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जप चर्चा पंढरपुर धाम से 15 जून 2021 913 स्थानों से आज जप हो रहा है । गौर प्रेमानंद हरि हरि बोल । ओम नमो भगवते वासुदेवाय । भागवतम का श्लोक पढेंगे इसीलिये ओम नमो भगवते वासुदेवाय कहा । श्रीमद्भागवत तृतीय स्कंध , अध्याय नववा और श्लोक संख्या 5 है । स्वजन शक्ति के लिए ब्रह्मा द्वारा स्तुति अध्याय का शीर्षक है , और स्वयं ब्रह्मा जी यह स्तुती कर रहे हैं , और भगवान के उपस्थिति में यह स्तुति कर रहे हैं , वहां भगवान उपस्थित है । भगवान प्रत्यक्ष है , समक्ष है और स्तुति हो रही है । यह सृष्टि नहीं हुई है , ब्रह्मा की यह सृष्टि हुई है और ब्रह्मा आगे सृष्टि करेंगे। सर्ग उपसर्ग , आगे उस समय ब्रह्मा ने भगवान से कहा । मानो जो बात कहने वाले हैं भगवान को पता नहीं है ऐसी तो बात नहीं है , फिर भी स्तुति कर रहे हैं । आप ऐसे हो या कुछ विशेष बात ब्रह्मा जी ने कही है । शास्त्र का महिमा , शास्त्र की उपयोगिता , शास्त्र का श्रवण इससे क्या प्राप्त नहीं होता ? सब कुछ प्राप्त हो सकता है । यहां तक कि दर्शन भी हो सकता है , केवल दर्शन ही नहीं ,भगवान को स्पर्श भी कर सकते हैं । शास्त्र के वाणी को सुनकर या पढ़कर । इसको हम आगे कहेंगे लेकिन पहले ब्रह्मा जी को सुनते हैं । आप किस को सुन रहे हैं ? आज के वक्ता कौन हैं ? ब्रह्मा ! ब्रह्मा है कि नहीं?( हंसते हुए ) हमारी शुरुआत यहां से होती है , ब्रह्मा है कि नहीं ? ब्रह्मा है और ब्राह्मलोग भी हैं । ब्रह्मा ने कहा , ये तु त्वदीयचरणाम्बुजकोशगन्धं जिघ्रन्ति कर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् । भक्त्या गृहीतचरणः परया च तेषां नापैषि नाथ हृदयाम्बुरुहात्स्वपुंसाम् ॥ (श्रीमद्भागवत 3.9.5) अनुवाद पढ़ते है , हे प्रभु , संबोधन हो रहा है , हे प्रभु । आपको ध्यान से सुनना होगा ,एक एक अक्षर सुनना होगा , इस मे एक फो वाक्य है तो जितने भी वाक्य है , जितने भी शब्द है , उन शब्दों में जितने भी अक्षर है, अक्षर अक्षर की सुनना होगा , कुछ भी छोड़ना नही है । हे प्रभु , जो लोग वैदिक ध्वनि की वायु द्वारा ले जाई गई आपके चरणकमलों की सुगन्ध को अपने कानों के द्वारा सूंघते हैं , पता नही आपने पूरा सुना कि नहीं ? पूरा भाषांतर समझा कि नहीं ? समझाएंगे आपको । वे आपकी भक्ति - मय सेवा को स्वीकार करते हैं । उनके लिए आप उनके हृदय रूपी कमल से कभी भी विलग नहीं होते । तात्पर्य पढ़ लेते है , भगवान् के शुद्ध भक्तों के लिए भगवान् के चरणकमलों से परे कुछ भी नहीं है । है कुछ भी ? नही है । और भगवान् जानते हैं कि ऐसे भक्तों को उससे अधिक कुछ चाहिए भी नहीं । तु शब्द विशेष रूप से इस तथ्य को स्थापित करता है । भगवान् भी उन शुद्ध भक्तों के हृदय - कमलों से विलग होना नहीं चाहते । शुद्ध भक्त तथा भगवान् के बीच का यह दिव्य सम्बन्ध होता है । चूँकि भगवान् ऐसे शुद्ध भक्तों के हृदयों से विलग नहीं होना चाहते , अत : यह समझा जाता है