Hindi

*जप चर्चा,* *30 अप्रैल 2021,* *पंढरपुर धाम.* हरे कृष्ण, आज समय हो भी गया लेकिन हमें पता नहीं चला, मैं तो जप करते ही रहा। 840 स्थानो से भक्त जब के लिए जुड़ गए हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! हरि बोल, आप सभी कैसे हो, आनंद में होना? सुखी रहो, भगवान आप सब को सुखी रखे। सुख पर आपका अधिकार है। वैसे दुख से कोई संबंध ही नहीं है, किंतु हमने की गलती और हम पहुंच गए यहां ब्रह्मांड में और भोग विलास करने लगे। फिर भोग का परिणाम रोग ऐसा नियम हे ही, इसको टाल नहीं सकते। यहां आए और सुखी होने का प्रयास जारी रहा लेकिन इस संसार का सुख ही हमारे दुख का कारण बनता है। हरि हरि, सुखी रहो मैंने कहा तो सुखी रहो, आनंद में रहो यही चाहिए था। आनंदमवृद्धिवर्धन आपके जीवन में आनंद की वृध्दि हो। सुख का फल या सुख का परिणाम दुख है, लेकिन आनंद का परिणाम आनंद का फल और आनंद हैं। वह आनंद बढ़ता रहता है सुख और दुख यह द्वंद्व है। संसार में सुख और दुख द्वंद्व है। जैसे पाप और पुण्य स्वर्ग और नरक यह द्वंद्व है, लेकिन आनंद का द्वंद्व नहीं है बस आनंद ही आनंद है। आनंद का कोई दुष्परिणाम नहीं है। सुख का परिणाम दुख। * “ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते* भगवान ने कहा है, मैं इस विचार को आगे बढ़ाना नहीं चाहता हूं आप समझ गए होंगे। इस संसार में सुखी होने का प्रयास नहीं करना। आनंद लूटा करो भक्ति का आनंद, कृष्ण का आनंद आनंद ही आनंद है आध्यात्मिक जीवन में। अध्यात्मिक कार्यकलापों का फल है, परिणाम है आनंद। हरि हरि, अगर कहीं हमसे गलतियां हुई है, चूक हुई है या कभी पाप पुण्य भी हुआ है वैसे पुण्य भी अच्छा नहीं है किंतु पाप से अच्छा है। पुण्य भी ठीक नहीं है। भक्ति के कर्मों के साथ पुण्य की तुलना नहीं हो सकती। ऐसे कर्मों के साथ भक्ति की तुलना करोगे तो अपराध कर बैठोगे। पुण्य अपने स्तर पर हैं। पापके साथ जुड़ा हुआ है पुण्य लेकिन इस द्वंद्व के पाप और पुण्य के परे हैं आनंद। हरि हरि, पाप करेंगे तो हम नरक जाएंगे *अधोगच्छन्ति तामसः* और पुण्य करेंगे तो *ऊर्ध्वम गच्छन्ति स्वर्ग* जाएंगे किंतु भक्ति करेंगे *हरे कृष्ण ^हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।* *हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* यह भक्ति है, श्रवण कीर्तन यहां भक्ति हैं। तो ऐसी भक्ति करेंगे हम तो स्वर्ग और नरक से भी परे पहुंच जाएंगे, वैकुंठ पहुंच जाएंगे, भगवत धाम लौटेंगे। *कृष्णप्राप्ति हय जहां हयते* कृष्ण प्राप्ति होगी। हरि हरि, तो कई लोग पुण्य कर्मों को धार्मिक कृत्य समझते हैं। उसमें धार्मिकता कुछ आंशिक रूप से होती भी है किंतु भगवान नेे कहा *सर्वधर्मानपरित्यज्य* उसको भी आप त्याग दो। फिर वो कर्मकांड जो होता है हम यज्ञ करते हैं, देवताओं को प्रसन्न करने केेेे लिए यज्ञ करते हैं, तो यह पुण्य कर्म हुआ पुण्य विधान हुआ लेकिन हुआ तो कर्मकांड। *देवान्देेवो यजो यान्ति* ऐसा श्रीकृष्ण ने कहा है आप देवताओं के पुजारी बनाओगे तो फिर ठीक है स्वर्ग जाओ। हरि हरि, स्वर्ग में है सुख किंतु आत्मा को सुख नहीं चाहिए। सुख से आत्मा प्रसन्न नहीं होने वाला है। आत्मा तो स्वभाव से ही आनंदमय होता है। सत चित आनंद, भगवान सच्चिदानंद है। भगवान सच्चिदानंद विग्रह है। और हम उनके अंश है *“ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः* इसीलिए हम भी फिर हो गए सच्चिदानंद। अंशी मतलब पूर्ण कौन है पूर्ण? *ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।