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जप चर्चा, पढं रपरु धाम, 1 अगस्त 2021 हरेकृष्ण। हमारेसाथ 858 स्थानों सेभक्त जप कर रहेहैं। हरि हरि । गौर हरि । हरी हरी। ॐ अज्ञान ति मि रान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।* *चक्षुरुन्मीलि तंयेन तस्मैश्रीगरुुवेनम: ॥ लोकनाथ गोस्वामी ति रोभाव ति थि महोत्सव की जय। जो हमनेकल मनाया। कल कुछ सस्ं मरण हुआ और करनेका प्रयास हुआ और लोकनाथ गोस्वामी महाराज को या श्रील लोकनाथ गोस्वामी प्रभपु ाद को आज भी भलू नहींपा रहेहैं। इन सभी आचार्यों के नाम के साथ प्रभपु ाद – प्रभपु ाद जोड़ सकतेहैं। यह आपकी जानकारी के लि ए है। श्रील भक्ति सि द्धांत सरस्वती ठाकुर ही प्रभपु ाद नहीं थे। हम शि ष्यों नेश्रील प्रभपु ाद सेनि वेदन कि या था। हेस्वामी जी! यह शरुुआत के दि नों की बात है, वि देश के अनयु ायी न्ययू ॉर्क मेंप्रभपु ाद को स्वामी जी स्वामी जी कहतेथे। कुछ सस्ं मरण हो रहा है। श्रील प्रभपु ाद की जय। तो जसै ेआप अपनेगरुु को श्रील भक्ति सि द्धांत सरस्वती ठाकुर को प्रभपु ाद कहतेथे। तो क्या हम भी आपको हम प्रभपु ाद कह सकतेहैं? तो प्रभपु ाद तयै ार हुए, स्वामी जी कहो। श्रील भक्ति वेदांत स्वामी जी को प्रभपु ाद कहनेलगे। तो रूप गोस्वामी प्रभपु ाद भी हैऔर फि र लोकनाथ गोस्वामी प्रभपु ाद भी कह सकते हैं। एक ऐसेआदर्श का क्या कहना। वह इस जगत के नहीं थे। गोलोक के ही श्रीकृष्ण के एक परीकर, एक मजं रूी, एक गोपी। मझु ेयाद नहीं आ रहा है। कौन सी गोपी थी। वह मजं री गोपी थे। तो वह प्रकट हुए हैं। तो दि व्य जगत के भगवान के परि कर गणु ों की खान होते हैं। वसै ेही थे। हरि हरि । फि र श्रीकृष्ण चतै न्य महाप्रभुऔर इन सब असख्ं य परीकरो को साथ मेंलेआए और मैं सोच रहा था कि इस प्रकार श्रीकृष्ण चतै न्य महाप्रभुनेअपनेधाम का और अपनेनि त्य धाम के परि कर का परि चय भी दि या है। ऐसेहोतेहैं, ऐसे हैं मेरे परि कर, ऐसे हैं मेरे भक्त। हरि हरि । आप भी, तमु भी, हेबद्ध जीवो! हेभलू ेभटके जीवो! वसै ेतमु भी वसै ेही हो, तमु मेंभी सारेगणु हैं। हरि हरि । तमु भी ऐसेगणु वान बनो। ऐसेअसख्ं य भक्तों को श्रीकृष्ण चतै न्य महाप्रभुप्रस्ततु कि ए। जि नको हम बड़ेआसानी सेआचार्य या आदर्श के रूप मेंस्वीकार कर सकतेहैं। हरि हरि । जो भी इनके सगं मेंआतेहैं। हरि हरि । तो उनके गणु फि र लोकनाथ गोस्वामी जसै ेपरीकर या अचार्य उनके सगं मेंजब हम आतेहैं। हम उनके सगं मेंकैसेआतेहैं? जब हम उनके बारेमेंसनु तेहैं। उनके चरि त्र को जानतेहैंऔर उसी के साथ हमेंभी वह गणु आतेहैं। वसै ेगणु हम मेंहैं। हम जीव हैना, जीवात्मा हैं। ऐसेमन मेंवि चार आतेहैं। हम जीव है। हम श्रीकृष्ण के अशं हैं। भगवान अशं ी हैं। *सतू उवाच आत्मारामाश्च मनु यो नि र्ग्रन्र्ग्र था अप्यरुुक्रमे।