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जप चर्चा, उज्जैन, 17 सितंबर 2021. हरे कृष्ण, गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! सुनाई दे रहा है, 822 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। सभी स्थानों से जुड़े भक्तों की जय! उसमें से एक स्थान है, जहां मैं अभी हूं। वह स्थान है उज्जैन इस्कॉन उज्जैन की जय हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। आप सबका जप कैसे रहा? श्रील प्रभुपाद कहां करते थे जब हम जप करते हैं तब हमारे जिव्हा में कंपन या जिव्हा से ध्वनि उत्पन्न होनी चाहिए। बलेन बोलो रे वदन भरी मुख भर के बोलना चाहिए यह थोड़ी कीर्तन की बात है। जी भर के या फिर मुंह भर के उच्चारण करें और जप के समय उच्चारण होना चाहिए। जिव्हा का अपने होठों का उपयोग करना अनिवार्य है। श्रवण तभी होगा जब कीर्तन होगा हम जब भी मुखसे कहेंगे तब सुनेंगे मुख से नहीं कहेंगे तब मन कुछ कहता जाएगा मन कहता जाएगा मन कुछ याद दिलाएगा। तो फिर चंचल हे मन कृष्ण हमारे मन की चंचलता चलती रहेगी। उसका चांचल्य चलता रहेगा. और फिर उसको मनोधर्म होगा भागवत धर्म नहीं होगा संकीर्तन धर्म नहीं कलीकालेर धर्म हरि नाम संकीर्तन कलिकाल का धर्म है, नाम संकीर्तन। यह एक धर्म फिर मनोधर्म भी है। वैसे नहीं है लेकिन हो भी सकता है। लेकिन ऐसे धर्मों को तो भगवान ने कहा है सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणमव्रज मनोधर्मों को परित्यज्य मांमेकम शरणम प्र जा मेरी शरण में आओ। भगवान के नाम के शरण में जाकर भगवान के नाम का आश्रय लेकर इसमें किसी भी समय हमें उच्चारण करना होगा हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। सुनना होगा भगवान को सुनना होगा भगवान के नाम को सुनना होगा। फिर मन की ध्वनि होती है मन के जो विचार होते हैं, मुझे ऐसे लगता है, मेरा विचार, मेरे विचार से, यह जो है उसका दमन होगा। हम जब सुनते हैं भगवान के नाम को हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। कृष्ण याद आ जाएंगे हमको। तो हम क्या कहते हैं श्रवणम कीर्तनम विष्णु स्मरणम आपको याद है? आपको याद है? पूछो तो सही किसकी याद? किसकी याद? कृष्ण भगवान है जीवात्मा को भगवान का पता है भगवान के संबंध में जीवात्मा जानता है। जीव भी सत चित आनंद पूर्ण है। उनके जैसा जीव का भी स्वभाव है। भगवान सच्चितानंद है तो हम भी कुछ कम नहीं है। बाप जैसा बेटा। हम भी बेटे या बिटिया है भगवान के, तो हम भी सच्चिदानंद है। केवल कृष्ण है श्याम सुंदर या गौरसुंदर नहीं है हम भी सुंदर हैं। यह सत्य है। आत्म साक्षात्कार होगा आत्मा के सौंदर्य का अपने खुद के सौंदर्य का पता चलेगा तो, हमारे शरीर के सौंदर्य के और हम देखेंगे तुम हम थुकेंगे। थु यह क्या सौंदर्य है जिसको हम आईने में देखते हैं। वह सौंदर्य कुछ भी नहीं है। आत्मा का जो सौंदर्य है परमात्मा भगवान का तो सौंदर्य है ही। हरि हरि, जिसको हम भूल गए हैं उसको हम सुनकर, श्रवण करके याद आएंगे। भगवान हमको कृष्ण याद आएंगे। कृष्ण याद ही आए थे। कृष्ण बलराम की जय! तो फिर हम लोगों को एक तो कीर्तनीय सदाहरी करना हैं। निरंतर खाइते सोइते नाम लय ऐसा वेद आदेश