* *पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥* अनुवाद भगवान् परिपूर्ण हैं और चूँकि वे पूरी तरह से पूर्ण हैं , अतएव उनसे होने वाले सारे उद्भव जैसे कि यह दृष्य जगत , पूर्ण इकाई के रूप में परिपूर्ण हैं । पूर्ण से जो कुछ उत्पन्न होता है , वह भी अपने आप में पूर्ण होता है । चूँकि वे सम्पूर्ण हैं , अतएव उनसे यद्यपि न जाने कितनी पूर्ण इकाइयाँ उद्भूत होती हैं , तो भी वे पूर्ण रहते हैं । भगवान पूर्ण है। पूर्ण को संस्कृत भाषा में अंशी कहते हैं। और उस पूर्ण का भाग अंश हुआ तो मम एवं अंश ऐसे कनेक्शन जुड़ जाते हैं। मम एवं अंश जीवलोके जीवभूत सनातन मम एवं मेरा ही तो अंश है। कौन कह रहे हैं, गीता के वक्ता कौन हैं, श्रीभगवानुवाच तो भगवान कह रहे हैं। *“ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |* *मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||* *(भगवत गीता 15.7)* *अनुवाद* इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है । ममैवांशो तू मेरा ही अंश है। मैं सच्चिदानंद हूं तो फिर जीव भी सच्चिदानंद है। सोने की खान है, उसमें से कुछ सोना ले लिया। उससे सोने की कुछ गहने, अलंकार, अंगूठी बनाई तो वह भी सोना है। सोने की खान में भी सोना है वह पूर्ण सोना है। वह टनो में सोना है और उसमें से कुछ तोला या कुछ ग्राम की अंगूठी बनाई तो फिर भी वह दोनों भी सोना है। तो उसी प्रकार कृष्ण के मम एवं अंश मेरा ही तो जीव मेरा ही तो अंश है। इसी प्रकार अगर मैं सच्चिदानंद हूँ तो मेरे अंश भी सच्चिदानंद है। जीव सच्चिदानंद है उस शब्द का उच्चारण किया, तो मुझे यह ध्वनित हो रहा है मम एव अंश भगवान कह रहे हैं। तो मेरा ध्यान एव की तरफ जा रहा है मम अंश भगवान कह सकते थे, लेकिन सचमुच ही जानबूझकर भगवान कह रहे हैं। मम एवं अंश यह जीव मेरा ही अंश है। मम एवं और किसी का नहीं है। जीव जीवात्मा केवल और केवल मेरा ही अंश है और किसी का नहीं है। और हम और किसी देवी देवता के तो अंश है ही नहीं। कुछ इस तरह से हमें समझना होगा। आत्मा देवी देवता का अंश नहीं है। वैसे समझ तो यह है कि देवी देवता भी भगवान के अंश है। देवी देवता भी आत्मा है। कृष्ण ही उनको कुछ विशेष शक्तियां अधिकार देते हैं उनसे महान कार्य करवाते हैं। ब्रह्मा भी इसमें शामिल है। ब्रह्मा भी आत्मा है। जैसे आप आत्मा हो, मैं आत्मा हूं और कई सारे आत्माएं हैं। ब्रह्मा भी आत्मा है। वही आत्मा जिस के आकार की बात कर रहे हैं हमारे बालों के नोक का एक हजारवा भाग है आत्मा की साईज। ब्रह्मा भी आत्मा है। हरि हरि, यह देवता स्वयं ही आत्मा है। ममैवांशो हम केवल और केवल भगवान के अंश है। कौन बोल रहे हैं. हरि हरि वैसे अंश की बात है तो विभिन्न अंश अभिन्न अंश ऐसे भी शब्द का प्रयोग होता है। भिन्न अंश तो हम जीव भगवान के अंश हैं। *एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।