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*जप चर्चा* *उज्जैन से* *दिनांक 18 सितंबर 2021* हरे कृष्ण!!! आज इस जप कॉन्फ्रेंस में 744 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। हरिबोल! स्वागत है। यह जप टॉक थोड़ा सा जल्दी प्रारंभ हो रहा है क्योंकि इसको शीघ्र समाप्त भी करना है। लगभग मुझे ठीक 7:00 बजे उज्जैन से प्रस्थान करना है और इंदौर पहुंच कर वहां पर भागवत की कक्षा लेनी है। आपका स्वागत है। मैं 8:00 और 8:30 के बीच में वहां पहुँचूंगा। तत्पश्चात इस्कॉन इंदौर में श्रीमद् भागवतम की कथा होगी। यदि आप कथा सुनना चाहते हो और आपके पास समय हैं तो आपका स्वागत है। पदमाली प्रभु अभी दुबारा घोषणा करेंगे, ठीक है, समय कम है। मरने के लिए समय नहीं है। कल यहां हम सब इस्कॉन उज्जैन में प्रभुपाद मेमोरियल फेस्टिवल मना रहे थे। वैसे मैंने कल भी बताया था कि भक्ति चारु महाराज बहुत अधिक प्रभुपाद कॉन्शियस (चेतना) थे। कल उनका 76 वा व्यास पूजा दिन था। वैसे वे प्रतिवर्ष अपने व्यास पूजा के दिन ऐसा ही उत्सव मनाया करते थे ।। उनके जमाने में जब वे स्वयं उपस्थित रहा करते थे, तब आधा दिन प्रभुपाद का संस्मरण और फिर शेष आधे दिन में उनकी शब्दांजली होती थी लेकिन कल पहली बार दुर्देव से वह दिन रहा जब भक्ति चारू स्वामी महाराज शारीरिक रूप से उपस्थित नहीं रहे लेकिन पहले जब हर वर्ष उत्सव मनाया करते थे, वे इसी पद्धति से मनाते थे। हरि! हरि! श्रील प्रभुपाद का भी संस्मरण हुआ! भक्ति चारु स्वामी महाराज की जय! आपने सुना होगा, शायद पढ़ा होगा कि यहां पर एक क्वार्टर है जिसे मेमोरियल बनाया हुआ है, आप उसकी विजिट (यात्रा) कर सकते हो। जहां पर साथ ही साथ भक्ति चारू स्वामी महाराज की वाणी, उनके टॉप सॉन्ग, किताबें, अभय चरण चरण अरविंद सीरियल इत्यादि इत्यादि उपलब्ध कराया जाएगा। हमनें कल उसका भी उदघाटन कर दिया है, हमारे साथ अन्य भी कई संन्यासी व प्रभुपाद के शिष्य भी थे। आपको इसका भी लाभ उठाना है। दोपहर में शब्दांजली अर्पित की जा रही थी, विदेशों से व भारत के कोने कोने से लोग पहुंचे थे। अधिकतर अनुयायी मध्य प्रदेश और प्रमुखतया उज्जैन से थे। एक बहुत बड़ी गैदरिंग ( जमावड़ा) थी। कल बहुत सारे यात्री थे। यह उत्सव बड़े धूमधाम और उत्साह के साथ मनाया गया। गौर प्रेमानंदे, हरि हरि बोल! कल प्रभुपाद को संस्मरण करने का बहुत विशेष दिन था , 17 सितंबर एक ऐतिहासिक दिन है। संसार के इतिहास में 17 सितंबर 1965 को एक विशेष घटना घटी थी। श्रील प्रभुपाद अमेरिका पहुंचे। प्रभुपाद बहुत विजनरी( दूर द्रष्टा थे) वे एक डायरी रखते थे। जिस दिन से उनकी यात्रा प्रारंभ हुई, सब उसमें लिखा है। प्रभुपाद मुंबई से ट्रेन से कोलकाता गए और कोलकाता में जलदूत जहाज में आरूढ़ हुए और अमेरिका के लिए प्रस्थान