। नाम्ना नष्ट सदाचारो दास्याः संसर्गदूषित।। ( श्री मद्भगवतम ६.१.२१) अनुवाद:- कान्यकुब्ज नामक नगर में अजामिल नाम का एक ब्राह्मण था। जिसने एक वेश्या दासी से विवाह करके उस निम्न श्रेणी की स्त्री की संगति के कारण अपने सारे ब्राह्मण गुण खो दिए। एक दासी पति था, वह केवल दासी का पति नहीं था, वह वेश्या का पति बन गया था। कौन था वह? वह कानपुर के पास कन्नौज का था। शुकदेव गोस्वामी उसके सारे जीवन चरित्र का वर्णन करते हैं। सुदैव योग से उसने अपने पुत्र का नाम नारायण रखा। नारायण उसका दसवां पुत्र था, नारायण नाम का यह दसवां पुत्र तब हुआ जब वह अस्सी वर्ष का था। अस्सी वर्ष तक उसका प्रजाउत्पादन चल ही रहा था (हँसते हए)। वह जगाई-मधाई की तरह पापी था। पापी श्रीलो रे.. लेकिन सुदैव से उसने अपने पुत्र का नाम नारायण रखा। फिर वृद्धावस्था आ गयी... साथ में बीमारी भी आ गई, कोरोना वायरस भी आ गया। मृत्यु का कोई ना कोई कारण बनता है। तब यमदूत भी ले जाने के लिए आ गए। यमदूतों के हाथ में रस्सी देखकर उसकी धोती पीली हो गई, यमदूत ऐसे डरावने थे। डर के मारे कोई है! जो मुझे बचा सकता है। बचाओ! बचाओ! हेल्प! हेल्प! उस वक़्त बालक नारायण पास में ही खेल रहा था। मरता क्या नहीं करता, वह जानता है कि बालक क्या मदद कर सकता है फिर भी हर चीज का प्रयास करता ही रहता है ताकि वो ना मरे। उसने कहा- "नारायण! क्या कहा ( वहाँ उपस्थित भक्तों से पूछते हुए...) नारायण! एक ही बार कहा होगा- नारायण! तब नारायण कहते ही नारायण के दूत आ गए। कितने दूत आए ? चार आ गए। अजामिल ने ऐसा नाम कहा जिसमें चार अक्षर हैं। एक एक अक्षर पुकारने से एक एक दूत आ गया। एक शब्द उच्चारण करने के लिए ऐसा फायदा हुआ। यह एक विशेष प्रसंग है। यमदूतों और विष्णुदूतों का यह संवाद सब पठनीय बातें हैं। पठनीय फिर चिंतनीय तत्पश्चात मननीय। विष्णु दूतों ने उन सब यमदूतों को निकाल दिया- ' चलो हटो।' तब अजामिल मुक्त हुआ लेकिन वह भक्त नहीं बना था उसने जो इस समय नारायण कहा, उससे वह केवल मुक्त हुआ। अजामिल ने नारायण कह कर जो उच्चारण किया था, उस उच्चारण को नामाभास जप या कीर्तन कहते हैं। यह नामाभास का केवल उच्चारण हुआ लेकिन शुद्ध नाम का जप नहीं हुआ, न ही शुद्ध नाम का कीर्तन हुआ। नामाभास। हरि! हरि! आगे अजामिल हरिद्वार गए और वहाँ उन्होंने साधना की। नामाभास जप अर्थात पाप से मुक्ति हो गई... । हरि! हरि! उन्होंने हरिद्वार में साधना भक्ति की, गंगा में स्नान भी किया और् आगे जप भी किया। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।.. वह अब ध्यानपूर्वक जप करने लगा, उसने दस नाम अपराध भी सीखे। वह पहले क्या क्या करता था वैष्णव अपराध गुरु अवज्ञा, नाम के बल पर पाप आदि सब करता था। यह सब कर्मकांड भी करता था, वह सोचता था कर्मकांड से काम बन जाएगा। कर्मकांड , भक्ति कांड या भक्तिमय जीवन और उसके विधि विधान के समकक्ष ही हैं। दोनों की वैल्यू या फायदा एक ही बात है। एक बात नहीं होती है। कर्म कांड एक बात है, भक्ति दूसरी बात है। दोनों अलग अलग स्तर पर हैं। पर दोनों को एक ही समझना अपराध है। ऐसा ही हिन्दू समझते हैं। यत मत तत पथ अजामिल ने ये सारी बातें सीखी। गुरु जनों और संतों से सारी शिक्षाएं ग्रहण की। उनका संग भी प्राप्त किया और अपने जप में सुधार किया और वह शुद्ध नाम जप करने लगा। जब उसको मंत्र सिद्धि प्राप्ति हुई तब वह वैकुंठ जाने के अधिकारी बन गया। वैकुंठ धाम से विमान आया और विष्णु दूत आ गए। ये विष्णुदूत पहले भी आए थे लेकिन पहले वे उसे वैकुंठ नहीं ले गए थे। उस समय भी तो नारायण ही कहा था तो भी वे वैकुंठ नहीं ले गए थे। लेकिन अब अजामिल ने ध्यान पूर्वक अपराध रहित जप किया था। अपराध शून्य ह'ये लह कृष्ण नाम कृष्ण माता, कृष्ण पिता, कृष्ण धन- प्राण।। ( वैष्णव भजन - नदिया गोद्रुमे- श्रील भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा रचित) फिर अब वह शुद्ध नाम जप करने में प्रवीण अथवा कुशल हुआ। हरि! हरि! तत्पश्चात विष्णु दूत आए और अजामिल को भगवत धाम ले गए। हरि! हरि! कोई प्रश्न या कोई कमेंट - ( वहाँ उपस्थित भक्त प्रश्न पूछते हुए) गुरु महाराज :- इसमें दो ही स्थान हैं, कन्नौज और हरिद्वार। कन्नौज में विष्णु दूत आए, विष्णु दूत अपनी ड्यूटी पर थे। फिर विष्णु दूतों के प्रस्थान के उपरांत वह कन्नौज से हरिद्वार गया जो वहां से ज़्यादा दूर नहीं है, वह पदयात्रा करते हुए गया होगा, वहाँ उसने अपनी साधना की। साधना से वह सिद्ध हुआ और वैकुंठ गया। तो तीन ही स्थान हैं एक कन्नौज, दूसरा हरिद्वार और फाइनल डेस्टिनेशन वैकुंठ हैं। और कहाँ आने जाने की बात हो रही है। ( वहां उपस्थित भक्त कुछ बोलते हुए) वहां उसको कुछ विष्णुदूतों और यमदूतों का संग भी प्राप्त हुआ। वैसे तो यहाँ कुछ प्रश्न उत्तर चल ही रहे हैं। आपके प्रश्न का तो मुझे कुछ पता नहीं चल रहा हैं। शान्ताकारं कुछ कह नहीं रहे हैं। अगर वो कुछ कहते तो... तब तक इस दरमियान यहाँ उपस्थित भक्त ने प्रश्न पूछा और आपने उत्तर भी सुने होंगे। विष्णुदूत जो आए थे, वे बड़े सुंदर भी थे, उनका दर्शन भी हुआ। उनके वचन भी सुने, उनसे प्रभावित भी हुआ। इसलिए उसने हरिद्वार में जाकर आगे साधना भक्ति की और मुक्त हुआ। यह भी कह सकते हैं। 