कि वे निर्विशेषवादियों की अपेक्षा उन्हें विशेष रूप से अधिक प्रिय हैं । भगवान् के साथ शुद्ध भक्त का सम्बन्ध इसलिए विकसित होता है , क्योंकि भक्त द्वारा वैदिक प्रमाण के वास्तविक आधार पर भगवान् की भक्तिमय सेवा की जाती है । ऐसे शुद्ध भक्त संसारी भावनावादी ( भावुक ) नहीं होते , अपितु वे वस्तुतः यथार्थवादी होते हैं , क्योंकि उनके कार्यों का समर्थन उन वैदिक अधिकारियों द्वारा होता है जिन्होंने वैदिक ग्रन्थों में उल्लिखित तथ्यों को श्रवण करके ग्रहण किया है । परया शब्द अत्यन्त सार्थक है । पराभक्ति या ईश्वर का स्वतःस्फूर्त प्रेम भगवान् से घनिष्ठ सम्बन्ध का आधार होता है । भगवान् के साथ सम्बन्ध की यह चरमावस्था प्रामाणिक स्रोतों से यथा भगवद्गीता तथा भागवत से , भगवान् के विषय में ( उनके नाम , रूप , गुण , इत्यादि ) भगवान के विशुद्ध भक्तों के मुख से सुनकर प्राप्त की जा सकती है । तात्पर्य समाप्त हुआ । इस श्लोक में इस वचन में ब्रह्मा ने क्या कहा है ? यहां तात्पर्य पढ़ लिया किंतु मेरा ध्यान और मुझे आकृष्ट कर रहा था जब मैंने यह श्लोक कल पढ़ा । मैं उस बात की और भी आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूं या उस बात को भी आप लिख ले । श्रील प्रभुपाद ने भी तात्पर्य में संकेत किया है । ब्रह्मा जी कह रहे हैं ये मतलब जो लोग , क्या करते हैं ? ये तु त्वदीयचरणाम्बुजकोशगन्धं जिघ्रन्ति कर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् । ब्रह्मा जी कह रहे हैं , आपके चरण कमल , त्वदीयचरणाम्बुज इसको भी लिख लेना । एक-एक शब्द को लिखना है । त्वदीय मतलब आपके , आपके क्या ? आपके चरण । और आपके चरण कैसे हैं ? त्वदीयचरणाम्बुज , अंबुज कमल सदृश है । आपके चरण कमल , चरण कमली कहते हैं । हस्त कमल , चरण कमल और फिर वह अगर कमल है , कमल सदृश है तो उसमें फिर गंध भी होना चाहिए । कोशगन्धं , आपके चरण कमल का जो सुगंध है । समझ में आ रहा है ? एक तो आपके चरण कमल है । प्रभुपाद ने लिखा है , भगवान निर्गुण निर्विशेष नहीं है , भगवान सविशेष है , भगवान का रूप है , नाम है , गुण है , लीला है , धाम है । भगवान है , भगवान का रूप है और यहां चरण कमल है । चरण कमल सदृश है , कमल का वैशिष्ट क्या होता है ? वह सुगंधीत होता है । दिखने में भी सुंदर और सुंघने भी सुगंधित होता है । आप देखिए कि अभी आगे ब्रह्मा जी क्या कह रहे हैं , आप ऐसे हो , आपके चरण कमल ऐसे हैं , इसमें सुगंध भी है । आगे क्या होता है ? जिघ्रन्ति कर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् भक्तवृंद आपके चरण कमल का जो सुगंध है उसको सूंघ लेते हैं । आपके चरण कमल को सूंघ लेते हैं । कब और कैसे ? कर्णविवरैः एक तो कान से सूंघ लेते हैं । यह अंतर है या यह विशेषता है आपके चरण कमलों के गंध हो भक्त कानों से सूंघ लेते हैं । कानों से कैसे सूंघते हैं ? श्रुतिवातनीतम् श्रुति , शास्त्र को श्रुति कहते हैं । एक श्रुति शास्त्र ,एक स्मृति