हरे कृष्ण,
9 अक्टूबर 2020,
पंढरपुर धाम.

785 स्थानों से आज भक्त जप करने के लिए जुड़े हैं

भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन,
अभय चरणारविन्द रे।
दुर्लभ मानव-जनम सत्संगे,
तरह ए भव सिन्धु रे।।1।।

अनुवाद:-
हे मेरे मन, तू केवल नन्दनन्दन श्रीकृष्ण के अभय प्रदान करने वाले चरणकमलों का भजन कर। इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर साधुसंग द्वारा इस भवसागर को पार कर लो।

गोविंद दास कविराज का यह गीत है। इस्कॉन में इसे गाया जाता है। श्रील प्रभुपाद भी इसे गाए हैं, आप भी इसे गाए होंगे। गाते ही रहो, सुनते ही रहो ओर गाते हैं तो सुनो और फिर उसे समझो कि, यह गीत क्या कह रहा है? गोविंद दास क्या कह रहे हैं? वह शुरुआत कर रहे हैं। भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन, वह अपने मन को प्रार्थना कर रहे हैं कि, भजहुँ रे मन, भज गोविंद, हे मन गोविंद को भजो। भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन हे मन नन्दनंदन को भजो। कैसे हैं नन्दनंदन? अभय चरणारविन्द रे।जिनके चरण आश्रय से व्यक्ति निर्भय होता है। अहम त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षेषामी मा शुच: भगवान ने गीता में कहा है, “डरो नहीं कौन डरो नहीं मामेकं शरणम व्रज जो मेरी शरण में आये है उनको डरने की कोई आवश्यकता नहीं है”।

भजहुँ रे मन श्रीनन्दनंदन मेरी शरण में आए हैं,। नंदनंदन का भजन कर रहे हैं। उनको नंदनंदन के चरणों का आश्रय, वैसे पूरे भगवान का। यह एक कहने की रीति है हम भगवान के चरणों का आश्रय लेते हैं। हम भगवान के हाथों का आश्रय नहींं लेते, भगवान के मुख्य मंडल का आश्रय नहींं लेते, क्या भगवान के चरणों का आश्रय लिया तो भगवान केेेे चरण भगवान के विग्रह भिन्न है? भगवान के चरणोंं का आश्रय ही भगवान का आश्रय है।

हे मन नन्दनंदन का भजन करो और वही बात है भजन करना आश्रय लेना है। और कौन आश्रय लेता है? मन आश्रय लेता है और ऐसा करने से आप निर्भय बनोगे डरो मत। या भगवान के चरण अभयचरणाविंद ऐसा भी कहा है गोविंद दास ने। गोविंद दास कह रहे हैं, कैसे हैं चरण? अभय चरण, प्रभुपाद का भी नाम अभय चरण ए. सी। भगवान के चरण कैसे हैं अभय अभय दान देने वाले हैं भगवान के चरण। हरि हरि।

स्वयं भयम विभेति और कोई भय हो तो उनको भी डर जाते हैं। भगवान से डरते हैं वह लोग या डराने वाले वो व्यक्तित्व हैं वह भी डर जाता है। भगवान जिनके भय से इंद्र वर्षा करते हैं। और वायु देवता वायु को चलायमान करते हैं। यदभयात सूर्य: तपति जिनके भय के कारण सूर्य तपते रहता है। सारे देवता अपने अपने ड्यूटी निभाते रहते हैं। यदभयात, तो वे नन्दनंदन उनके चरण कैसे हैं? अभयचरणारविंद इसीलिए यह मन को निवेदन किया जा रहा है। समझाया बुझाया जा रहा है। जरूरत पड़े तो फिर डाटा और फटकारा भी जा रहा है। वैसे आप सुने हो श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर कहां करते थे, हे मन नहीं सुनते हो भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन, नन्दनन्दन का भजन करो गर नहीं करते हो तो यह देखो जूता और यह केवल दिखा ही नहींं रहा हूं पिटाई होगी। ठोकर खाओगे या फिर झाड़ूू भी है झाड़ूू से पिटाई करूंगा। भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन नन्दनन्दन का भजन करो