* *इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥ २८ ॥* *(श्रीमद भगवतम 1.3.28)* अनुवादः उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं । श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध के तृतीय अध्याय में भगवान के सभी अवतारों का उल्लेख हुआ। 22 अवतारों का उल्लेख हुआ 24 का होना चाहिए था, लेकिन 22 का ही हुआ। और फिर उनका एते मतलब इन सभी का जिसका जिसका मैंने उल्लेख किया, सूत गोस्वामी बोल रहे हैं। सूत गोस्वामी का वचन है। तो एते *एते चांशकलाः पुंसः * तो यह भी अवतार है। अवतार भी अंश है या फिर अंशांश है, और फिर जीव भी है। *कृष्णस्तु भगवान स्वयं* किंतु कृष्ण स्वयं भगवान है। और कई सारे अवतार यह आंशिक भगवान है और जीव भी भगवान का अंश है। तो इन दोनों में एक तो विभिन्ना अंश भिन्न नहीं है। भगवान के विभिन्न अवतार है। भगवान कहते हैं संभवामि युगे युगे तो वह भगवान से भिन्न नहीं है और वे सभी अच्युत कहलाते हैं। जो छूत नहीं होते। अवतारों का पतन नहीं होता। अवतार लेते हैं और अवतार कभी अपने कृत्य से कार्यों से बद्ध नहीं होते। *न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा* ऐसी श्रीकृष्ण ने कहा है भगवतगीता में। तो यहां लागू होता है अवतारों को भी। *मां कर्माणि लिम्पन्ति* यहां अवतार लेपायमान नहीं होते इन अवतारों का पतन नहीं होता। यह कभी बध्द नहीं बनते। यह सदैव मुक्त ही रहते हैं। यह भगवान है। भगवान के अवतार हैं किंतु वह भी अंश है। और अवतारों में कई प्रकार है। अंश, अंशांश किंतु जीव को भिन्न अंश कहां है। विभिन्न अंश भिन्न अंश जीव का पतन होता है। *भोगवांच्छा करे निकटस्थ माया तारे झपटिया धरे* भोगवांच्छा की तो जीव का पतन होता है और इस संसार में आकर वह भोग भोगने लगता है। फिर उसी भोगो से रोग होता है। या भोग भोगने का उद्देश्य सुख प्राप्ति होता है किंतु शुरुआती सुख का परिणाम तो दुख में ही होता है। जो कुछ भी है हम भगवान के अंश हैं। अवतारी भगवान है तो उनके हम अंश हैं लेकिन हम देवी देवता के जो 33 करोड़ देव हैं उनके अंश नहीं है। हम या किसी के विषय में यह सब बात हो रही हैं, वैसे कृष्ण ने जो कहा है 15वें अध्याय 15 वा श्लोक, *“सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो* *मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |* *वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो* *वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् || १५ ||”* *(भगवत गीता 15.15)* अनुवाद मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला है। भगवान ने कहां है क्या कहा, *सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो* मैं सभी के ह्रदय में विराजमान हूं। कृष्ण ने कहा है, सभी के ह्रदय में मैं विराजमान हूं। इंद्र गौज्जम से लेकर इंद्र तक या चींटी से लेकर हाथी तक जितनी भी योनिया है और वे जहां भी है मनुष्य भी इसमें शामिल है। मनुष्यनाम चतुलक्ष्णाम मनुष्य के भी 400000 प्रकार के योनि जितने भी है, जहां भी है। अमेरिकन्स के हृदय में भी भगवान है क्या? हां हां और कौन से भगवान हैं, जो यहां कह रहे हैं *सर्वस्य चाहं ह्रदी* आहम कौन है यहां भगवान है। सन्निविष्टो मैं निवास करता हूं, रहता हूं सभी के ह्रदय में। जिनको हम परमात्मा कहते हैं ह्रदय में जो विराजमान होते हैं। हम सभी के ह्रदय में परमात्मा है, देवी देवता नहीं है, इसे आप अच्छे से समझ लीजिए। देवी देवता हमारे ह्रदय में नहीं है या भूत पिशाच हमारे ह्रदय में नहीं है या मातृ पितृ हमारे ह्रदय में नहीं है हम सभी के ह्रदय में भगवान निवास करते हैं। हरि हरि। तो स्वभाव से सहज रूप से हम लोग आनंद की मूर्ति है सच्चिदानंद है। उस आनंद को हमने जब प्राप्त किया, अनुभव किया तो फिर हम इस संसार के सुख की चिंता कभी नहीं करेंगे सुख को मारो गोली। *न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।* *मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥४॥* अनुवाद - सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दरी स्त्री अथवा सालंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे। भगवान की अहैतुकी भक्ति जब प्राप्त होती है तो चैतन्य महाप्रभु भी कह रहे है फिर मुझे परवाह नहीं है यह सब संसार की, धन-दौलत संपत्ति प्राप्त हो नहीं हो या जैसे भी आप रखोगे हम तैयार हैं। और मुक्ति का आनंद भी हम चखना नहीं चाहते। *मम जन्मनि जन्मनीश्वरे* जन्म जन्मांतर के लिए ईश्वरे मतलब ईश्वर में परमेश्वर में या परमेश्वर की भक्ति हमें प्राप्त हो। *मोर एइ अभिलाष, विलासकुंजे दिओ वास* *आर न करिह मने आशा* और कोई आशा फिर बचती नहीं या हम जब कृष्णानंद का अनुभव करते हैं। इसीलिए निमंत्रण दे रहे हैं भगवान आनंद का आओ कीर्तन करो फिर कीर्तनानंद, श्रवणानंद, स्मरणानंद आनंद ही आनंद। नवविधा भक्ती है और यह भक्ति आनंद प्रदान करेंगी आत्मानिवेदन फिर क्या आनंद ही आनंद। *अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः* हमने किए हुए पापों से मुक्त होंगे। सारे संसार में दो प्रकार के कार्य हम करते रहते हैं पाप और पुण्य। तो पुण्य का फल भी अच्छा नहीं है स्वर्ग प्राप्ति है, स्वर्ग का आनंद है। लेकिन भक्ति प्राप्ति के समक्ष स्वर्ग का आनंद तो तुच्छ है। हरि हरि। ठीक है तो आप और विचार कीजिए, इन विचारों का मंथन इन विचारों का आपस में कुछ *बोधयंन्तः परस्परं* कर सकते हो और भक्तों के साथ इसी चर्चा को आगे बढ़ा सकते हो। परिवार में पति पत्नी एक साथ या घर में कोई इष्ट गोष्टी हो सकती हैं। क्यों नहीं? वैसे शिव और पार्वती सब समय ऐसी चर्चा करते रहते हैं। फिर भक्तों भक्तों के बीच में, काउंन्स्ली काउंसलर के बीच में ऐसी चर्चा होती है, हमारे भक्ति वृक्ष कार्यक्रम में भी यह चर्चा का विषय हो सकता है। फिर जारे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश तो करना ही होता है, तो उसके अंतर्गत भी यह उपदेश अभी आप जो सुन रहे हो इस उपदेश को औरों के साथ शेयर करो। ताकि वह सुखी हो जाए सुखी नहीं कह सकते आनंदमय जीवन का वे अनुभव करे। तो सुख का पीछा छोड़ो, जब तक सुख का पीछा नहीं छोड़ोगे तब तक दुख आपका पीछा नहीं छोड़ेगा। सरल सूत्र है केवल सुख नहीं मिलेगा, एक खरीदे और तीन मुफ्त पाइए ऐसा भी कहते हैं। आप एक वस्तु खरीद लो तो साथ में आपको यह दो आइटम फ्री