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जप चर्चा ३०.०५.२० विषय:- गौड़ीय वैष्णववाद की सर्वोत्कृष्टता को समझना। हरि! हरि!मैं ठीक हूँ, आप ठीक हो? संसार में ऐसा चलता रहता है। हरि! हरि! आप सब ठीक हैं, यस। चैतन्या पदम् गंधा ठीक हो? और आप सभी? हरि! हरि!
आज 808 स्थानों से जप हो रहा है, आप का सुस्वागतम है। इस प्रकार हम हर प्रातः काल मिलते हैं। सुप्रभात! हमारी मॉर्निंग मिलने के कारण गुड़ मॉर्निंग चल रही है। हम केवल मिल ही नही रहे हैं अपितु हम भगवान के साथ भी मिलने का प्रयास कर रहे हैं। जप करना हमारा वही प्रयास है, इससे हमारी प्रातः शुभ व मंगल दायक होती है। जब हम एकत्रित होकर जप योग करते हैं तब हम केवल एक दूसरे से ही नहीं मिलते, एक दूसरे का ही सान्निध्य लाभ ही नहीं उठाते अपितु हम भगवान के साथ सान्निध्य करने का प्रयास करते हैं। हम साधना करते हैं ताकि हमें भगवान का सान्निध्य प्राप्त हो। भगवान का दर्शन हो या भगवान का साक्षात्कार हो पाए। हरि! हरि! आगे बढ़ते हैं, यह केवल परिचयात्मक टिप्पणी थी, अब आगे कुछ कहेंगे। आप के प्रश्नों के उत्तर भी देने हैं। आप की समस्याओं का समाधान भी करना है (पदमावली प्रभु, प्रश्न कहाँ है? भक्तों ने जो प्रश्न पहले पूछे थे? तुम उसे मुझे फारवर्ड कर् दो ताकि उनके उत्तर दिए जा सकें।) हरि! हरि! (जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द। श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। एक प्रस्तुतिकरण है, इसका नाम गौड़ीय वैष्णववाद की सर्वोत्कृष्टता को समझना है- पता नहीं, हम इस प्रेजेंटेशन के संबंध में कितना बता पाएंगे! परन्तु ऐसा हो सकता है कि हम हर रोज थोड़ा थोड़ा इसके विषय में बताएं। यह प्रस्तुतिकरण बहुत ही महत्वपूर्ण है, इसे समझना बहुत महत्वपूर्ण है। आप अंग्रेजी में इसका शीर्षक पढ़ रहे होंगे। अंडरस्टैंडिंग द सुपर एक्सीलेंस ऑफ द गौड़ीय वैष्णवनिज्म अर्थात गौड़ीय वैष्णववाद की सर्वोत्कृष्टता को समझना। आप गौड़ीय वैष्णव हो। आप कौन हो? स्वर्णमंजरी, तुम कौन हो? केवल वैष्णव या वैष्णवी ही नहीं अपितु कई सारे वैष्णव भी होते हैं। वैष्णव संप्रदाय भी हैं किंतु गौड़ीय वैष्णव होना कुछ खास बात है, कुछ विशेष बात है। विशेष क्या है?गौड़ीय वैष्णव होना एक सर्वोत्कृष्ट बात है। हरि!हरि! गर्व से कहिए हम गौड़ीय वैष्णव हैं। बहुत अच्छा! गर्व से कहिए हम कौन हैं? गौड़ीय वैष्णव हैं। गौड़ीय वैष्णवों की जय! गौड़ीय वैष्णव भक्तवृंदों की जय! यदि आप गौड़ीय वैष्णव बनोगे तो आप सभी की जय। वैसे आप इस अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ में आकर गौड़ीय वैष्णव बन तो रहे ही हो। गौड़ीय वैष्णव इस्कॉन ही है, यह हरे कृष्ण आंदोलन ही गौड़ीय वैष्णवता है, गौड़ीय वैष्णवता का आंदोलन। सभी तो नहीं किंतु कुछ विशेषताओं के कारण गौड़ीय वैष्णव सर्वोत्कृष्ट बनते हैं अर्थात कुछ अलग-अलग क्षेत्रों में या अलग अलग विभागों में सर्वोत्कृष्ट बनते हैं । इसे विभाग या प्रकार कह सकते हैं। १) अचिंत्यभेदाभेद तत्व:- हर संप्रदाय का अपना एक तत्व होता है या उनका वेदांत सूत्र पर भाष्य होता है। फिर उनको नाम देते हैं वशिष्ट अद्वैत तत्व, द्वैताद्वैत तत्व, द्वैत तत्व। शंकराचार्य एक वैष्णव नहीं थे। उन्होंने वैष्णवता का प्रचार नहीं किया इसलिए उनका अद्वैत तत्व निकृष्ट है। इन सभी तत्वों में गौड़ीय वैष्णव का जो तत्व अथवा सिद्धांत है जिसका नाम अचिंत्यभेदाभेद तत्व है, वह सर्वोपरि है। बलदेव विद्याभूषण जी ने इसे सिद्ध किया। गौड़ीय संप्रदाय ही