'साधु-सङ्ग', 'साधु-सङ्ग'- सर्व-शास्त्रे कय। लव-मात्र ' साधु-सङ्गे सर्व-सिद्धि हय।। ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.५४) अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है। कुछ क्षणों के लिए ही सही, अजामिल को इन साधुओं और संतो का अर्थात इन विष्णुदूतो का संग प्राप्त हुआ, वह केवल मुक्त ही नहीं भक्त हुआ। (शान्ताकारं से पूछते हुए) - ज़्यादा समय तो नहीं है, पर क्या किसी ने कोई प्रश्न लिखा है? तुम्हारा ही प्रश्न है- क्या है? गुरु महाराज- लेकिन लक्ष्य तो मुक्त होना नहीं है, लक्ष्य तो भक्त होना है? यह समझना होगा, यदि भक्त होते हैं तो मुक्त भी होते हैं। लेकिन जो केवल मुक्त ही हुआ है तो वह भक्त नहीं बना। हम इस्कॉन में आ गए, संस्था से जुड़ गए तो क्या हम भक्त हो गये, हम संस्था से जुड़ गए तो हम मुक्त हो गए लेकिन यह सारी साधना... केवलम नरकायते ..आचार्यों और शास्त्रों ने कहा है, वह जो मुक्ति है, वह भी नरकीय स्थिति ही है। भक्त मुक्ति को पसंद नहीं करते, वे इसे देने पर भी नहीं लेते। पांच प्रकार की मुक्तियां है, उसमें से सायुज्य मुक्ति लुप्तप्रायः ही है। न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि॥4॥ ( श्री चैतन्य चरितामृत - 4 श्लोक) अनुवाद- हे सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दरी स्त्री अथवा सालंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे। हमें मुक्ति भी नहीं चाहिए। भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि - बस आपकी भक्ति और कैसी भक्ति, ऐसी भक्ति जिसमें कोई हेतु नहीं होता। जिसके अंतर्गत भी मुक्त होने का भी कोई हेतु ही नहीं है। उसमें ना उसे भुक्ति की कामना है, ना मुक्ति कामना है, ना ही सिद्धि की कामना है। ऐसी निष्काम भक्ति प्राप्त करना ही भक्ति का लक्ष्य है। ठीक है, ज्यादा समय नहीं है। शान्ताकारं क्या कुछ प्रश्न है ? चलो प्रारंभ करें। तुम रुको, देखते हैं अभी ( वहां उपस्थित भक्त को कहते हुए) और भी लोग बैठे हैं, हजार लोग बैठे हैं केवल तुम ही नहीं हो। शांताकारं, शांताकारं, हरि बोल! बताओ तुम म्यूटिड हो या अन म्यूटिड.. हरि! हरि! क्या किसी ने कुछ लिखा है?( वहां उपस्थित भक्त से पूछते हुए.. क्या तुम पढ़ सकते हो) शांताकारं हरे कृष्ण गुरु महाराज, हाउ कैन फाइंड डिफरेंट इंजस्टिस गुरु महाराज व्हाट इज इंजस्टिस? इनकन्वेनिएंट या इन इंजस्टिस..क्या( पूछते हुए)... भगवान के नाम के साथ पढ़ो। वैसे कल जब मैं मिडिल ईस्ट भक्तों को संबोधित कर रहा था, तब मैंने ऐसा कहा था कि यह जो महामारी की स्थिति है या वायरस का समय है, यह एक प्रकार का युद्ध चल रहा है। तत्पश्चात मैंने कहा था कि भगवान की दो शक्तियों बहिरंगा शक्ति तथा तटस्थ शक्ति के मध्य में युद्ध हो रहा है। भगवान की बहिरंगा शक्ति अर्थात माया शक्ति ने हमला किया है और जीव भगवान की तटस्थ शक्ति है अथवा इस संसार के सारे जीव तटस्थ शक्तियां हैं, वे बद्ध सारे के सारे मिलकर मतलब सारे संसार की सुपर पावर अथवा ह्यूमैनिटी मिलकर लड़ रही है। एक बद्ध जीव की वृत्तियों आहार, निद्रा, भय, मैथुन में से एक वृत्ति भय होती है। वह लड़ता रहता है, लड़ता रहता है और अपनी रक्षा करता ही रहता है। संसारभर के सारे मनुष्य मिलकर लड़ रहे हैं। दे आर डिफेंडिंग फाइटिंग बैक वायरस के साथ। भगवान क्रमशः समय-समय पर यहां के बद्ध जीवों के लिए कोई ना कोई परेशानी भेजते हैं और यहाँ के बद्ध जीवों को माया के माध्यम से परेशान करवाते हैं जो कि भगवान की बहिरंगा शक्ति है। बहिरंगा शक्ति और तटस्थ शक्ति दोनों के मध्य में एक बड़ा विश्व युद्ध चल रहा है। लड़ाई चल रही है। ऐसा पूछ रहे हैं कि इससे कैसे लड़ सकते हैं, हम इस युद्ध में जीतने वाले तो नहीं है। अभी तक नहीं जीते हैं और कभी नहीं जीतेंगे। हमें हाउ टू फाइट पॉलिसी को चेंज करना होगा। जैसाकि प्रभुपाद समझाते हैं कि जैसे आप अपने किसी मित्र के घर जाना चाहते हो अथवा उसके घर में प्रवेश करना चाहते हो और यदि रास्ते में कोई कुत्ता है, कुत्तों से सावधान। जैसे कुत्ता घर में प्रवेश करने से रोकता है, आप कुत्ते से तो लड़ नहीं सकते। यदि आपकी कुत्ते के साथ लड़ाई होगी तो आपकी पराजय होने वाली है। वह कुत्ता आपको काट सकता है, यदि उस कुत्ते के साथ हो रही लड़ाई में हम जीतना चाहते है, तो हमें क्या करना चाहिए? ऐसे में हम अपने मित्र को मोबाइल से फोन करके या घण्टी बजाकर बुला सकते हैं। जैसे ही वो मित्र आएगा , तब वो कुत्ते को बोलेगा- मोती, हे जॉनी! और उसके ऐसा कहते ही अपनी पूछ को हिलाते हुए कुत्ता हट जाएगा औऱ अपने मालिक के चरणों में या बगल में बैठ जाएगा। इससे आप का मार्ग खुल जाएगा और आप अपने मित्र को मिल सकते हो व मित्र के साथ मित्र के घर में जा सकते हो। वैसे ही हमें भगवान को पुकारना होगा, तब हमारी जीत निश्चित है। शांताकारं - चैतन्य महाप्रभु, प्रल्हाद महाराज, ध्रुव महाराज के चरित्र पुनः पुनः क्यों सुना करते थे? गुरु महाराज- मुझे भी याद है, इसकी विशेष महिमा है। जब मैं विद्यार्थी था, तब मैं भी अपने स्कूल जीवन में प्रह्लाद और ध्रुव चरित्र के विषय में सुना करता था। हमारे गुरु जी धार्मिक कथाएं/ धार्मिक चर्चा किया करते थे। हमनें स्कूल में पहली कथा ध्रुव महाराज और प्रह्लाद महाराज की सुनी थी। जब आप बालक थे, आपने भी कुछ ऐसा सुना होगा। पहली कथा ध्रुव महाराज और प्रह्लाद महाराज की। चैतन्य महाप्रभु भी ध्रुव महाराज और प्रह्लाद महाराज की कथाएं सुना करते थे। सारा संसार प्रल्हाद महाराज और ध्रुव महाराज की कथा सुनते हैं। यह बड़ा विशेष चरित्र है, उनसे स्पूर्ति और बल मिलता है। हरि! हरि ! सुनते रहिए , यहाँ पर चैतन्य महाप्रभु यह भी दर्शा रहे हैं कि हमें सीधे दसवें स्कन्ध में वर्णित रास लीला अथवा रास क्रीडा की ओर नहीं दौड़ना चाहिए। उसके पूर्व हमें उसके पहले के स्कन्धों का अध्ययन, श्रवण कीर्तन करना चाहिए। प्रहलाद चरित्र का वर्णन सातवें स्कन्ध में है और ध्रुव चरित्र का वर्णन चौथे स्कन्ध में है। इन स्कन्धों का अध्ययन करते करते फिर हमारी मानसिकता बन जाएगी, हम तैयार होंगे और शुद्धिकरण होगा तब फिर हमें दसवें स्कंध की जो राधा कृष्ण के प्रणय की माधुर्य व गोपनीय लीलाएं हैं। उसके लिए हम तैयार हो सकते हैं। शांताकारं- इस्कॉन के गृहस्थ भक्तों के परिवार में एक ही बालक या बालिका होती है। उसमें भी ज़्यादा लड़कियाँ ही हैं, तो आगे कैसे बढ़ेगा। कैसे समझें ? गुरु महाराज- यदि बच्ची भी है तो उसका स्वागत होना चाहिए, यह ठीक नहीं है कि बच्चियां ही हो रही हैं। लड़के क्यों नहीं हो रहे? हरे कृष्ण भक्तों को ऐसा विचार नहीं करना चाहिए। वह जीव आया है, जीव का स्वागत करना चाहिए चाहे वह लड़की के शरीर में है या लड़के के शरीर में है। फिर यदि आप किसी को जन्म देते हो तो जिम्मेदारी भी आपकी है। क्या जिम्मेदारी है? आपकी जिम्मेदारी केवल रोटी, कपड़ा और मकान ही देना या खिलाना नहीं है। उनको मुक्त करना है। ना ... मृत्युम। आप देख लो आप कितनों को मुक्त कर सकते हो। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर भी कहते थे कि यदि आप बच्चों को मुक्त कर सकते हो तब आपको सौ बच्चों को जन्म देने के लिए माइंड नही करना चाहिए। आप जन्म दे सकते हो। वे कहते थे, दियर इज नो लिमिट ... लेकिन देश, काल, परिस्थिति का विचार करते हुए और देश के नियमों की और भी ध्यान देते हुए करना चाहिए। गवर्नमेंट का जो फैमिली प्लानिंग है, वह तो बदमाश है। उनको कोई आईडिया नहीं है। उनको लगता है कि पहले जो शत पुत्र सौभाग्यवती भव आदि का आशीर्वाद भी मिलता था और बच्चे भी कई सारे या पांच पांडव हुआ करते थे या कई सारे हुआ करते थे। उनका ऐसा कैलकुलेशन है वे संख्या घटा देंगे। यदि बच्चों की संख्या घटा देंगे तब हर बच्चे को थोड़ा अधिक पैतृक संपत्ति मिलेगी। पैतृक संपत्ति के वारिसदार कम होंगे तो फिर हर एक को अधिक संपत्ति, बड़ा मकान या बड़ा हिस्सा या जमीन इत्यादि मिलेगी। यदि फिक्स डिपाजिट है और संख्या कम है तो हर एक को अधिक धनराशि मिलेगी और बच्चे खुश हो जाएंगे। ऐसा उनका कैलकुलेशन है। लेकिन बच्चों की संख्या या जनता कम करने से यह सब कुछ नहीं होने वाला है, वे सुखी नहीं होने वाले हैं। चाहे वे एक है, आठ या सौ हैं, उनकी क्वालिटी की ओर ध्यान देना चाहिए, केवल धनवान ही नहीं गुणवान होने चाहिए। मान लो सारे संसार में संख्या घटाते घटाते केवल दो लोग बच गए। फैमिली प्लानिंग करवा के केवल दो ही बच गए। पता है यह दो क्या सोचेंगे? दो मतलब फिफ्टी फिफ्टी। यह सारे संसार की संपत्ति है- क्या मैं केवल आधे का ही मालिक हूं, नहीं! नहीं! यह दो मतलब अभी अधिक हो गए। केवल कितने होने चाहिए? एक ही होना चाहिए। हमारी ऐसी प्रवृत्ति है। हर बद्ध जीव ऐसा सोचता है। असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि। ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी।। भगवद्गीता 16.14 अनुवाद:- वह मेरा शत्रु है और मैंने उसे मार दिया है और मेरे अन्य शत्रु भी मार दिए जाएंगे। मैं सभी वस्तुओं का स्वामी हूँ। मैं भोक्ता हूँ, मैं सिद्ध, शक्तिमान तथा सुखी हूँ। ईश्वर अहम... ऐसा लोभी भी है। लोभान्ध भी है, द् धनांद भी है। केवल संख्या घटाने से लोग संतुष्ट होंगे, समाधान होगा या मन शांत होगा, ऐसा नहीं होगा ना कभी हुआ है। नहीं होगा, यह जो कानून बनाने वाले हैं, उन्हें यह सब पता नहीं है, ऐसा नहीं है वे ऐसा नहीं सोचते हैं इसलिए उनके सारे जो नियम हैं वह बेकार है। उनको मनुष्य जीवन का लक्ष्य पता ही नहीं है। हरि! हरि! धन्यवाद!