* *कुर्वन्र्व त्यहैतकु ों भक्ति मि त्थम्भतू गणु ो हरि ः ॥ १० ॥* (श्रीमद भगवतम 1.7.10) अनवु ाद:- जो आत्मा मेंआनन्द लेतेहैं, ऐसेवि भि न्न प्रकार के आत्माराम और वि शषे रूप सेजो आत्म - साक्षात्कार के पथ पर स्थापि त हो चकुे हैं, ऐसेआत्माराम यद्यपि समस्त प्रकार के भौति क बन्धनों सेमक्ुत हो चकुे हैं, फि र भी भगवान्की अनन्य भक्ति मय सेवा मेंसलं ग्न होनेके इच्छुक रहतेहैं। इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान्मेंदि व्य गणु हैं, अतएव वेमक्ुतात्माओंसहि त प्रत्येक व्यक्ति को आकृष्ट कर सकतेहैं। भगवान मेंगणु है। हम भगवान के अशं हैंऔर हमेंमेंभी गणु हैं। बस और ढक चकुे हैं। आच्छादि त हुए हैं। हम उन गणु ों को भलू गए हैं। फि र इसकी प्रक्रि या है। तो जब हम इन आचार्यों को या भक्तों को या श्रीकृष्ण चतै न्य महाप्रभुके परीकरो को स्वीकार करतेहैं। *बोलेतसै ा चाले, त्याची वदं ावी पावले* उन्होंनेजसै ा कहा हम वसै ेकरनेलगतेहै। *तर्कों Sप्रति ष्ठ श्रतु यो वि भि न्ना* *नासावषिृषिर्य़स्र्य़ य मतंन भि न्नम ्।* *धर्मस्र्म य तत्त्वंनि हि तंगहुायांमहाजनो ये ़ न गत: स पन्था: ॥* (श्री चतै न्य-चरि तामतृ ,मध्य लीला, अध्याय 17 श्लोक 186) अनवु ाद:- श्री चतै न्य महाप्रभुनेआगेकहा, शष्ुक तर्क मेंनि र्णयर्ण का अभाव होता हैं। जि स महापरुुष का मत अन्यों सेभि न्न नहीं होता, उसेमहान ऋषि नहींमाना जाता। केवल वि भि न्न वेदों के अध्ययन सेकोई सही मार्ग पर नहींआ सकता, जि ससेधार्मि कर्मि सि द्धांतों को समझा जाता हैं। धार्मि कर्मि सि द्धांतों का ठोस सत्य शद्ुध स्वरूपसि द्ध व्यक्ति के ह्रदय मेंछि पा रहता हैं। फलस्वरूप, जसै ा कि सारेशास्त्र पष्टिुष्टि करतेहैं, मनष्ुय को महाजनों द्वारा बतलाए गयेप्रगति शील पद पर ही चलना चाहि ए। श्रील लोकनाथ गोस्वामी जसै ेमहाजन *महाजनो ये ़ न गत: स पन्था:*। वह जि स मार्ग पर चलेउसका अनसु रण करतेहुए हम भी आगेबढ़ेंगे। उनके व्यवहार को और चरि त्र को देखेंगे। हरि हरि । *धर्म-र्मस्थापन-हेतुसाधरु व्यवहार।* *परुी-गोसाजि र येआचरण, सेई धर्म सार ॥* (मध्य लीला 17.185) अनवु ाद:- भक्त के आचरण सेधर्म के वास्तवि क प्रयोजन की स्थापना होती है। माधवेन्द्र परुी गोस्वामी का आचरण ऐसेधर्मों का सार है। साधुऔर सतं ों के व्यवहार धर्म की स्थापना हेतुकार्यकर्य लाप होतेहैं। तो फि र जब हम देखेंगेश्रील लोकनाथ गोस्वामी जसै ेसतं महात्मा उनके सारेव्यवहार, सारेकार्यकर्य लाप उनके समझेंगे। तब हम देखेंगेकि उन्होंने धर्म की स्थापना करी। धर्म की स्थापना फि र हम मेंभी हो जाएगी। कृष्ण भावना हम मेंभी जगेगी। वह हमारे जीवन मेंस्थापि त होगी। उनके चरि त्र के अध्ययन सेहम भी धार्मि कर्मि बनेंगे। हरि