सर्वोत्कृष्ट संप्रदाय है। पदम् पुराण में वर्णित है- सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फला मताः। अनुवाद:- यदि कोई मान्यता प्राप्त गुरु शिष्य परंपरा का अनुसरण नहीं करता तो उसका मंत्र या उसकी दीक्षा निष्फल है। सम्प्रदायविहीन मंत्र अर्थात आपको मंत्र तो मिला लेकिन किसी संप्रदाय से नहीं मिला। अथवा यह किसी संप्रदाय का मंत्र ना होकर संप्रदाय के बाहर का मंत्र है। इसका अर्थ है यह प्रमाणिक नहीं है, उसका कोई प्रमाण नहीं है, कोई अथॉरिटी नहीं है। सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फला मताः अर्थात जिस मंत्र का किसी सम्प्रदाय या परंपरा से संबंध नहीं है। कुछ उटपटांग ही संस्थाओं या तथाकथित किसी गुरुजन से मंत्र लिया गया है तो वह निष्फला मताः अथवा विफल है अर्थात उससे कोई फल प्राप्त नहीं होगा। एक होता है विफल और दूसरा होता है सफल। यह बातें छोटी छोटी हैं, विफल दूसरा सफल। इन दोनों को सदा के लिए याद रखना चाहिए। हम यहां थोड़ा विस्तार से बता रहे हैं। हमारा आधा समय तो बीत गया। हरि! हरि! २) गौड़ीय वैष्णव:- सभी सम्प्रदायों में गौड़ीय सम्प्रदाय एक विशेष सम्प्रदाय या एक सर्वोत्कृष्ट सम्प्रदाय है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय! चैतन्य महाप्रभु के कारण या श्री कृष्ण के कारण या राधा कृष्ण के कारण यह गौड़ीय सम्प्रदाय सर्वोत्कृष्ट है। ३) रागानुग साधन भक्ति- साधन भी कैसा हो? रागानुग साधन। यह भी गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय की या गौड़ीय वैष्णवों की सर्वोत्कृष्टता है। वे रागानुग साधन भक्ति करते हैं। राग या अनुराग यह अलग अलग भाव है। माधुर्य, वात्सल्य या सख्य के रस, राग या भाव, भक्ति। उसमें भी साख्य के भी कई प्रकार हैं, माधुर्य के भी प्रकार हैं, उनमें भी सर्वोत्कृष्ट माधुर्य राग मार्ग हैं। हमारे मार्ग का नाम ही रागमार्ग है। हम अवलंबन करते हैं। राग व अनुग मतलब राग का अवलंबन करने वाले राग- अनुग। मैं पहले भी कहता रहता हूं इस पर ध्यान दीजिए। राग-अनुग से शब्द हुआ रागानुग। राग मतलब राग, अनु मतलब पीछे-पीछे अवलम्बन करना और ग मतलब पीछे-२ जाना अवलम्बन करना। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने हमें नंद बाबा जैसी भक्ति साधना या वैष्णव गोपियों जैसी भक्ति साधना करने के लिए कहा है। आराध्यो भगवान ब्रेजेश तनय:- ,तत्-धाम वृन्दावनम्। रम्या काचित् उपासना व्रजवधु-वर्गेन वा कल्पिता।। श्रीमद् भागवतं प्रमाणं अमलं प्रेम पुमर्थो महान्। श्री चैतन्य महाप्रभोर मतं इदं तत्रादरो न परः।। (चैतन्य मञ्जुषा) अनुवाद:- भगवान बृजेंद्र नंदन श्री कृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभव युक्त उनका श्रीधाम वृंदावन आराध्य वस्तु है। व्रज वधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी, वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है। श्रीमद् भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्द प्रमाण है एवं प्रेम ही पुरुष पुरुषार्थ है- यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धांत हम लोगों के लिए परम आदरणीय है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहते हैं कि व्रजवधु-वर्गेन- ब्रज की वधू अर्थात गोपियां। उनकी भक्ति की पद्धति या भाव या उनका जो राग है, उसका अवलंबन करो। ऐसी भक्ति करना ही रागानुग साधन भक्ति कहलाता है और यही गौड़ीय वैष्णव परंपरा का विशिष्ट है। ४) गोलोक धाम- गोलोक धाम की जय! धाम तो धाम होता है। सभी धाम हैं, वैकुंठ धाम, साकेत धाम , फिर गोलोक धाम भी है। गोलोक में मथुरा धाम है और द्वारिका धाम भी है। गोलोक में वृंदावन भी है। वृन्दावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति (लघु भागवतामृत 1.5.461) अर्थात ''मैं वृन्दावन छोड़ एक पग भी नही जाता।'' भगवान जहाँ रहते हैं, कौन से भगवान? कृष्णस्तु भगवान स्वंयम। गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु। ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येन गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ यह गोलोक धाम वैसे ही सर्वोपरि और सर्वोत्कृष्ट है। गौड़ीय वैष्णव उस गोलोक धाम को अपना अंतिम गंतव्य स्थान बनाते हैं।रास्ते में कहीं भी नहीं रुकते। चाहे स्वर्ग आ गया या अन्य लोक आ जाए, वे वहाँ से आगे बढ़ते रहते हैं। ऊपर चढ़ते रहते हैं और गोलोक में अवतरण(लैंडिंग) होती हैजो कि सर्वोपरि है। गोलोक धाम गौड़ीय वैष्णवों की पसंद है हम और कहीं नहीं रुकेंगे, सीधे वही जाएंगे। गोलोक धाम् की जय! ५) रस विचार:-रस विचार, रस तत्व भी है, रस शास्त्र भी है। हरि! हरि! द्वादश रस भी हैं। सात गौण और पांच मुख्य रस हैं। इन सभी रसों में भी सर्वोपरि सर्वोत्कृष्ट रस भी है। अनर्पित चरिम चिरातकरुंयावतीर्ण: कलौ समरयितुमुन्नतुज्जवल- रसां साव-भक्ति-श्रियं।हरि:पुरट-सुंदर-द्युति-कंदम्ब-संदीपित: सदा हृदय-कंदरे स्फुरतु व: शची- नंदन:।। ( श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.4) अनुवाद: श्रीमती शचीदेवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके हृदय की गहराई में दिव्य रूप में विराजमान हैं। पिघले सोने की आभा से दीप्त, वे कलियुग में अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी सेवा के अत्यंत उत्कृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को, जिसे इसके पूर्व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया था, प्रदान करने के लिए अवतीर्ण हुए हैं। उन्नत उज्जवल रस माधुर्य रस है और उसे देने के लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु यह सर्वोत्कृष्ट माधुर्य रस देने के लिए व उसका आस्वादन करने हेतु भी प्रकट हुए। गौड़ीय वैष्णव रस विचार, रस शास्त्र में प्रवीण होते हैं और भली-भांति जानते हैं कि सर्वोकृष्ट रस कौन सा है और वे उसी का आस्वादन भी करते हैं। ६) भागवत व चैतन्य चरितामृत की सर्वोत्कृष्टता:- यहां भागवत व चैतन्य चरितामृत की सर्वोत्कृष्टता पर विचार हो रहा है। उसका एक आधार यह एक श्लोक या वचन ही है। आराध्यो भगवान ब्रेजेश तनय:- ,तत्-धाम वृन्दावनम्। रम्या काचित् उपासना व्रजावधु-वर्गेन वा कल्पिता।। श्रीमद् भागवतं प्रमाणं अमलं प्रेम पुमार्थो महान्।श्री चैतन्य महाप्रभोर मतं इदं तत्रादरो न परः।। (चैतन्य मञ्जुषा) अनुवाद:- भगवान बृजेंद्र नंदन श्री कृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभव युक्त उनका श्रीधाम वृंदावन आराध्य वस्तु है। व्रज वधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी, वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है। श्रीमद् भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्द प्रमाण है एवं प्रेम ही पुरुष पुरुषार्थ है- यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धांत हम लोगों के लिए परम आदरणीय है। हर गौड़ीय वैष्णव को यह श्लोक आना चाहिए अर्थात हमें इस श्लोक से परिचित होना चाहिए। हमें इसे केवल कंठस्थ ही नहीं अपितु इसको हृदयंगम करना चाहिए। तत्पश्चात आप दावा कर सकते हो, हां, मैं