किये। श्रील प्रभुपाद ने एक महीने से अधिक दिन अर्थात 35 दिन जलदूत जहाज पर बिताए। श्रील प्रभुपाद हर रोज डायरी लिखते थे जिसमें वे अपने अनुभव, साक्षात्कार और स्वास्थ्य संबंधित उतार चढ़ाव, हार्ट अटैक सब लिखते थे। श्रील प्रभुपाद ने स्वपन में देखा कि भगवान कृष्ण प्रकट हुए हैं और कृष्ण ने जहाज का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया है तब जो बचा हुआ सफर था, वह काफी स्मूथ रहा , जहाज के कैप्टन ने भी ऐसा अनुभव किया, कृष्ण इंचार्ज थे। उस डायरी का नाम है जलदूत डायरी (याद रखो या नोट करो), इसे जलदूत डायरी कहते हैं। श्रील प्रभुपाद जलदूत डायरी में लिखते हैं। मुंबई से कोलकाता वे किस ट्रेन में गए, उस ट्रेन का नाम भी डायरी में लिखा है हमारे इस्कॉन नागपुर के भक्त कहते रहते हैं कि प्रभुपाद न्यूयॉर्क वाया नागपुर गए। हरि! हरि! उस यात्रा के अंत में दो कविताएं भी लिखी जो दिल को छू लेने वाली हैं। प्रभुपाद ने एक कविता 10 सितंबर को लिखी (टेक) *कृष्ण तब पुण्य हबे भाइ। ए पुण्य करिबे जबे राधारानी खुशी हबे॥* *ध्रुव अतिबोलि तोमा ताइ। श्री सिद्धांत सरस्वती शची-सुत प्रिय अति कृष्ण-सेवाय जाँर तुल नाए। सेई से महंत-गुरू जगतेर मध्ये उरू कृष्ण भक्ति देय थाइ-थाइ॥1॥* *ताँर इच्छा बलवान पाश्चात्येते थान थान होय जाते गौरांगेर नाम। पृथ्वीते नगरादि आसमुद्र नद नदी सकलेइ लोय कृष्ण नाम॥2॥* *ताहले आनंद होय तबे होय दिग्विजय चैतन्येर कृपा अतिशय। माया दुष्ट जत दुःखी जगते सबाइ सुखी वैष्णवेर इच्छा पूर्ण हय॥3॥* *से कार्य ये करिबारे, आज्ञा यदि दिलो मोरे योग्य नाहि अति दीन हीन। ताइ से तोमार कृपा मागितेछि अनुरूपा आजि तुमि सबार प्रवीण॥4॥* *तोमार से शक्ति पेले गुरू-सेवाय वस्तु मिले जीवन सार्थक जदि होय। सेइ से सेवा पाइले ताहले सुखी हले तव संग भाग्यते मिलोय॥5॥* *एवं जनं निपतितं प्रभवाहिकूपे कामाभिकाममनु यः प्रपतन्प्रसङ्गात्। कृत्वात्मसात्सुरर्षिणा भगवन्गृहीतः सोऽहं कथं नु विसृजे तव भृत्यसेवाम्॥6॥* *तुमि मोर चिर साथी भूलिया मायार लाठी खाइयाछी जन्म-जन्मान्तरे। आजि पुनः ए सुयोग यदि हो योगायोग तबे पारि तुहे मिलिबारे॥7॥* *तोमार मिलने भाइ आबार से सुख पाइ गोचारणे घुरि दिन भोर। कत बने छुटाछुटि बने खाए लुटापुटि सेई दिन कबे हबे मोर॥8॥* *अजि से सुविधान तोमार स्मरण भेलो बड़ो आशा डाकिलाम ताए। आमि तोमार नित्य-दास ताइ करि एत आश तुमि बिना अन्य गति नाइ॥9॥