हरि । कृष्ण दास कवि राज गोस्वामी जब चतै न्य चरि तामतृ लि खनेजा रहेथे। तो यह देखि ए लोकनाथ गोस्वामी की नम्रता। लोकनाथ गोस्वामी नेवि शषे नि वेदन कि या। मेरा उल्लेख चतै न्य चरि तामतृ मेंनहींकरना। मैंपति त हूं, मैंशद्रू हूं, मैं शलू क हूं, मैंनगण्य हूं। मेरा नाम जि क्र नहींकरना इसीलि ए चतै न्य चरि तामतृ मेंलोकनाथ गोस्वामी का नाम हल्का सा एक-दो स्थानों पर उल्लेख हुआ है। कृष्ण दास कवि राज गोस्वामी टाल नहींसके। ऐसा उल्लेख आता हैकि ंतुउससेअधि क नहीं। यह लोकनाथ गोस्वामी की वि नम्रता है। हरि हरि। ऐसी वि नम्रता नेही तो नरोत्तम दास ठाकुर को आकृष्ट कि या। जो स्वयं ही नरोत्तम और ठाकुर है। जीव गोस्वामी नेउनको यह पद दि या। नरोत्तम दास ठाकुर, जो स्वयं राज्य पत्रु थे। वह लोकनाथ गोस्वामी के कार्यकर्य लापों सेउनके जीवन चरि त्र से, उनकी कार्यकर्य लापों से, वि नम्रता सेप्रभावि त हुए। वह उनके शि ष्य बन गए। लोकनाथ गोस्वामी के केवल एक ही शि ष्य थेऔर वह नरोत्तम दास ठाकुर थे। इतना आसान नहीं था, लोकनाथ गोस्वामी का शि ष्य बनना। वह लोकनाथ गोस्वामी की कैसे-कैसेछि प छि प के सेवा कर रहेथे। वेकैसेछि प छि प के ही मल मत्रू का वि सर्जनर्ज स्थली जहांपर लोकनाथ गोस्वामी करतेथे। वहांपर उस क्षेत्र की सफाई का, स्वच्छता का कार्य छुप-छुपकर नरोत्तम दास ठाकुर एक राज्य पत्रु करतेथे। वह हठ लेकर बठै ेथे। आप मझु ेअपनाइए। मैंआपका शि ष्य बनना चाहता हूं। तो अतं तोगत्वा लोकनाथ गोस्वामी नेनरोत्तम पर प्रसन्न होकर उनको शि ष्य रूप मेंस्वीकार कर लि या। हरि हरि । तो जब लोकनाथ गोस्वामी की वद्ृ धावस्था में, हमनेकल कहा था कि लगभग 100 वर्ष उनकी आयुथी। वह वद्ृधि थे। तब जीव गोस्वामी उनके पास प्रस्ताव लेकर आए। वह क्या प्रस्ताव था? हम श्रीनि वास आचार्य और श्यामानदं पडिं डित को बगं ाल भेज रहेहैं। कुछ वदिैदिक ग्रथं ों के ग्रथं भडं ार या गौडीय ग्रथं को लेकर वह हम भेज रहेहैं। क्या नरोत्तमदास भी जा सकता है? एकमात्र शि ष्य। यह वद्ृ ध अवस्था चल रही हैऔर एक ही शि ष्य उनकी जो सेवा कर रहा था और भी कुछ करतेहोंगेकि ंतुउनके गरुु तो यहीं थे। लोकनाथ गोस्वामी राजी हुए। उन्होंनेकहा क्यों नहीं। वो भी जा सकता है। उसको भेजो। तो उन्होंनेवहांजाकर प्रचार करनेवालेथे। प्रचार को उन्होंनेप्रधान्य दि या। उन्होंनेवद्ृ धावस्था मेंयह नहींसोचा कि मेरी सखु सविुविधा का क्या होगा। मेरी सहायता कौन करेगा उन्होंनेइसकी चि तं ा नहींकरी। उन्होंनेकहा उनको भेज दो और उनको उन्होंनेआदेश दि या कि जाओ तमु बगं ाल जाओ। वहांपर प्रचार प्रसार करो। यहांपर मत रहो। जसै ेश्रील प्रभपु ाद वदंृावन को 1965 मेंछोड़।