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*जप चर्चा* *29 -12 -2021* *अध्याय-10* हरे कृष्ण ! आज 1029 लोकेशन से भक्त जप में सम्मिलित हैं आप सभी का इस जप और जपा टॉक में स्वागत है। वैसे जप तो चल ही रहा है, चलता रहेगा पहले जप एंड नाउ फुल टॉक, इट्स नॉट माय टॉक, या भगवान ही बोलेंगे या हम भगवान को बोलने देंगे, भगवत गीता का दसवां अध्याय हम पढ़ रहे थे पिछले कई दिनों से अर्जुन का साक्षात्कार , “अर्जुन उवाच *परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् |पुरुषं शाश्र्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ||* *आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा | असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ||* (श्रीमद भगवद्गीता 10.12, 13) अनुवाद- अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं | हमारा भी साक्षात्कार है या अर्जुन का साक्षात्कार हम स्वीकार कर सकते हैं श्रद्धा पूर्वक या हम भी उस क्षण की प्रतीक्षा कर सकते हैं जब हम स्वयं भी कह पाएंगे परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान, एक तो अर्जुन की कही हुई बात को रिपीट करना उसका भी स्वागत है। ऐसे रिपीट करते करते गीता श्रवण, कीर्तन, चिंतन, प्रार्थना करते करते अर्जुन के विचार या अर्जुन के साक्षात्कार, निश्चित संभव है हमारा भी साक्षात्कार हो जाए, वरना तोते जैसा रटना अर्जुन जैसा साक्षात्कार, हमारा साक्षात्कार उसको हृदयंगम करना, अनुभव करना, कि हम भी कह पाएंगे अपने शब्दों में, अपने अनुभवों के साथ, परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् इत्यादि इत्यादि यह कहकर अर्जुन आगे कहते हैं *सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव | न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ||* (श्रीमद भागवतम 10.14) अनुवाद -हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ | हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं | गीता का नौवां अध्याय सुनाया है फिर दसवें अध्याय में आपने प्रवेश किया और अभी चार विशेष श्लोक भी आपने सुनाएं। श्रील प्रभुपाद उन 4 श्लोकों के संबंध में इसी अध्याय के अंतिम श्लोक के तात्पर्य में वे लिखते है इस अध्याय के श्लोक 8 से लेकर 11 तक श्रीकृष्ण की पूजा तथा भक्ति का स्पष्ट संकेत है। श्रील प्रभुपाद ने विशेष उल्लेख इन 4 श्लोकों का किया है। अर्जुन ने वह चार श्लोक और चार वचन भी या भगवान के मुखारविंद से निकले हुए वह चार श्लोक भी सुने हैं *गीता सुगीताकर्तव्या किमन्यौ: शास्त्रविस्तरैः । या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ॥* चूँकि भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है, अतएव किसी अन्य वैदिक साहित्य को पढ़ने की आवश्कता नहीं रहती । केवल भगवद्गीता का ही ध्यानपूर्वक तथा मनोयोग से श्रवण तथा पठन करना चाहिए । केवल एक पुस्तक, भगवद्गीता ही पर्याप्त है क्योंकि यह समस्त वैदिक ग्रंथो का सार है और इसका प्रवचन भगवान् ने किया है।”