* अर्थ शुक्रवार, 10 सितम्बर, 1965 के अटलांटिक महासागर के मध्य, अमेरीका जा रहे जहाज पर बैठे हुए श्रील प्रभुपाद जी ने अपनी डायरी में लिखा, “आज जहाज बड़ी सुगमता से चल रहा है। मुझे आज बेहतर लग रहा है। किन्तु मुझे श्री वृन्दावन तथा मेरे इष्टदेवों- श्री गोविंद, श्री गोपीनाथ और श्री राधा दामोदर - से विरह का अनुभव हो रहा है। मेरी एकमात्र सांत्वना श्रीचैतन्यचरितामृत है, जिसमें मैं चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का अमृत चख रहा हूँ। मैंने चैतन्य महाप्रभु के आदेशानुगामी श्रीभक्तिसिद्धांत सरस्वती का आदेश कार्यान्वित करने हेतु ही भारत-भूमि को छोड़ा है। कोई योग्यता न होते हुए भी मैंने अपने गुरूदेव का आदेश निर्वाह करने हेतु यह खतरा मोल लिया है। वृंदावन से इतनी दूर मैं उन्हीं की कृपा पर पूर्णाश्रित हूँ। ” तीन दिन पश्चात, (13 सितम्बर, 1965) शुद्ध भक्ति के इस भाव में, श्रील प्रभुपाद ने निम्नलिखित प्रार्थना की रचना की। हे भाइयों, मैं तुमसे निश्चित रूप से कहता हूँ कि तुम्हें भगवान् श्रीकृष्ण से पुण्यलाभ की प्राप्ति तभी होगी जब श्रीमती राधारानी तुमसे प्रसन्न हो जायेंगी। (1) शचिपुत्र (चैतन्य महाप्रभु) के अतिप्रिय श्रीश्रीमद् भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर की कृष्ण-सेवा अतुलनीय है। वे ऐसे महान सदगुरु हैं जो सारे विश्वभर के विभिन्न स्थानों में कृष्ण के प्रति प्रगाढ़ भक्ति बाँटते हैं। (2) उनकी बलवती इच्छा से भगवान् गौरांग का नाम पाश्चात्य जगत के समस्त देशों में फैलेगा। पृथ्वी के समस्त नगरों व गाँवों में, समुद्रों, नदियों आदि सभी में रहनेवाले जीव कृष्ण का नाम लेंगे। (3) जब श्रीचैतन्य महाप्रभु की अतिशय कृपा सभी दिशाओं में दिग्विजय कर लेगी, तो निश्चित रूप से पृथ्वी पर आनंद की बाढ़ आ जायेगी। जब सब पापी, दुष्ट जीवात्माऐं सुखी होंगी, तो वैष्णवों की इच्छा पूर्ण हो जायेगी। (4) यद्यपि मेरे गुरू महाराज ने मुझे इस अभियान को पूरा करने की आज्ञा दी है, तथापि मैं इसके योग्य नहीं हूँ। मैं तो अति दीन व हीन हूँ। अतएव, हे नाथ, अब मैं तुम्हारी कृपा की भिक्षा मांगता हूँ जिससे मैं योग्य बन सकूँ, क्योंकि तुम तो सभी में सर्वाधिक प्रवीण हो। (5) यदि तुम शक्ति प्रदान करो, तो गुरू की सेवा द्वारा परमसत्य की प्राप्ति होती है और जीवन सार्थक हो जाता है। यदि वह सेवा मिल जाये तो वयक्ति सुखी हो जाता है और सौभाग्य से उसे तुम्हारा संग मिल जाता है। (6) हे भगवान् मैं एक-एक करके भौतिक इच्छाओं की संगति में आने से सामान्य लोगों का अनुगमन करते हुए सर्पो के अन्धे कुँए में गिरता जा रहा था। किन्तु आपके दास नारद मुनि ने कृपा करके मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया और मुझे यह शिक्षा दी कि इस दिवय पद को किस प्रकार प्राप्त किया जाय। अतएव मेरा पहला कर्त्तवय है कि मैं उनकी सेवा करूँ। भला मैं उनकी यह सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ? (प्रह्लाद महाराज ने नृसिंह भगवान से कहा, श्रीमद्भागवत 07.09.28) (7) हे भगवान् कृष्ण, तुम मेरे चिर साथी हो। तुम्हें भुलाकर मैंने जन्म-जन्मांतर माया की लाठियाँ खायी हैं। यदि आज तुमसे