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23 May 2020 Atonement does not uproot sinful tendencies Devotees from 800 locations are participating. Let's talk for some time. We will attempt to complete the discussion till 7.15 am. We have a second session of Brahmachari Sanga which is there from 8 to 9.30 am. I will speak for some time and if you have comments or questions then we can have it for some time. If a few devotees have questions or inquiries then you can write. Please don't post questions now. But ask when told to do so. It's difficult to explain everything in short. In the 5th canto of Srimad-Bhagavatam Sukadev Goswami has spoken about cosmology. In the 3rd and 4th canto also sarga and visarga of this has been explained. It has been mentioned there that the Lord has created and then Brahma took over. About this Sukadev Goswami has spoken in the 5th canto. There are saptadvipa, 9 varsas are there. Bharata Varsa is there. There are 14 planetary systems and then heaven and hell. There are 28 hellish planets. It's also been explained how one has to face punishments when sinful actions are committed. You will be terrified when you hear this. King Pariksit didn't fear, but he felt compassion when he heard this. He asked i if there would be some solution so that living entities will not go to the hellish planet. There it's been mentioned that Sukadev Goswami is examining King Pariksit. He said that people can perform atonement for their sinful activities. He just wants to see if King Pariksit will satisfy with this solution. But King Pariksit didn't accept this. It's like committing sinful activities and going to Kumbha Mela. Take the bath in the Ganga and then again do the same sinful activities. Then King Pariksit said that it's like the bathing of an elephant. The elephant takes a nice bath. We had a lady elephant in padayatra. Her name was Laksmi. She would take a bath and throw dust on herself when she came out of the lake. It is called kuñjara-śaucavat (exactly like the bathing of an elephant). King Pariksit asked to show a way by which one can uproot sinful tendencies. trapatya unmulayam By studying the Bhagavatam the tendencies of doing sinful activities get uprooted. If we atone then we trim out. Just like a bamboo or a banana tree. We trim it, remove bamboo and bananas, but still these plants grow again. Similarly by doing atonement tendencies of committing sinful activities does not uproot these activities. Sinful desires remain in our minds. There are the fruits of sinful as well as pious activities. Then how can the seeds of sins be destroyed was what asked Parikshit Maharaj asked? In this regard Sukadeva Goswami described the historical incident of Ajamila. He was the husband of a prostitute maidservant. He was from Kannauj, near Kanpur. Sukadeva Goswami described his character. Ajamila had ten sons, of whom the youngest was named Narayana. That baby was born when he was 80 years old. He was a sinner like Jagai and Madhai, but fortunately he named his youngest son Narayana. Then he suffered through disease. The Yamadutas came to fetch him. Seeing them his dhoti turned yellow out of fear. Nearby his son Narayan was playing. What one doesn't do who is about to die? All types of endeavours come to mind to not die. He called for his son Narayana. He would have said it just once. When he said