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जप चर्चा 5 जुन 2020 पंढरपुर धाम
विषय-गौड़ीय वैष्णवता की सर्वोत्कृष्टता
श्री गुरु गौरांग जयते
765 स्थानों से जप हो रहा है सबका स्वागत है, आप सब तैयार हो जप चर्चा के लिए। गौड़ीय वैष्णवों कि सर्वोत्कृष्टता के उस प्रस्तुतीकरण को आगे बढ़ाते हैं और फिर आज भी एक विशेष दिन है, जगन्नाथ स्नान यात्रा महोत्सव की जय। जगन्नाथ स्नान यात्रा का भी स्मरण करना अनिवार्य है इसी सत्र के अंतर्गत हम जगन्नाथ स्नान यात्रा का भी थोड़ा सा स्मरण करेंगे। पहले तो सर्वोत्कृष्टता गौड़ीय वैष्णवीजम की जय! आप सभी गौड़ीय वैष्णव बन रहे हो।
विश्रम माधुर्य रस की चर्चा तो हो चुकी है विश्रम साख्य विश्रम दास्य विश्रम वात्सल्य यह गौड़ीय वैष्णवता की सर्वोत्कृष्टता है। वैसे तो ऐश्वर्य मिश्रित, साख्य ऐश्वर्य मिश्रित, दास्य ऐश्वर्य मिश्रित, वात्सल्य लक्ष्मी नारायण के भक्त, द्वारकाधीश के भक्त जानते हैं दास्य साख्य माधुर्य। परन्तु ब्रज केे भक्त गौड़ीय भक्त मतलब वृंदावन के भक्त। ब्रजेंद्रनंंदन के भक्तों के लिए ब्रजेंद्रनंंदन ही सर्वोपरि हैं।
भगवान द्वारिका मे पुर्ण हैं। भगवान मथुरा मे पुर्णतर हैं। भगवान वृंदावन मे पुर्णतम हैं।
यह तर तम भाव भगवान के संबंध में भी है, यह पूर्णतर पूर्णतम बनते हैं भगवान अपने विश्रम माधुर्य भाव के कारण, विश्रम साख्य भाव के कारण, विश्रम वात्सल्य भाव के कारण।
परकीय भावे जहां ब्रजेते प्रचार जय जय ज्वल रस सर्व रस सार।
द्वारिका में भगवान के विवाह होते हैं भगवान द्वारिकाधीश बनते हैं उनकी 16108 रानियां हैं। उनके साथ उनके जो संबंध हैं जैसे पत्नी बनती हैं रुक्मणी, तो पति बनते हैं द्वारकाधीश। यह पति पत्नी का भाव स्वकीय भाव कहलाता है किंतु वृंदावन में भगवान का गोपियों के साथ या फिर राधा के साथ संबंध है, वह संबंध परकीय भाव कहलाता है। वृंदावन में जो प्रचार, अनुभव कृष्ण के साथ संबंध है वह परकीय भाव स्वकीय से परकीय श्रेष्ठ है।
रम्याकाचित उपासना ब्रजवधु वर्गे न याकल्पिता गौड़ीय वैष्णव परंपरा केे आचार्य श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु आचार्य बने हैं आपने आचारेे प्रभुु जगत सिखाय अपने आचरण से प्रभु पूर्ण जगत को सिखा रहे हैं, गौड़ीय वैष्णविजम में प्रभु अपने मत को व्यक्त करते हैं, वह कहते हैं रम्याकाचित उपासना ब्रजवधु वर्गे न याकल्पिता आप भी कैसी आराधना करो मतलब ब्रज की जो वधूये हैं, गोपिया हैं, गोपियों का जो भाव, आराधना की पद्धति, भक्ति उसको आदर्श रखो और भक्ति करो चैतन्य महाप्रभु की यही शिक्षा है।
गौड़ीय वैष्णवता कि सर्वोत्कृष्टता ग्रंथ के दृष्टि से देखा जाए तो श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने कहा श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभुर मतमिदम् तत्रादधो ना परः। गौड़ीय वैष्णवता का आधार वह मंत्र, चैतन्य मंजूषा का वह वचन श्रीमद्भागवतम प्रमाण अमलम प्रेमपुमर्थो महान
जहां तक शास्त्र की बात है तस्मात् शास्त्र प्रमाणर्ते कृष्ण ने गीता में कहा। शास्त्रों में कौन से शास्त्रों का प्रमाण श्रीमद भागवतम की जय! क्यों भागवत सर्वोच्च प्रमाण है, अमल पुराण है और भी कई सारे पुराण हैं, लेकिन वे मलिन है उसमें मल है, उसमें तमोगुण का मल है, रजोगुण का मल है, उसमेंं सत्व गुण का भी मल है। सत्व गुण में कम मल होता है लेकिन सत्व गुण भी प्राकृतिक है इसीलिए 6 पुराण तामसिक, 6 पुराण राजसिक लेकिन ग्रंथ राज भागवतम गुणातीत। तीन गुणों से परे इसीलिए चैतन्य महाप्रभु का है श्रीमद भागवतम प्रमाणम अमलम, कैसा प्रमाण श्रीमद भागवतम अमल है और इसीलिए श्रीमद्भागवत का श्रवण चैतन्य महाप्रभु किया करते थे। श्रीमद् भागवत की कथा सुनने के लिए महाप्रभु टोटा गोपीनाथ मंदिर जाया करते थे और गदाधर पंडित प्रभु के मुखारविंद से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नित्य श्रीमद् भागवत की कथा सुना करते थे।