है। सततम् कीर्तयन्तोमाम और नित्यम भागवत सेवया। इसलिए हमारे साधना के अंतर्गत प्रात कालीन कार्यक्रम में या पभुपाद हमको साधना इस्कॉन के अनुयायियों के लिए साधना वह जप करते हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। और फिर ओम नमो भगवते वासुदेवाय कथा होती है। प्रभुपाद के ग्रंथों का अध्ययन होता है। हरे कृष्ण महामंत्र का जप कीजिए और प्रभुपाद के ग्रंथों का अध्ययन कीजिए इसी के साथ धर्म भी हुआ और तत्वज्ञान भी हुआ। हरे कृष्ण महामंत्र का जाप धर्म हुआ और श्रील पभुपाद के ग्रंथों का अध्ययन तत्वज्ञान हुआ। इन दोनों का समन्वय इसीलिए भी जपा सेशन के अंतर्गत एक तो जप करते हैं। वही सही बोलना है। कृष्ण के बारे में हम बोलते हैं। सुनते हैं। जब हम जप करेंगे तब हमने जो सुना है कृष्ण के बारे में वह याद आएगा। श्रवणं कीर्तनम विष्णुस्मरणम जब हम जप करते हैं तो पहले जो सुना है वह याद आएगा। पहले सुना है तो हम भी याद करेंगे। यहां पर उज्जैन हरि हरि अवंतीपुर धाम की जय जय! हो जय श्री श्रीमद् भक्तिचारू स्वामी महाराज की जय! उन्होंने इस्कॉन की स्थापना की यहां पर। कृष्ण बलराम के मंदिर की स्थापना की यहां पर। और गोविंदा रेस्टोरेंट की स्थापना हुई है। यहां पर और आयुर्वेद की स्थापना। यहां पर एक पूरा कारखाना है प्रभुपाद के विग्रह का, निर्मिती यहीं पर होती है। पहले तो अमेरिका से लाने पड़ते थे प्रभुपाद के विग्रह और अब भारत में ही इसका निर्माण होने लगा। इस्कॉन उज्जैन में होने लगा इस्कॉन। उज्जैन के तरफ से होने लगा और कीमत भी कम है। सेम क्वालिटी लेकिन कीमत कम है। और भी बहुत सारी व्यवस्थाएं और वैभव है इस्कॉन उज्जैन का। यह सारा श्रेया जाता है भक्तिचारू स्वामी महाराज को। हरि हरि, अभी मैं तो सोचता था। आपका जो यह मंदिर हुआ है, साधारण रूप से 1 साल में हुआ होगा लेकिन एक भक्त में मुझे सही किया और बताया 9 महीने 20 दिनों में यह मंदिर पूरा हुआ। इस तरह से रिकॉर्ड ब्रेक कर दिया। नहीं तो इस्कॉन में 9 साल लगते हैं एक मंदिर बनाते बनाते, लेकिन यहां इतना फटाफट। भक्तिचारू स्वामी महाराज की 76 वी व्यासपूजा आज ही मनाई जा रही है। हरि बोल!! इसीलिए मैं यहां पहुंचा हूं। यहां इस नगरी में इस्कॉन की स्थापना कर कर इस नगर की गौरव गाथा और भी बढ़ चुकी है। या अधिक अधिक प्रकाशित हो रही हैं। हमने भी कुंभ मेला पुस्तक लिखा है। उसमें भी आप पढ़ सकते हो। उसमें एक पाठ है इस पर क्योंकि, यह स्थान कुंभ मेला स्थली भी है। केवल 4 स्थानों पर कुंभ मेला होता है। यहां एक पवित्र नदी है शिप्रा। उसे गंगा ही है मान लो। या तो गंगा नदी जैसे ही महत्व है शिप्रा नदी का। यहां पर कृष्ण बलराम आए। आज सुंद चैतन्य स्वामी महाराज का जन्मदिन है। पहले के सुंदर लाल प्रभु जी मॉरिशियस से है। मैंने उनको सन्यास दीक्षा दी है और नाम दिया सुंदरचैतन्य स्वामी महाराज। सुंदरचैतन्य स्वामी महाराज की जय! आपको जन्मदिन की शुभकामनाएं। मुझे विश्वास है मॉरिशियस में उत्सव मनाएंगे, उनके जन्मदिन पर। आज 17 सितंबर है तो आज का दिन बड़ा महान भी है क्योंकि, भक्तिचारू स्वामी महाराज का भी अविर्भाव तिथि महोत्सव हैं। आज के दिन ही श्रील प्रभुपाद न्यूयॉर्क पहुंचे। जलदूत जहाज न्यूयॉर्क के