शास्त्र। श्रुति शास्त्र का जो वात है , वायु है या शब्द है । श्रुति के शास्त्र के जो वचन है । जो वचन भगवान के चरण कमलों का वर्णन कर रहे हैं और भगवान के चरण कमलों के सुगंध का वर्णन कर रहे हैं ऐसे वचन , ऐसे शब्द इसको श्रुति , श्रुतिवात कहां है । शब्द योनि वात , नित मतलब ले जाना । नेता होता है , हमको ले जाने वाले । हमारा नेतृत्व करने वाले , ले जाने वाला। शास्त्र श्रुति वात , शास्त्र के जो वचन है , जो वर्णन करते हैं वह ध्वनि जब कर्णविवरे कानों के माध्यम से आत्मा तक पहुंच जाते हैं । सुनने वाला तो आत्मा ही होता है , आत्मा जब सुनता है तो आत्मा उसको सूंघता है । क्या सुनने के बात है ? जो पच्शती की बात है फिर पहचानते की बात तो होती है, उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जा नं वा गुणान्वितम् |विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः || (श्रीमद्भगवद्गीता15.10) अनुवाद:-मूर्ख न तो समझ पाते हैं कि जीव किस प्रकार अपना शरीर त्याग सकता है, न ही वे यह समझ पाते हैं कि प्रकृति के गुणों के अधीन वह किस तरह के शरीर का भोग करता है । लेकिन जिसकी आँखें ज्ञान से प्रशिक्षित होती हैं, वह यह सब देख सकता है । वही शास्त्रों की बात सुन ली तो पपश्चन्ति देखते हैं । सुनते हैं , देखते हैं , स्पर्श करते हैं हमारी इंद्रियों से ज्ञानेंद्रियों से , आत्मा की भी ज्ञान इंद्रियां है । इंद्रिय अनुभव करते हैं , इंद्रियों को ध्यान होता है , इंद्रियों को साक्षात्कार होता है । फिर आँखे देखती है , सुनने से श्रुतिवातनीतम् आंखें देखती है आत्मा की आंखें देखती है । प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचने सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।यंश्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (ब्रम्हसंहिता 5.58) अनुवाद:-जो स्वंय श्यामसुंदर श्रीकृष्ण हैं, जिनके अनेकानेक अचिन्त्य गुण हैं तथा जिनका शुद्ध भक्त प्रेम के अंजन से रञ्जित भक्ति के नेत्रों द्वारा अपने अन्तर्हृदय में दर्शन करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ। संत महात्मा देखते हैं । सुनते हैं , सुनते सुनते देखते हैं या वह शब्द दिखाते हैं । वैसे लव और कुश जब रामायण गाती , रामायण गा रहे थे तब अलग-अलग वनों में जहां भी वह रामायण की कथा करते तो ऋषि मुनि सुनते थे , वह अपना अनुभव कहते हैं ऐसा रामायण में लिखा है , "आप तो यह सारी बातें सुना रहे हो , यह सारी बातें लीला सुना कर आप हमें दिखा रहे हो , हमें लगता है कि हम लीला देख रहे हैं , आप तो उस लीला को सुना रहे हो लेकिन हमारा तो अनुभव यह हो रहा है कि हम उस लीला को देख रहे हैं । सुना के आप हमको लीला दिखा रहे हो ।" ऐसा वह ऋषि मुनि अपना अनुभव कहते हैं । ऑडियो हो रहा है , लेकिन ऑडियो वीडियो में परिणत हो रहा है । इस प्रकार सभी जो आत्मा की ज्ञानइन्द्रिया है , श्रवण से अलग-अलग इंद्रियों को अलग-अलग ज्ञान होता है । भक्तिरसामृतसिंधु में एक यह भी उदाहरण मिलता है , श्रील प्रभुपाद ने लिखा है या किसी आर्चक या आराधक , आराधना करने वाला एक ब्राह्मण , बेचारा थोड़ा गरीब ही था । कुछ अधिक साधन सामग्री जुटा नहीं सकता था तो एक समय उसने मन ही मन में भगवान की विशेष आराधना करने का संकल्प किया । मन ही मन में वह क्या कर रहा था ? जैसे शास्त्रों में कहा है , कैसे आराधना होती है उसका पालन कर रहा था ये तु त्वदीयचरणाम्बुजकोशगन्धं जिघ्रन्ति कर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् । भक्त्या गृहीतचरणः परया च तेषां नापैषि नाथ हृदयाम्बुरुहात्स्वपुंसाम् ॥५ ॥ श्रीमद्भागवत 3.9.5 अनुवाद:- हे प्रभु , जो लोग वैदिक ध्वनि की वायु द्वारा ले जाई गई आपके चरणकमलों की सुगन्ध को अपने कानों के द्वारा सूंघते हैं , वे आपकी भक्ति - मय सेवा को स्वीकार करते हैं । उनके लिए आप उनके हृदय रूपी कमल से कभी भी विलग नहीं होते । श्रुतिवातनीतम् अर्चना पद्धति भी शास्त्र है यहां यदुनंदन आचार्य आरती उतार रहे हैं अर्चना हो रही है पुणे में ऐसा है तू मन से ही गए गंगा गए जमुना गए सरस्वती गए और सारा जल इकट्ठा किया भगवान का अभिषेक किया भगवान का श्रृंगार हुआ फिर भगवान के लिए उन्होंने खीर बनाई तो ख़िर जब पिलानी होती है रात्रि को खीर बना के रखें मंगलबाल को भगवान को खिलाएंगे प्रातःकाल जब भगवान को खीर खिलाने थी और ख़िर ठंडी होने से और भी मीठी होती है। ऐसा अनुभव है तो वह देखना चाहते थे कि अभी ठंडी हुई कि नहीं थोड़ा स्पर्श करके देखना चाहते थे अभी ख़िर पकाने के बाद की बात बता रहा हूं कहानी बता रहा हूं तो फिर ठंडी है कि नहीं यह देखना चाह रहे थे यह सब मन में हो रहा है। इसका ध्यान हो रहा है ऐसे शास्त्रों के वचन है श्रुतिवातनीतम् कैसे-कैसे अर्चना होती है अर्चना करनी होती है भगवान को खीर खिलानी चाहिए ख़िर ठंडी होनी चाहिए तो ठंडी है कि नहीं है देखने के लिए उन्होंने जब उन्होंने स्पर्श किया तो उनका हाथ जल गया उंगली जल गई क्योंकि वो ख़िर इतनी ठंडी नही थी गरमा-गरम मामला था गर्म ही थी तो उनका हाथ जब जल गए तो उनकी समाधि टूट गई तो देखते हैं तो उनकी उंगली सचमुच जल गई है और वह अनुभव कर रहे थे कि यह गर्म है खीर और यह बात भगवान बैकुंठ में लक्ष्मी के साथ हैं उन्होंने देखा यह ब्राह्मण की उंगली जल गई तो वह हस रहे थे तब लक्ष्मी जी ने पूछा प्रभु जी प्रभु जी क्यों हंस रहे हो तब भगवान ने कहा वो देखो उधर सोलापुर में तो केवल वह सुन रहे थे स्मरण कर रहे थे सुनने के उपरांत स्मरण होता है वह स्मरण फिर दर्शन है साक्षात्कार है ऐसे साक्षात्कार संभव है। जब कर्णविवरैः कानों से जब कथा का कानों में प्रवेश होता है। श्रुतिवात हवा का या ध्वनि का जैसे यह हवा बह रही हैं ऐसे नहीं उसमें ध्वनि होती है शब्द है शब्द से कानों से जब हम शास्त्रों के वचन जब सुनते हैं। तो उन वचनों के मदद से हम देख सकते हैं सूंघ सकते हैं स्पर्श कर सकते हैं शब्द,स्पर्श,रूप,रस,गंध