Hindi

जप चर्चा दिनांक २४ अक्टूबर २०२० हरे कृष्ण! (जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।। आप सोच या समझ रहे होंगे कि हम चैतन्य महाप्रभु के विषय में बात करने वाले हैं, हां, ऐसी ही बात है। श्री चैतन्य महाप्रभु और नित्यानंद प्रभु जगन्नाथपुरी के लिए प्रस्थान कर रहे थे। वैसे तो सारा संसार ही जाना चाहता है। सारे शांतिपुर निवासी जाना चाहते थे। वैसे भी उस समय चैतन्य महाप्रभु के दर्शन के लिए शांतिपुर में नवद्वीप वासी भी पहुंचे हुए थे। सभी ही जाना चाहते थे परंतु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अकेले ही जाना चाहते थे। ठीक है! अकेले नहीं जाने देंगे, कम् से कम कुछ ही भक्त तो साथ में जाएंगे ही लेकिन सारी भीड़ साथ में नहीं जाएंगी। चैतन्य महाप्रभु ने अब संन्यास लिया है, वे अब कुछ एकान्त भी चाहते थे। हरि! हरि! जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी से वृन्दावन जाने के लिए तैयार थे। उस समय भी चैतन्य महाप्रभु के यही विचार थे या फिर जब वे दक्षिण भारत की यात्रा में भी जाना चाह रहे थे तब भी चैतन्य महाप्रभु ने सबको मना किया कि आप नहीं आ सकते। आप यहीं रहिए। यू स्टे बिहाइंड। हरि! हरि! लोग तो जाना चाहते थे। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उनके प्राणनाथ हैं। चैतन्य महाप्रभु का वहां से प्रस्थान करना मतलब उनके प्राण ही जा रहे हैं। अतः वे प्राणनाथ के पीछे तो जाना ही चाहेंगे। जय श्री राम! श्री राम जब वनवास में जाने के लिए तैयार थे। तब सारे अयोध्यावासी भी श्री राम, लक्ष्मण व सीता के साथ जाने के लिए तैयार थे, वे कुछ दूरी तक गए भी थे। उस समय अयोध्या के जो वृक्ष अर्थात स्थावर योनि अथवा अचर वस्तुएं हैं अर्थात वे कहीं भी चल नहीं सकते, वे कहीं आ जा नहीं सकते। वे बेचारे शोक कर रहे थे। देखो! हमारा हाल, हम स्थावर योनि है। अच्छा होता कि यदि हम भी चल सकते। यदि हम में भी चलने की क्षमता होती तो हम भी श्री राम के साथ या उनके पीछे पीछे जाते जैसे अयोध्या वासी जा रहे हैं। हरि! हरि! इसी तरह वैसे ही यहाँ पर वे , श्री राम ही अथवा वे श्री कृष्ण ही, कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। भगवान ने संन्यास लिया है। संन्यास लेने वाले केवल यही भगवान हैं। हरि! हरि! वे क्या त्यागेंगे, कठिन है क्योंकि जिनको त्यागना है, वे सभी उन्हीं के हैं, उन्हीं के अंग है, उन्ही के अंश हैं, उन्हीं की शक्ति हैं। फिर भी निमाई ने संन्यास लिया और वे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु बने। वैराग्य विद्या निज भक्ति योग शिक्षार्थमेक: पुरुष: पुराण:। श्री कृष्ण चैतन्य शरीर धारी कृपाम्बुधिर्य़स्तमहं प्रपद्ये।। ( श्री चैतन्य चरितामृत ६.२५४) अनुवाद:- "मैं उन पूर्ण पुरषोत्तम भगवान श्री कृष्ण की शरण ग्रहण करता हूं, जो हमें वास्तविक ज्ञान अपनी भक्ति तथा कृष्णभावनामृत के विकास में बाधक वस्तुओं से विरक्ति सिखलाने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं। वे दिव्य कृपा के सिंधु होने के कारण अवतरित हुए हैं। मैं उनके चरण कमलों की शरण ग्रहण करता हूं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही, वैराग्य सिखाने और विद्या का दान करने व 'निज भक्ति योग' अर्थात अपनी खुद की भक्ति सिखाने ' शिक्षार्थमेक: पुरुष: पुराण:' अर्थात प्रधान पुरुष या आदि पुरुष हैं। गोविन्दमादिपुरूषं तमहं भजामि .. उन्होंने संन्यास लिया और वे हमें वैराग्य विद्या भी सिखा रहे हैं। हरि! हरि! उनके साथ सगे संबंधी हैं अर्थात जिनके साथ वे रहते थे, वे अब उनके साथ नहीं रहेंगे। वे उनको वैराग्य सिखाएंगे या उनको वैराग्य का प्रदर्शन करना ही होगा व करना चाहते हैं। हरि! हरि! जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने शांतिपुर से प्रस्थान किया तब केवल 4 लोग या भक्त थे और उसमें से