पुर्नमिलन अवश्य होगा तभी मैं आपकी संगती में आ सकूँगा। (8) हे भाई, तुमसे मिलकर मुझे फिर से महान सुख का अनुभव होगा। भोर बेला में मैं गोचारण हेतु निकलूँगा। व्रज के वनों में भागता-खेलता हुआ, मैं आध्यात्मिक हर्षोन्माद में भूमि पर लोटूँगा। अहा! मेरे लिए वह दिन कब आयेगा? (9) आज मुझे तुम्हारा स्मरण बड़ी भली प्रकार से हुआ। मैंने तुम्हें बड़ी आशा से पुकारा था। मैं तुम्हारा नित्यदास हूँ और इसलिए तुम्हारे संग की इतनी आशा करता हूँ। हे कृष्ण तुम्हारे बिना मेरी कोई अन्य गति नहीं है। कृष्ण तब पुण्य हबे भाइ ए पुण्य करिबे जबे राधारानी खुशी हबे अर्थात जब राधा रानी खुश होंगी, प्रसन्न होंगी तब पुण्य होगा *श्री सिद्धांत सरस्वती शची-सुत प्रिय अति कृष्ण-सेवाय जाँर तुल नाए। सेई से महंत-गुरू जगतेर मध्ये उरू कृष्ण भक्ति देय थाइ-थाइ॥1॥* यह बंगला भाषा में हैं ( यह शुद्ध बंगाली है या इसमें कुछ हिंदी भी है) प्रभुपाद अपने गुरु महाराज का स्मरण कर रहे हैं कि श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती महाराज कैसे थे।। मेरे गुरु महाराज श्रील सरस्वती ठाकुर महाराज ,"शची-सुत प्रिय अति "- अर्थात शची नंदन को अति प्रिय थे। कृष्ण-सेवाय जाँर तुल नाए - उनकी सेवा की तुलना किसी और सेवा के साथ संभव नहीं है। उनकी सेवा अतुलनीय रही। सेई से महंत-गुरू जगतेर मध्ये उरू कृष्ण भक्ति देय थाइ-थाइ मेरे गुरु महाराज (गुरु मतलब बड़े ) ने भक्ति की और भक्ति का प्रचार किया। वे उसका संस्मरण कर रहे हैं। आप इस्कॉन की वैष्णव भजन पुस्तक में इन कविताओं को पढ़ सकते हो। यह कविताएं प्रभुपाद की जलदूत डायरी का भाग है। जब प्रभुपाद रास्ते में ही थे, तब उन्होंने अगली डायरी लिखी। पहली डायरी 10 सितंबर को लिखी थी। जब प्रभुपाद का जहाज बोस्टन में पहुंचा था, तब जहाज के कप्तान पांडेय ने कहा था कि स्वामी जी, चलो चलते हैं, आपको थोड़ा अमेरिका दिखाता हूं। तब वह प्रभुपाद को ले गए। वे दिखा रहे थे। प्रभुपाद ने वहां की रैट रेस को देखा। जैसे चूहे दौड़ते हैं, वैसे ही अमेरिकन लोग दौड़ रहे थे।आजकल भारतीय भी लगभग वैसे ही दौड़ रहे हैं। वहां जो रैट रेस चलती थी, उनकी नकल करते हुए अब यहां भी चल रही है। लोग अपने काम धंधे में, माया के बंधन में इतने व्यस्त थे कि वे रुकने का नाम नहीं ले रहे थे । बस दौड़ रहे थे, दौड़ रहे थे। प्रभुपाद उस समय विचार कर रहे थे कि मैं इस समय अमेरिका में प्रचार करने के लिए आया हूं तो मैं कैसे प्रचार करूंगा? यह लोग तो रुकने का भी नाम नहीं ले रहे हैं। मैं कैसे उनसे बात करूंगा और मैं उनको कैसे प्रचार करूंगा। यह श्रील प्रभुपाद का अमेरिका के साथ पहला अनुभव रहा। फर्स्ट एनकाउंटर विथ अमेरिका। दूसरा जो गीत है , मार्किने भागवत धर्म। जो कल की तारीख अर्थात 17 सितंबर को लिखा। कल शुक्रवार का दिन था। उस वर्ष 1965 में भी 17 सितंबर को शुक्रवार ही था। प्रभुपाद ने जो दूसरी कविता लिखी है उनका डेस्टिनेशन तो न्यूयॉर्क था लेकिन प्रभुपाद कुछ समय के लिए बोस्टन में रुके थे। प्रभुपाद अब वापिस जहाज से न्यूयॉर्क जा रहे हैं। तब श्रील प्रभुपाद ने दूसरी कविता लिखी।। मार्किने भागवत धर्म। *बड़ो कृपा कोइले कृष्ण अधमेर प्रति। कि लागियानिले हेथा करो एबे गति॥