(गीता महात्मय ४) फिर इट्स नेचुरली अर्जुन के मुख से यह वचन, अर्जुन उवाच चल रहा है। परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् और इसी को फिर आगे अर्जुन कह रहे हैं आपने जो जो कहा है। “सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव, मन्ये मतलब मैं मानता हूं स्वीकार करता हूं। यह सत्य है मैं जो भी कहूंगा सत्य या सच ही कहूंगा इसके अलावा और कुछ भी नहीं कहूंगा। गीता के ऊपर हाथ उठाकर वह कहते हैं। अर्जुन भी कह रहे हैं कि आपने जो भी कहा है वह सब सत्य है। *सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनि निहितं च सत्ये सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्र सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः ॥* (श्रीमद भागवतम 10.2.26) अनुवाद -देवताओं ने प्रार्थना की हे प्रभो , आप अपने व्रत से कभी भी विचलित नहीं होते जो सदा ही पूर्ण रहता है क्योंकि आप जो भी निर्णय लेते हैं वह पूरी तरह सही होता है और किसी के द्वारा रोका नहीं जा सकता । सृष्टि, पालन तथा संहार - जगत की इन तीन अवस्थाओं में वर्तमान रहने से आप परम सत्य हैं। कोई तब तक आपकी कृपा का भाजन नहीं बन सकता जब तक वह पूरी तरह आज्ञाकारी न हो अत : इसे दिखावटी लोग प्राप्त नहीं कर सकते । आप सृष्टि के सारे अवयवों में असली सत्य हैं इसीलिए आप अन्तर्यामी कहलाते हैं । आप सबों पर समभाव रखते हैं और आपके आदेश प्रत्येक काल में हर एक पर लागू होते हैं। आप आदि सत्य हैं अतः हम नमस्कार करते हैं और आपकी शरण में आए हैं । आप हमारी रक्षा करें । आपने जो जो कहा है मुझे, यह सब सत्य है और यह मुझे मंजूर है। अर्जुन का आदर्श है हमें भी सीखना चाहिए ऐसे आदर्श भाव से, ऐसी श्रद्धा से, श्रद्धा के साथ हमें भी कृष्ण के वचनों को सुनना चाहिए स्वीकार करना चाहिए कि यह सत्य है। हम बोल रहे हैं गॉड इज ट्रुथ, सच कहते हैं लोग, गॉड सत्य हैं या गॉड जो भी बोलते हैं कृष्ण जो भी बोलते हैं वह सत्य ही है और देवता भी गर्भ स्तुति में कह रहे थे। *सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनि निहितं च सत्ये सत्यस्यसत्यमृतसत्यनेत्र सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः ॥* (श्रीमद भागवतम 10.2.26) आप सत्य हो आप सत्य का स्त्रोत हो सत्यम सत्यम सत्यम सत्यम सत्यम कई बार और कई शब्दों में देवता कह रहे हैं। श्री सत्यम अतः कृष्ण सत्य है गॉड इज़ ट्रुथ और गॉड जो भी बोलते हैं वह सत्य ही बोलते हैं सत्य के अलावा और कुछ नहीं बोलते और फिर उस सत्य की जय होती है सत्यमेव जयते ! यह कहने पर फिर अर्जुन आगे कहते हैं उसमें से एक बात उनकी जिज्ञासा है। अर्जुन की अथातो ब्रह्म जिज्ञासा या कुछ परी प्रश्नेन है बनने वाला है या प्रेरित कर रहे हैं। *वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः |याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 10.16) अनुवाद- कृपा करके विस्तारपूर्वक मुझे अपने उन दैवी ऐश्र्वर्यों को बतायें, जिनके द्वारा आप इन समस्त लोकों में व्याप्त हैं | आपकी जो विभूतियां हैं आपका जो वैभव है उस संबंध में मैं सुनना चाहता हूं। *कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् | केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।