हरी हरी ,श्रीमद्भागवतम तो हमारा शास्त्र है, यह गौड़ीय वैष्णव का हमारा धर्म ग्रंथ है और भी चैतन्य भागवत, चैतन्य चरितामृत, चैतन्य मंगल हमारे ग्रंथ हैं इन सभी ग्रंंथ में और अधिक माधुर्य का उल्लेख होता है। मधुराधिपते अखिलम मधुरम श्रीकृष्ण का माधुर्य इसका वर्णन श्रीमद्भागवत से भी अधिक है। चैतन्य भागवत, चैतन्य चरितामृत राधा कृष्ण की लीला, माधुर्य रस श्रृंगार रस लीला रासलीला इसका वर्णन तो संक्षिप्त ही प्राप्त होता है। श्रीमद्भागवतम में शुकदेव गोस्वामी को समस्या आती हैै वह सारी मधुर लीला कहने में, राधा का स्मरण राधा का नाम लेना भी उनके लिए मुश्किल था । जानबूझकर वे राधा का नाम नहीं ले रहे थे इसीलिए उन्होंने क्या कहा राधे तो अनयाराधितो नमः अराधितो आराधना करने वाली , ईश्वर की आराधना करने वाली के तो यहां चरणकमल होंगे इस संदर्भ मेंं शुकदेव गोस्वामी अप्रत्यक्ष राधारानी का उल्लेख करते हैं ।
यह नहीं कि भागवत में राधारानी नहीं है, जरूर हैं किंतु शुकदेव गोस्वामी जिनकी आराध्या ही राधा रानी हैं, हर एक के अपने आराध्य देव या इष्ट देेव होते हैं, शुकदेव गोस्वाामी की आराध्या राधारानी हैं। इसीलिए राधा रानी को शुुकेेे्ष्टा कहते हैं शुकदेव गोस्वामी की इष्टा। शुकदेव गोस्वामी जिनकी आराधना करते थेे , उस राधारानी का नाम माात्र है श्रीमदभागवतम मे। किंतुु आप अधिक रसास्वादन करना चाहतेे हो तो मुड़ना होगा चैतन्यचरितामृत की ओर । चैतन्य भागवत में यह लीलाएं वृंदावन दास ठाकुर ने कम ही लिखी हैं , चैतन्य महाप्रभु के अंतिम दिनोंं की जगन्नाथ पुरी की जो लीलाएं हैं, जग्गनाथपुरी जहां 18 साल महाप्रभु रहे, उन की लीलाएं, उनके अनुभव, उनके साक्षात्कार , इसका उल्लेख तो चैतन्य चरितामृत मैं ही है। चैतन्य चरितामृत यह एक विशेष ग्रंथ है, कृष्णदास कविराज गोस्वामी की देन है। इसके साथ गौड़ीय वैष्णव के जो ग्रंथ हैं, शास्त्र हैं, वह सर्वोपरि बन जाते हैं।
साथ ही साथ गौड़ीय वैष्णव के जो साहित्य हैं, षडगोस्वामीने कितने सारे ग्रंथ जैसे भक्तिरसामृतसिंधु, बृहदभागवत जो सनातन गोस्वामी की रचना है और षड़़ गोस्वामी वृन्द ने ग्रंथ लिखे। आचार्य त्रय जो तीन आचार्यों का समूह हैं नरोत्तम दास ठाकुर, श्यामानंद पंडित और श्रीवाास आचार्य इनके भी साहित्य, इनके भी ग्रंथ, फिर आगेेे बढ़ते हैं विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के ग्रंथ उनकी टीकाये और फिर आगे बढ़तेे हैं तो श्रील भक्तिविनोद ठाकुर , श्रील भक्तिसिद्धांत ठाकुर, श्रील प्रभुपाद के ग्रंथ । यह जो ग्रंथों का भंडार है, उसको भंडार या खजाना उसकी जो मात्रा है, भाव की भक्ति से उसमें रचनाएं हुई है, लेखन हुआ है यह अद्वितीय है। इतने सारे ग्रंथ और इतने उच्च कोटि के भक्ति भाव का वर्णन, और किसी संप्रदाय में और किसी धर्म में, जो तथाकथित धर्म है उसमें इतने सारे ग्रंथ नहींं मिलेंगे। हम जानेंगे इतने सारे ग्रंथ और ग्रंथों मेें जो भक्ति भाव है यही सर्वोत्कृष्टता है गौड़ीय वैष्णवता की।
जय ब्रह्मा, ब्रह्मा देव की जय इनके मुख से चार वेद निकले, चतुर्मुख ब्रह्मा है, एक मुख से एक वेद, दूसरे मुख से दूसरा वेद इस तरह चार मुख से चार वेद । लेकिन यह वेद उनके दिमाग सेे नहीं, यहां रचना उनकी नहीं है। चतुरशलोकि भागवत कहते हैं तेने हृदय आदि कवये( श्रीमद भागवतम 1.1.1)