एक भगवान स्वयं ही थे। उनके साथ बलराम भगवान जा रहे हैं। उन्होंने उनको जाने दिया। ठीक है। दाऊजी का भैया कृष्ण कन्हैया। और साथ में मुकुंद दत्त जा रहे हैं। जो कि चैतन्य महाप्रभु की लीला में प्रसिद्ध गायक रहे। वह गायन किया करते थे एवं जगदानंद पंडित भी साथ में जा रहे हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी के लिए प्रस्थान कर रहे थे। इस प्रस्थान के पीछे व संन्यास ग्रहण करने के पीछे का उद्देश्य वैसे हरे कृष्ण महामंत्र का प्रचार है। श्री राधार भावे एबे गोरा अवतार हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार।। ( जय जय जगन्नाथ- वैष्णव गीत) वैसे यही समय है अर्थात इसी समय से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की मध्य लीला भी प्रारंभ हुई। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने इसे आदि लीला भी कहा है। अब निमाई के संन्यास के साथ मध्य लीला प्रारंभ हो रही है। अगले 6 वर्षों तक श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भ्रमण करेंगे। उनका सर्वत्र भ्रमण होगा। पहले दक्षिण भारत की यात्रा होगी। फिर वे जगन्नाथपुरी लौटेंगे। क्योंकि शची माता ने कहा था, 'बेटा! तुम जगन्नाथ पुरी में रहो।' उनको रहना तो था लेकिन उनकी ड्यूटी भी हैं। क्या ड्यूटी है? परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ( श्रीमद् भगवतगीता ४.८) अनुवाद: भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ। मैं धर्म स्थापना के हेतु प्रकट होता हूं और मुझे धर्म संस्थापन की सेवा अथवा कर्तव्य को भी निभाना है। श्री कृष्ण चैतन्य गौर भगवान की जय! जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में गए, वहां वे केवल दो मास ही रहे। उन्होंने वहाँ कृष्णभावना की स्थापना की। वहां भी उन्होंने हरि नाम संकीर्तन किया। कलि- कालेर धर्म- कृष्ण- नाम- संकीर्तन। कृष्ण- शक्ति विना नहे तार प्रवर्तन।। ( श्री चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला श्लोक ७.११) अनुवाद: कलियुग में मूलभूत धार्मिक प्रणाली कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने की है। कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त किए बिना संकीर्तन आंदोलन का प्रसार कोई नहीं कर सकता। उन्होंने संकीर्तन धर्म की स्थापना की। एक दिन उन्होंने जगन्नाथ पुरी के मुखिया या एक दृष्टि से सार्वभौम भट्टाचार्य को ही भक्त बनाया। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उनके घर में ही व्यक्तिगत रूप से पहुंच गए और कुछ समय उनके घर में ही रहे। उनके घर में ही क्यों रहने लगे और अन्य जगह पर क्यों नहीं रहे? इस विषय में बाद में और विस्तार से कहना होगा। अभी हमें पढ़ना भी तो होगा ना। हर बात सुनोगे ही । वैसे हर बात को सुनना ही है। उसको सुनो। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज को सुनो। उन्होंने अपने हृदय प्रांगण में जो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीला, नाम, रूप, गुण, लीला के विचार व भाव उदित हुए थे, उन विचारों से चैतन्य चरितामृत रचना की। उनको सुनो। कृष्ण दास कविराज को सुनो। कैसे सुनोगे? चैतन्य चरितामृत को पढ़ना होगा, उनको आप सुनोगे । साथ ही साथ आप श्रील प्रभुपाद को भी सुनो। श्रील प्रभुपाद ने इस ग्रंथ चैतन्य चरितामृत जो बांग्ला भाषा में है, उसकी अंग्रेजी भाषा में रचना की फिर उसका अंग्रेजी से हिंदी में तथा संसार भर की असंख्य भाषाओं में अनुवाद हुआ और हो रहा है। जब हम चैतन्य चरितामृत पढ़ते हैं तो हम श्रील प्रभुपाद को भी सुनते हैं। हम बाद में विस्तार से इस लीला का श्रवण करेंगे। यदि कोई कथा सुन रहे हैं उसको सुनना भी श्रवण है अथवा हमनें यदि किसी ग्रंथ का अध्ययन किया तो वह भी श्रवण ही है। अभी अभी सुना अभी अभी कहा। हम कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज को सुनते हैं। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने कीर्तन किया है। चैतन्य चरितामृत कीर्तन से भरा पड़ा है। किस ने कीर्तन किया? कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज ने कीर्तन किया। जब हम पुस्तकों को खोलते हैं, पढ़ते हैं तो हम श्रवण करते हैं। पढ़ना अथवा अध्ययन करना मतलब श्रवण करना ही है। हरि! हरि! श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य को भक्त बनाया व अपने निज सानिध्य का लाभ दिया और उनके कई प्रश्नों के उत्तर भी दिए। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उनकी कई सारी शंकाओं का समाधान भी किया। सार्वभौम भट्टाचार्य ने जो बातें श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से सुनी, उस ज्ञान का विज्ञान भी हुआ। एक दिन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उनको दर्शन दिया। चैतन्य महाप्रभु का दर्शन भगवान का दर्शन ही है। वह भगवान ही हैं। गौरंगा! गौरंगा! किंतु एक दिन चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य को षड्भुज वाला दर्शन दिया। सार्वभौम भट्टाचार्य को शंका थी और वे शुरुआत में इस बात को स्वीकार नहीं कर रहे थे कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान हैं। जबकि गोपीनाथ आचार्य को साक्षात्कार था। वे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की भगवत्ता को पूरी तरह समझ गए थे। वे सार्वभौम भट्टाचार्य के रिश्तेदार भी थे व संगी साथी भी थे एवं वह कुछ समय नवद्वीप में भी रहे थे। वैसे सार्वभौम भट्टाचार्य भी एक समय नवद्वीप में थे। गोपीनाथ आचार्य कहते हैं कि चैतन्य महाप्रभु या गौरांग स्वयं भगवान हैं लेकिन सार्वभौम भट्टाचार्य शुरुआत में इस बात को स्वीकार नहीं कर रहे थे। तब एक दिन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य को एक विशेष व अद्भुत दर्शन दिए। उसे षड्भुज दर्शन कहते हैं। अजानुलम्बित-भुजौ कनकावदातौ सङ्कीर्तनैक-पितरौ कमलायताक्षौ। विश्वम्भरौ द्विजवरौ युगधर्मपालौ वन्दे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ। ( चैतन्य भागवत १.१) अनुवाद:- मैं भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु और भगवान श्री नित्यानंद प्रभु की अराधना करता हूं, जिनकी लंबी भुजाएं उनके घुटनों तक पहुंचती हैं, जिनकी सुंदर अंग कांति पिघले हुए स्वर्ण की तरह चमकीले पीत वर्ण की है, जिनके लंबाकार नेत्र रक्त वर्ण के कमल पुष्पों के समान हैं। वे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण, इस युग के धर्मतत्वों के रक्षक, सभी जीवात्माओं के लिए दानशील हितैषी और भगवान के सर्वदयालु अवतार हैं। उन्होंने भगवान कृष्ण के पवित्र नामों के समूहिक कीर्तन का शुभारंभ किया। द्विभुज गौरांग अर्थात दो भुजा वाले गौरांग अर्थात अपनी लंबी भुजाओं को कीर्तन के समय ऊपर उठाने वाले वह गौरांग अब षट्भुज बने। दो भुजाएं तो उनके उसी अवतार की ही थी। जिसे वे कीर्तन में उठाते हैं लेकिन उस रुप में, उन दो भुजाओं में चैतन्य महाप्रभु ने एक हाथ में दंड और दूसरे में कमंडलु धारण किया हुआ था और दूसरी दो भुजाओं में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने मुरली को धारण किया है। मुरली को धारण करने वाली दो भुजाएं श्याम वर्ण की हैं। अन्य दो भुजाओं में जिनका वर्णन हरित या घास की हरियाली का रंग है उस रंग की दो भुजाओं में धनुष और बाण धारण किए हुए थे। धनुष बाण धारण करने वाले हुए, जय श्री राम! मुरली को धारण करने वाले हुए, जय श्री कृष्ण! व दंड व कमंडलु को धारण किए , श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु! श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय! श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उनको वैसा दर्शन दिया। हरि! हरि! श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य को केवल दो महीनों में ऐसा साक्षात्कार कराया। अर्थात उनको केवल दो महीने में श्रद्धा से प्रेम तक पहुंचाया। हरि! हरि! श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दक्षिण भारत के लिए प्रस्थान किया और तब वे वहां से जगन्नाथपुरी लौटे। तत्पश्चात वे वृंदावन जाना चाहते थे। 