बंदरगाह पर। श्रील प्रभुपाद अमेरिका में आज के दिन प्रवेश किया। हरि हरि, हमारे सारे संस्था के भाग्य का उदय उसी से हुआ। उनके गुरु महाराज ने उनको जो कहा था श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने 1922 में। तुम क्या करो पाश्चात्य देश जाओ तो फिर प्रभुपाद तैयारी कर रहे थे। जीवन भर की तैयारी। और जब तैयारी पूरी हुई तो श्रील प्रभुपाद भागवत की भी रचना हुई। पहला स्कंध अनुवाद तात्पर्य हुआ। श्रील प्रभुपाद ने फिर प्रस्थान किया कोलकाता से न्यूयॉर्क पहुंचे आज के दिन। और वह देवदूत भक्ति योग के एंबेसिडर हरिनाम के एंबेसिडर। राजदूत होते हैं ना एक देश के दूसरे देश में अपने देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरे देश में उनको एंबेसिडर कहते हैं। श्रील प्रभुपाद वैसे वृंदावन के गोलोक के एंबेसिडर है। इस संसार में आए और आज के दिन न्यूयॉर्क पहुंचे। और वहां से वह पहुंचने वाले हैं सारे संसार भर में। जब प्रभुपाद का जन्म हुआ था तब, उनके जन्म के समय में उनके कुंडली में लिखा था। यह बालक भविष्य में 108 मंदिरों का निर्माण करेगा। यह सब भी आज न्यूयॉर्क पहुंचने के उपरांत प्रारंभ होगा। उसमें से पहला मंदिर की स्थापना तो श्रील प्रभुपाद ने न्यूयॉर्क में की। राधा गोविंद देव की जय! पहला मंदिर न्यूयॉर्क मे राधा गोविंद देव और फिर दूसरा मंदिर सैन फ्रांसिस्को। उसका नाम हुआ न्यू जगन्नाथ पुरी। पहले रथयात्रा गोल्डन गेट पार्क सैन फ्रांसिस्को मैं संपन्न हुई। 10000 स्त्रिया और पुरुषों सम्मिलित हुए अमेरिकन लोक। श्रील प्रभुपाद नृत्य कर रहे थे उस यात्रा में जगन्नाथ के समक्ष। इस तरह कँनडा में मॉन्ट्रियल गए श्रील प्रभुपाद। फिर 4 गृहस्थ भक्तों कि शादी भी की। इस प्रकार वर्णाश्रम की स्थापना कर रहे थे श्रील प्रभुपाद। अपने शिष्यों के शादी में संन्यास को वैसे सहभागी नहीं होना चाहिए। श्रील प्रभुपाद ने शादीया भी फिक्स किए आप किस लड़की से शादी करो आप उस लड़के से शादी करो। और स्वयं यज्ञ करते थे विवाह यज्ञ। और 4 जोड़ियों को भेजे थे इंग्लैंड। तमाल कृष्ण, मुकुंदा गुरुदास और श्यामसुंदर इन चार गृहस्थ को भेजे थे इंग्लैंड। यह चार गृहस्थो ने इंग्लैंड को ऐसा हिलाया ऐसा नचाया। और इंग्लैंड निवासियों को कृष्ण के दास या गुलाम बनाया। जिन अंग्रेजों ने भारतवासियों को गुलाम बनाया था उन अंग्रेजों को कृष्ण का दास बनाया। हरि हरि, इस तरह सर्वत्र प्रचार हईबे मोर नाम। यह अवंतीपुर हमें फिर से अवंतिपुर लौटना है। कंस वध के उपरांत कृष्ण बलराम यहां आए। कंस का वध हुआ है तो उग्रसेन महाराज पुनः राजा बने। मथुरा नरेश बने कंस के पिताश्री। कृष्ण बलराम को उन्होंने ही भेजा। अभी पढ़ाई भी नहीं हुई नंदबाबा ने तो गायों की पीछे पीछे लगा दिया। जैसे गांव में होता है ना, बच्चों को करते हैं पढ़ाई छोड़ दो गाय की रखवाली करो कुछ खेती का काम करो। कृषि गौरक्ष वाणिज्य काम में लगा देते हैं। नंद बाबा ने उनको वैसे ही। तो पढ़ाई नहीं हुई उनकी कृष्ण बलराम को यहां भेज दिया। यहां का गुरुकुल विश्व प्रसिद्ध था उस समय। वैसे उन दिनों में भारत का हर बालक हर बच्चा गुरुकुल में ही पढ़ता था। ब्रह्मचारी गुरुकुले वसन्दान्तो गुरोर्हितम् । आचरन्दासवनीचो गुरौ सुदृढसौह्रदः ॥ १ ॥ ऐसी व्यवस्था थीऋ गुरु एक प्रामाणिक गुरु पढ़ाते थे। गुरु कोई गोरु नहीं गोरू मतलब पशु बांग्ला भाषा में। श्रीगुरु चरण पद्म अब विदेश के भक्त श्रीगुरु चरण पद्म के बजाय क्या कहते हैं श्रीगोरु चरण पद्म श्रील पभुपाद ने कहा मैं गोरू नहीं हूं। कृष्ण बलराम यहां आए। उस समय सभी 5 साल के बालक को गुरुकुल में भेजा जाता था। और आज कल के विद्यापीठ विश्वविद्यालय या फिर कत्लखाने शास्त्रों में कहां है आत्माह आत्मा की हत्या होती हैं। आत्मा के संबंध में ज्ञान नहीं दिया जाता है। शून्य आत्मा के संबंध में शून्य ज्ञान। सारा ज्ञान सिर्फ पैसे बनाने के लिए, मनुष्य को बनाने के लिए नहीं। आप समझ रहे हो अंतर? पैसों को बनाने के लिए ना कि मनुष्य बनाने के लिए। मनुष्य को बनाने के लिए उस व्यक्ति का कुछ चरित्र, कुछ व्यक्तित्व विकास, कुछ ज्ञान ऐसी कुछ शिक्षा नहीं है। बस धन कमाने की विद्या, विद्या किस लिए धन कमाने के लिए हुआ करते थे। है ना? स्पष्ट रूप से..। तो गुरु हुआ करते थे जैसे यहां सांदीपनि मुनी। हमारे समय भी जब हम बच्चे थे स्कूल में गए, गांव गांव में गुरु नाम तो बचा हुआ था। टीचर्स को आप लोग सर सर कह रहे हैं। यह तो इंग्लैंड से सब आ गया, अंग्रेजों ने सिखाया सर एंड मैडम, यह हमारी संस्कृति नहीं है। तो हम कम से कम जब बच्चे थे स्कूल में जाते थे, मुझे लगता है तब हर गांव की ऐसे स्थिति थी 500000 गांव में। जरूर 50, 60, 70 वर्ष पूर्व की बात है टीचर को हम लोग गुरुजी कहते थे। आप मे से कोई कहते थे गुरुजी गुरुजी? जो गांव वाले हैं गुरुजी गुरुजी कहते थे। हम तो उनको गुरुजी गुरुजी कहते थे, लेकिन हमारे गुरुजी कभी-कभी कहते ए इधर आओ बीड़ी लेकर आओ बीडी। हमको कुछ अठन्नी चवन्नी देते हम तो गुरुजी गुरुजी कहते थे। हां गुरु जी हम आपके लिए क्या कर सकते हैं? बीडी लेकर आओ या तंबाकू लेकर आओ या किसी के घर में मुर्गी है तो अंडे लेकर आओ। हां हमने सप्लाई किए हैं अंडे। हरि हरि। तो यह है कलियुग मन्दा: सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुता: यह कली का लक्षण है। मन्दा: सुमन्दमतयो बड़े आसानी के साथ गुमराह राह गुमराह शब्दों की ओर ध्यान देना चाहिए गुमराह। पथभ्रष्ट हमको किया जाता है और बुद्धि भी मंद है। कृष्ण बलराम आए यहां.. सांदीपनि मुनि का आश्रम आपको देखना चाहिए अगर आप बाहर देश से आए हो। यहां तो जरूर जाइए सांदीपनि मुनि का आश्रम। कृष्ण बलराम का वहां भी दर्शन है। तो यह सांदीपनि मुनि... वैसे सांदीपनि मुनि की मां पौर्णमासी है वृंदावन में पौर्णमासी जो योगमाया है। योगमाया का नाम पौर्णमासी जो सारे ब्रजवासी के गुरु के रूप में सेवा करती हैं या अपनी भूमिका निभाती है। यह उनकी माता थी और उनका एक पुत्र बहुत प्रसिद्ध है कृष्ण की लीला में बहुत प्रसिद्ध चरित्र। मधुमंगल नाम सुने हो मधुमंगल? मधुमगल जो मजाक करता रहता है विनोदीत। कृष्ण को बड़ा प्रसन्न करता है, ब्राह्मण पुत्र। और फिर यही सांदीपनि मुनि चैतन्य महाप्रभु की लीला में, जैसे यहां वे कृष्ण के गुरु थे। कृष्ण लीला में चैतन्य महाप्रभु के गुरु बन जाते हैं। यही सांदीपनि मुनि पुनः प्रकट हो जाते हैं नवद्वीप में। और वहां