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*जप चर्चा* *पंढरपुर धाम से* *31 जुलाई 2021* हरे कृष्ण!!! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 890 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। हरि ! हरि ! गौरांग! गौरांग! आप भी नित्यानन्द कह सकते हो फिर। शायद आप में से कुछ गौर भक्त वृन्दों ने कहा भी होगा। *जे आनिल प्रेमधन करुणा प्रचुर। हेन प्रभु कोथा गेला लोकनाथ गोस्वामी ठाकुर।।* आप समझ ही गए होंगे। आज कौनसा दिन है। मेरे लिए भी आज का दिन विशेष दिन है। लोकनाथ गोस्वामी तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय!!! हरि हरि!!! जब से श्रील प्रभुपाद ने मुझे यह लोकनाथ नाम दिया - ' योर नेम इज लोकनाथ' तुम्हारा नाम लोकनाथ है। तब से मैनें अपना रिश्ता नाता संबंध लोकनाथ गोस्वामी के साथ भी जोड़ दिया है। मैं स्वयं को भाग्यवान समझता हूं कि श्रील प्रभुपाद ने मुझे यह लोकनाथ नाम दिया। लोकनाथ गोस्वामी, मैं तो हो गया स्वामी और वे रह गए गोस्वामी ही। लोकनाथ गोस्वामी.. मुझे लोकनाथ गोस्वामी अति प्रिय हैं। मेरे प्रिय श्रील लोकनाथ गोस्वामी का आज तिरोभाव तिथि महोत्सव है। आज आषाढ़ मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी है। श्रील लोकनाथ गोस्वामी जब लगभग 100 वर्ष के थे तभी आज के दिन वे समाधिस्थ हुए। वृंदावन के राधा गोकुलानंद मंदिर के प्रांगण में लोकनाथ गोस्वामी की समाधि का दर्शन आज कई भक्त करेंगे। कई गौडीय वैष्णव वहां पहुंच जाएंगे। यदि मैं वृंदावन में होता तब निश्चित ही मैं दर्शन के लिए पहुंच जाता। लोकनाथ गोस्वामी का जन्म श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के जन्म से दो तीन वर्ष पहले पूर्व बंगाल (आज कल का बांग्लादेश) जिला जैसोर के तालखंडी नामक स्थान में हुआ था वैसे मैं वहां गया था, जहां वे जन्मे थे। कई साल पहले मैं वहां गया था। उस भूमि का मैंने भी दर्शन किया और वहां की धूल भी मैंने अपने मस्तक पर उठाई। लोकनाथ गोस्वामी के वंशज आज भी हैं। जब मैं वहां पर गया था तब वे वहां पर थे। मैं उनसे वहां मिला था। उनका एक प्रस्ताव भी था, पता नहीं आगे क्या हुआ? वे उस प्रॉपर्टी को इस्कॉन को बेचना चाहते थे। शायद अधिक धन राशि की मांग चल रही थी इसीलिए इस्कॉन ने नहीं खरीदा होगा। मैं जानता हूं वह भूमि को देना चाहते थे किन्तु वे भूमि का दान नहीं अपितु भूमि की बिक्री करना चाहते थे। उनके वंशज- श्री लोकनाथ गोस्वामी के पिता श्री पद्मनाभ चक्रवर्ती वहां कुछ समय रहे। वे कुछ समय नवद्वीप या शांतिपुर में रहे। शांतिपुर में रहे ऐसा कहना अधिक उचित होगा, उन्होंने श्रील अद्वैत आचार्य से शिक्षा ग्रहण की और दीक्षित हुए। तत्पश्चात पुनः वे तालखंडी पूर्व बंगाल में लौट गए। वहां लौटकर उन्होंने टोल अर्थात पाठशाला प्रारंभ की। वे संस्कृत और गौडीय वैष्णवनिज़्म की शिक्षाएं दे रहे थे। उन विद्यार्थियों में श्रील लोकनाथ गोस्वामी भी पढ़ रहे थे। उनके पिताश्री ही उनके शिक्षक बन गए। लोकनाथ गोस्वामी ने कुछ वर्ष तो वहां अध्ययन किया किन्तु जब वे14 वर्ष के हुए तब पद्मनाभ चक्रवर्ती ने अपने पुत्र को शांतिपुर में अद्वैत आचार्य से शिक्षा ग्रहण करने हेतु भेजा। श्रील लोकनाथ गोस्वामी ने वैसा ही किया। जब शांतिपुर में यह विद्या शिक्षा ग्रहण चल ही रहा था तब उस समय श्रील लोकनाथ गोस्वामी को श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का अंग सङ्ग, सानिध्य प्राप्त हुआ। उनके घनिष्ठ संबंध अथवा स्नेही हुए, कहा जाए वे एक दूसरे के मित्र ही बने। वैसे वे लगभग समवयस्क अथवा एक ही आयु के थे। तत्पश्चात श्रील लोकनाथ गोस्वामी अपने गांव लौट आए और उन्होंने स्वयं भी पढ़ाना प्रारंभ किया।आप जानते हो कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने केशव कश्मीरी को परास्त किया था। उस लीला के संपन्न होने के उपरांत श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का विवाह लक्ष्मीप्रिया के साथ हुआ। इसके उपरांत गृहस्थ आश्रम के पालन के आर्थिक विकास के हेतु से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु बंगला देश में जाते हैं। उस समय पुनः श्री लोकनाथ गोस्वामी को श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का सानिध्य लाभ प्राप्त हुआ। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां भ्रमण कर ही रहे थे ,वे तालखंडी आए और वहां लोकनाथ गोस्वामी के घर पर कुछ दिनों के लिए रुके रहे। हम तो ऐसे ही कह तो देते हैं, कुछ दिनों के लिए रुके रहे लेकिन क्या क्या हुआ होगा उन दोनों का रुकना, उन दोनों का मिलना जुलना। *ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति । भुड.कते भोजयते चैव षडविधम प्रीति- लक्षणं ॥* ( श्रीउपदेशामृत श्लोक संख्या ४) अनुवाद:- दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना - भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं। वहां इन सब प्रीति के लक्षणों का प्रदर्शन खूब हुआ । लोकनाथ गोस्वामी की चैतन्य महाप्रभु के साथ जो फ्रेंडशिप (मित्रता) थी, पुनः इस मिलन के साथ और उसका अधिक उदित अथवा प्रकटय हुआ। मिलन उत्सव संपन्न हो रहा था। मित्र मिल रहे थे, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु लोकनाथ गोस्वामी के मित्र हैं । वैसे यह भी जानकारी प्राप्त होती है कि जब लोकनाथ गोस्वामी नवद्वीप में थे, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उनको दीक्षा भी दी, वे चैतन्य महाप्रभु के शिष्य भी थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने श्रील लोकनाथ गोस्वामी के साथ पूर्व बंगाल में कुछ समय के लिए भ्रमण भी किया। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब तपन मिश्र के साथ मिले, वहां पर लोकनाथ गोस्वामी थे। तपन मिश्र एक विशेष व्यक्तित्व रहे हैं। हरि! हरि! जिन्हें श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि 'तुम वाराणसी जाओ। भविष्य में मैं तुम्हें वहां मिलूंगा' वैसा ही हुआ था। इसी तपन मिश्र के पुत्र छह गोस्वामियों में से एक गोस्वामी बन गए। वैसे रघुनाथ भट्ट गोस्वामी तपन मिश्र के पुत्र थे। चैतन्य महाप्रभु और लोकनाथ गोस्वामी तपन मिश्र से मिले थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु पुनः नवद्वीप में लौट आए। मायापुर धाम की जय ! बेचारे लोकनाथ गोस्वामी वहीं के वहीं रह गए। हरि! हरि ! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की यादें उनको सताती रही। विरह की व्यथा से वे मर रहे थे। *युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द विरहेण मे॥* (श्री शिक्षाष्टक 7) अनुवाद: हे गोविन्द ! आपके विरह में मुझे एक क्षण भी एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है । नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरंतर अश्रु-प्रवाह हो रहा है तथा समस्त जगत एक शून्य के समान दिख रहा है ॥ चैतन्य महाप्रभु के अंग संग के बिना ऐसा उनका हाल चल रहा था। जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु सन्यास लेने की तैयारी में थे, उस समय लोकनाथ गोस्वामी नवद्वीप,, मायापुर पहुंच जाते हैं। जैसे ही वे आए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को साष्टांग दंडवत प्रणाम किया। महाप्रभु उठे और आगे बढ़े और लोकनाथ गोस्वामी को उन्होंने गाढ़ आलिंगन दिया। हार्दिक स्वागत हुआ, वैसे दो ही नही थे और भी वहां पहुंच गए और बहुत समय तक कीर्तन चलता रहा। कीर्तन के साथ-साथ नृत्य भी हो रहा है, बहुत समय उपरांत जब कीर्तन का धीरे-धीरे समापन हुआ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहने लगे, अच्छा हुआ, तुम समय पर आए। भगवान् ने तुम्हारे लिए एक विशेष योजना बनाई है, तुम्हें कुछ सेवा मिलने वाली है। जब हम कल मिलेंगे तब मैं तुम्हें वह सेवा बता दूंगा। क्या सेवा है? लोकनाथ गोस्वामी ने वहां से प्रस्थान तो किया किंतु उनके मन में यह विचार आते रहे कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कि मुझे अर्थात लोकनाथ गोस्वामी को कुछ विशेष सेवा देने वाले हैं। लोकनाथ गोस्वामी सोचते रहे सोचते रहे । दूसरे दिन जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु से उनकी मुलाकात हुई। तब दूसरे दिन दिल तोड़ देने वाला अनुभव लोकनाथ गोस्वामी को हुआ। चैतन्य महाप्रभु ने कहा- तुम वृंदावन जाओ! वृंदावन का इस समय बहुत बुरा हाल हो चुका है। वृन्दावन यवनों, मुसलमानों के हमलों अथवा अत्याचारों के कारण निर्जन प्रदेश बन चुका है। तुम जाओ वृंदावन का उद्धार करो या वृंदावन के गौरव की पुनर्स्थापना करो। लीला स्थलियों को खोजो, लोग भूल चुके हैं और कौन सी लीला कहां पर हुई। लोगों ने आना ही बंद कर दिया है परिक्रमाएं बंद है। वहां के सारे विग्रह और मंदिर भी बंद है। क्योंकि विग्रह ही नहीं हैं। सारे विग्रह जयपुर या राजस्थान में पहुंचाए गए हैं। हरि !हरि! चैतन्य महाप्रभु ने जब यह आदेश या इच्छा प्रकट की, लोकनाथ गोस्वामी वैसे तैयार नहीं थे। मैंने आपका अंग सङ्ग प्राप्त करने हेतु घर छोड़ा, मैं आपके साथ रहना चाहता हूं। अब आप मुझे आदेश दे रहे हो। कृष्ण मुझे ऐसा आदेश दे रहे हैं। चैतन्य महाप्रभु ने आदेश दिया अर्थात वही कृष्ण हैं। लोकनाथ गोस्वामी के समक्ष यह बड़ा धर्मसंकट उत्पन्न हुआ। वह मना ही कर रहे थे। नहीं, नहीं नहीं, लेकिन धीरे धीरे कुछ मानसिकता बन रही थी। इतने में नवद्वीप के ही भूगर्भ गोस्वामी जो गदाधर पंडित के शिष्य थे। उन्होंने जब यह सुना कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु चाहते हैं कि श्रील लोकनाथ गोस्वामी वृन्दावन में जाकर कार्य अथवा सेवा करें, वे सोचने लगें कि मैं जाना चाहूंगा। लोकनाथ गोस्वामी के साथ मैं जाऊंगा। मैं तैयार हूं, वे अकेले नहीं जाना चाहते तो मैं साथ में जाऊंगा। तब बात फाइनल हो गयी। लोकनाथ गोस्वामी और भूगर्भ गोस्वामी यह पहली टीम रही जिसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने वृन्दावन भेजा। *आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं* *रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता ।* *श्रीमद भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान्* *श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतामिदं तत्रादशे नः परः ।।* (चैतन्य मंज्जुषा) अनुवाद : भगवान व्रजेन्द्रन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभव युक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है । व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी , वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है । श्रीमद् भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्दप्रमाण है एवं प्रेम ही परम पुरुषार्थ है - यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है । यह सिद्धान्त हम लोगों के लिए परम आदरणीय है । जो वृन्दावन धाम की आराधना करेंगे....। महाप्रभु लोकनाथ गोस्वामी को यह भी समझा रहे थे कि कृष्ण की सेवा से