* (श्रीमद्भगवद्गीता 10.17) अनुवाद-हे कृष्ण, हे परम योगी! मैं किस तरह आपका निरन्तर चिन्तन करूँ और आपको कैसे जानूँ? हे भगवान्! आपका स्मरण किन-किन रूपों में किया जाय? केषु केषु च भावेषु , मैं किस-किस रूप में किन किन भावों से किन किन रूपों में मैं आपका चिंतन कर सकता हूं। दसवां अध्याय चल रहा है 12वें श्लोक से तो यह जो मैंने अभी कहा केषु केषु च भावेषु, आपके पास गीता है? हम सब गीता के विद्यार्थी हैं इसलिए हमारे पास टेक्स्ट बुक होना चाहिए। मॉरीशस में तो है गुड ! नागपुर में भी है वहां तो भगवत गीता एज इट इज़ रखी हुई है। कईयों के हाथों में तो मैं देख रहा हूं और फिर हाथ में ही नहीं रखना दिल में रखिए। गीता को आंखों से और कानों से पहुंचा दीजिए, गीता को हृदय में मतलब हृदयंगम करना है और वही तो आप रहते हो, आत्मा के पास पहुंचा दो, आत्मा को सुनने दो अर्जुन के वचन और कृष्ण के वचन , अर्जुन जानना चाहते हैं मैं आपका स्मरण करना चाहता हूं चिंतन करना चाहता हूं केषु केषु च भावेषु किस-किस रूप में, भाव में मैं आपका स्मरण कर सकता हूं। हमको तो चिंतन की चिंता है मैं चिंतन करना चाहता हूं मुझे कुछ टॉपिक दीजिए कुछ विषय दीजिए, कुछ प्रश्न दीजिए कुछ कहिए इसका स्मरण करो अर्जुन, तो वही बात है इस अध्याय में 10th चैप्टर में श्री भगवान का ऐश्वर्य भगवान का वैभव इस अध्याय का नाम भी है। अर्जुन वैसे दूसरे शब्दों में भगवान के वैभव को जानना चाहते हैं उनका वैभव एवं अलग-अलग रूप जो भी है वैविध्य है आपकी सृष्टि में विविधता है या आप कई सारे रूपों में आप प्रकट होते होंगे, होंगे कि नहीं थोड़ा उल्लेख कीजिए, संकेत दीजिए कहिए ताकि फिर मैं उनका भी स्मरण करूं। *कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन | भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 10.18) अनुवाद- हे जनार्दन! आप पुनः विस्तार से अपने ऐश्र्वर्य तथा योगशक्ति का वर्णन करें | मैं आपके विषय में सुनकर कभी तृप्त नहीं होता हूँ, क्योंकि जितना ही आपके विषय में सुनता हूँ, उतना ही आपके शब्द-अमृत को चखना चाहता हूँ | वैसे वह शौनक आदि ऋषि मुनि भी कह रहे थे हे सूत गोस्वामी कथा सुनाते रहिए सुनाते रहिए। *वयं तु न वितृप्याम उत्तमश्लोकविक्रमे । यच्छृण्वतां रसज्ञानां स्वादु स्वादु पदे पदे ॥* ( श्रीमदभागवतम 1.1.19) अनुवाद- हम उन भगवान् की दिव्य लीलाओं को सुनते थकते नहीं , जिनका यशोगान स्तोत्रों तथा स्तुतियों से किया जाता है । उनके साथ दिव्य सम्बन्ध के लिए जिन्होंने अभिरुचि विकसित कर ली है , वे प्रतिक्षण उनकी लीलाओं के श्रवण का आस्वादन करते हैं । तृप्त नहीं हो रहे हैं जैसे आप अधिक अधिक सुना रहे हो अधिक अधिक सुनने की इच्छा जग रही है। प्यास कुछ बढ़ ही रही है। सुनाते जाइए ऐसा शौनक आदि मुनि कह रहे हैं सूत गोस्वामी से, उनका निवेदन था अतः अर्जुन यहां पर वैसा ही अपना भाव व्यक्त कर रहे हैं लोगों का ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं। तृप्तिम न अस्ति, तृप्त हो रहा हूं और नहीं भी हो रहा हूं। आपने सुना तो सेटिस्फाइड समाधान है लेकिन और सुनने की तीव्र लालसा है इच्छा है और सुनाइए, ऐसा निवेदन अब