विद्यानगर में नवद्विप में एक विद्यानगर नामक स्थान है वहा चैतन्य महाप्रभु पढ़ने के लिए जाते थे। गंगादास तो वे टोल चलाते थे, टोल मतलब स्कूल। तो इस चैतन्य लीला में सांदीपनि मुनि प्रकट हुए। हरि हरि। कल भी कुछ हम सुना रहे थे यहां के कृष्ण बलराम की लीला कथा। तो अंत के समय कृष्ण कुछ 11 साल के थे जब वे यहां आए 11 साल के है कृष्ण और चार छह महीने रहे होंगे। यहां उनकी पढ़ाई वगैरह पूरी हुई साधना। यह साधना के लिए स्थली है, योग्य स्थली है उज्जैन। जहां कृष्ण बलराम ने अध्ययन किया यह विद्यार्जन के लिए बड़ा अनुकूल स्थल है, यह उज्जैन या अवंतिपुर, भक्ति के लिए भी। यही के भक्त राजा इंद्रद्युम्न, नाम सुने हो? जिन्होंने जगन्नाथ स्वामी की जय। जगन्नाथ मंदिर कि जगन्नाथपुरी में जो स्थापना किए और उनको दारुब्रह्म प्राप्त हुआ उसके पहले नीलमाधव। तो इंद्रद्युम्न महाराज भगवान का दर्शन करना चाहते थे, बड़े महान भक्त थे कृष्ण के, भगवान के। तो उन्होंने भेजा था अपने कृष्ण को खोजने के लिए। तो इंद्रद्युम्न महाराज यही कही रहे उज्जैन अवंतीपुर मे। जिनके कारण कहो पूरे धाम की स्थापना हुई है, जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा की स्थापना हुई है। यहां भी हमारे मंदिर में उज्जैन में जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा की स्थापना हुई है। वहां जब गए जगन्नाथपुरी में तो वहां नरसिम्हा मंदिर के पास में ही शुरुआत में इंद्रद्युम्न महाराज रहते थे। अपना कुछ छोटा सा सैन्य वगैरह होगा मंत्री, सहायक, सेक्रेटेरियल सचिव। जगन्नाथपुरी में जहां गुंडीचा मंदिर है राजा इंद्रद्युम्न के पत्नी का नाम है गुंडीचा। राजा इंद्रद्युम्न की पत्नी गुंडीचा, तो उसी नाम से मंदिर भी प्रसिद्ध है गुंडीचा। कुछ समय के लिए वहां रहे राजा इंद्रद्युम्न। मित्रवृंदा द्वारकाधीश की जो आठ रानियां रही, जैसे वृंदावन में अष्ट सखियां है द्वारका में अष्ट रानियां है। रुकमणी है, सत्यभामा है, जामवती है, कालिंदी है, मित्रवृंदा है, सत्य है, भद्रा है और लक्ष्मणा। लक्ष्मणा मद्रास से थी। तो उसको प्राप्त करने के लिए भी फिर पुनः कृष्ण द्वारिका से यहां आए थे। मित्रवृंदा इस नगरी की थी। और एक संबंध कृष्ण का इस नगरी के साथ। तो पढ़ाई जब पूरी हुई तब सभी गुरु दक्षिणा दे रहे थे। अपनी कृतज्ञता व्यक्त करनी होती है, जो भी विद्यार्थी हुआ, विद्यार्जन हुआ विद्या को ग्रहण किए तो अपनी कृतज्ञता व्यक्त की जाती है दक्षिणा देकर। तो सभी दे रहे थे दक्षिणा, वहां पर बहुत सारे विद्यार्थी थे। कोई सवा रुपए दे रहा था, कोई वस्त्रम, तो कोई पुष्पम कोई पत्रम, तो कोई फलम, तो कोई तोयम। लेकिन जब कृष्ण बलराम वे भी लाइन में खड़े थे दक्षिणा देने के लिए इतने में पति पत्नी ने थोड़ा विचार विमर्श किया। यह जो विद्यार्थी है यह विशेष है तो इनसे हम कुछ विशेष दक्षिणा चाहेंगे। तो जब कृष्ण बलराम आए समक्ष उन्होंने सांदीपनि मुनि के एक पुत्र की मृत्यु हो चुकी थी। तो वे उस मृतक पुत्र को वापस चाहते थे। हमें अपना पुत्र वापस चाहिए। तो ऐसा कार्य कौन कर सकता है? यह तो और कोई दूसरा विद्यार्थी नहीं कर सकता था। ऐसी इच्छा को सुनते ही कृष्ण बलराम तैयार हुए तथास्तु वैसे ही