अधिक महत्वपूर्ण है, उनके धाम की सेवा। इस समय उनके धाम की सेवा की आवश्यकता है। वे दोनों प्रस्थान कर रहे थे। चैतन्य महाप्रभु से दूर जाना बड़ा कठिन था। वैसे चैतन्य महाप्रभु यह भी वचन दे रहे थे कि तुम आगे बढ़ो, तुम वृन्दावन जाओ। मैं भी वृन्दावन आऊंगा। हम मिलेगें। तब भी उनके लिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु से दूर जाना बड़ा दुष्कर या बड़ा मुश्किल कार्य था। लेकिन उन्होंने इस आशा से ऐसा कार्य किया कि चलो हम पुनः वृन्दावन में महाप्रभु से मिलेंगे। ऐसी इच्छा व आशा के साथ उन्होंने वृंदावन के लिए प्रस्थान किया। चैतन्य महाप्रभु ने लोकनाथ गोस्वामी को वृंदावन भेजा, उसके पीछे एक अन्य कारण भी बताया जाता है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु संन्यास लेने वाले थे, यदि संन्यास दीक्षा समारोह में लोकनाथ गोस्वामी उपस्थित होते अथवा उनको पता भी चलता कि चैतन्य महाप्रभु संन्यास लेने वाले हैं तब लोकनाथ गोस्वामी इस बात अथवा विचार को सह नहीं पाएगें। इसलिए अच्छा है कि वह सन्यास दीक्षा समारोह के समय नहीं रहे । इसलिए श्रीचैतन्य महाप्रभु ने युक्ति पूर्वक अथवा ऐसा सोच कर उनको आगे वृंदावन में भेज दिया है। लोकनाथ गोस्वामी और भूगर्भ स्वामी वृंदावन में पहुंच गए। हरि! हरि! उन्होंने अपना फर्ज, कर्तव्य धर्म निभाने का अपना प्रयास जारी किया। उन्हें वृन्दावन में धर्म की संस्थापना भी करनी है। *परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||* ( श्रीमद् भगवतगीता 4.8) अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ | यह षड् गोस्वामी वृंद हैं। वैसे तकनीकी रूप से लोकनाथ गोस्वामी षड् गोस्वामी वृंदों की सूची में नहीं आते किंतु एक मान्यता ऐसी भी है कि यह षड् गोस्वामी वृंद व अन्य दो गोस्वामी उनके नामों के साथ जोड़ें जाते हैं, वे नाम हैं- एक हैं कृष्ण दास कविराज गोस्वामी, दूसरे लोकनाथ गोस्वामी। षड् गोस्वामी और फिर यह अष्ट गोस्वामी ऐसी भी एक टीम एक उल्लेख होता है। लोकनाथ गोस्वामी का कार्य, भाव, भक्ति षड् गोस्वामी वृंदों के स्तर की ही है। एक रत्ती भर भी कम नहीं है। हरि! हरि! *हे राधे व्रजदेवीके च ललिते हे नन्दसूनो कुतः श्रीगोवर्धनकल्पपादपतले कालिन्दीवने कुतः । घोषन्ताविति सर्वतो व्रजपुरे खेदैर्महाविह्वलौ वन्दे रूपसनातनौ रघुयुगौ श्रीजीवगोपालकौ ||* जब वे सारे ब्रज भर में दौड़ते। कृष्ण की खोज में बड़ी विभ्रम् अवस्था में। कहां हो? कहां हो? वे भगवान से मिलना चाहते थे। भगवान को देखना चाहते थे। उनमें तीव्र इच्छा थी। *अकामः सर्व - कामो वा मोक्ष - काम उदार - धीः । तीवेण भक्ति - योगेन यजेत एमषं परम् ॥* ( श्रीमद् भगवातम 2.3.10) अनुवाद:- जिस व्यक्ति की बुद्धि व्यापक है , वह चाहे सकाम हो या निष्काम अथवा मुक्ति का इच्छुक हो , उसे चाहिए कि सभी प्रकार से परमपूर्ण भगवान् की पूजा करे। एक दिन की बात है भगवान् प्रकट हुए। भगवान ने लोकनाथ गोस्वामी को दर्शन दिया। कृष्ण कन्हैया लाल की जय! *बंसी विभूषित करात् , नवनीरद आभात् , पूर्णेन्दु सुंदर मुखात् , अरविंद नेत्रात् , पीताम्बरात् , अरुणबिंबफल अधरोष्ठात् , कृष्णात् , परम किम् अपि तत्वम् , अहम् न जाने* ... " जिनके करकमलों में बंसी शोभायमान है , जिनके सुंदर शरीर की आभा नये बादलों जैसी घनश्याम है , जिनका सुंदर मुख पूर्ण चन्द्र जैसा है , जिनके नेत्र , कमल की भांति बहुत सुंदर है , जिन्होंने पीताम्बर धारण किया हुआ है , जिनके अधरोष्ठ अरुणोदय जैसा , माने उदित होते हुए सूर्य के लाल फल के रंग जैसा है , ऐसे श्रीकृष्ण भगवान के सिवा और कोई परम तत्व है , यह मैं नहीं जानता । ऐसे कृष्ण कन्हैया ने