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
उनका ध्यान पूर्वक नाम स्मरण करो जप करो
भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन,
अभय चरणारविन्द रे।

यहां मन को लोभ दिखाया जा रहा है प्रलोभन। नन्दनंदन का तुम भजन करोगे तो पता है क्या लाभ है, क्या फायदा होगा? अभय चरणारविन्द रे निर्भय बनोगे यह फायदा है, मुनाफा है। तुम पुरस्कृत होंगे निर्भय बनोगे। भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन, अभय चरणारविन्द रे और इस चित्र में दिखाया ही है, नन्दनंदन, नंद नंद महाराज और नन्दनंदन नंदन मतलब पुत्र उनका पुत्र। अहम् वंदे नंदम् मैं वंदना करता हूं। किसकी वंदना करता हूं नंदा महाराज की वंदना करता हूं मैं। यस्य आलिंन्दे परब्रह्मा जिनके आंगन में प्रांगण में परब्रह्मा खेल रहा है ऐसे नन्दनंदन कि मैं वंदना करता हूं। और करें जिसकी चाहे लेकिन मैं तो वंदना करता हूं। अहम नंदम् वंदे मैं नंद महाराज की वंदना करता हूं। यस्य आलिंन्दे परब्रह्मा जिन के प्रांगण में परब्रह्मा खेल रहा है। हरि हरि।
दुर्लभ मानव-जनम सत्संगे,
तरह ए भव सिन्धु रे

और फिर यह प्रार्थना जैसे मन को ही की जा रही है। मन को जैसे समझाया बुझाया जा रहा है। आगे कहां है *दुर्लभ मानव-जनम सत्संगे,
तरह ए भव सिन्धु रे* हे मन समझो क्या समझो? यह मनुष्य जीवन बड़ा दुर्लभ है। दुर्लभ मानव-जनम यह मनुष्य जीवन दुर्लभ है। दुर्लभम अधृवमपि अर्थदम् प्रल्हाद महाराज ने भी कहा है यह मनुष्य जीवन वैसे है अधृवम। क्या भरोसा इस जिंदगी का आज है तो शाम तक नहीं रहेगा। अधृवम तो है ज्यादा समय टिकता नहीं यहां नाशवान है इसका अंत हो सकता है कभी भी। ऐसा अधृवम स्थिति तो है लेकिन अर्थदम प्रह्लाद महाराज ने कहा अर्थदम अर्थपूर्ण मूल्यवान है। यहां मनुष्य जीवन अधृवमपि अर्थदम् दुर्लभ मानव जिसके लाभ की प्राप्ति होना कठिन है। बड़ी मुश्किल से यहां मनुष्य जीवन प्राप्त होता है। कितनी सारी 8400000 योनियों है। और फिर कई जन्म जन्मांतर के बाद और नाना योनियों में भ्रमण करने के उपरांत फिर यह दुर्लभ मनुष्य जीवन प्राप्त होता है। दुर्लभ मानव-जनम है इसीलिए क्या करो? जनम सत्संगे, मनुष्य जीवन को सत्संग में व्यतीत करो। सत्संग में रहो।

असत्संग त्यागात् एइ वैष्णव आचार
यह है वैष्णव की पहचान या ऐसा होता है वैष्णव का आचार। *असत्संग त्यागात् *असत्संग त्यागता है। माया की संगत से दूर रहता है जो लोग माया में है, उनको दूर से नमस्कार करता है। सुरक्षित अंतर, तो फिर वहां सिर्फ 6 फीट का ही नहीं, 6 मील का भी जरूरी हो सकता है। जनम सत्संगे मनुष्य तुम क्या करो सत्संग करो साधु संग करो।