'लेकिन मैं वृंदावन कैसे जाऊंगा ? वाया बंगाल होते हुए फिर आगे बढूंगा।' उनका ऐसा प्रयास तो रहा लेकिन वे सफल नहीं हुए। वे सफल इसलिए नहीं हुए क्योंकि बंगाल जिसमें नवद्वीप भी है और जैसे ही जब उन भक्तों को पता चला कि चैतन्य महाप्रभु वृंदावन के लिए प्रस्थान कर रहे हैं तो मानो सारा बंगाल अथवा लाखों करोड़ों की संख्या में लोग चैतन्य महाप्रभु के साथ वृंदावन जाने के लिए तैयार हो गए और पीछे पीछे जाने लगे। चैतन्य महाप्रभु ऐसी भीड़ के साथ वृंदावन में नहीं जाना चाहते थे। वे वृंदावन में अकेले जाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने वृंदावन जाने का विचार छोड़ दिया। बंगाल और बिहार के बॉर्डर पर कन्हाई नटशाला नाम का स्थान है, वहां से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जाने के बजाय जगन्नाथपुरी पुन: वापिस लौटे। उनका वृंदावन जाने का विचार पूरा नहीं हो पाया लेकिन वृन्दावन तो जाना ही था। अतः अब वे पुनः वृंदावन जाने के लिए तैयार हुए। तब उस समय भी जगन्नाथ पुरी के निवासी उनके साथ जाना चाहते थे लेकिन चैतन्य महाप्रभु की शर्त थी, 'नहीं! मैं अकेला जाऊंगा, मैं अकेला जाऊंगा।' इसी प्रकार वे दक्षिण भारत की यात्रा में भी अकेले ही जाना चाहते थे किंतु फिर भक्तों ने कहा, 'नहीं! नहीं! एक तो भक्त को साथ में रखिए ना। आप जब कीर्तन और नृत्य करोगे तो आपके दंड और कमंडलु या जो भी कुछ थोड़ी सामग्री या वस्तुएं आपके साथ हैं, उसको कौन संभालेगा? कोई तो चाहिए। कम से कम एक भक्त को साथ रखिए। चैतन्य महाप्रभु मान गए और कृष्णदास को दक्षिण भारत की यात्रा में जाने दिया। इसी प्रकार जब वृंदावन जाना चाहते थे तो बलभद्र भट्टाचार्य नामक एक भक्त को साथ में जाने दिया। चैतन्य महाप्रभु वृंदावन की यात्रा अर्थात ब्रज यात्रा करते थे। चैतन्य महाप्रभु ने ब्रज मंडल परिक्रमा भी की। केवल कृष्ण बलराम मंदिर का दर्शन किया और हो गयी यात्रा, चैतन्य महाप्रभु ने ऐसा नहीं किया अपितु चैतन्य महाप्रभु ने पूरे पूरे ब्रजमंडल की परिक्रमा की। हरि! हरि! कार्तिक मास आ रहा है चैतन्य महाप्रभु ब्रजमंडल की यात्रा में जिस मार्ग पर चले थे और अभी जो ब्रज मंडल परिक्रमा होती है, उसमें हम उसी मार्ग पर चलते हैं। 500 वर्ष पूर्व नारायण भट्ट गोस्वामी नामक एक आचार्य हुए, उन्हें ब्रजाचार्य भी कहते हैं। उन्होंने इस परिक्रमा मार्ग की पुनः स्थापना की थी। यह ब्रज परिक्रमा नई बात नहीं है। जब से वृंदावन है तबसे वृंदावन की परिक्रमा भी है। किन्तु ब्रजाचार्य ने पुनः स्थापना की। उसी मार्ग पर चैतन्य महाप्रभु भी चले। श्रील सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने भी उसी मार्ग पर परिक्रमा की। अब भी उसी मार्ग पर कार्तिक मास में इस्कॉन की ओर से ब्रज मंडल परिक्रमा होती है। इस वर्ष करोना वायरस के कारण व लॉकडाउन होने के कारण फिजिकल रूप से परिक्रमा तो नहीं होने वाली है या तो कुछ दो चार गिने-चुने भक्त ही महाराज के साथ परिक्रमा करने वाले हैं। आपको परिक्रमा करना मना है लेकिन आपके लिए वर्चुअल परिक्रमा या ऑनलाइन परिक्रमा के आयोजन की व्यवस्था हो रही है। आने वाली 30 अक्टूबर से परिक्रमा का अधिवास होगा और 31 से यह ब्रज मंडल परिक्रमा प्रारंभ होगी। आप अपने अपने घरों में आराम से रहो, बैठो या खड़े भी हो सकते हो और वहीं से उस परिक्रमा को देखो, सुनो या परिक्रमा के साथ आगे बढ़ो। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ब्रजमंडल परिक्रमा का आदर्श भी हम सभी के समक्ष रखा है। हम ब्रज की आराधना भी करते हैं जब हम ब्रज की आराधना करते हैं आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृन्दावनं रम्या काचिदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता। श्रीमद् भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान् श्री चैतन्य महाप्रभोर्मत तत्रादरो न परः।। ( चैतन्य मंज्जुषा) अनुवाद:- भगवान व्रजेन्द्रनंदन श्री कृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभवयुक्त उनका श्रीधाम वृंदावन आराध्य वस्तु है। व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी, वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है। श्रीमद्भागवत ग्रंथ ही निर्मल शब्द प्रमाण है और प्रेम ही पुरुष पुरुषार्थ है- यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धांत हम लोगों के लिए परम आदरणीय हैं। चैतन्य महाप्रभु का जो मत है, उस मत के अनुसार बृजेश तनय नंदननंदन की आराधना है वृंदावन की आराधना है। वृंदावन धाम भी आराध्य है। वृंदावन धाम की आराधना कैसे करेंगे ?ब्रज की परिक्रमा करो। वृंदावन परिक्रमा करो। ऐसी परिक्रमा को पाद सेवनम भी कहा है जो नवधा भक्ति है उसमें एक भक्ति का प्रकार पाद सेवनम है। जब हम परिक्रमा करते हैं तो पादसेवनम नामक भक्ति भी करते हैं। यह आपके लिए परिक्रमा की घोषणा अथवा सूचना है। परिक्रमा को जॉइन करने के लिए आप सभी का स्वागत है। अधिक जानकारी आपको मिलती रहेगी। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु पुनः जगन्नाथपुरी लौटे हैं। उन्होंने जगन्नाथपुरी से तीन बार प्रस्थान किया और तीन बार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु पुनः जगन्नाथ पुरी लौटे। उन्होंने जगन्नाथ पुरी को बेस बनाया है। बेस बना कर उन्होंने पूरे भारतवर्ष का परिभ्रमण किया है। उसमें 6 वर्ष बीते। उसी समय श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ( श्री मद् भगवतगीता ४.८) अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ। या कलि- कालेर धर्म- कृष्ण- नाम- संकीर्तन। कृष्ण- शक्ति विना नहे तार प्रवर्तन।। ( श्री चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला श्लोक ७.११) अनुवाद:- कलियुग में मूलभूत धार्मिक प्रणाली कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने की है। कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त किए बिना संकीर्तन आंदोलन का प्रसार कोई नहीं कर सकता। या हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्। कलौ नास्तयेव नास्तयेव नास्तयेव गतिरन्यथा।। (बृहन्नारदीय पुराण ३.८.२६) अनुवाद:- इस कलियुग में आध्यात्मिक उन्नति के लिए हरि नाम हरि नाम और केवल हरि नाम के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है, अन्य कोई विकल्प नहीं है, अन्य कोई विकल्प नहीं है। या कृते यद्धयायते विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः। द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात्।। ( श्री मद् भागवतम १२.३.५२) अनुवाद:- सत्य युग में विष्णु का ध्यान करने से, त्रेता युग में यज्ञ करने से तथा द्वापर में भगवान के चरण कमलों की सेवा करने से जो फल प्राप्त होता है, वही कलियुग में केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करके प्राप्त किया जा सकता है। त्रेता युग में यज्ञ से और कलयुग में हरि कीर्तन से भगवान् की आराधना होती है। यह हरि कीर्तन/ हरि नाम/ जप कीर्तनं ही धर्म है। इस धर्म की स्थापना श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने की। हरि! हरि! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! यहीं विराम देते हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। आपका कोई प्रश्न या टीका टिप्पणी है तो आप उसे लिख भी सकते हो या आप कह भी सकते हो। हरे कृष्ण!

English

Russian