वेद अपौरूषेय हैं, भगवान ने भी नहीं लिखें, भगवान शाश्वत हैं वेद भी शाश्वत हैं। ऐसा समय नहीं था जब वेद नहीं थे, वेद मतलब उपनिषद भी, वेदांत सूत्र भी, वेद मतलब पुराण भी, वेद मतलब महाभारत भी, वेद मतलब पंचरात्र भी ऐसेे ही कुछ इसी तरह वेद मतलब शास्त्र भी , जिनकी मदद से हम भगवान को जान सकते हैं। वैदिक ज्ञान की दो शाखाएं एक को कहते हैं श्रुति और एक को स्मृति। श्रुति तो अपौरूषेय है, वेद श्रुति हैं उपनिषद वेदांत सूत्र यह श्रुति है तो स्मृति है सारे पुराण महाभारत श्रीमद भगवतम। चार वेद हैं और हर वेद के 4 विभाग होते हैं उनको कहते हैं संहिता। हर वेद की संहिता होती है। हर वेद में ब्राम्हण, हर वेद में उपनिषद, वेद में अरण्य ऐसे होते हैं। वैसे उपनिषद कोई अलग अंग नहीं है वेद का ही अंग होता हैै, उपनिषद सारे पुराण, श्रीमद् भागवत, इतिहास षड्दर्शन , सांख्य योग , वैशशीखा, न्याय षड्दर्शन में वेदांत दर्शन व्यास देव की रचना है। षड्दर्शन मेंं वेदांत श्रेष्ठ है यह व्यासदेव की ही रचना है।
गौड़ीय वैष्णव वेदांत दर्शन को अपनाते हैं, धार्मिक लोगों का आधार सांख्य पर ही है तो किसी का अनन्या मीमांसा । पूर्व मीमांसा में सारा कर्मकांड है कर्मकांड विषेर भांंड षडदर्शनों का सार है वेदांत सूत्र और गौड़ीय वैष्णव वेदांत को मानते हैं। वेदांत हमारा धर्म ग्रंथ है, फिर उपनिषद को साररूप या सूत्र रूप में कहा तो वह बन गए वेदांत सूत्र। उपनिषद का सार है वेदांत सूत्र, ब्रह्मसूत्र और वेदांत सूत्र का भाष्य है श्रीमद भगवतम , वेदांत सूत्र पर भाष्य लिखे श्रील व्यासदेव ने। प्रभुपाद बारंबार लिखते हैं वेदांतसूत्रों की नैसर्गिक भाषा हैं श्रीमद भगवतम। जिन्होंनेेेे वेदांत सूत्र लिखा, उन्होंने वेदांत को समझाया कुछ बातों का स्पष्टीकरण करनेेे के लिए या उसका भावार्थ गहन अर्थ समझने के लिए, टीकाये भाष्य लिखे जाते हैं
और वेदांत सूत्र का भाष्य है, वेदांत सूत्रों पर भाष्य लिखे हैं श्रील व्यासदेव। उन्होंने स्वयं वेदांत सूत्रोंं की रचना की। सूत्र समझने में कठिन हो जाते हैं, सूत्र होते हैं , सूत्र कोड भाषा "अथातो ब्रह्म जिज्ञासा"। तो ज्यादा कुछ समझ में नहीं आता तो इस तरह, शब्द योनित्वहात इत्यादि...। वेदांत सूत्र पर भाष्य लिखा श्रील व्यासदेव ने। अर्थो अयं ब्रह्म सूत्रानांं.. गरुड़ पुराण और चैतन्य चरितामृत मैं भी ऐसा वचन हम पढ़ते हैं। क्या पढ़ते हैं... अर्थ अयं ब्रह्म सूत्रानां, अयं मतलब यह श्रीमद भागवतम। श्रीमद भागवतम अर्थ है या भावार्थ है या भाष्य है किसका... ब्रम्हा सूत्रानांं। ब्रम्हा सूत्र या वेदांत सूत्र या व्यास सूत्र उसके कई सारे नाम है। ब्रम्हा सूत्रों का भावार्थ है या वेदांत सूत्रों का भावार्थ है, वेदांत पर लिखी हुई टीका है भाष्य है यह श्रीमद् भागवतम।
इसीलिए प्रभुपाद बार-बार लिखते हैं प्राकृतिक टिप्पणी, वेदांत की प्राकृतिक टिप्पणी कौन सी है श्रीमद भागवतम। जिन्होंने वेदांत सूत्र लिखा उन्होंने ही वेदांत सूत्र को समझाया। कुछ बातों का स्पष्टीकरण करने के लिए उसका भावार्थ और गुड अर्थ कहने के उद्देश्य से टिकाएँ या भावार्थ लिखे जाते हैं। वेदांत सूत्र के रचियता श्रील व्यास देव है तो उन्होंने ही वेदांत सूत्र का भाष्य लिखा और वेदांत सूत्र का भाष्य है ग्रंथराज श्रीमद् भागवतम। भगवदगीता स्नातक स्तर की पढाई है, श्रीमद भागवतम स्नातकोत्तर है , चैतन्य चरितामृत और गौडीय वैैष्णव साहित्यिक रचना के कुछ नमूने आप देख रहे हो, वृंदावन महिमामृत है या मनः शिक्षा है , रघुनाथ दास गोस्वामी की गोपाल चंपू, जीव गोस्वामी की रचना है दानकेली कौमुदी, बृहद भागवतम, भक्ति रत्नाकर ऐसे असंख्य ग्रंथ जो गीता, भागवत, चैतन्य चरितामृत के कक्ष के स्तर की बातें या कृष्ण के नाम रूप गुण लीला की चर्चा इन ग्रंथों में है ।