गौड़ीय वैष्णव हूं क्योंकि मैं जानता हूं, क्या जानता हूँ। श्री चैतन्य महाप्रभोर मतं- श्री चैतन्य महाप्रभु के मत को मैं जानता हूं। संसार में कई सारे मत मतान्तर हैं किंतु चैतन्य महाप्रभु का मत कैसा है- मतं इदं। यह है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का मत। हरि! हरि! यह श्लोक अथवा मंत्र चैतन्य मंजूषा नामक ग्रंथ से है। चैतन्य मंजूषा श्री नाथ द्वारा रचित है। एक विश्वनाथ चक्रवर्ती हैं और दूसरे श्रीनाथ चक्रवर्ती हैं। चैतन्य महाप्रभु के समय श्रीनाथ चक्रवर्ती थे, आपने कविकर्णपुर का नाम सुना है। कविकर्णपुर के गुरु श्री नाथ चक्रवर्ती जी थे। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर , जीव गोस्वामी सनातन गोस्वामी, श्रीधर गोस्वामी... आदि के जैसे श्रीनाथ चक्रवर्ती के भी कमैंट्स हैं अथवा इनके भी ग्रंथ हैं। चैतन्य मंजूषा नामक भी उनका एक ग्रंथ है। आराध्यो भगवान ब्रेजेश तनय: उसी में से यह एक वचन है। यह सर्वोत्कृष्ट बातें जो बताई जा रही हैं, इसका आधार वैसे श्रीनाथ चक्रवर्ती द्वारा रचित चैतन्य मंजूषा का यह श्लोक है जो भगवान चैतन्य महाप्रभु के मत को स्पष्ट अर्थात मत प्रदर्शित करने वाला है। गौड़ीय वैष्णव की उत्कृष्टता का आधार क्या है अर्थात आधार ग्रंथ क्या है? श्रीमद्भागवतम और साथ ही साथ चैतन्य चरितामृत, चैतन्य भागवत। बहुत सारे भक्त केवल भागवत तक पहुंच पाते हैं लेकिन गौड़ीय वैष्णव श्रीमद्भागवतम् से आगे बढ़ते हैं और एक और ऊंचा उत्कृष्ट ग्रंथ चैतन्य चरितामृत का आस्वादन करते हैं। यदि आपने भागवत का अध्ययन किया है तो आप ग्रेजुएट हो गए अर्थात आपका ग्रेजुएशन हो गया। या कह सकते हैं एक प्रकार से आपकी बी टेक हो गयी लेकिन जो चैतन्य चरितामृत पढ़ते हैं, वे एमटेक हो गए। मास्टर ऑफ टेक्नोलॉजी। श्रील प्रभुपाद समझाते थे कि भागवतम् का अध्ययन ग्रेजुएशन है तो चैतन्य चरितामृत का अध्ययन पोस्ट ग्रेजुएशन है। यह हमारा गौड़ीय वैष्णवों का सिलेबस है। हमारी टेक्स्ट बुक कौन सी है? गीता, भागवत, चैतन्य चरितामृत। ये हमारे सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ हैं। ७) पूर्ण पुरषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण व श्री चैतन्य महाप्रभु :- गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि वैसे और भी पुरुष हैं, नारायण भी हैं, दत्तात्रेय भी हैं, द्वारकाधीश और भी कई सारे हैं परंतु उनमें से एक आदि पुरुष गोविंद है जोकि वृंदावन में रहते हैं। एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान स्वयम। इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे।। (श्रीमद् भागवतम १.३.२८) अनुवाद:- उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश (कलाएं) हैं, लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरषोत्तम भगवान हैं। वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं। भगवान आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं। भगवान आदि है, अद्वैतम अच्युतम हैं।अद्वैत मतलब वे कृष्ण से भिन्न नहीं है। वे दो नहीं है, वह एक ही है। कृष्णस्तु अद्वैतम अच्युतम अर्थात उनमें से कभी च्युत नहीं होता अर्थात पतन नही होता। अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम् आद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च। वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।। वे सब में रहते हैं और उन सभी में श्री कृष्ण और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु विशिष्ट हैं, वे विशेष हैं। वे पहली मोमबत्ती हैं। ब्रह्म संहिता में वर्णन है कि पहली मोमबत्ती जलाई फिर दूसरी जलाई... कई सारी जलाई। जल रही हैं तो ठीक हैं।