1॥* *आछे किछु कार्य तब एइ अनुमाने। नाहे केनो आनिबेन एइ उग्र-स्थाने॥2॥* *रजस तमो गुणे ऐरा सबा आच्छन्न। वासुदेव-कथा रूचि नहे से प्रसन्न॥3॥* *तबे यदि तव कृपा होए अहैतुकी। सकल-इ-संभव होय तुमि से कौतुकी॥4॥* *कि भावे बुझाले तारा बुझे सेई रस। एत कृपा करो प्रभु करि निज-वश॥5॥* *तोमार इच्छाय सब होए माया-वश। तोमार इच्छाय नाश मायार परश॥6॥* *तब इच्छा होए यदि तादेर उद्धार। बुझिबे निश्चय तबे कथा से तोमार॥7॥* *भागवतेर कथा से तव अवतार। धीर हइया शुने यदि काने बार-बार॥8॥* शृण्वतां स्वकथाः कृष्णः पुण्यश्रवणकीर्तनः। हृद्यन्तःस्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम्॥ नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया। भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी॥ तदा रजस्तमोभावाः कामलोभादय श्च ये। चेत एतैरनाविद्धं स्थितं सत्त्वे प्रसीदति॥ एवं प्रसन्नमनसो भगवद्भक्तियोगतः। भगवत्तत्वविज्ञानं मुक्तसङ्गस्य जायते॥ भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनी श्वरे॥ *रजस तमो हते तबे पाइबे निस्तार। हृदयेर अभद्र सब घुचिबे ताँहार॥9॥* *कि कोरे बुझाबो कथा वर सेइ चाहि। क्षुद्र आमि दीन हीन कोनो शक्ति नाहि॥10॥* *अथच एनेछो प्रभु कथा बोलिबारे। जे तोमार इच्छा प्रभु कोरो एइ बारे॥11॥* *अखिल जगत-गुरू! वचन से आमार। अलंकृत कोरिबार क्षमता तोमार॥12॥* *तब कृपा हले मोर कथा शुद्ध हबे। शुनिया सबार शोक दुःख जे घुचिबे॥13॥* *आनियाछो जदि प्रभु आमारे नाचाते। नाचाओ नाचाओ प्रभु नाचाओ से-मते काष्ठेर पुत्तलि यथा नाचाओ से मते॥14॥* *भक्ति नाइ वेद नाइ नामे खूब धरो। भक्तिवेदांत नाम एबे सार्थक कोरो॥15॥* अर्थ 17 सितम्बर, 1965 में कृष्णकृपाश्रीमूर्ति ए0सी0 भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ‘जलदूत’ जहाज पर सवार होकर बोस्टन पहूँचे। श्रीचैतन्य की शिक्षाओं का भारत की सीमाओं से बाहर विश्वभर में विस्तार करने का अपने गुरू द्वारा प्रदत्त आदेश को वे अपने हृदय मे धारण किए हुए थे। जब उन्होंने बोस्टन की धूमिल व गंदी अम्बर-रेखा को देखा, तो उन्हें अपने पुण्य अभियान की कठिनाई का भान हुआ और उन्हे इन भगवद-विहीन लोगों पर अपार करूणा का अनुभव हुआ। अतएव, सभी पतितात्माओं के उद्धार की प्रार्थना करते हुए उन्होंने पूर्ण विनम्रतापूर्वक बंगला भाषा में निम्नलिखित ऐतिहासिक स्तोत्र की रचना