साधुसंग साधुसंग सर्व शास्त्र कय।
लव मात्र साधुसंग सर्वसिद्धि हय।।

सिद्ध बनोगे आप परफेक्ट हो जाओगे। साधु संग करो वैष्णव की संगति में रहो, ताकि क्या होगा
तरह ए भव सिन्धु रे ताकि तुम्हारा बेड़ा पार हो जाए,। इस संसार के परे पहुंच सकते हो तुम, इस संसार में एक नौका पहुंची है। या भगवान ने वह नौका भेजी है। भगवान ने उत्पन्न न की हुई है यह या निर्माण किया है। उसके स्थापना हुई है। इस नई नौका नाम है इस्कॉन। इस्कॉन एक नौका है, एक जहाज है। और इस जहाज के कैप्टन हैं, इस्कॉन संस्थापक आचार्य प्रतिष्ठाता आचार्य श्रील प्रभुपाद। श्रील प्रभुपाद की जय!! इस नौका का जहाज का गंतव्य स्थान है भगवत धाम लौटना। हम जा रहे हैं, भगवत धाम लौट रहे हैं। यह नौका जा रही हैं वैकुंठ की ओर, अयोध्या की ओर, गोलोक की ओर। तो आ जाओ कृपा करके आप भी जुड़ जाओ जहाज में कूद पड़ो।

अवतीर्णे गौरचंद्रे विस्तीर्णे प्रेमसागरे उस प्रेम सागर का विस्तार किया है गौरांग महाप्रभुने और यह नौका बड़ी अद्भुत है। और यह नौका एक भी है, अनेक भी है। जहां जहां इस्कॉन है, जहां-जहां इस्कॉन भक्त हैं, जहां-जहां इस्कॉन सत्संग उपलब्ध है, या प्राप्त है वहां वहां आप इस नौका में सवार हो सकते हो। न्यूयॉर्क में सवार हो सकते हो। डरबन में, दिल्ली में, लंदन में, मास्को में, यहां वहां नगरआदि ग्राम सर्वत्र प्रचार होइबो मोरो नाम जहां-जहां
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। का प्रचार पहुंच चुका है। और जहां जहां श्रील प्रभुपाद के ग्रंथ पहुंचे हैं। और फिर जहां इस्कॉन मंदिर नामहट गुरुकुल पाठशाला बच्चों के लिए रथयात्राये संपन्न हो रही है। जन्माष्टमी यह उत्सव वह उत्सव मनाए जा रहे हैं पदयात्रा, पदयात्री ढाई लाख किलोमीटर तक का अंतर पैदल कर चुके हैं। पदयात्रा है वहां भी यह नौका है। यह नौका सर्वत्र उपलब्ध है। इस्कॉन का भक्त है वहां यह नौका है यह पूर्ण नौका है। ओम पुर्णमदम ओम पुर्णमिदम् यह भी पुर्ण कर है

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

पूर्णमदः अदः मतलब वह वह पूर्ण है पूर्णमिदं यह भी पूर्ण है पूर्णात् पूर्णमुदच्यते पूर्ण से जो भी उत्पन्न होता है वह भी पूर्ण है। इस्कॉन फुल फ्लेज मंदिर है, विस्तार हो गया तो वह भी पूर्ण है। फिर उसका प्रचार केंद्र हुआ तो वह भी पुर्ण है। फिर फुल फ्लेज हुआ तो वह भी पूर्ण है। और यह मंदिर भक्ति वृक्ष चला रहा है वह भी पूर्ण है। वह सब नौकाए हैं, एक पूर्ण यूनिट है तो जो भी इस में बैठेगा, उतरेगा, विराजमान होगा तो क्या होगा तरह ए भव सिन्धु रे वह व्यक्ति उसका बेड़ा पार हो रहा है। भवसागर से तर रहा है जा रहा है भगवद धाम की ओर। लगता तो है अरे मैं कब से इस्कॉन को जॉइन किया हूं तब से नागपुर में ही हूं, कहां जा रहा हु गया कि नहीं बोट आगे बढ़ी कि नहीं। हां हां बोट तो आगे आधे रास्ते पर पहुंच गई है या पच्चीस परसेंट रास्ता तय कर चुकी है। यह तो दिव्य अलौकिक नौका है। आभास तो होता होगा हम तो कहीं आए गए नहीं यहीं बैठे हैं नागपुर में ही है, दिल्ली में ही है, मॉस्को में ही है। नहीं नहीं आप आगे बढ़ रहे हो भगवान की ओर। भगवान के चरणों की ओर, भगवान के धाम की ओर तुम आगे बढ़ रहे हो। बड़े गति से तेजी से जा रहे हो इसका साक्षात्कार करो। यह भजन तो एक दिन में पूरा नहीं होने वाला है लगता है। हरि हरि।