this once, then at that time the Visnudutas came. The conversation between the Visnudutas and Yamadutas is worth contemplating on. He was liberated by Visnudutas. He didn't become a devotee. He was just liberated. He didn't chant a pure name at that time. He chanted in namabhas. To chant in a pure way he went to Haridwar. Namabhas means he was freed from sins. Then he started to practice chanting holy names, understanding the 10 offences. Earlier he committed offences and thought that by doing karmakand he will be free. Karmakand and bhakti are on a different platform. Thinking them to be on the same platform is an offence. Then Ajamila learned the sastras and got the association of the devotees. Then he started to chant the pure name of the lord. Then he got mantra siddhi and then was qualified to go to Vaikuntha. Then next time the same Visnudutas came and took him back to Godhead. Any question or comments? There are two places. He was at Kannoj and then he went to Haridwar. There he performed sadhana and went back to Vaikuntha. He got the association of devotees. Visnudutas were very beautiful. He got the association of Visnudutas and hence he was liberated and became a devotee. sādhu-saṅga’, ‘sādhu-saṅga’—sarva-śāstre kaya lava-mātra sādhu-saṅge sarva-siddhi haya Translation: The verdict of all revealed scriptures is that by even a moment’s association with a pure devotee, one can attain all success. (CC Madhya 22.54) Question & Answer Section Q1: Ajamila was liberated so why did he not go to Goloka dhama Gurudev uvaca: Our goal is not to become liberated. Our goal is to become a devotee. If someone is a devotee, then he is liberated. But If he is only liberated then he didn't become a devotee. Liberation is as good as hell. Devotees don't like liberation. mama janmani janmanishvare bhavatad bhaktir ahaituki twayi Translation: I only want Your causeless devotional service, birth after birth.[ Sri Siksastakam verse 4] The goal of the bhakti is to get causeless devotional service. ********** Q2: How we can fight different injustice during this pandemic? Gurudev uvaca: Fight with the holy name. Yesterday I was addressing the devotees of Middle East, Dubai. I said that during this coronavirus period, fighting is taking place between the material energy of the Lord and the marginal potency of the Lord. All the superpowers of the world are defending. The propensity of the conditioned soul is that he keeps on fighting. Prabhupada says by Krsna's order all the problems come from time to time and trouble the conditioned soul through the material energy of the Lord. It's a big world war between the conditioned soul and the material energy of the lord. We can never win. So to fight, we have to change the policy. Prabhupada explains when you want to enter your friend’s home their dog stops you from entering. We can't fight with the dog. If we will do, we will lose and be bitten by him. If you want to win the fight you have to take the help of your friend or you have to ring the bell. Then the dog can be controlled by his master and you can meet your friend. Similarly to fight with this pandemic we have to call the Lord then the victory is guaranteed. ********** Q3:Why Mahaprabhu use to hear Dhruva and Prahlad Caritra again and again? Gurudev uvaca: They are special characters. We get enthusiasm and energy by listening to them. Caitanya Mahaprabhu also wants to show us that we should not directly read the rasa lila of the Lord which is in the 10th canto. We have to study, do sravanam and kirtana of the previous cantos. Prahlad caritra is there in the 7th canto and Dhruva caritra is there in the 4th canto. If we read them then we will be purified and we will be ready to study and understand the 10th canto where madhurya and gopinaya pastimes of Radha and Krsna have been explained. ********** Q4:Now I am seeing that our ISKCON grhastha devotees have only one child. Many of them are daughters. How many children should be to grhastha? Gurudev uvaca: Hare Krishna devotees should think like this. We have to think that the soul has reached and should be welcomed. It can be in the body of a boy or a girl. And it's our responsibility. Not only do we have to take the responsibility for their food, clothes, and shelter, but also to liberate them. You see how many you can liberate. Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakur also said that if you can liberate them then you should not mind giving birth to 100 children. But you have to do things according to time, place, and circumstances. The family planning of the Government is unsavoury. They don't have any idea. They think that earlier there used to be blessings of "saat putra sobhagayawati" and there were so many children, like the 5 Pandavas. Their calculations are like this. They want to reduce the numbers so that each child will get more of his father’s property. Each one will get more money, more land so that they will be happy. This is how they calculate. But by doing so, children can't remain happy. The quality of children or population has to be checked. If we reduce the population of the world and just 2 persons remain in this world, what will those 2 persons think? Individually they will think that everything belongs to him. This is our propensity. Every conditioned soul thinks like this. asau mayā hataḥ śatrur haniṣye cāparān api īśvaro 'ham ahaṁ bhogī siddho 'haṁ balavān sukhī Translation: He is my enemy, and I have killed him; and my other enemy will also be killed. I am the lord of everything, I am the enjoyer, I am perfect, powerful and happy. [ BG 16.14] Just by decreasing the number of people does not mean we will become happy and solve the problems. Their mind will never be peaceful. It never happened and will never happen. Lawmakers never think like this. Their laws are useless. Hari Hari Thank you

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Наставления после совместной джапа-сессии 23 мая 2020 г. ПОКАЯНИЕ НЕ ИСКОРЕНЯЕТ ГРЕХОВНЫЕ ПРИВЫЧКИ. Участвуют преданные из 800 мест. Давайте поговорим немного. Мы постараемся завершить обсуждение до 7.15. У нас есть вторая сессия Брахмачари Санги, которая проходит здесь с 8 до 9:30 утра. Я буду говорить в джапа толк, и если у вас есть комментарии или вопросы, то мы можем прочитать их в определенное время. Если у некоторых преданных есть комментарии или вопросы, вы можете их написать. Пожалуйста, не задавайте вопросы сейчас. Задайте их в указанное время. Трудно объяснить все вкратце. В 5-й песне «Шримад-Бхагаватам» Шукадева Госвами говорил о космологии. В 3-й и 4-й песнях также объясняются сарга и висарга. Там было упомянуто, что Господь создал, а затем Брахма вступил во владение. Об этом Шукадева Госвами говорил в 5-й песне. Есть сапта двипа, есть 9 варш. Бхарата Варша находится здесь. Есть 14 планетных систем, среди них есть райские и адские планеты. Существует 28 адских планет. Здесь так же было описано каким наказаниям подвергаются живые существа, когда совершаются греховные действия. Вы будете в ужасе, когда услышите это. Махараджа Парикшит не испытывал страх, но почувствовал сострадание, когда услышал это. Он спросил, есть ли какое-то решение, как можно избавить живые существа от страданий на адских планетах. Там упоминалось, что Шукадева Госвами хотел проверить насколько разумен Махараджа Парикшит. Он сказал, что люди могут совершать искупление за свои греховные поступки. Он просто хотел посмотреть, удовлетворит ли Махараджа Парикшита такое решение. Но Махараджа Парикшит отказался признать этот путь. Это все равно что совершать греховные поступки, а затем ехать для их искупления на Кумбха Мелу. Принимать омовение в Ганге, а затем снова совершать те же греховные поступки. Царь Парикшит сказал, что это похоже на купание слона. Слон омывшись снова осыпает себя пылью. У нас была