अर्जुन ने किया है। हमको भी सीखना चाहिए कि देखो अर्जुन का भाव देखो, अर्जुन थके नहीं हैं। किन्तु हम तो पिछले 10 मिनटों से सुन रहे हैं और हमारा मन और कहीं दौड़ रहा है और कितने दिनों से महाराज गीता की कथा सुना रहे हैं या फिर कृष्ण की कथा सुना रहे हैं और फॉर चेंज कुछ माया की कथा हो जाए। हम तो थक गए भाई यह सुन सुन के, कुछ वैरायटी भी हो। यह हमारा गला भी काम करना बंद कर देता है हमारा हाल ऐसा है सुनाने वाले भी थक जाते हैं। व्हाट टू डू ? अर्जुन उत्कंठित है। *उत्साहात्निश्वयाद्धैर्यात् तत्त्कर्मप्रवर्तनात् । सङ्गत्यागात्सतो बृत्तेः वह्मिर्भक्ति:प्रसिध्यति ।।* (उपदेशामृत -3) अनुवाद- भक्ति को सम्पन्न करने में छह सिद्धांत अनुकूल होते हैं : (१) उत्साही बने रहना शुद्ध (२) निश्चय के साथ प्रयास करना (३) धैर्यवान होना (४) नियामक सिद्धांतों के अनुसार कम करना ( यथा श्रवणं, कीर्तनं, विष्णो: स्मरणम्--कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना) (५) अभक्तों की संगत छोड़ देना तथा ( ६ ) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरणचिह्नों पर चलना। ये छहों सिद्धान्त निस्सन्देह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं। उपदेशामृत में कहा है व्यक्ति को उत्साही होना चाहिए ,धैर्यवान होना चाहिए, अर्जुन अपना उत्साह उत्कंठा निश्चय व्यक्त कर रहे हैं मैंने कह दिया और शायद अभी अर्जुन ने भी कह दिया, परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् , ओके अर्जुन अपने भ्रम से मुक्त हो गया अब आगे कुछ सुनाने की आवश्यकता नहीं मैं यहीं विराम देता हूं अपनी वाणी को। भगवत गीता कुछ 9 अध्याय वाली हो जाएगी क्योंकि इनको साक्षात्कार हो गया ( मैं कौन हूं ) वैसे यह दोनों रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। अर्जुन ने जैसे जिज्ञासा की है और जानना चाहते हैं और सुनना चाहते हैं, आप चाहते हो कि नहीं? यस, नो ! कुछ पता नहीं चल रहा है हरि हरि ! श्री भगवानुवाच *हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः | प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ||* अनुवाद- श्रीभगवान् ने कहा – हाँ, अब मैं तुमसे अपने मुख्य-मुख्य वैभवयुक्त रूपों का वर्णन करूँगा, क्योंकि हे अर्जुन! मेरा ऐश्र्वर्य असीम है | कृष्ण ने कहा उन्नीस श्लोक में कथयिष्यामि तुमको मैं सुनाऊंगा दिव्या ह्यात्मविभूतयः विभूति का वचन हुआ एक विभूति से अनेक विभूतियां और कैसी विभूतियां ? दिव्या ह्यात्मविभूतयः हे अर्जुन तुमको मैं मेरी जो दिव्य विभूतियां है मेरा वैभव है उसको मैं सुनाऊंगा और जो यहां की प्रधानता या मोटी मोटी बात है क्योंकि बातें तो अनेक हैं असंख्य हैं। यहां सेनयोरभयोमध्ये हम सेना के दोनों ओर मध्य में खड़े हैं। युद्ध किसी भी क्षण प्रारंभ हो सकता है। मैं डिटेल में नहीं जा सकता इसीलिए कृष्ण कह रहे हैं प्रधानता जो मोटी मोटी मुख्य मुख्य जो वैभव है उसका में उल्लेख करने वाला हूं। ऐसा कहकर श्री कृष्ण *अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः | अहमादिश्र्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ||* (भगवद्गीता 