शीत आतप, वात वरिषण
ए दिन यामिनी जागि’रे

तो यह है संसार (झूम पर एक व्यक्ति का फोटो दिखाते हुए महाराज कह रहे हैं) इस व्यक्ति का चेहरा तो आप देख ही रहे हैं, इस संसार की यह पहचान है। चेहरा मन का सूचकांक होता है (फेस इज इंडेक्स ऑफ माइंड)। अन्यथा हमारा मन जो है ऐसा है देख रहे हैं चेहरा लेकिन दिखाई दे रहा है मन। मन कि ऐसी स्थिति क्यों हुई है, शीत आतप, वात वरिषण कभी शीत ठंडी है, आतप कभी गर्मी है, वात कभी आंधी तूफान है, वरिषन तो कभी भारी वर्षा है अतिवृष्टि है। समझ रहे हो इन शब्दों के अर्थ ए दिन यामिनी जागिरे दिन मतलब दिन, यामिनी मतलब रात यह पीछे लगा रहता है। अहर्निश 24 x 7, चौबीस घंटे और पूरे सप्ताह के सात दिन कुछ ना कुछ संकट में या उपद्रव में। और इस कलयुग में तो क्या कहना उपद्रव का उपद्रितः भागवत ने घोषणा ही की है मन्दा: सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुता: और आतप गर्मी है फिर कहीं कैलिफोर्निया में आग लगी है, फॉरेस्ट सीजन फायर ऑस्ट्रेलिया में। उसके अलावा आदि दैविक ताप हैं, आदि भौतिक ताप है, आध्यात्मिक ताप है। ताप मतलब त्रास, कष्ट, परेशानी। तीन प्रकार के दुख आदि दैविक, आदि भौतिक, अध्यात्मिक इनको भी समझना होगा भक्तों। अध्यात्मिक मतलब क्या है ताप, त्रास या कष्ट, आदि दैविक देवता है देवताओं के कारण और आदि भौतिक मतलब और भूतों के और जिवो के कारण। वह जीव कुछ परिवार के सदस्य भी हो सकते हैं, हमारी सास हो सकती है, हमारी बहू हो सकती है, हमारा भाई हो सकता है, हमारा पड़ोसी हो सकता है या सरकार हो सकती है। हरि हरि। आदि भौतिक मतलब अन्य भूतों से, अन्य जीवों से, अन्य मनुष्यों से जो हमको असुविधा हम महसूस करते हैं, जो हम अनुभव करते हैं उसको आदि भौतिक दुख कहां है।