आज जगन्नाथ पुरी धाम की...जय। जगन्नाथ पुरी धाम में विशेष उत्सव संपन्न हो रहा है पता नहीं इस लॉक डाउन के कारण कितना हो रहा है। किंतु जगन्नाथ के संबंध में इतने सारे उत्सव संपन्न होते हैं, जगन्नाथ वैसे स्वयं ही उत्सव प्रिय है। जगन्नाथ को ही उत्सव प्रिय होते हैं। आज उन सभी उत्सवों में एक विशेष या अति प्रिय उत्सव जगन्नाथ स्नान यात्रा महोत्सव आज के दिन में संपन्न होता है। आज पूर्णिमा भी है ज्येष्ठ पूर्णिमा। आज हम देख रहे थे मंगल आरती में आते समय चंद्रमा अस्त होने जा रहा था, वह चतुर्दशी का चंद्रमा था। चंद्रोदय जब हो जाएगा आज सायंकाल को, पूर्णिमा का चंद्र दर्शन हो जाएगा। आज पूर्णिमा के दिन स्नान यात्रा संपन्न हो जाता है। ये साक्षात जग्गनाथ बलदेव सुभद्रा... स्क्रीन साझेदारी चल रहा है तो आप देख रहे हो ये पूरी में जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा..। स्नान यात्रा की तैयारियां हो रही हैं ।
यह जगन्नाथ मंदिर में नहीं है मंदिर के प्रांगण में जहां बाजार चलता है, आनंद बाजार जहां आप जगन्नाथ का प्रसाद ग्रहण करते हो या जगन्नाथ प्रसाद की खरीदारी होती है वहां पर उस क्षेत्र में, उस एरिया में एक विशेष बेदी है वहां लाए जाते हैं जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा और वहां स्नान यात्रा होती है, जो दर्शन कर रहे हो यह मंदिर के अंदर नहीं यह स्नान यात्रा की बेदी पर विराजमान हैं जग्गनाथ। जय जग्गनाथ बलदेव सुभद्रा की...जय। सारे पंडा सब तैयार हैं अब थोड़ी ही देर में स्नान यात्रा संपन्न होने वाली है , शुरू हो गई। लेकिन यह हमारे इस्कॉन राजापुर के जग्गनाथ के अभिषेक का दर्शन आप कर रहे हो। आज से जगन्नाथ रथ यात्रा के दिन तक वैसे एक दिन पूर्व नेत्र उत्सव तक जग्गनाथ दर्शन बंद होगा। आज जग्गनाथ बीमार होंगे। यह तो दिव्य बुखार है, इस संसार का रोग नहीं है। फिर जग्गनाथ का दर्शन करना है तो जगन्नाथ दर्शन देते हैं अलारनाथ मे। जगन्नाथ पुरी से बीस से पच्चीस किलोमीटर दूरी पर और एक प्रसिद्ध मंदिर है जिसे अलारनाथ कहते हैं।
भगवान बीमार हैं, भगवान का अब बिस्तर पर आराम होगा, विशेष आहार होगा। चैतन्य महाप्रभु अलारनाथ जाते थे , अलारनाथ भगवान की..जय। आपको भी घर पर इस मीडिया की कृपा से, इस व्यवस्था से अलारनाथ का दर्शन हो रहा है। सारे जन जो जग्गनाथ के दर्शन के लिए उत्कंठीत होते हैं वे वहाँ जाकर अलारनाथ का दर्शन करते हैं। एक समय श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अलारनाथ का दर्शन कर रहे थे उन्होंने साष्टांग दंडवत प्रणाम किया। एक शिला के ऊपर भगवान दंडवत प्रणाम कर रहे थे, साष्टांग दंडवत जब कर रहे थे , उन्होंने शिला को स्पर्श किया , भगवान के उस दिव्य अंग के स्पर्श से वह शिला पिघल गई। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु तो उठ के खड़े हो गए, उन्होंने पीछे क्या छोड़ा, उस शिला में चैतन्य महाप्रभु के सर्वांग का चिन्ह बन गया। उस शिला को आप देख रहे हो, षड्भुज गौरांग का दर्शन और सामने जो शिला देख रहे हो उसमें अलग-अलग चिन्ह देख रहे हो। यह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का सर्वांग है, सर्वांग जो चिन्हांकित हुआ वह दर्शन है। गौडीय वैष्णव जब अलारनाथ का दर्शन करने जाते हैं, अलारनाथ का दर्शन तो करते ही हैं किंतु साथ ही साथ चैतन्य महाप्रभु के इस शिला में जो चिन्ह बना है उनकी अंग का उसका भी दर्शन करते हैं। आप में से किसी ने दर्शन किया है उस जगह का..। कई भाग्यवान जनों ने भक्तों ने दर्शन किया है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