यह पांच अनुभव होते हैं ज्ञानेंद्रियां 5 है तो पांच प्रकार के अनुभव है यह इंद्रियों के विषय होते हैं इंद्रियों के ज्ञानेंद्रियों के यह विषय है शब्द एक विषय है शब्द सुन लिया फिर स्पर्श यह अनुभव है साक्षात्कार है शब्द स्पर्श रूप रूप मतलब दर्शन देखना है यह एक साक्षात्कार है शब्द स्पर्श रस टेस्ट एक अनुभव है गंध जो पृथ्वी से उत्पन्न होता है तो यह अनुभव संभव है यह दर्शन संभव है कहोकर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् हम यही पर हैं यहीं बैठे बैठे हम जब सुनते हैं पढ़ते हैं। तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ | ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि || २४ || भगवद्गीता 16.24 अनुवाद:-अतएव मनुष्य को यह जानना चाहिए कि शास्त्रों के विधान के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है । उसे विधि-विधानों को जानकर कर्म करना चाहिए जिससे वह क्रमशः ऊपर उठ सके। तस्माशास्त्रं प्रमाणं ते वैसे कृष्ण ने कहा हैं शास्त्र है प्रमाण यह श्रुति शास्त्र या वेद स्वयं सिद्ध है। इन्होंने जो भी कहा है वह सच ही कहा है सच के अलावा और कुछ नहीं कहा है तो जब हम उनको सुनते हैं श्रद्धा के साथ सुनते हैं। नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया । भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥१८ ॥ श्रीमद्भागवत 1.2.18. अनुवाद:- भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है । नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया । भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी यह भागवत का श्रवण गीता का श्रवण गीता भागवत करिती श्रवण अखंड चिंतन विठोबा चे तूका मन्हे जो भी गीता भागवत का अध्ययन श्रवण करेगा उसको चिंतन होगा ध्यान होगा उसकी समाधि लगेगी बाह्य ज्ञान नहीं रहेगा वह तल्लीन होगा। मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ || भगवद्गीता 10.9 अनुवाद:-मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं | मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | उसका चित्त भगवान में लगा रहेगा भगवान में चित्त और फिर बाकी सब बातों की सुध बुध नहीं रहेगी वह कौन थी वो हा यज्ञ पत्नियां थीं वृंदावन की यज्ञ पत्नियां यज्ञ करने वाले जो कर्मकांडी ब्राह्मण थे फिर उनकी पत्नियां तैयार हुई कृष्ण भूखे है कृष्ण को भूख लगी है तब ब्राम्हणोंने कुछ भी नही दिया। सब कुछ देना तो दूर रहा पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति | तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः || २६ || यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ | भी नहीं दिया फुल नहीं फुलाची पाखड़ी मराठी में कहते हैं फूल भी नहीं दिया और फूल की पंखुड़ी भी नहीं दी तो फिर कृष्ण के मित्र गए उनकी पत्नियों के पास कृष्ण यहां बगल में ही अशोक वन में है और उनको भूख लगी है ऐसा भू शब्द सुनते ही ख तो कहने के पहले ही वह सारी स्त्रियां चतुर्विधा-श्री भगवत्‌-प्रसाद- स्वाद्वन्न-तृप्तान्‌ हरि-भक्त-संङ्घान्। चतुर्विधा-श्री भगवत्‌-प्रसाद- स्वाद्वन्न-तृप्तान्‌ हरि-भक्त-संङ्घान्। कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥4॥ श्री गुरुदेव सदैव भगवान्‌ श्रीकृष्ण को लेह्य अर्थात चाटे जानेवाले, चवर्य अर्थात्‌ चबाए जाने वाले, पेय अर्थात्‌ पिये जाने वाले, तथा चोष्य अर्थात्‌ चूसे जाने वाले - इन चार प्रकार के स्वादिष्ट भोगों का अर्पण करते हैं। जब श्री गुरुदेव यह देखते हैं कि भक्तगण भगवान्‌ का प्रसाद ग्रहण करके तृप्त हो गये हैं, तो वे भी तृप्त हो जाते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। भगवत प्रसाद या भोग चार प्रकार का कुछ खाने का कुछ पीने का कुछ चबाने का ऐसे छप्पन भोग लेकर दौड़ पड़ी जहां कृष्ण थे लेकिन कृष्ण तो अकेले नहीं थे बहुत बड़ी भीड़ थी ग्वाल बालकों की भीड़ थी कृष्ण को भूख लगी है तो कृष्ण को कैसे पहचाना जाए तो यह भी कृष्ण नहीं है यह अभी कृष्ण नहीं है ये भी नहीं है तो फिर वो सीधे-सीधे आगे बढ़ती गई और फिर कृष्ण उन्होंने ढूंढ निकाला कृष्ण कैसे त्रिभंग ललित खड़े थे और उनका हाथ बलराम के कंधे पर था और वह श्याम सुंदर और मुरलीधारण किए है मोर मुकुट है। बंसी विभूषित करात् नवनीरद आभात् पीताम्बरात् अरुण बिंबफल अधरोष्ठात् । पूर्णेन्दु सुंदर मुखात् अरविंद नेत्रात् कृष्णात्परं किमपि तत्वं अहं न जाने ।। अनुवाद :- जिनके कर - पल्लव वंशी - विभूषित हैं , जिनके सुंदर शरीर की आभा नए बादलों जैसी घनश्याम है , जिन्होंने पीताम्बर धारण किया हुआ है , जिनके अधरोष्ठ सूर्य के समान अरुण रंग के फल जैसे हैं , पूर्णेन्दु चन्द्रमा के समान जिनका अतुलित सौन्दर्य - माधुर्य है , जिनके नेत्र कमल - दलतुल्य हैं , ऐसे कृष्णचन्द्र परमानन्द के तुल्य और कोई वस्तु है ही नहीं । सच्चिदानन्दघन आनन्दकन्द परमानन्द श्रीकृष्णस्वरूप से भिन्न कोई तत्त्व है ऐसा में नहीं जानता । श्रीकृष्णस्वरूप ही सर्वोपरि तत्त्व है । पितांबर वस्त्र पहने हैं बिंबफल अधरोष्ठात् भगवान के होठ लाल जैसे बिंब का फल वृंदावन में एक विशेष फल मिलता है लाल होता है फल वैसे ही उनके होठ थे बंसी विभूषित करात् नवनीरद आभात् और उनके हाथ बंसी से सुशोभित थे तो वह क्या कर रही थी उन्होंने जो जो वर्णन सुना था कृष्ण के सौंदर्य का रूप का वर्णन उन्होंने सुना था पढ़ा था पहले तो जब यहां आई है और कृष्ण को ढूंढा है तो उनको खोज रही है जिनके बारे में सुना था वह कैसे दिखते हैं किस वर्णों के वस्त्र पहनते हैं तब उन्होंने इसी प्रकार से सभी ओर देखा यह भी नहीं है यह भी नहीं है ये भी नहीं है फिर उन्होंने पहचान लिया हा यही है कृष्ण फिर खूब उनको प्रसाद खिलाया बिठाके तो जैसे सुना था जैसे पढा था राधा कृष्ण के संबंध में वैसे ही कृष्ण दिखे थे कोई भेद नहीं था। यह चतुर कुमार चार कुमार है उनके संबंध में भी कहा जाता है वह भी जब द्वारपाल