े क्यों? परूा ससं ार दखु ी और परेशानी मेंहै। तो कुछ राहत मि ल जाए। प्रचार होगा तो लोगों को सहायता होगी। उनका मार्गदर्ग र्शनर्श प्राप्त होगा और लोग भगवान की शरण मेंआएंगे। *समाश्रि ता येपदपल्लवप्लवंमहत्पदं पण्ुययशो मरुारेः ।* *भवाम्बधिुधिर्वत्र्व सपदं परं पदं पदं पदं यद्वि पदांन तषे ाम ्॥* (श्रीमद भगवतम 10.14.58) अनवु ाद:- दृश्यजगत के आश्रय एवंमरु राक्षस के शत्रुमरुारी के नाम सेप्रसि द्ध भगवान्के चरणकमल रूपी नाव को जि न्होंनेस्वीकार कि या हैउनके लि ए यह भव सागर बछड़ेके खरु चि न्ह मेंभरेजल के समान है। उनका लक्ष्य परं पदम ्अर्था त्वकै ुण्ठ होता हैजहाँभौति क वि पदाओंका नामोनि शान नहीं होता , न ही पग पग पर कोई सकं ट होता है। तो फि र इस ससं ार के लोग, लोगो के लि ए यह सारा *भवाम्बधिुधिर*् कैसा बन जाएगा? *वत्सपदं* जसै ा। फि र उसको आसानी सेलांघ सकतेहैं। इस भवसागर को पार करना तो कठि न है। इसका कोई अतं ही नहीं है। भवसागर जो सागर है। लेकि न जसै ेही कोई भगवान के चरणों का आश्रय लेता हैतो आश्रय लेतेही वह भगवत धाम लौटनेका या उसका प्रवाह शरूु हो जाता है। " पदपल्लवप्लव"ं भगवान के चरण कमल बन जाती हैनोका और उसका प्रवास शरूु होता हैऔर पहुंचा देता हैउस जीव को भगवत धाम जहांक्या नहीं ? समाश्रि ता येपदपल्लवप्लवंमहत्पदं पण्ुययशो मरुारेः । भवाम्बधिुधिर्वत्र्व सपदं परं पदं पदं पदं यद्वि पदांन तषे ाम ् ॥ ( श्रीमद् भगवतम ्10.14.58 ) अनवु ाद:- दृश्यजगत के आश्रय एवंमरु राक्षस के शत्रुमरुारी के नाम सेप्रसि द्ध भगवान्के चरणकमल रूपी नाव को जि न्होंनेस्वीकार कि या हैउनके लि ए यह भव सागर बछड़ेके खरु चि न्ह मेंभरेजल के समान है। उनका लक्ष्य परं पदम ्अर्था त्वकै ुण्ठ होता हैजहाँभौति क वि पदाओंका नामोनि शान नहीं होता , न ही पग पग पर कोई सकं ट होता है। जहांवि पदा नहीं है। वहांकेवल सपं दा ही है। वि पदा तो यहां हैऔर कि तनी भी वि पदा है? "पदं पदं पदं यद्वि पदां" या पग पग पर वि पदा है, सकं ट है। लोकनाथ गोस्वामी नेप्राधान्य दि ए प्रचार को और अपनेइकलौतेशि ष्य को भेज दि ए यहांमत रहो जाओ ! प्रचार करो । चतै न्य महाप्रभुके शि ष्य लोकनाथ गोस्वामी उनको कहा था कि तमु वदंृावन मेंरहो, वदंृावन मत छोड़ो तो लोकनाथ गोस्वामी अपनेशि ष्य को आदेश देरहेहैंवदंृावन मेंमत रहो वदंृावन छोड़ो । वदंृावन को मत छोड़ो लोकनाथ गोस्वामी को आदेश लेकि न लोकनाथ गोस्वामी कह रहेहैंवदंृावन मेंमत रहो जाओ प्रचार करो । हरि हरि !! यहा लोकनाथ गोस्वामी शि ष्य नरोत्तम दास ठाकुर वह भी हैभगवान के एक परी कर ही हैतो यहांआकर इस धरातल पर भगवान के प्रकट लीला मेंयह अलग-अलग भमिूमिका नि भातेहैं। एक परीकर बन जाता हैगरुु और दसू रा परीकर बन जाता हैशि ष्य । फि र आदर्श गरुु तो आदर्श शि ष्य और फि र हम सभी के समक्ष वह भी आदर्श । गरुु बनना हैतो लोक गोस्वामी जसै ेगरुु बनो । शि ष्य बनना हैतो नरोत्तम दास ठाकुर जसै ेशि ष्य बनो । इसी के साथ यह परी कर यह साधुक्या करतेहैं? धर्म-र्मस्थापन-हेतुसाधरु व्यवहार । परुी-गोसाञि र य्रेआचरण, सेई धर्म सार ॥ ( चतै न्य चरि तामतृ मध्यलीला 17.185 ) अनवु ाद:- भक्त के आचरण सेधर्म के वास्तवि क प्रयोजन की स्थापना होती है। माधवेन्द्र परुी गोस्वामी का आचरण ऐसेधर्मों का सार है। अपनेव्यवहारों सेधर्म की स्थापना करतेहैं। नरोत्तम दास ठाकुर के लि ए उनके अपनेगरुु लोकनाथ .."लोकनाथ ्लोकेर जीवन" हम जो प्रति दि न गरुु पजू ा मेंजो गीत गातेहैंश्रील प्रभपु ाद पजू ा मेंजो गीत गातेहैं यह हम सब शि ष्य बन के गीत गातेहैंयह गीत कि सकी रचना है? वह नरोत्तम दास ठाकुर की रचना है। लोकनाथ गोस्वामी के शि ष्य नरोत्तम दास ठाकुर ऐसेगीत लि खेजि समेंअपनेगरुु की गाथा कहो या गरुु का महि मा वह गाऐं हैं। मैंसोच रहा था कि एक बार हम लोग उसको पढ़ लेतेहैंजल्दी से। ऐसी समझ हैनरोत्तम दास ठाकुर की जो सही समझ हैगरुु के सबं धं में। ( श्री गरुुवन्दना ) श्रीगरुु-चरण-पद्म केवल-भकति -सद्म बदं ॊ मइु सावधान मते। अनवु ाद:- हेमेरेभाई ! गरुुदेव के चरण कमल ही शद्ुध भक्ति के एकमात्र धाम है। मैंउनके चरणकमलों में अत्यतं सतर्कता एवं ध्यान पर्वूकर्व नतमस्तक होता हूं । जो गीत 500 वर्ष पर्वू र्वलि खेंनरोत्तम दास ठाकुर अब यह गीत आज भी बताया जा रहा हैऔर यह गीत अब वि श्व प्रसि द्ध गीत इस्कॉन के हर मदिं दिर मेंइसको हम गातेहैंऔर एक दि न तो यह गीत गाया जाएगा हर नगर मेंहर गांव में। जि ससेकृष्ण भावना आदं ोलन कहो । पथ्ृवीतेआछेयत नगर आदी ग्राम । सर्वत्रर्व प्रचार होइबेमोर नाम ॥ ( चतै न्य भागवत्अत्ं यखडं 4.126 ) अनवु ाद:- इस पथ्ृवी के प्रत्येक नगर तथा ग्राम मेंमेरेनाम का प्रचार होगा । नाम का प्रचार होगा हर नगर मेंहर ग्राम में। हरेकृष्ण हरेकृष्ण कृष्ण कृष्ण हरेहरे। हरेराम हरेराम राम राम हरेहरे॥ का कीर्तनर्त होगा हर नगर और हर ग्राम में। तब हम आराम सेकह सकतेहैंउन सभी नगरों मेंसभी ग्रामों मेंयह नरोत्तम दास ठाकुर लि खि त श्रीगरुु वदं ना यह गीत भी वहांवहांपर गाया जाएगा । अभी यक्रूेन में रशि या मेंथाईलडैं मेंमॉरीशस मेंनेपाल मेंसभी जगहों सेअतं रराष्ट्रीय कृष्णभावनामतृ सघं जहां-जहांपहुंची है वहांवहांयह नरोत्तम दास ठाकुर का गीत जि समेंहमनेगरुु का गणु गान गा रहेहैं। महि मा लि खेहैं ..."श्रीगरुुचरण-पद्म" श्रीगरुु के चरण पद्म , चरण कमल " केवल-भकति -सद्म" यह भक्ति कासगम है, भक्ति का साधन हैस्रोत है"बन्दो मइु सावधान मत"े आराधना वदं ना हमें"बन्दो" वदं ना सावधान होके हमेंगरुु की वदं ना करनी चाहि ए । वेकर रहेहैंऐसा वह लि खेहैं। "बन्दो मइु" मतलब मैंयानी आमी बांग्ला में। भक्त वसै ेगलती सेमन्ुनी मन्ुनी कहतेहैंक्योंकि उसमेंजब लि खा जाता हैतो उसमें ' एन'्( N ) आ जाता हैएन,्य(ू U ) diacritic ( वि शषे क ) हम समझतेनहींतो मइु मतलब आमी ,में। मैंवदं ना करता हूं ,मन्ुनी का कोई सबं धं नहीं हैकुछ भक्त कहतेहैं। यह उच्चारण का सधु ार है। य़ाँहार प्रसादेभाइ, ए भव तरि या य़ाइ, कृष्ण प्राप्ति हय य़ाहा ह' ते॥ 