10.20) अनुवाद- हे अर्जुन! मैं समस्त जीवों के हृदयों में स्थित परमात्मा हूँ | मैं ही समस्त जीवों का आदि, मध्य तथा अन्त हूँ | श्लोक संख्या 20 से श्रीभगवान उवाच अहमात्मा गुडाकेश जिसने निद्रा को जीत लिया है गुडाकेश यह बातें उनको सुनाई जाएंगी, आपने जीता है अभी इस क्षण क्या हो रहा है आपका हाल जीव जागो ! तो अहमात्मा गुडाकेश मैं परमात्मा हूं अपना वैभव की जो सूची है उसमें पहला आइटम जो उन्होंने कहा है अहमात्मा हे अर्जुन मैं परमात्मा हूं हरि हरि ! *एकोऽप्यसो रचयितुं जगदण्डकोटिं यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्तः । अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं गोविन्दमादिपुरुष तमहं भजामि ॥* (ब्रम्हसहिता 5.35) अनुवाद - शक्ति और शक्तिमान दोनों अभिन्न ( भेदरहित ) एक ही तत्त्व हैं । करोड़ों - करोड़ों ब्रह्माण्डकी रचना जिस शक्तिसे होती है , वह शक्ति भगवान्में अपृथकरूपसे अवस्थित है सारे ब्रह्माण्ड भगवान्में अवस्थित हैं तथा भगवान् भी अचिन्त्य - शक्तिके प्रभावसे एक ही साथ समस्त ब्रह्माण्डगत सारे परमाणुओंमें पूर्णरूपसे अवस्थित हैं , ऐसे आदिपुरुष गोविन्दका मैं भजन करता हूँ ॥३५ ॥ भगवान ने कह दिया कि मैं परमात्मा हूं तो फिर तो उस परमात्मा को समझना होगा। परमात्मा सर्वत्र हैं। कण-कण में भगवान , अर्जुन जानना चाहते हैं किस किस भाव में, रूपों में मैं आपका स्मरण कर सकता हूं। यहाँ 1 बता दिया मैं परमात्मा हूं। परमात्मा कहां है ? कण कण में , ब्रह्मा ने कहा *अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं* क्या समझ में आ रहा है ?अंड , अंड मतलब संडे हो या मंडे खाते जाओ अंडे की बात नहीं है यहां , अंड मतलब ब्रह्मांड की बात और दोनों ही अंडे के आकार है। ब्रह्मांड के आकार का अंडा है अंडे के आकार का ब्रह्मांड, ब्रह्मांड का परमात्मा कौन है ? गर्भोदकशायी विष्णु है ब्रह्मांड का परमात्मा, ब्रह्मांड एक एक विग्रह एक रुप है और फिर आगे ब्रह्म संहिता में ब्रह्मा कहते हैं परमाणुचयान्तरस्थं मतलब, एटम कण, तो कण-कण में भगवान कण-कण में परमात्मा है। देखिए भगवान की सर्वव्यापकता, इस तरह हो गया यह भगवान का वैभव है। ग्रैंड लॉर्ड ऐसे महान भगवान हैं। वे सर्वत्र हैं और कहते भी हैं भगवान सर्वज्ञ हैं सब कुछ जानते हैं सर्वत्र हैं हम तो जहां है वहीं हैं और कहीं नहीं हैं हम जहां हैं वहां की बातें ही जानते हैं। जैसे यहां लाइट नहीं है अभी, लेकिन हम सर्वज्ञ नहीं हैं सब स्थानों पर नहीं हैं लेकिन भगवान सर्वत्र हैं इसीलिए सर्वज्ञ हैं। इस प्रकार से यह परमात्मा का वैभव उल्लेख किया। अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः सभी के हृदय प्रांगण में मैं परमात्मा के रूप में रहता हूं। ऐसी बात कही , अहमादिश्र्च मध्यं च भूतानामन्त एव च, क्या बच गया फिर सभी जीवो का आदि मैं हूं मध्य में हूं और अंत में हूं। यह वैभव हुआ । 10. 