मुख्य बात तो समझने की यह है, समझाने के लिए समय नहीं है। किंतु सुन तो सकते हो क्या बात है जो समझने की बात है। आज के दिन कृष्ण बन गए जग्गनाथ। जग्गनाथ के प्राकट्य का दिन है, जग्गनाथ जन्मे नहीं है। वे तो थे ही मथुरा में लेकिन अब तो वे पूरी तरह कृष्ण बने हैं द्वारका में है। वहां से कुरुक्षेत्र में जाते हैं और ब्रजवासियों से बहुत समय के उपरांत मिलते हैं , वहां कृष्ण की ऐसी स्थिति हुई। अपने भक्तों की विरह के व्यथा के संबंध में कृष्ण ने सुना और फिर बलदेव भी सुन रहे थे सुभद्रा भी सुन रही थी । उनके अंग में कुछ उनकी जो आकृति है, कृष्ण बलदेव सुभद्रा कि जो आकृति है उसमें दिव्य विकृति उत्पन्न हुई और फिर विकृति के उपरांत जो उनकी प्रकृति को हम देखते हैं, थी आकृति कृष्ण थे, हुई विकृति और बन गई प्रकृति ।
यह सब आज के दिन हुआ और वैसे थोड़े समय के लिए ही कृष्ण बन गए जग्गनाथ, इस लीला में पुनः हो गए साधारण कृष्ण। लेकिन जैसे कल भी हम समझा रहे थे भगवान की हर लीला नित्य नवीन होती है, नित्य होती है। जैसे भगवान पंढरपुर आ गए उन्होंने कमर पर हाथ रखा, हाथ को उठाया भी था वहां से, कुछ समय के लिए जब प्रतीक्षा कर रहे थे। उनसे बात करने के लिए, थोड़े समय के लिए हाथ रखा था कमर पर, लेकिन भगवान की तो आराधना पंढरपुर में सदैव कैसी होती है, कर कटावरी ठेवुनिया... कमर पर हाथ रखे हैं , मानो और कुछ करते ही नहीं केवल हाथ रख कर खड़े हैं, वह लीला नित्य और नवीन है। वैसे ही कुछ समय के लिए कुरुक्षेत्र में यह लीला हुई, भगवान बन गए जग्गनाथ, उनको बनना ही पड़ा वैसे प्रेम से विवश होके उनके पास कोई विकल्प नहीं था। कृष्ण जब रोहिणी से सुन रहे थे, वृंदावन के भक्त जब भगवान से बिछड़ गए, वे तो वृंदावन में रह गए और भगवान कहां जाकर पहुंचे द्वारिका में जा कर बैठे, विवाह भी कर लिए और द्वारकाधीश बने हैं, उनको कोई चिंता ही नहीं है वृंदावन वासियों की ।
ऐसी बात तो नहीं है वह भी चिंता कर रहे थे, लेकिन उस समय वृंदावन के भक्तों की जो मन की स्थिति, सारी व्यथा , विरह अग्नि से प्रायः मर रहे थे । यह जब सुना, कृष्ण ने सुना बलदेव ने सुना, सुभद्रा ने सुना तो उनसे रहा या सहा नहीं गया, कहीं गई वह बातें। उस समय कृष्ण का ऐसा हाल या ऐसी स्थिति हुई कैसी स्थिति हुई वह जग्गनाथ बन गए, जगन्नाथ का रूप धारण किया। जेइ गौर, सेइ कृष्ण, सेइ जगन्नाथ... तो जगन्नाथ ही हैं कृष्ण, जग्गनाथ ही हैं गौरांग, जग्गनाथ की अपनी लीलाएं है। वैसे इससे भी सिद्ध होती है गौड़ीय वैष्णवों की सर्वोत्कृष्टता। एक तो गौडीय वैष्णव भगवान से प्रेम करते हैं और भगवान भी गौडीय वैष्णवों से प्रेम करते हैं ।
गौडीय वैष्णवों से जितना प्रेम करते हैं भगवान , गौड़ीय मतलब ब्रज भक्त वृंदावन के भक्त ब्रज भक्ति सर्वोपरि है। इस लीला से भगवान जो जग्गनाथ बने, जगन्नाथ बनना पड़ा उनको इससे भी सिद्ध होता है भगवान का भक्तों से प्रेम, भक्तों का भगवान से प्रेम। आज के दिन कृष्ण बने जग्गनाथ और फिर आज के दिन ही उनके प्राकट्य के दिन उनका अभिषेक होता है और अभिषेक हुआ तो फिर और लीलाएं होती हैं, फिर बीमार होते हैं फिर नेत्रोत्सव, फिर रथयात्रा महोत्सव। रथयात्रा से कहां जाते हैं भगवान, ठीक होने के पश्चात वृंदावन जाते हैं उन भक्तों को मिलने के लिए। जो गुंडिचा मंदिर है जग्गनाथ पुरी में वह वृंदावन है। जग्गनाथ मंदिर जो है वह द्वारिका है, द्वारिका से भगवान लौटते हैं वृंदावन। इस प्रकार से संबंध है स्नान यात्रा फिर रथ यात्रा।
जय जगन्नाथ स्वामी की... जय। जय जगन्नाथ स्नान यात्रा महोत्सव की...जय। जगन्नाथ पुरी धाम की...जय। गौर प्रेमानंदे... हरि हरि बोल।
English
5 June 2020
Understanding the Super Excellence of Gaudiya Vaisnavism Day 5
Hare Krishna! We have participants from 765 locations. Are you all ready for the japa talk? Let's continue the presentation of the Superexcellence of Gaudīya Vaiśnavism. Today is also the special day. Jagannatha Snana Yatra Mahotsava ki jai!It is essential to remember Jagannatha's Snana Yatra. We will do smaran within this session.