अध्यात्मिक दुख हमारे मन और शरीर की जैसी रचना हुई है, किसी ने कुछ तिरछी नजर से, बुरी नजर से देखा तो हमारा मन दुखी होता है। ऐसी कहावत है बुरी नजर वाला तेरा मुंह काला। लेकिन ऐसे भी होते हैं लोग क्या कहने वाले बुरी नजर वाला तेरा भी हो भला ऐसे कहने वाले लोग कम मिलेंगे भला कहने वाले। लेकिन मन दुखी होता है, कई कारणों से उसकी फीडिंग होती है, मन को फीड करते हैं पाच संबंधों से। उसे इनलेट आउटलेट भी कहा जा सकता है। यह जो पांच इंद्रियां है, पांच ज्ञानेंद्रियां आंखें हैं, नासिका है, जीव्हा है, त्वचा हैं तो यह पांच इंद्रियां अलग अलग अनुभव कराती है मन को। मनःषष्ठानीन्द्रियाणि तो यह इंद्रियां आउटलेट कहो इनलेट कहो तो वहां सारे संंसार के अनुभव शब्द, स्पर्श रूप, रस, गंध वाले इंद्रियों के विषय यह सब मन के साथ जुड़े हुए हैं। कई बार, यही तो है शीत आतप, वात वरिषण इससे हमारा मन दुखी होता है। मन दुखी होता है, शरीर दुखी होता है, शरीर को कष्ट होता है यही है आध्यात्मिक दुख। अध्यात्मिक दुख मतलब यह नहीं कि आध्यात्मिक दुख, दुख होता है तो आध्यात्मिक कैसे होगा यह नहीं समझना। अध्यात्मिक मतलब अलौकिक या दिव्य ऐसी बात नहीं है। अध्यात्मिक मतलब आत्मा, आत्मा के कारण। केवल आत्मा को ही आत्मा नहीं कहते वैसे शरीर को भी, अभी मैं पढ़ रहा था वैसे सात अलग-अलग पार्टीज है उनको आत्मा कहते हैं। आत्मा भी आत्मा है, मन भी आत्मा है, बुद्धि भी आत्मा है और शरीर भी आत्मा है, ऐसे शब्दकोश मैं आपको अर्थ मिलेगा। आत्मा का अर्थ मूल तो आत्मा ही है। किंतु मन को और शरीर को भी आत्मा कहां है, तो मन दुखी हुआ शरीर दुखी हुआ तो इस दुख को अध्यात्मिक दुख कहां है।

मन हुआ दुखी या शरीर हुआ दुखी अध्यात्मिक दुख आदि भौतिक दुख दूसरे जीवो के कारण। आप में से कोई मुक्त है या आदि भौतिक दुखों से आप को कष्ट देने वाले, दुख देने वाले, आपको अपमानित करने वाले और बहुत कुछ या कायिक, वाचिक, मानसिक ढंग से आप को कष्ट पहुंचाने वाले कुछ कम नहीं होंगे और यह कोई अपवाद नहीं है। हर व्यक्ति हर मनुष्य को आदि भौतिक दुख झेलने पड़ते हैं। आदि भौतिक है, आध्यात्मिक है, आदि दैविक है। देवताओं के कारण देवताओं को कोप उनको आहुति नहीं चढ़ाते, जैसे इंद्र की पूजा बंद किए कृष्ण ने बंद किया, उन्होंने कहा गोवर्धन की पूजा करो इसी सामग्री से। हर वर्ष होने वाली यह इंद्र पूजा, इंद्र की आहुति जब उस एक साल या एक दिन नहीं हुई और जब यह समाचार इंद्र के पास पहुंचा अमरावती में वे अमरावती में रहते हैं। इंद्र की राजधानी का नाम है अमरावती। वहां सब समाचार पहुंचा तो इंद्र ऐसे क्रोधित हुए उन्होंने बदला लेना चाहा। इंद्र वर्षा के अधिकारी है तो उन्होंने बादलों को भेजा विशेष बादल उनको संवर्तक कहते हैं। संवर्तक बादल जब महाप्रलय का समय आता है, इस संसार को जल मय बनाना होता है, पानी पानी हर जगह, सब यह संसार पूरा ब्रह्मांड सारे चौदा भुवन डूब जाते हैं जल मय होते हैं। तो कितने वर्षा की आवश्यकता होगी, जल की आवश्यकता होगी उस समय। जिन बादलों का जिनका नाम है जिनको कहते हैं संवर्तक बादल। उन बादलों को आदेश हुआ, जाओ संवर्तक बादलों पूरे ब्रजभूमि को जल मय करो या वहां वृष्टी करो और डूबाओ पूरे ब्रज वासियों को। फिर उससे जो कष्ट हुआ या असुविधा हुई ब्रज वासियों को उसको आदि दैविक दुख कहते हैं। चाहे वह इंद्र के द्वारा है, शनि के द्वारा है या म्हसोबा है खंडोबा है या यह देवता है वह देवता है कई देवता है। कभी सूर्य देवता भी अपने तेज को और प्रखर बना सकते हैं। कई लोग कई किसान घर से गए खेत गए, लेकिन वहा जलकर मर गए जलकर या इतनी गर्मी ऐसा समय समय पर होता है। कुछ साल पहले इतनी गर्मी बढ़ गई तो कितने सारे सैकड़ों हजार किसान मर गए। बिचारे किसान ही थोड़े मैदान में होते हैं, उनका तो घर के अंदर काम नहीं होता है, वह तो बाहर खेतों में काम करने वाले तो परेशान हुए यहां तक कि मर गए। इसे कहां है आदि दैविक दुख।