1 ॥ अनवु ाद:- उनकी कृपा सेहम भौति क महासागर को पार कर सकतेहैंतथा कृष्ण को प्राप्त कर सकतेहैं। तो इनका प्रसाद कृपा प्रसाद प्राप्त होगा तो "ए भव तरि या य़ाइ" जि स भवसागर मेंहम अभय , हम लोग तर जाएंगे। और क्या होगा ? "कृष्ण प्राप्ति य़ाहा ह' त"े यस्य प्रसादाद् भगवत-्प्रसादो यस्या प्रसादान्न गति ः कुतोऽपि । ध्यायन्स्तवुमं ्तस्य यशस ्त्रि - सन्ध्यं वन्देगरुोः श्रीचरणारवि न्दम ्॥ 8 ॥ ( श्री श्रीगर्वु ष्र्व टक ) अनवु ाद:- श्री गरुुदेव की कृपा सेभगवान श्री कृष्ण का आशीर्वा द प्राप्त होता है। श्री गरुुदेव की कृपा के बि ना कोई प्रगति नहींकर सकता । आतेही मझु ेसदैव श्री गरुुदेव का स्मरण व गणु गान करना चाहि ए । दि न मेंकम सेकम तीन बार मझु ेश्री गरुुदेव के चरणकमलों मेंसादर नमस्कार करना चाहि ए । तो वहांवि श्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर गर्वु ष्र्व टक में, गर्वु ष्र्व टक हैमगं ल आरती मेंइसको गातेतो वही बात नरोत्तम दास ठाकुर अपनेशब्दों मेंयहांलि खेहैं"य़ाँहार प्रसादेभाइ, ए भव तरि या य़ाइ" और "कृष्ण प्राप्ति हय य़ाहा ह' त"े । गरुु-मखु -पद्म वाक्य, चि त्तेतेकरि या ऐक्य, आर ना करि ह मनेआशा । अनवु ाद:- उनके मखु कमल सेनि कलेहुए शब्दों को अपनेहृदय मेंपर्णू तर्ण या समा लो और इसके अलावा अन्य कि सी वस्तुकी इच्छा ना करो । तो "गरुु-मखु -पद्म वाक्य" गरुु के मखु ारवि दं सेनि कलेहुए वाक्य बच्चन आदेश उपदेश "चि त्तेतेकरि या ऐक्य" हमारेचि त्में"ऐक्य" उत्पन्न करतेहैं। व्यवसायात्मि का बद्ुधि रेकेह कुरुनन्दन । बहुशाखा ह्यनन्ताश्र्च बद्ुधयोऽव्यवसायि नाम ्॥ ( भगवद् गीता 2.41 ) अनवु ाद:- जो इस मार्ग पर (चलत)े हैंवेप्रयोजन मेंदृढ़ रहतेहैंऔर उनका लक्ष्य भी एक होता है। हे कुरुनन्दन! जो दृढ़प्रति ज्ञ नहीं हैउनकी बद्ुधि अनेक शाखाओंमेंवि भक्त रहती है। नहींतो कई सारी वि चार कई सारी दि शा we all over spaced out इसको कहतेहैं। "ऐक्य" हमारेवि चार में "ऐक्य" focused (ध्यान केंद्रि त) हम बनेंगे। गरुु के मखु के "आर ना करि ह मनेआशा" और कोई आशा नहीं। श्रील प्रभपु ाद एक समय मेंमझु ेप्रभपु ाद कहेबॉम्बेमेंमबंु ई, मैंऔर प्रभपु ाद थेप्रभपु ाद लेटेथेअस्वस्थ थेतो उस समय के एक सवं ाद मेंप्रभपु ाद मझु ेकहे"आर ना करि ह मनेआशा" । श्रीगरुु - चरणेरति , एइ सेउत्तम - गति , य़ेप्रसादेपरूेसर्व आशा ॥ 2 ॥ अनवु ाद:- गरुु के चरणकमलों मेंअनरुाग अध्यात्मि क प्रगति का सर्वश्रर्व ेष्ठ साधन है। उनकी कृपा से आध्यात्मि क सि द्धि के समस्त मनोरथ पर्णू र्णहोतेहैं। श्री गरुु के चरणों में"रति " रति समझतेहो आसक्ति और यही है"उत्तम गति " गति मतलब वेग या स्पीड भी होता है। गति का एक अर्थ गतं व्य स्थान लि या destination भी होता हैतो यहांलि ख रहेहैं"श्रीगरुु-चरणे रति , एइ सेउत्तम-गति " श्रीगरुु चरणों मेंरति हेउत्तम गति । जा जा कर कहांजाना हैश्रीगरुु के चरणों मेंजाना हैतो वह भी एक गति हैलेकि न वहांपहुंचनेपर वह चरण हमको पहुंचा देंगेकृष्ण के पास या भगवत धाम लौटाएंगेऔर वह हैउत्तम गति । "य़ेप्रसादेपरूेसर्व आशा" और हमारी सारी आशा पर्णू र्णहोगी । वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सि धं भ्ुय एव च । पति तानाम ्पावनेभ्यो वष्ैणवेभ्यो नमो नमः ॥ ( श्री वष्ैणव प्रणाम ) अनवु ाद:- मैंभगवान के समस्त वष्ैणव भक्तों को सादर नमस्कार करता हूं । वेकल्पवक्षृ के समान सबो की इच्छाएंपर्णू र्णकरनेमेंतथा पति त जीव आत्माओंके प्रति अत्यतं दयालुहैं। गरुु के चरण "वाञ्छा कल्पतरु" है। "य़ेप्रसादेपरूेसर्व आशा" । चक्षु- दान दि लो येइ , जन्मेजन्मेप्रभुसेइ , दि व्य - ज्ञान हृदेप्रकाशि त । अनवु ाद:- जि न्होंनेमेरी बदं आखं ों को दि व्य दृष्टि दी हैवेजन्म जन्मांतर रोहतक मेरेप्रभुहै। उनकी कृपा से, हृदय मेंदि व्य ज्ञान प्रकट होता है। तो "चक्षु- दान" गरुु क्या करतेहैं"चक्षु- दान" देतेहैं। कि स का दान देतेहैं? "चक्षु- दान" । आखं ों का ऑपरेशन करतेहैं। ॐ अज्ञानति मि रांधस्य ज्ञानांजनशलाकया । चक्षुर्उन्मीलि तंयेन तस्मैश्रीगरुवेनमः ॥ ( श्री गरुु प्रणाम मत्रं ) अनवु ाद:- मैंघर अज्ञान के अधं कार मेंउत्पन्न हुआ था और मेरेगरुु नेअपनेज्ञान रूपी प्रकाश सेमेरी आखं ें खोल दीं । मैंउन्हेंसादर नमस्कार करता हूं । यह करतेहैं। और उसी के साथ यह "दि व्य-ज्ञान हृदेप्रकाशि त" दि व्य ज्ञान हृदय प्रांगण मेंप्रकाशि त होता है। "जन्मेजन्मेप्रभुसेइ ," तो ऐसेगरुु के चरणों की हम सदैव सेवा करेंया मैंकरना चाहता हूं वसै ेनरोत्तम दास ठाकुर अपने,वेपहलेव्यक्ति हैंजो लि ख रहेहैं.. I प्रेम - भक्ति याहा होइते, अवि द्या वि नाश याते, वेदेगाय याँहार चरि त ॥ 3 ॥ अनवु ाद:- जि ससेप्रेमा भक्ति का वरदान मि लता हैऔर अवि द्या का नाश होता है। वदिैदिक शास्त्र उनके चरि त्र का गान करतेहैं। हो गया "चक्षुदान" आखं ेंदी, दि व्य दृष्टि दी । गरुु नेआखं ेंहमारी खोली अतं ः चक्षुअतं ः करण मेंआत्मा की आखं ें। ना कि यह चर्म चक्षुनहीं । दि व्य चक्षुजब दि ए तो उसी के साथ "प्रेम - भक्ति याहा होइत"े प्रेम भक्ति का मार्ग उन्होंनेदि खाया प्रेम भक्ति दी या फि र सि खाएंयह साधन भक्ति हैयह प्रेम भक्ति हैयह भाव भक्ति हैयह सब ज्ञान दि या और हमनेउस साधना मेंसि द्ध हुए तो प्रेम भक्ति प्राप्ति उसी के साथ "अवि द्या वि नाश यात"े वि द्या अवि द्या का नाश हुआ । कृष्ण-सर्य़ू़ -र्य़सम;माया हय अन्धकार । य़ाहाँकृष्ण, ताहाँनाहि मायार अधि कार ॥ ( चतै न्य-चरि तामतृ मध्यलीला, 22.31) अनवु ाद:- कृष्ण सर्यू र्यके समान हैंऔर माया अधं कार के समान हैं। जहांँकहींसर्यू प्रर्य काश हैवहांँअधं कार नहीं हो सकता। ज्योंही भक्त कृष्णभावनामतृ नाता है, त्योंही माया का अधं कार (बहि रंगा शक्ति का प्रभाव) तरुंत नष्ट हो जाता हैं। "य़ाहाँकृष्ण, ताहाँनाहि मायार अधि कार" यह दसू रा गीत है। आपके पास कृष्ण हैउस कृष्ण को आप दे सकतेहो तो ऐसेकृष्ण जब दि ए उसी के साथ सारी अवि द्या का नाश होता है। इस प्रकार "वेदेगाय याँहार चरि त " गरुु की वदं ना गरुु का चरि त्र गरुु का महि मा सारेवेदों मेंगाया है। श्रीगरुु करुणा - सि न्धुअधम जनार बन्धु, लोकनाथ लोकेर जीवन । अनवु ाद:- हेगरुुदेव, करुणा सि धं ुतथा प्रतीत आत्माओंके मि त्र ! आप प्रत्येक के गरुु एवंसभी लोगों के जीवन हैं। "श्रीगरुु करुणा - सि न्ध"ु श्रीगरुु हैकरुणा के सागर और वह हम हमारेमेरेहेबधं ु"अधम जनार बन्ध"ु जो अधम जन हैहम अधम है"अधम जनार बन्ध"ु वह हैकरुणा सि धं ुगरुु हैकरुणा सि धं ुऔर हम जसै ेजनों के अधम जनों के वेहेबधं ु। हम हैंअधम ,अधम जनों के वह हैबधं ुवेकरुणा सि धं ु। और वह हैंलोकनाथ गोस्वामी । नरोत्तम दास ठाकुर के गरुु "लोकनाथ लोकेर जीवन ।" और वह कह रहेहैंकि लोकनाथ गोस्वामी लोकेर जीवन । सभी लोगों के जीवन है। या वेसबको जीवन देसकतेहैंनहींतो हम मतृ प्राय हैं। हमारेहुए हैं। जड़ बन चकुे हैंहम मेंजान डाल सकतेहैं। हमारेचेतना को जागतृ कर सकतेहैं। हम मेंचतै न्य ला सकतेहैंतो ऐसे हैं "लोकनाथ लोकेर जीवन" । हा हा प्रभुकर दया , देहो मोरेपद - छाया , एबेयश घषुकु त्रि भवुन ॥४ ॥ अनवु ाद:- हेगरुुदेव ! मझु पर दया कीजि ए तथा मझु ेअपनेचरणों की छाया दीजि ए । आपका यह तीनों लोकों मेंघोषि त हो । तो पनु ः यह अतिं तिम पक्तिं क्ति भी है, इस गीत की इस गरुु वदं ना की । जि समेंसबं ोधि त कर रहेहैंनरोत्तम दास ठाकुर लोकनाथ गोस्वामी को सबं ोधि त कर रहेहैं"हा हा प्रभुकर दया" मझु पर दया कृपा कीजि ए । "देहो मोरे पद - छाया" और आपके चरणों की छाया दीजि ए । "एबेयश घषुकु त्रि भवुन" और आपका यस तीनों लोकों में फैले। फैला हुआ है, फैलाना चाहतेहैं"एबेयश घषुकु त्रि भवुन" । हरि हरि !! श्री लोकनाथ गोस्वामी प्रभपु ाद की जय ! और उसके साथ-साथ उनके आदर्श शि ष्य फि र भी परी कर रहेचतै न्य महाप्रभुके, कृष्ण के उनकी भी जय ! श्री नरोत्तम दास ठाकुर की जय ! गौर प्रेमानदं ेहरि हरि बोल ! ॥ हरेकृष्ण ॥

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