लोकनाथ गोस्वामी को अपने ही विग्रह दे दिए। कृष्ण ने लोकनाथ गोस्वामी को कृष्ण का विग्रह दिया और कहा कि " *मेरा नाम राधा विनोद हैं*।" लोकनाथ गोस्वामी को विग्रह के रूप में कृष्ण प्राप्त हुए। हरि! हरि! उनके लिए विग्रह और कृष्ण में कोई अंतर नहीं है, इनकी आराधना करते रहे। वे विग्रह की आराधना में तल्लीन रहते थे। अन्य भी सेवाएं चल रही हैं। अलग अलग लीला की स्थलियों को खोज रहे हैं, प्रकाशित कर रहे हैं। उनका नाम करण भी हो रहा है, यह- यह लीला स्थली है। वह- वह लीला स्थली है। बरसाने की पूर्व दिशा में जो खादिर वन है, इस खादिर वन में उमराव नाम का एक गांव है। इस खादिर वन में भगवान ने बकासुर का वध किया था, वहां उमराव गांव में लोकनाथ गोस्वामी रहा करते थे। अर्थात उन्होंने अपना भजन कुटीर बनाया और भजन के आनंद में राधाकृष्ण उत्तालिको अर्थात वे विग्रह की आराधना में मस्त रहते थे। इस स्थान पर एक राधाविनोद् की विशेष लीला है। वे इस राधाविनोद को गले में लटकाते थे, उन्होंने एक थैली बनाई। उनके लिए एक विशेष मंदिर का निर्माण नहीं किया था। वे उनको एक थैली में रखते और गले में लटकाकर ही वे भ्रमण करते। इत्र तत्र सर्वत्र। एक समय जब वे उमराव में थे। अपने विग्रह का दर्शन कर रहे थे, निहार रहे थे। *प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।* *यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।* (ब्रम्हसंहिता 5.38) *अनुवाद :* जिनके नेत्रों में भगवत प्रेम रूपी अंजन लगा हुआ है ऐसे भक्त अपने भक्ति पूर्ण नेत्रों से अपने ह्रदय में सदैव उन श्याम सुंदर का दर्शन करते हैं जो अचिंत्य है तथा समस्त गुणों के स्वरूप हैं । ऐसे गोविंद जो आदि पुरुष हैं, मैं उनका भजन करता हूं। अपने विग्रह का दर्शन करते हुए उनकी आँखों से अश्रुधाराएँ बह रही थी। वे विग्रह तो उनके लिए स्वयं कृष्ण ही हैं। दर्शन करते ही रहे। दर्शन करते ही रहे। अथवा प्रणाम कर रहे थे। *मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।।* ( श्रीमद् भगवतगीता १८.६५) अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो। यह सब चल रहा था, विग्रह को नमस्कार कर रहे हैं। उनकी आराधना कर रहे हैं। *पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति | तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः।।* ( श्रीमद् भगवत गीता ९.२६) अनुवाद: यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसको स्वीकार करता हूँ | वे भगवान् को पत्र पुष्प आदि अर्पित कर रहे थे। उनका स्मरण व दर्शन कर रहे थे। इसी में समय बीत रहा था। इस बात को वे भूल गए। भगवान् के राजभोग का समय हो चुका है, लोकनाथ गोस्वामी स्वयं ही राजभोग बनाते थे। उस भजनकुटीर में एक रसोई घर था, लोकनाथ गोस्वामी के सहायक रसोईघर में पहुंच चुके थे। सब तैयारी तो थी लेकिन लोकनाथ गोस्वामी नहीं आ रहे थे, उनका सेवक बहुत समय तक प्रतीक्षा तो करता रहा फिर उससे रहा नहीं गया, वह जहां लोकनाथ गोस्वामी विग्रह के साथ थे, वहां जा रहा था। सेवक आधे रास्ते में ही था, इतने में लोकनाथ गोस्वामी आ गए और वे रसोई घर की ओर जा रहे थे। रसोई का कार्य शुरू हुआ, राजभोग बन भी गया। सेवक जब एक समय रसोई घर से जहां विग्रह थे, उस तरफ जाता है, तब देखता है कि लोकनाथ गोस्वामी वहां विग्रह के साथ हैं। वह पुनः वापस आकर देखता है- वे रसोई घर में भी हैं, फिर मंदिर की ओर दौड़ता है और देखता है कि वहां पर भी हैं। वह सेवक संभ्रमित हो गया। लोकनाथ गोस्वामी दो स्थानों पर एक ही साथ कैसे? धीरे धीरे वह समझ गया कि वास्तविक लोकनाथ गोस्वामी विग्रहों के साथ है। उनका अपने विग्रहों के साथ निहारना, दर्शन, स्मरण, नमस्कार