शीत आतप, वात वरिषण
ए दिन यामिनी जागि’रे

हे मन लिख लो या समझो, भाई है मन, यहां तो इस संसार में परेशानी ही परेशानी है। इसीलिए क्या करो भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन तुम नंदनंदन का भजन करो तरह ए भव सिन्धु रे ताकि यह संसार जो भवसागर, ऐसा है यह भवसागर। सागर है यही तो अच्छा नहीं है, सागर में तो फिर तैर ने की क्षमता नहीं है। जरूर डूब जाएंगे, डूबने के उपरांत मरेंगे, मर के जिएंगे, पुन: जन्म होगा, पुनः डूबेंगे। इसीलिए हे मन होश में आओ ऐसा कहिए। हरि हरि। ठीक है हम यही रुकेंगे बचे हुए भजन को कल हम हो सकता है आगे बढ़ाएंगे।

कुछ प्रश्न है या कमेंट है तो आप लिखिए। हां कुछ प्रश्न नहीं, हां सारा स्पष्ट ही तो है। आपने सुना सुन रहे थे सब। यह सुनने के बाद तो हमको मंदिर दौड़ना चाहिए या घर का मंदिर बनाना चाहिए। घर का भवसागर नहीं बनाना या घर का सिनेमाघर नहीं बनाना। यह सब सुनने के बाद मैंने कहा कि भगवान की और दौड़ना चाहिए या मंदिर दौड़ना चाहिए। तो अपने घर का ही मंदिर बनाओ और बचाव स्वयं को तर जाओ। नहीं तो ऐसे घर को अंधकूपम कहां है। घर क्या बन सकता है, होता ही है अंधकूपम कूपम मतलब कुवा कैसा कुवा अंधेरा कुवा। कुवे को अंधेरा कुवा क्यों और कब कहते हैं, जब कुवा बहुत गहरा होता है।

तो यह गृह गृहमेधियोंका जो घर होता है उसे अंधकूपम कहा गया है। यन्मैथुनादिगृहमेधिसुखं हि तुच्छं जहां गृहमेधि क्या करते हैं यन्मैथुनादि मैथुन जैसा तुच्छ सुख भोगने का उनका प्रयास होता है। पुन: पुनश्चर्वितचर्वणानाम् पुन: पुन: उसको चबाते रहते हैं। एक बार चबा लिया फिर थूक भी दिया यह अच्छा नहीं है ऐसा लगा फिर पुनः। तो इस तरह अपने घर को मंदिर बनाओ ब्रह्मचारी तो पहुंचते हैं मंदिर में असली मंदिर में पहुंच गए। गृहस्थ को अपने घर का मंदिर बनाना चाहिए और केवल घर का ही नहीं मंदिर दिल एक मंदिर है। अपने दिल को, अपने ह्रदय को, अपने मन को मंदिर बनाओ। मोर मन वृंदावन चैतन्य महाप्रभु कहां करते थे मेरा मन ही वृंदावन है। और प्रभु आप वृंदावन में रहना पसंद करते हैं आपकी पसंद है वृंदावन में रहना। आप पसंद करते हो तो मेरे मन रूपी वृंदावन में आप रहो। मोर मन वृंदावन रथ यात्रा के समय चैतन्य महाप्रभु ऐसी प्रार्थना करते थे। मेरे मन में रहो या फिर भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन वही बात है, हे मन नंदनंदन का भजन करो।
हरे कृष्ण।