слониха в падаятре. Ее звали Лакшми. Когда она выходила из озера, где она купалась ,она снова осыпала себя пылью. Это называется кунджара-шаучават (похоже на купание слона). Царь Парикшит попросил рассказать, как можно искоренить греховные наклонности. трапатйа унмулайам Изучая Бхагаватам, искореняется склонность совершать греховные поступки. Совершая искупление мы обрезаем совершенные грехи, как стригут бамбук или банановое дерево. Мы обрезаем стебли бамбука или бананана, но растения продолжают расти дальше. Точно так же, совершая искупление за совершенные греховные поступки, греховная деятельность не искореняется. Греховные желания остаются в уме. Есть плоды как греховной, так и благочестивой деятельности. Тогда Махараджа Парикшит спросил, как уничтожить семена греховной деятельности? Отвечая на этот вопрос Шукадева Госвами описал историю Аджамилы. Он был мужем распутной служанки. Он был из Каньякубджа (современный Канаудж), недалеко от Канпура. Шукадева Госвами описал его характер. У Аджамилы было десять сыновей, из которых младшего звали Нараяна. Этот ребенок родился, когда ему было 80 лет. Он был грешником, как Джагай и Мадхай, но, к счастью, он назвал своего младшего сына Нараяной. Он был стар и страдал от болезней. Когда настал его смертный час Ямадуты пришли за ним. Увидев их, его дхоти пожелтело от страха. Рядом играл его сын Нараяна. Человек готов делать что угодно, лишь бы не умереть? Различные мысли приходят на ум, чтобы избежать смерти. Он позвал своего сына Нараяну. Он произнес его имя только один раз. И когда он один раз произнес это имя, сразу пришли Вишнудуты. Давайте рассмотрим разговор между Вишнудутами и Ямадутами. Аджамила был освобожден Вишнудутами. Он не стал преданным. Он был только освобожден. Тогда он не произнес чисто Святое имя. Он повторил нама абхас (тень святого имени). Чтобы чисто воспевать, он отправился в Харидвар. Нама абхас означает, что он был освобожден от грехов. Затем он начал практиковать воспевание Святых имен, помня 10 оскорблений. Раньше он совершал оскорбления и думал, что, занимаясь карма кандой, он будет освобожден. Карма канда и Бхакти находятся на разной платформе. Думать, что они находятся на одной платформе, является оскорблением. Затем Аджамила выучил шастры и получил общение с преданными. Затем он начал воспевать чисто Святое имя Господа. После чего он достиг мантра сиддхи (совершенное воспевание), а затем получил право уйти на Вайкунтху. В следующий раз за ним пришли те же Вишнудуты и забрали его обратно к Богу. Есть вопросы или комментарии? Есть два места. Аджамила был в Каньякубдже, а затем отправился в Харидвар. Там он исполнил садхану и вернулся на Вайкунтху. Он получил общение с преданными. Вишнудуты были очень красивы. Он получил общение с Вишнудутами, и поэтому он был освобожден и стал преданным. ‘садху-санга’, ‘садху-санга’ — сарва-шастре кайа лава-матра садху-санге сарва-сиддхи хайа Перевод: «Как гласят все священные писания, даже мимолетного общения с чистым преданным может оказаться достаточным для достижения полного успеха». (Ч.Ч. Мадхья лила 22.54) Раздел вопросов и ответов: Воспрос 1: Аджамила был освобожден, так почему он не пошел на Голока дхаму? Гурудев сказал: Наша цель - не стать освобожденными. Наша цель - стать преданными. Став преданным, человек получает освобождение. Но став освобожденным не означает, что человек становится преданным. Освобождение так же хорошо, как ад. Преданным не нравится освобождение. на дханам на джанам на сундарим кавитам ва джагад-иша камайе мама джанмани джанманишваре бхаватад бхактир ахаитуки твайи Перевод Шрилы Прабхуады: „О Господь Вселенной, Мне не нужно материальных богатств, материалистичных последователей, красивой жены или ведических обрядов с их щедрыми обещаниями. Все, чего Я хочу, — это жизнь за жизнью бескорыстно преданно служить Тебе“. (Ч.