की। (1) मेरे प्रिय भगवान् कृष्ण, आप इस अधम जीव पर बड़े कृपालु हैं, किन्तु मैं नहीं जानता आप मुझे यहाँ क्यों लाये हैं। अब आप मेरे साथ जो चाहें सो करें। (2) किन्तु मेरा अनुमान है कि आपका यहाँ कुछ कार्य है, वरना आप मुझे ऐसे उग्र-स्थान पर भला क्यों लाते? (3) यहाँ की अधिकांश जनता रजस व तमस के भौतिक गुणों द्वारा प्रच्छन्न है। भौतिक जीवन में मग्न होकर, वे अपने आपको बहुत खुश व संतुष्ट समझते हैं, और इसलिए उनको वासुदेव की दिवय कथाओं में कोई रूचि नहीं है। मैं नहीं जानता वे किस प्रकार इसे समझ पायेंगे। (4) किन्तु मैं जानता हूँ कि तुम्हारी अहैतुकी कृपा सब कुछ संभव कर सकती है, क्योंकि तुम सबसे निपुण कौतुकी हो। (5) वे भक्तिमय सेवा के भावों को कैसे समझेंगे? हे प्रभु, मैं तो बस आपकी कृपा की प्रार्थना करता हूँ जिससे मैं उन्हें आपके संदेश के प्रति आश्वस्त कर सकूँ। (6) सब जीव तुम्हारी इच्छा से माया के वश हुए हैं, और इसलिए, यदि तुम चाहो तो तुम्हारी इच्छा से ही वे माया के चंगुल से छुट भी सकते हैं। (7) यदि उनके उद्धार हेतु तुम्हारी इच्छा होगी, तभी वे तुम्हारी कथा समझने में समर्थ होंगे। म्बर (8) श्रीमद्भागवत की कथा तुम्हारा अवतार है, और यदि कोई धीर व्यक्ति विनम्रतापूर्वक उसका बारम्बर श्रवण करे, तो इसे समझ सकता है। वैदिक साहित्य से श्रीकृष्ण के विषय में सुनना या भगवद्गीता से साक्षात उन्हीं से सुनना अपने आप में पुण्यकर्म है। और जो प्रत्येक हृदय में वास करनेवाले भगवान् कृष्ण के विषय में सुनता है, उसके लिए वे शुभेच्छु मित्र की भांति कार्य करते हैं और जो भक्त निरन्तर उनका श्रवण करता है, उसे वे शुद्ध कर देते हैं। इस प्रकार भक्त अपने सुप्त दिवयज्ञान को फिर से पा लेते है। ज्यों-ज्यों वाह भागवत तथा भक्तों से कृष्ण के विषय में अधिकाधिक सुनता है, त्यों-त्यों वह भगवद्भक्ति में स्थिर होता जाता है। भक्ति के विकसित होने पर वह रजो तथा तमो गुणों से मुक्त हो जाता है और इस प्रकार भौतिक काम तथा लोभ कम हो जाता है। जब ये कल्मष दूर हो जाते हैं तो भक्त सतोगुण में स्थिर हो जाता है, भक्ति के द्वारा स्फूर्ति प्राप्त करता है और भगवद् तत्व को पूरी तरह जान लेता है। भक्तियोग भौतिक मोह की कठिन ग्रंथि को भेदता है और भक्त को असंशयं समग्रम् अर्थात् परम सत्य को समझने की अवस्था को प्राप्त कराता है (भागवत् 1.2.17-21) (9) वह व्यक्ति रजस व तमस गुणों के प्रभाव से निस्तार पा लेगा और उसके हृदय के सभी अभद्र हट जायेंगे। (10) मैं उन्हें कृष्णभावना का संदेश आखिर कैसे समझाऊंगा? मैं बहुत आभागा, अयोग्य तथा पतित हूँ। तभी तो मैं आपसे वरदान चाहता हूँ जिससे कि मैं उन्हें आश्वस्त कर सकूँ, क्योंकि मैं अपने बलबूते पर ऐसा करने में असमर्थ हूँ। (11) फिर भी, हे प्रभु, आप मुझे यहाँ अपनी कृपा