मिलेंगे, दो खरीदो तो पांच मिलेंगे, पांच खरीदो तो दस मिलेंगे ऐसे ठगाते हैं आपको यह मॉल वाले। तो वैसे ही जो भी इंद्रिय भोग के विषय या वस्तु को हम लोग खरीदते हैं प्राप्त करते हैं, उसके साथ उस वस्तु को खरीदने के लिए आपको कुछ पैसे कुछ मूल्य चुकाने होते हैं। लेकिन फ्री में क्या आता है? दुख फ्री में आता है। सुख प्राप्ति के लिए तो पैसा लगता है लेकिन आपको दुख फ्री मिलेगा। जब हम सुख की वस्तु को खरीदते हैं सुख प्राप्ति के लिए तो बुद्धिमान व्यक्ति जानता है.. *“ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते |* *आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः || २२ ||”* ( भगवद गीता 5.22) अनुवाद बुद्धिमान् मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौतिक इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं | हे कुन्तीपुत्र! ऐसे भोगों का आदि तथा अन्त होता है, अतः चतुर व्यक्ति उनमें आनन्द नहीं लेता | लेकिन जो बुद्धिमान व्यक्ति है वह जुटाएगा ही नहीं, खरीदेगा ही नहीं वह वस्तुए, वह इंद्रिय भोग के साधन। इससे क्या हुआ *ये हि संस्पर्शजा भोगा* कुछ तो भोग कुछ तो सुख का अनुभव किया लेकिन *दु:खयोनय एव ते* वही सुख बनेगा दुख का स्त्रोत दुख की योनि। लेकिन जो बुद्धिमान होते हैं वह क्या करते हैं *आद्यन्तवन्तः कौन्तेय* हे कौन्तेय अर्जुन.. वैैसे शुरुआत में सुख तो मिला लेकिन उसका अंत हुआ मतलब दुख मिला। तो ऐसे आदि और अंत होने वाले, शुरुआत और उसका अंत होने वाले सुख की शुरुआत होते होते ही आ गया दुख आ गया, तो यहां आदि अंत आदि अंत। सुख कि शुरुआत फिर उसका अंत तो सुख का अंत मतलब दुख। *न तेषु रमते बुधः* ऐसे झंझटो में, ऐसे काम धंधे में, ऐसे शॉपिंग करने में *न तेषु रमते बुधः* रममान नहीं होते। कौन नहीं होते? जो बुद्धिमान होता है *न तेषु रमते बुधः*। ऐसा शॉपिंग ही नहीं करेगा उसे दूर रहेगा मतलब सुख से और दुख से दूर रहेगा इन दोनों के परे। क्योंकि आत्मा को आनंद चाहिए, आत्मा को सुख नहीं चाहिए ठीक है हम यही रुकते हैं। *झूम के भक्तों द्वारा पूछे गए प्रश्न* *प्रश्न 1)* किस प्रकार हम जप करते समय यह भाव बनाकर रखें कि हम जो जप कर रहे हैं वह गुरु और गौरांग की प्रसन्नता के लिए कर रहे हैं, हमारी प्रसन्नता के लिए नहीं या हमारा उसमें कोई उद्देश्य ना रहे केवल भगवान और गुरु की प्रसन्नता के लिए हम हरिनाम कर रहे हैं ऐसा भाव कैसे बना कर रखें? *गुरुमहाराज द्वारा उत्तर* - *गुरुमुख पद्म वाक्य, चितेते करिया ऐक्य* ऐसा हम गाते रहते हैं गुरु पूजा में। हमारे विचारों में ऐक्य हो नही तो *बहुशाखा ही अनंताश्च* कई सारे विचार, हमारे शाखा, उपशाखा, यह विचार, वह विचार और कही पहुंचा देता है। तो *गुरुमुख पद्म वाक्य, चितेते करिया ऐक्य* चित्त मे ऐक्य, चित्त मे एकाग्रता एक अग्रता का स्वागत है ऐसी अपेक्षा होती रहती हैं। जब प्रभुपाद मुझे भी कहे मुंबई में, अस्वस्थ थे प्रभुपाद थोड़े नहीं बहुत अस्वस्थ थे। तब हम बारी-बारी से प्रभुपाद के लिए कीर्तन किया करते थे। मैंने कीर्तन के बीच में पूछा था श्रील प्रभुपाद से हम और क्या कर सकते हैं आपके लिए श्रील प्रभुपाद। तो प्रभुपाद संक्षिप्त में कहे