Ч. Антья лила 20.29, Шикшаштакам 4) Цель бхакти - получить беспричинное преданное служение. Вопрос 2: Как мы можем бороться с несправедливостью во время этой пандемии? Гурудев сказал: Сражайтесь вместе со Святым именем. Вчера я обращался к преданным на Ближнем Востоке, в Дубае. Я сказал, что в этот период коронавируса происходит борьба между материальной энергией Господа и пограничной энергией Господа. Все сверхдержавы мира защищаются. Склонность обусловленной души заключается в том, что она продолжает сражаться. Прабхупада говорит, что по приказу Кришны все проблемы возникают время от времени и беспокоят обусловленную душу через материальную энергию Господа. Это большая мировая война между обусловленной душой и материальной энергией Господа. Мы никогда не сможем победить. Поэтому, чтобы сражаться, мы должны изменить политику. Прабхупада объясняет, когда вы хотите войти в дом вашего друга, но его собака не дает вам войти, вы не можете бороться с собакой. Если вы будете это делать, вы проиграете, вы будете укушены ею. Если вы хотите выиграть бой, вы должны воспользоваться помощью своего друга или позвонить в звонок. Тогда хозяин будет контролировать собаку, а вы сможете встретится со своим другом. Точно так же, чтобы бороться с этой пандемией, мы должны призвать Господа, тогда победа будет гарантирована. Вопрос 3: Почему Махапрабху снова и снова слушал о Дхруве и Прахлада Чариту? Гурудев сказал: Это особенные личности. Мы получаем энтузиазм и энергию, слушая о них. Чайтанья Махапрабху также хочет показать нам, что мы должны непосредственно читать раса лилу Господа, которая находится в 10-й песне. Мы должны учиться, совершая шраванам и киртанам из предыдущих песен Шримад Бхагаватам. Прахлада чарита описана в 7-й песне, а Дхрува чарита есть в 4-й песне. Если мы прочитаем их, мы очистимся и сможем понять 10-ю песнь, в которой объясняются Мадхурья лила, Раса лилы а так же лилы Радхи и Кришны. Вопрос 4: Последнее время я замечаю, что у наших преданных ИСККОН-грихастх обычно только один ребенок. Многие из них дочери. Сколько детей должно быть у грихастхи? Гурудев сказал: Преданные Харе Кришна должны должны думать, что душа пришла и должна приветствоваться. Она может быть в теле мальчика или девочки. И это наша ответственность. Мы должны не только взять на себя ответственность за их еду, одежду и кров, но и привести их к освобождению. Вы должны смотреть, скольки вы можете освободить. Шрила Бхактисиддханта Сарасвати Тхакур говорил, вы не должны возражать против рождения 100 детей, если вы можете привести их ко освобождению. Но вы должны совершать действия в зависимости от времени, места и обстоятельств. Планирование семьи правительством является сомнительным. У них нет идеи. Они думают, что раньше были благословения «сат путра собхагаявати», и было много детей, например 5 Пандавов. У них свои расчеты. Они хотят сократить число детей, чтобы каждый ребенок получал больше имущества своего отца. Каждый получит больше денег, больше земли, чтобы они были счастливы. Вот как они думают. Но от этого дети не становятся счастливыми. Они думают что количество детей или населения на планете должно быть ограничено. Если мы уменьшим население земли, и в этом мире останется всего 2 человека, о чем будут думать эти два человека? Каждый из них будет думать, что все принадлежит ему. Это наша склонность. Каждая обусловленная душа думает так. асау майа хатах̣ шатрур ханишйе чапаран апи ӣшваро ’хам ахам бхоги сиддхо ’хам балаван сукхи Перевод Шрилы Пгабхупады: «Этого моего врага я убил, и та же участь ожидает остальных. Я хозяин всего. Я наслаждаюсь жизнью. Я достиг совершенства, обрел могущество и счастье.». Так эти люди становятся жертвами собственного невежества. (Б.Г. 16.14) Сокращение количества людей не означает, что мы станем счастливыми и решим все проблемы. Их ум никогда не будет умиротворен. Этого никогда не было и никогда не случится. Законодатели никогда не поймут этого. Их законы бесполезны. Хари Хари! Спасибо. (Перевод Кришна Намадхан дас, редакция бхактин Юлия)