बोलवाने लाये हो। अब यह आप पर निर्भर है कि आप मुझे अपनी इच्छानुसार सफल या असफल बनाओ। (12) हे अखिल जगत के गुरू! मैं तो केवल आपके वचन दोहरा सकता हूँ, इसलिए यदि आप चाहो तो मेरे वचनों को उनके समझ के अनुकूल बना दो। (13) केवल आपकी अहैतुकी कृपा से ही मेरे वचन शुद्ध होंगे। मुझे पूर्ण विश्वास है कि जब यह दिवय संदेश उनके हृदयों में जायेगा तो उनका सब शोक व दुःख दूर हो जायेगा। (14) हे प्रभु, मैं तो बस आपके हाथों की कठपुतली हूँ। इसलिए यदि तुम मुझे यहाँ नचाने लाये हो, तो मुझे नचाओ, मुझे नचाओ, हे प्रभु मुझे अपनी इच्छापूर्वक नचाओ। (15) मुझमें न तो भक्ति और न ही ज्ञान है, परन्तु मुझे कृष्ण के पवित्र नाम में दृढ़ विश्वास है। मुझे ‘भक्तिवेदांत’ की उपाधि दी गई है, इसलिए यदि आप चाहो तो मेरा यह नाम सार्थक कर दो। इस कविता में एक प्रसिद्ध स्टेटमेंट है। प्रभुपाद ने इसमें लिखा हैं कि वे सोच ही रहे थे कि अब मैं कैसे प्रचार करूंगा। लोग इतने व्यस्त हैं, उनकी धर्म में या धर्म के प्रवचनों में कोई इंटरेस्ट था रुचि नहीं है। प्रभुपाद ने लिखा हैं नाचाओ नाचाओ प्रभु नाचाओ से-मते काष्ठेर पुत्तलि यथा नाचाओ से मते॥14॥ मैं तो काष्ठेर पुतली हूं। मैं लकड़ी की पुतली हूं। हे प्रभु! आप तो कठपुतली वाले हो। अब आप ही मुझे नचाओ। आप ही मुझसे बुलवायो जिससे आपका ही संदेश या मेरे गुरु महाराज का जो आदेश हुआ है- विदेशो में अंग्रेजी भाषा में प्रचार करो। मैं पहुंच तो रहा हूं लेकिन यह संभव तभी होगा जब आप ही मुझसे बुलवाओगें या आप ही मुझे नचाओगें। जैसी आपकी मर्जी है, वैसे ही आप मुझे नचाओ। नाचाओ नाचाओ प्रभु नाचाओ से-मते भक्ति नाइ वेद नाइ नामे खूब धरो। *भक्तिवेदांत* नाम एबे सार्थक कोरो॥15॥ अर्थ:- मुझमें न तो भक्ति और न ही ज्ञान है, परन्तु मुझे कृष्ण के पवित्र नाम में दृढ़ विश्वास है। मुझे ‘भक्तिवेदांत’ की उपाधि दी गई है, इसलिए यदि आप चाहो तो मेरा यह नाम सार्थक कर दो। मेरा नाम तो भक्तिवेदांत है। भक्ति नहीं वेद नाही, यह प्रभुपाद की नम्रता है। प्रभुपाद कहते हैं मेरा नाम तो भक्तिवेदांत हैं किंतु भक्ति नहीं है, ना ही मैं वेदों को जानता हूं लेकिन आप ही ऐसा कुछ करो जिससे मेरा नाम सार्थक हो जाए। अंततः कल के दिन श्रील प्रभुपाद ने अमेरिका में प्रवेश किया। इसी के साथ धड़ाधड़ कई घटनाक्रम हुए। प्रभुपाद के पास ज्यादा समय नहीं था। केवल 11 साल ही थे। प्रभुपाद के जीवन में हर 11 साल के उपरांत एक विशेष घटना घटती थी। 1922 में आदेश मिला था कि पाश्चात्य देश में जाओ और प्रसार करो और फिर 11 सालों के उपरांत उनकी दीक्षा हुई थी। फिर 11 सालों के उपरांत 1944 में बैक टू गॉड हेड पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया था। तत्क्रम अगले 11 सालों के बाद वर्ष 1955 में श्रील प्रभुपाद वानप्रस्थी ही बने थे। तब 11 सालों के उपरांत 1966 में इस्कॉन की स्थापना की और तत्पश्चात 11 साल उपरांत प्रभुपाद वर्ष 1977 में भगवतधाम लौटे। वर्ष 1965 में पहुंचे हैं, 1966 में इस्कॉन की स्थापना होगी।।