मुझे, मैं और प्रभुपाद बस दोनों ही थे। प्रभुपाद के बेडरूम में ही प्रभुपाद बेड पर लेटे थे। प्रभुपाद कहे *आर न करिह मने आशा* इतना ही कहें। *गुरुमुख पद्म वाक्य, चितेते करिया ऐक्य, आर न करिह मने आशा* और आशा आकांक्षा ना रखें। गुरु को प्रसन्न करना है तो फिर *यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो* ऐसा संबंध है। गुरु को प्रसन्न किए तो फिर भगवान प्रसन्न होते हैं। ऐसा नरोत्तम दास ठाकुर ने हीं इस गुरु पूजा गीत में कहां है, जिसे इस्कॉन में गुरु पूजा गीत बनाया है तो उससे ऐसी शिक्षा मिलती हैं ऐसा मार्गदर्शन होता है। *प्रश्न 2)* जब हम शास्त्र पढ़ते हैं तो ज्ञान तो मिलता है लेकिन उस अर्जित ज्ञान को वास्तविक जीवन में कैसे बनाए रखें या टिकाए रखें? *गुरु महाराज द्वारा उत्तर* भक्तों के साथ संग है तो फिर उसके रिमाइंडर्स भी हमको मिलते जाएंगे *बोधयन्तः परस्परं* होगा हम कहीं भटक जाते हैं तो वे सुधारेंगे हमको। जो हमारे काउंसलर्स या साधु जिनका हम संग करते हैं और जो भी आनंद का आस्वादन करेंगे तो फिर धीरे-धीरे चस्का लगना चाहिए। प्रभुपाद एक समय ऐसा भी कहे कि लोग जो अल्कोहलिक या ड्रग एडिक्ट बनते हैं वे एक दिन में नहीं बनते हैं। थोड़ी शराब पी ली हफ्ते में एक बार फिर बाद मे हफ्ते में दो बार फिर धीरे-धीरे हर रोज पीने लगे और फिर उसके बिना क्या जीना शराब के बिना। तो वैसे ही यह भक्ति, हरिनाम, जप, कीर्तन ऐसे करते जाएंगे भक्तों के संग में, भक्तों के रिमाइंडर के साथ तो इससे *चेतोदर्पण मार्जणम* होना ही है। इससे आनंद प्राप्त होना ही है आत्मा को आनंद प्राप्त होना ही है। आत्मा स्वयं आश्वस्त हो जाएगा, स्वयं अनुभव करेगा, साक्षात्कार करेगा, चस्का लगेगा फिर इसको छोड़ेगा नहीं। *नित्यं भागवत सेवया भगवती उत्तम श्लोके भक्तिर भवती नैष्ठिकी* तो नित्य इसको करते रहे साधना भक्ति को। *भक्तिर भवती नैष्ठिकी* हम निष्ठावान बनेंगे यूटर्न नहीं लेंगे ऐसा होगा प्रतिदिन। और यह भी देखना पड़ता ही है साधकों को कि हमसे कोई अपराध तो नहीं हो रहे हैं। इसीलिए हमारे मंदिरों में इस्कॉन मंदिरों में प्रातः काल जप प्रारंभ करने के पहले या कहीं पर शिक्षाष्टक का पाठ होता है *चेतोदर्पण मार्जणम* और उसके उपरांत से 10 नाम अपराध जो है उसका भी स्मरण दिलाया जाता है। और फिर भक्तों को जप करते समय, दिन भर और सेवा भक्ति साधना करते समय उन अपराधों से बचना है। तो केवल विधि ही नहीं निषेध भी है दोनों को याद रखना है। विधि का पालन करते समय जो निषिध्द बातें हैं, अपराध हैं इससे बचना है, उसे टालना है अन्यथा फिर...। एक भक्त माया में चला गया था फिर भगवान ने पुनः कृपा की उस पर और वह लौट आया। जब लौटा तो उसने कहा कि, उसने स्वीकार किया कि मैंने यह अपराध किया था, वह अपराध किया था, यह किया, वह किया। इसी कारण मेरी जो हरिनाम में रुचि है या भक्ति में रुचि है भगवान में रुचि है वह कुछ कम होती गई। और फिर मेरे कार्यकलापों ने मुझे लात मार के वहां से भगा दिया। तो पुनः यह अपराध नहीं करूंगा मैं ऐसा उस भक्त ने संकल्प लिया। कृपा करके मुझे और एक मौका दीजिए मैं फिर से वह अपराध नहीं करूंगा। हरि हरि। हरे कृष्ण।

English

Russian