चल रहा है। वे रसोई घर में रसोई बना रहे थे और हुबहू लोकनाथ गोस्वामी जैसे दिख रहे थे। लेकिन वे लोकनाथ गोस्वामी नहीं थे, वे राधा विनोद थे। उनके भक्त जो आराधना व संस्मरण कर रहा था। *मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु | मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||* ( श्रीमद् भगवत गीता 18.65) अनुवाद- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो। नमस्कार यह सब चल रहा था। तब ठाकुर जी ने सोचा कि इसके इस विधि विधानों में मैं विघ्न नहीं डालना चाहता हूं। रसोई बनाने का समय तो हो चुका है, चलो मैं ही वह कार्य करता हूं। ऐसा सोचकर भगवान् ने स्वयं उस दिन रसोई बनाई। हरि! हरि! गौरांग! होता यह है (कुछ ही मिनट बाकी हैं तो यह कहेंगे) वैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जाने की उनकी योजना तो थी, जो बात उन्होंने लोकनाथ गोस्वामी को कही थी कि मैं आऊंगा, हम मिलेंगे किंतु संन्यास लेने के उपरांत शची माता का उपदेश कुछ भिन्न रहा। 'नहीं! तुम जगन्नाथपुरी जाओ! जगन्नाथपुरी में रहो! *वृन्दावन तो दूर है।* चैतन्य महाप्रभु की सारी योजना अथवा जो स्वप्न देखा था, वह समाप्त हो गया। वैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी जरूर गए। वहां से दक्षिण भारत की यात्रा में गए। लोकनाथ गोस्वामी को वृंदावन में समाचार मिला कि चैतन्य महाप्रभु इस समय दक्षिण भारत की यात्रा कर रहे हैं। लोकनाथ गोस्वामी, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के दर्शन करने के लिए दक्षिण भारत की यात्रा में स्वयं गए। वे चैतन्य महाप्रभु को खोजने के लिए, मिलने के लिए गए । इतने में क्या होता है कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत की यात्रा पूरी करके जगन्नाथपुरी लौट भी गए। जब लोकनाथ गोस्वामी दक्षिण भारत में ही खोज रहे थे और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को मिलना चाहते थे। उनको पुनः समाचार मिलता है कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन पहुंचे हैं, वे अभी वृंदावन में हैं। लोकनाथ गोस्वामी वृंदावन की ओर दौड़ पड़े। वे चैतन्य महाप्रभु को वृंदावन में मिलेंगे, भागे दौड़े आए। वृन्दावन पहुंचे, लेकिन पता चला कि चैतन्य महाप्रभु वृंदावन में आए तो थे, वे लगभग दो मास वृंदावन में रहे। किन्तु अभी अभी तो प्रस्थान किया है। वे कहां गए? वे जगन्नाथपुरी के रास्ते में हैं, इस समय वे प्रयाग में हैं। अब लोकनाथ गोस्वामी प्रयाग के लिए प्रस्थान करने की तैयारी में ही थे। तब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का उन को आदेश होता है ( स्वप्नादेश या आकाशवाणी जो भी आदेश होता है। वृन्दावन को नहीं छोड़ना। जहां हो, वहीं रहो। वह वहीं के वहीं रह गए। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ उनका पुनर्मिलन नहीं हुआ। इतना ही कह सकते हैं कि आज के दिन आषाढ़ कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन वे समाधिस्थ हुए औऱ शरीर त्यागा, उसी के साथ नित्यलीला प्रविष्ट बनें। गौरांग महाप्रभु की नित्य लीला में आज के दिन उन्होंने प्रविष्ट किया। वे सीधे पहुंचे होंगे, जहां पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु थे। हरि! हरि! हम कोई टिप्पणी इत्यादि नहीं कर सकते हैं, आप ही सोचो। आप ही चिंतन करो ।ऐसे गौर भगवान और भक्त के विषय में। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय! ऐसे भक्त श्रील लोकनाथ गोस्वामी महाराज की जय! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

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