But first we will cover the presentation of Understanding the Superexcellence of Gaudīya Vaiśnavism. All of you are becoming Gaudīya Vaiśnavas. Understand Viśrambha Madhurya Rasa. Viśrambha Madhurya, Viśrambha Sakhya, Viśrambha Vatsalya are the specialities of Gaudīya Vaiśnavism. Aiśvarya Mishrit Sakhya, Vatsalya, Madhurya are known as devotees of Mathuradhish or Dvarakadhish. Gaudīya means devotees from Vraja or Vrindavan. They are the devotees of Vrajendranandan, who is the topmost. Lord Krsna is Purna in Dvaraka, Purnatar in Mathura and Purnatam in Vrindavan. Lord becomes Purnatam due to His Viśrambha Madhurya, Sakhya or Vatsalya.
jaya jayojjwala rasa sarva rasa sāra parakiyā bhave jahā brajete prachāra parakīyā-bhāve ati rasera ullāsa vraja vinā ihāra anyatra nāhi vāsa
Translation: There is a great increase of mellow in the unwedded conjugal mood. Such love is found nowhere but in Vraja. (CC Adi-lila 4.47)
In Dvaraka, the Lord becomes Dvarakadhish. He has 16108 wives. His relationship with His wives like Rukmini is called Svakiyā bhāva. But in Vrindavan, the relationship between Krsna and Radharani or the Gopīs is called Parakiyā bhāva. Parakiyā bhāva is greater than Svakiyā bhāva.
aradhyo bhagavan vrajesa-tanayas tad-dhama vrndavanam ramya kacid upasana vraja-vadhu-vargena ya kalpita srimad bhagavatam pramanam amalam prema pum-artho mahan sri-caitanya mahaprabhor matam idam tatradarah na parah
Translation: The Supreme Personality of Godhead, Lord Krishna, the son of Nanda Maharaja, is worshipped along with His transcendental abode Vrndavana. The most pleasing form of worship for the Lord is that which was performed by the gopis of Vrindavana. Srimad Bhagavatam is the spotless authority on everything and pure love of Godhead is the ultimate goal of life for all men. These statements, for which we have the highest regard, are the opinion of Sri Caitanya Mahaprabhu. (Caitanya-matta-manjusa by Srila Viswanatha Cakravarti Thakura)
ramyā kācid upāsanā vraja-vadhu-vargeṇa yā kalpitā
Translation: There is no better worship than what was conceived by the Vraja gopīs. (Caitanya-matta-manjusa by Srila Viswanatha Cakravarti Thakura)
āpāne ācāre prabhū jagate sikhāya
Caitanya Mahāprabhu has become the ācārya of Gaudīya Vaiśnavism and He is teaching Vraja Bhakti to everyone. While explaining this, He recommends worshiping in the mood of the gopīs of Vraja. They should be kept as an ideal.
From the point of view of the revealed scriptures with regard to the Superexcellence of Gaudīya Vaiśnavism , Caitanya Mahāprabhu has said,
sri-caitanya mahaprabhor matam idam tatradarah na parah
Translation: These statements, for which we have the highest regard, are the opinion of Sri Caitanya Mahaprabhu. (Caitanya-matta-manjusa by Srila Viswanatha Cakravarti Thakura)
Caitanya Mahāprabhu has said this in Caitanya Manjusha.
śrīmad-bhāgavataṁ purāṇam amalaṁ yad vaiṣṇavānāṁ priyaṁ yasmin pāramahaṁsyam ekam amalaṁ jñānaṁ paraṁ gīyate tatra jñāna-virāga-bhakti-sahitaṁ naiṣkarmyam āviskṛtaṁ tac chṛṇvan su-paṭhan vicāraṇa-paro bhaktyā vimucyen naraḥ
Translation: Śrīmad-Bhāgavatam is the spotless Purāṇa. It is most dear to the Vaiṣṇavas because it describes the pure and supreme knowledge of the paramahaṁsas. This Bhāgavatam reveals the means for becoming free from all material work, together with the processes of transcendental knowledge, renunciation and devotion. Anyone who seriously tries to understand Śrīmad-Bhāgavatam, who properly hears and chants it with devotion, becomes completely liberated. (ŚB 12.13.18)
"Pancham purusharthah" Premā pumartho mahān
Translation: The 4 purusharthas are dharma, artha, kama, moksha. These are four and fifth is prema pumartho mahan. Caitanya Mahāprabhu has advised to develop our bhakti, love for Kṛṣṇa. (Caitanya Manjusha)
tasmāc chāstraṁ pramāṇaṁ te kāryākārya-vyavasthitau jñātvā śāstra-vidhānoktaṁ karma kartum ihārhasi
Translation: One should therefore understand what is duty and what is not duty by the regulations of the scriptures. Knowing such rules and regulations, one should act so that he may gradually be elevated. (BG 16.24)
Krsna said that scripture is the proof. Which scripture? Śrīmad Bhāgavatam, as it is, is an amala purāna (perfectly pure). It is free from contamination of the modes of goodness, passion and ignorance. The mode of goodness is also material. There are 6 Purānas in Sattva, 6 in Raja and 6 in Tama, but Śrīmad Bhāgavatam is beyond all these 3 modes as it is an amala purāna. Śrī Krsna Caitanya Mahāprabhu would hear Śrīmad Bhāgavatam. He would go to Tota Gopīnatha Temple daily to hear Śrīmad Bhāgavatam Katha from Gadhādhar Pandit. Apart from Śrīmad Bhāgavatam, Caitanya-caritāmrta, Caitanya Bhāgavata, Caitanya Mangal are our scriptures. In all these 3 scriptures, there is more description of the Madhurya of the Lord.