होगा। फिर कृष्ण बलराम यहां से गए प्रभास क्षेत्र गए। प्रभास क्षेत्र को जानते हो कहां है? सोमनाथ जानते हो सोमनाथ गुजरात में वह जो समुद्र का किनारा है जहां से वैसे कृष्ण का स्वधाम उपगते भी हुआ। वह सरस्वती नदी का तट है वहां से भगवान प्रस्थान किए। तो वहां कृष्ण बलराम पहुंचे उनको पता चला था कि एक राक्षस ने उसको खा लिया अपने गुरु महाराज के पुत्र को। तो दोनों कृष्ण और बलराम समुद्र में कूद पड़े और खोज रहे थे कहां है वह राक्षस जिसने भक्षण किया था सांदीपनि मुनि के पुत्र का। राक्षस मिला लेकिन राक्षस भी कुछ मृत ही था मरा हुआ था। उसके पेट में देखा तो पेट में भी मिला नहीं पुत्र। तो उस राक्षस के शरीर को ही ले लिए साथ में और वही वह जो शरीर था मृत शरीर वह था पांचजन्य शंख। भगवान के शंख का नाम क्या है? पांचजन्य पांचजन्य ऋषिकेश देवदत्त धनंजय भगवद गीता के प्रथम अध्याय में किस पांडव ने कौन सा शंख बजाया इसका वर्णन है। तो पांचजन्य प्रसिद्ध बात है भगवान का जो शंख है पांचजन्य वह यही पर मिला समुद्र में। समुद्र है प्रभास क्षेत्र में। जब सांदीपनि के पुत्र वहां नहीं मिले तो कृष्ण सीधे यमपुरी गए यमराज के लोक गए और वहां प्रवेश द्वार पर उन्होंने शंख ध्वनि की। हो सकता है पहली बार उन्होंने वह शंख बजाया। यह घोषित करना चाहते थे कि हम पधारे हैं हम यहां पर है, कृष्ण बलराम पधार चुके हैं, कृपया ध्यान दें। तो कृष्ण बलराम का पदार्पण वहां हुआ और शंख ध्वनि उसका नाद सर्वत्र फैल गया। उसी के साथ उस यमपुरी के नरको में जितने भी नरक वासी थे उन सभी ने चतुर्भुज रूप धारण किया। मुकुट भी है, कुंडल भी है, पिछला जो उनका शरीर था वह तो छूट गया और सभी के सभी भगवद धाम लौटे। तो सांदीपनि मुनि के पुत्र को लौटा दिए। सांदीपनि मुनि के पुत्र भी वहां पहुंचे थे किसी कारणवश। तो कृष्ण बलराम उस पुत्र को ले आए अवंतीपुर और कहा कि हमारी ओर से यह दक्षिणा स्वीकार कीजिए स्वीकरोतु। गुरु महाराज सांदीपनि मुनि और गुरु पत्नी प्रसन्न थे। तो हुआ फिर यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो गुरु प्रसन्न तो फिर भगवान प्रसन्न। उसके बाद फिर कृष्ण और बलराम मथुरा लौटे वहां की लीला फिर वहां 18 वर्ष रहेंगे मथुरा में। और वहां से बहुत कुछ हुआ बहुत लीला हैं मथुरा में। और किन के साथ युद्ध खेल रहे थे 18 साल तक? जरासंध और फिर वह रणछोर रणछोर जरासंध ने कहा। कृष्ण बलराम ने एक समय जरासंध से युद्ध नहीं खेला, 17 बार तो खेला था। तो वे उब गए उस युद्ध से युद्ध से बोर हो चुके थे एक ही चीज हर समय। और वैसे रुक्मिणी भी उनकी प्रतीक्षा कर रही थी वहां कौडींन्यपुर मे। और भी कुछ बहुत होना था। और सारे मथुरा वासियों को तो पहुंचा दिया था द्वारका में तो वहा सभी भी प्रतीक्षा कर रहे हैं। वहां पहुंचते ही रणछोर राय की जय उनका स्वागत हुआ, अच्छा हुआ आपने रण छोड दिया और लीला ऐसे ही चलती रही। यह अवंतीपुर भी कृष्ण बलराम के प्रकट लीला कि एक लीला स्थली है। ज्यादा स्थानों पर नहीं गए कृष्ण। जो गिने-चुने स्थान है इसमें से एक है यह अवंतिपुर। ठीक है। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।

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