लेकिन पहली कौन सी मोमबत्ती है? वो कृष्ण हैं। यदि पहली मोमबत्ती नहीं होती तो फिर दूसरी तीसरी चौथी भी नहीं होती। ऐसी और भी बातें है जिनका इस प्रस्तुतिकरण में उल्लेख नहीं किया है। जैसे गौड़ीय वैष्णवों का सर्वोत्कृष्ट महामंत्र होता है और क्या बचा? गौड़ीय वैष्णवों का प्रसाद। गौड़ीय वैष्णव जितना महात्यम प्रसाद का जानते हैं, उतना सचमुच कोई नहीं जानता। चैतन्य महाप्रभु ने भी प्रसाद के गुणों के विषयों में अपने व्यकितगत अनुभवों का वर्णन किया है। भाई-रे! एक-दिन शांतीपुरे, प्रभु अद्वैतेर घरे, दुइ प्रभु भोजन बसिल शाक करि आस्वादन, प्रभु बले भक्त-गण, एइ शाक कृष्ण आस्वादिल॥1॥ अनुवाद:- (1) हे भाइयों! एक दिन शांतिपुर में, दोनों प्रभु, श्रीचैतन्य महाप्रभु और नित्यानंद प्रभु, अद्वैत प्रभु के घर मे दोपहर भोजन के लिए बैठे थे। आश्चर्यजनक साग का आस्वादन करने के पश्चात्-चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “मेरे प्रिय भक्तों, यह साग इतना स्वादिष्ट है, भगवान् कृष्ण ने अवश्य ही इसको चखा है। ” महाप्रभु अद्वैत आचार्य के घर में हैं और कह रहे हैं एइ शाक कृष्ण आस्वादिल ... मैंने अभी अभी साग का आस्वादन किया। भगवान ने इसका आस्वादन किया होगा, निश्चित ही किया होगा, नहीं तो इतना मीठा प्रसाद। भगवान की लार इसमें मिक्स भी हुई होगी तभी तो भगवान के भक्त, कृष्ण प्रसाद ग्रहण करने के लिए इतने उत्कण्ठित रहते हैं। यह सारा आध्यात्मिकता है। वैसे अन्य धर्मों या सम्प्रदायों में प्रसाद की इतनी महिमा नहीं हैं, जितनी गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय में हैं। महाप्रसाद की महिमा गोलोक जैसे है। हरि! हरि! इसलिए हमारे धर्म को केवल गौड़ीय वैष्णव नहीं कहा जाता , इसे किचन रिलीजन भी कहा जाता है। धर्म के केंद्र में क्या है? रसोई है।जहां कृष्ण हैं, वहां पास में भगवान का रसोईघर होता है। कृष्ण से कृष्ण की रसोई अलग नहीं की जा सकती। कृष्ण के जीवन से प्रसाद अभिन्न है, ठीक है। हमने अभी गौड़ीय वैष्णवता की विशिष्टता जो स्लाइड आप देख रहे हो, उसे सारा कवर नहीं किया है। आप ही बता सकते हैं? क्या क्या बचा है और क्या-क्या इस सूची में आ सकता था। हमने एक दो आइटम बताएं जो इसमें नहीं हैं लेकिन इसमें होने चाहिए थे। इसलिए आप भी सोचिए। यह मैं केवल जो मेरे सामने प्रत्यक्ष बैठे हैं, उन्हीं से नहीं कह रहा हूं, मेरा निवेदन आप 800- 900 गौड़ीय वैष्णव जो इस प्रस्तुतिकरण को देख और सुन रहे हैं , आप सभी से है। आप सोचकर लिखिए। उत्सव का एक नाम बताया जा रहा है। वैसे हमनें इस टॉपिक पर मायापुर में दो वर्ष पहले एक सेमिनार दिया था।यह हमारी लीडरशिप संघ नामक संघ जो हर 2 साल के उपरांत होता है, यह उसके सेमिनार का टॉपिक है, यह प्रेजेंटेशन वहाँ दिया था लेकिन यह पूर्ण नहीं है तो आपकी मदद से हम इसे पूर्ण कर सकते हैं। मेरा विचार है कि इस विषय पर एक पुस्तक और ग्रंथ की रचना भी होनी चाहिए। हरिबोल! अच्छा! आप का भी अनुमोदन है। अब आप सब लिखिए।कुछ मिनट के लिए चैट सेशन ओपन है आपके कोई प्रश्न या कमैंट्स है, वो भी लिखिए और इस सर्वोत्कृष्ट सूची में कौन कौन से टॉपिक ऐड किए जा सकते हैं , वह भी आप लिखिएगा। उसका हम प्रयोग करेंगे। आपके प्रश्नों का भी उत्तर कभी भविष्य में देने का प्रयास करेंगे। केवल अवसर प्राप्त हो जाना चाहिए। हरे कृष्ण। धन्यवाद!