madhurādhi-pater akhilam madhuram
Translation: Everything is sweet about the Lord of sweetness. (Madhurastakam by Vallabhacarya)
Madhurya lila of Śri Krsna and Radharani has been described in detail in Caitanya-caritāmrta or Caitanya Bhāgavata in comparison to Śrīmad Bhāgavatam. Śukadeva Goswami did not feel comfortable in describing the Madhurya lila or mentioning the name of Radharani.
anayārādhito nūnaṁ bhagavān harir īśvaraḥ yan no vihāya govindaḥ prīto yām anayad rahaḥ
Translation: Certainly this particular gopī has perfectly worshiped the all-powerful Personality of Godhead, Govinda, since He was so pleased with Her that He abandoned the rest of us and brought Her to a secluded place. (ŚB 10.30.28)
Śukadeva Goswami indirectly mentions Radharani as anayārādhito, who worships Krsna. His worshipable Lord is Radharani. That's why Radharani is called Śukeshta, worshipable by Śukadeva Goswami. If you want to relish the transcendental pastimes of Radha and Krsna, then you have to turn towards Caitanya-caritāmrta. In Caitanya Bhāgavata, there is not much description of such lilas by Vrindavan Dasa Thakur. Pastimes, emotions and realisations of Caitanya Mahāprabhu at Jagannatha Puri is mentioned vividly in Caitanya-caritāmrta. Caitanya-caritāmrta is the great contribution of Krsna Dasa Kaviraja Goswami. The revealed scriptures and literatures of Gaudīya Vaiśnavas are the topmost. The six Goswamis have composed many scriptures like Bhakti-rasamrta-sindhu by Śrila Rupa Goswami or Brihad Bhagavatamrta by Śrila Sanatana Goswami.
We have scriptures of ācārya traya, three ācāryas namely Narottama Dāsa Thakur, Shyamānand Pandit and Śrinivas Ācārya. Then we have scriptures and commentaries of Vishwanath Cakravarti Thakur, Gaudīya Vedānta Ācārya Baladeva Vidyabhushan, Śrila Bhaktivinoda Thakur, Śrila Bhakti Siddhanta Saraswati Thakur and Śrila Prabhupāda. From the point of view of quantity as well as content, these books are matchless. These books are full of Madhurya and emotions of devotional service. Such books can't be found in any other religion. There are innumerable books. These books and its content reveal the Superexcellence of Gaudīya Vaiśnavism.
From Lord Brahma, the 4 Vedas were emanated, one from each mouth. This was not Lord Brahma’s compilation. Lord Brahma was given this knowledge by the Lord.
oṁ namo bhagavate vāsudevāya janmādy asya yato ’nvayād itarataś cārtheṣv abhijñaḥ svarāṭ tene brahma hṛdā ya ādi-kavaye muhyanti yat sūrayaḥ tejo-vāri-mṛdāṁ yathā vinimayo yatra tri-sargo ’mṛṣā dhāmnā svena sadā nirasta-kuhakaṁ satyaṁ paraṁ dhīmahi
Translation: O my Lord, Śrī Kṛṣṇa, son of Vasudeva, O all-pervading Personality of Godhead, I offer my respectful obeisances unto You. I meditate upon Lord Śrī Kṛṣṇa because He is the Absolute Truth and the primeval cause of all causes of the creation, sustenance and destruction of the manifested universes. He is directly and indirectly conscious of all manifestations, and He is independent because there is no other cause beyond Him. It is He only who first imparted the Vedic knowledge unto the heart of Brahmājī, the original living being. By Him even the great sages and demigods are placed into illusion, as one is bewildered by the illusory representations of water seen in fire, or land seen on water. Only because of Him do the material universes, temporarily manifested by the reactions of the three modes of nature, appear factual, although they are unreal. I therefore meditate upon Him, Lord Śrī Kṛṣṇa, who is eternally existent in the transcendental abode, which is forever free from the illusory representations of the material world. I meditate upon Him, for He is the Absolute Truth. (ŚB 1.1.1)
Vedas are apaurusheya. In fact these Vedas are not even compiled by the Lord. Vedas are eternal like the Lord. There was no such time when there were no Vedas. Vedas means Upaniśad, Vedānta Sutra, Purāna, Mahābhārata, Pancaratra and all such scriptures which help us to know about the Absolute. There are two divisions of Vedic Knowledge, Śruti and Smriti. Śruti is apaurusheya and then there is Smriti. Vedas, Upaniśad, Vedānta Sutra are Śruti. Purāna, Śrīmad Bhāgavatam, Mahābhārata are Smriti.
There are 4 Vedas and each Vedā is divided into 4 parts namely Sanhitā, Bramhan, Upanishad, Aranyaka. Upanishad and the remaining three are a part of Vedā. Smriti is divided into Purāna, Itihāsa (History) and Shad Darshan. Shad Darsana is further classified into Sānkhya, Yoga, Vaiśeshika, Nyāya, Pūrva Mimānsā and Vedānta Sutra. Vedānta Darsana is compiled by Śrila Vyāsadeva and it is the topmost in Shad Darsana. Vedānta is called Uttar Mimānsā. Gaudīya Vaiśnavas believe in Vedānta Darsana. Other religions believe in Sānkhya or Yoga or Pūrva Mimānsā. Pūrva Mimānsā includes Karma Kānda, Jñana Kānda, etc.