न्यूयॉर्क में ही इस्कॉन का रजिस्ट्रेशन होगा। श्रीकृष्ण चैतन्य स्वामी महाराज यहां बैठे हैं और कह रहे हैं कि वर्ष 1966 में वे पैदा हुए थे। जिस वर्ष प्रभुपाद अमेरिका में पहुंचे थे, उसी वर्ष श्रीकृष्ण चैतन्य स्वामी महाराज का जन्म हुआ था।(पहले या बाद में?? पहले, तब तुम उनका स्वागत करने के लिए थे।) ठीक है। बाकी सब इतिहास है। आप पढ़ो। प्रभुपाद लीलामृत पढ़ो। इसीलिए हम यह विश्व हरि नाम उत्सव मना रहे हैं। हम इसे पिछले 25 वर्षों से मना रहे हैं। इस साल भी विश्व हरि नाम उत्सव मनाया जा रहा है। आप सभी भाग ले रहे हो? वीडियो बना रहे हो या अधिक जप कर रहे हो या नगर संकीर्तन कर रहे हो या फॉर्च्यूनर पीपल कैंपेन??? आप व्यस्त हो ना? कुछ को व्यक्तिगत अर्थात अलग-अलग करना है। विश्व हरि नाम उत्सव के जो प्रकार हैं, व्यक्तिगत रूप से या मंदिरो को किस प्रकार से उत्सव मनाना है। वैसे कल से वर्ल्ड होली नेम वीक का कल से इंटरनेशनल फेस्टिवल भाग आरंभ हुआ है। कल पहला दिन था ।आशा करता हूँ कि आपने इंजॉय किया होगा। इस्कॉन की कई सारी लीडिंग पर्सनैलिटी, प्रभुपाद के शिष्य, जीबीसी हो या सन्यासी आपको अलग-अलग कीर्तन सुना रहे हैं या प्रभुपाद कथा सुना रहे हैं या जपा टॉक या जपा रिट्रीट हो रही है या मृदङ्ग बजाना या करताल, हरमोनियम बजाने के लेसन भी हर रोज दिए जा रहे हैं। आशा करते हैं कि आप पार्टिसिपेट( भाग ले) कर रहे हो? आप में से कौन-कौन कर रहा है? शांत रुक्मिणी, थाईलैंड से??? शेड्यूल( समय सारणी) वर्ल्ड लेवल पर प्रसारित कर दी गयी हैं। उसका प्रिंट आउट ले अपने घर के नोटिस बोर्ड पर लगा दो। आज विश्व हरि नाम उत्सव का दूसरा दिन है, उसका भी प्रचार प्रसार करो। वर्ल्ड होली नेम फेस्टिवल का आनंद लो। यह भी प्रभुपाद की स्मृति स्मरण हेतु हुई उत्सव मनाया जा रहा है। प्रभुपाद 'इज द अम्बेसडर ऑफ द होली नेम' अथवा 'हरि नाम के राजदूत' या 'अम्बेसडर ऑफ भागवत धर्म' श्रील प्रभुपाद जब विदेश गए, वे साथ में एक तो वह हरि नाम लेकर गए। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* साथ में ग्रंथ राज श्रीमद्भागवतम। हम आसानी से कह सकते हैं कि प्रभुपाद अम्बेसडर ऑफ द होली नेम हैं और वे अम्बेसडर ऑफ द भागवत धर्म भी हैं। वैसे उस समय अमेरिका में कई पत्रकारों ने लिखा था प्रभुपाद 'इज द अम्बेसडर ऑफ भक्ति योग' निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! मैं यहीं पर अपनी वाणी को विराम देता हूं।संभव हुआ तो पुनः मिलेंगे डेड घंटे में। हरे कृष्ण!!

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