20 इसको हम याद रख सकते हैं दसवां अध्याय 20 श्लोक ओके टाइम इज़ अप, केवल एक आइटम का उल्लेख हुआ और कुछ वैभव को जानने का हम प्रयास कर रहे थे लेकिन प्रयास की शुरुआत ही हुई परमात्मा जो भगवान का वैभव है विभूति है इतने में उनका, श्रीभगवानुवाच *कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः | ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ||* ( श्रीमद भगवद्गीता 11.32) अनुवाद- भगवान् ने कहा – समस्त जगतों को विनष्ट करने वाला काल मैं हूँ और मैं यहाँ समस्त लोगों का विनाश करने के लिए आया हूँ । तुम्हारे (पाण्डवों के) सिवा दोनों पक्षों के सारे योद्धा मारे जाएँगे । भगवान कहते हैं मैं समय हूं। समय आ गया इस टॉक का अंत करने का समय वह भी भगवान ही हैं। भगवान आ गए तो अभी रुक जाते हैं या मैंने सोचा था कि भगवान का ऐश्वर्य नामक जो अध्याय हैं दसवें अध्याय का पूरा सारांश आपको आज ही सुना दूंगा, इसमें कई सारे ऐश्वर्य का उल्लेख किया है कृष्ण ने और इतना सारा उल्लेख करने के बाद , *अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन |विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ||* (श्रीमद भगवद्गीता 10.42) अनुवाद-किन्तु हे अर्जुन! इस सारे विशद ज्ञान की आवश्यकता क्या है? मैं तो अपने एक अंश मात्र से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर इसको धारण करता हूँ | कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्, अर्जुन जो मैंने कहा यह शुरुआत है मेरे वैभव तो असंख्य हैं। मुझे जो कहना था मैंने नहीं कहा, समय का अभाव या समय का प्रभाव या कृष्ण का प्रभाव, कृष्ण सर्वत्र हैं शुरुआत में थे मध्य में थे और अंत करने भी आ ही गए, भगवान काल के रूप में , अतः हम भी अपनी वाणी को विराम देते हैं। शुरुआत करते हैं सुनने के लिए कल के रिजल्ट और आप लोगों के क्या प्रयास रहे गीता वितरण के प्रयास जो आपने किए प्रयास होना चाहिए , *सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्र्च दृढव्रताः | नमस्यन्तश्र्च मां भक्तया नित्ययुक्ता उपासते ||* (श्रीमद भगवद्गीता 9.14) अनुवाद- ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढसंकल्प के साथ प्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए, भक्तिभाव से निरन्तर मेरी पूजा करते हैं| कैसे यत्न करना चाहिए। कैसा? दृढ़ व्रत के साथ, आप में से कईयों ने असाधारण व्रत लिया हुआ है और सभी को लेना चाहिए यह दृढ़ व्रत ,गीता वितरण का व्रत और फिर जो व्रत लेता है उसे व्रती कहते हैं। आप सबको व्रती होने का, कथा व्रत कथा का श्रवण करूंगा तो कथा व्रती कथा का वितरण करूंगा गीता का वितरण करूंगा ऐसा मैंने संकल्प लिया है दृढ़ संकल्प है तो फिर हम व्रती हो गए। आप में से कई सारे मैदान में उतर रहे हो या हो सकता है ऑनलाइन डिस्ट्रीब्यूशन कर रहे हो ऑन ग्राउंड, ऑनलाइन , कृष्ण की प्रसन्नता के लिए और हमारे पूर्ववर्ती आचार्य की प्रसन्नता के लिए, श्रील प्रभुपाद की प्रसन्नता के लिए, और हम सभी की प्रसन्नता के लिए, सुनते हैं देखते हैं किसने कितना प्रयास किया उसका क्या फल स्वरुप है। गीता जयंती महोत्सव की जय ! ग्रंथ वितरण कार्यक्रम की जय ! श्रील प्रभुपाद की जय ! कृष्ण अर्जुन की जय ! श्रीमद्भगवद्गीता की जय ! कुरुक्षेत्र धाम की जय ! गौर प्रेमानंदे ! हरि हरि बोल!

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