karma kānda, jñāna kānda kevala vishyer bhanda
Vedānta is the essence of Shad Darsana. Gaudīya Vaiśnavas believe in Vedānta and it is our scripture. Vedās includes Upanishad and the essence of Upanishad is Vedānta Sutra. Śrila Vyāsadeva wrote a commentary on Vedānta Sutra. Sutra which is like code language is difficult to understand. Athāto brahma jijñāsā means this human life is made for inquiring about the Absolute Truth.
artho ’yaṁ brahma-sūtrāṇāṁ bhāratārtha-vinirṇayaḥ gāyatrī-bhāṣya-rūpo ’sau vedārtha-paribṛṁhitaḥ
Translation: The meaning of the Vedānta-sūtra is present in Śrīmad-Bhāgavatam. The full purport of the Mahābhārata is also there. The commentary of the Brahma-gāyatrī is also there and fully expanded with all Vedic knowledge.(CC Madhya 25.143)
Ayam means this, Śrimad Bhāgavatam. Śrimad Bhāgavatam is the commentary on Brahma Sutra or Vedānta Sutra. Śrila Prabhupāda would say that Śrimad Bhāgavatam is the natural commentary on Vedānta Sutra. Śrila Vyāsadeva, who wrote Vedānta Sutra, wrote Śrimad Bhāgavatam as well to explain the meaning of Vedānta Sutra.
Bhagavad-gītā is graduation, Śrimad Bhāgavatam and Caitanya Caritāmrta are post graduation. There are other samples of Gaudīya literatures like Śrī Vrndāvana Mahimāmrta, Śrī Manah Śiksā of Raghunath Dasa Goswami, Gopāla Campū of Jīva Goswami, Dāna-Keli-Kaumudī, Śrī Brhad Bhāgavatāmrta, Bhakti-ratnākara and so on. There is discussion of Krsna's name, His form, qualities, pastimes in these books.
As you have heard, today is the Jagannatha Snana Yatra festival in Jagannatha Puri. Jagannatha likes all festivals. But very dear to Jagannatha is Jagannatha Snana Yatra festival. Today is Jyeshta Purnima also. On this day this Snana Yatra festival takes place. As you are seeing, arrangements are being made for Snana Yatra. This is taking place in Ananda Bazaar where you get prasāda, not inside the temple. There is a special altar where Snana Yatra takes place.
Jagannatha Baladev Subhadra ki jai!
In some time, Jagannatha's Snana Yatra will start. You are now having darsana of Jagannatha in Mayapur.
Anavasare jagannathera nā pāiyā darshan Virahe alāranātha karīlā gamana
Till Netrotsava, Jagannatha darsana will be closed. Lord will have a fever. It's not COVID. It's transcendental fever. If you want to have darsana of Jagannatha, then there is another temple at Alarnath, 15-20 kms away from Jagannatha Puri. Śrī Krsna Caitanya Mahāprabhu went there. Darsana is closed because the Lord is not well. He is in bed rest with a special diet. You are also having darsana of Alarnath via the media. Those who really want to see Lord Jagannatha, they go to Alarnath.
One time Śrī Krsna Caitanya Mahāprabhu was having darsana in Alarnath, He offered His full obeisance on a Sila. With that, the Sila melted by the touch of Mahāprabhu's transcendental limbs. When He got up, different marks of the limbs of the Lord remained there. When Gaudīya Vaiśnava go there to have darsana in Alarnath, they also take darsana of the marks of the limbs of Caitanya Mahāprabhu.
Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare
One thing which we need to understand is that today Krsna became Jagannatha. There is nothing as an appearance of Jagannatha as such. He already appeared in Mathura as Krsna. Now He is in Dvaraka as a full fledged Krsna. After this He went to Kurukshetra and met the Vraja vasis after a long time. When Krsna, Baladev and Subhadra heard about the pain of separation of the Vraja vasis, their forms transformed. This all happened today. Krsna became Jagannatha for a short time and then He became normal. But every pastime of the Lord is eternal. The Lord came to Pandharpur and kept His hands on His waist for a short time waiting for Pundarik to get free, but He is still worshipped in the same way.
Kar katavari, tulasichya mala, aise roop dolaa davee haree
Translation: Oh Hari, let my eyes behold that form of Yours in which Your hands are on the waist and there are several necklaces of basil beads in Your neck. (Abhanga 17, Kar Katavari, Tukaram Gatha)
In the same way, Lord Krsna became Jagannatha out of love when He heard from Rohini about the pangs of separation of the devotees of Vrindavan when Krsna left them and went to Dvaraka and became Dvarakadhish. On hearing this, Krsna, Baladev and Subhadra became the Jagannatha form.
Jeī Gaur, Seī Krsna, Seī Jagannath
Jagannatha is Krsna and Gauranga. This also proves the Superexcellence of Gaudīya Vaiśnavism. Gaudīya Vaiśnavas love the Lord and the Lord loves Gaudīya Vaiśnavas. Gaudīya Vaiśnavas means devotees of Vraja. Vraja Bhakti is the topmost.
On the day of Ratha-yatra after becoming well, the Lord directly proceeds to Vrindavan to meet the Vraja vasis. Gundicha Temple in Jagannatha Puri is Vrindavan and Jagannatha Temple is Dvaraka. So the Lord goes from Dvaraka to Vrindavan.
Jagannatha Swami ki jai! Jagannatha Snana Yatra Mahotsava ki jai! Jagannatha Puri Dhāma ki jai!
Gaura prema nande hari haribol!