के पास गए और फिर भगवान भी वहां आये अति आवश्यकता थी हंसते हुए तो उन्होंने भगवान को पहचान लिया वह जहां भी थे उन्होंने भगवान का वर्णन सुनाया था भगवान कैसे दिखते हैं तो मन ही मन में उन्होंने देखा था वैसे उनका दर्शन किया था तो जब वह वैकुंठ गए तो उनको शाश्वती हो गए कि वैसे ही जैसे कि तैसे कुछ भी अलग नहीं थे वैसे ही कृष्ण दिखे वहा विष्णु नारायण दिखे ऐसी व्यवस्था भगवान ने ही की है। हम मनुष्य को भगवान ने यह शास्त्र दिए हैं शास्त्र नहीं होते तो फिर हम यहीं के यहीं रह जाते कुछ भी हम को पता नहीं चलना था भगवान है कि नहीं है तो वह कैसे हैं कैसे दिखते हैं और उनका अंग कैसे सुगंधित है और यह है वह है और केवल शास्त्र भगवान के रूप का भी वर्णन या अनुभव नहीं कराता दर्शन नहीं कराता धाम का वर्णन है भगवान के परिकरो का वर्णन है परिकरों के साथ जो खेल खेलते हैं। उनका वर्णन है इस प्रकार शास्त्रों की मदद से शास्त्र योनित्वा शास्त्र योनि है शास्त्र स्त्रोत है सोच है ज्ञान का स्रोत है शब्द योनित्वा कहां है शब्द है योनि और ऐसे शब्द से वैसे सृष्टि भी होती हैं। यह शब्द का बहुत खेल है या शब्द परब्रह्म शब्द ब्रह्मा भी है ऐसा भी वचन है और भगवान कैसे वांग्मय मूर्ति है वाङ्ग मतलब वाक्य जैसे श्रीमद्भागवत है यह श्रीमद्भागवत वाङ्गमय मूर्ति है। भगवान का वीग्रह है इन वाक्यों से ही भगवान प्रकट होते हैं। यह वाक्य वचन भगवान से अलग नहीं है और यह सारा जो ज्ञान है साक्षात्कार है यह इसकी विधि है। तद्वाग्विसर्गो जनताघविप्लवो यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि । नामान्यनन्तस्य यशोऽङ्कितानि यत् शृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः ॥ ११ ॥ श्रीमद्भागवत1.5.11 अनुवाद :- दूसरी ओर , जो साहित्य असीम परमेश्वर के नाम , यश , रूपों तथा लीलाओं की दिव्य महिमा के वर्णन से पूर्ण है , वह कुछ भिन्न ही रचना है जो इस जगत की गुमराह सभ्यता के अपवित्र जीवन में क्रान्ति लाने वाले दिव्य शब्दों से ओतप्रोत है । ऐसा दिव्य साहित्य , चाहे वह ठीक से न भी रचा हुआ हो , ऐसे पवित्र मनुष्यों द्वारा सुना , गाया तथा स्वीकार किया जाता है , जो नितान्त निष्कपट होते हैं । शृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः साधु नित्यम भागवत सेवया करते हैं शृण्वन्ति गायन्ति भी उनका चलता रहता है और फिर इसी के साथ होता हैं।ये तु त्वदीयचरणाम्बुजकोशगन्धं जिघ्रन्ति कर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् । फिर सूँघते हैं या सुनते सुनते सुन भी रहे हैं और फिर इसी को कहा है ज्ञान का हो जाता है। श्रीभगवानुवाच इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यसूयवे |*ल ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽश्रुभात् || १ || भगवद्गीता 9.1 अनुवाद:-श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! चूँकि तुम मुझसे कभी ईर्ष्या नहीं करते, इसीलिए मैं तुम्हें यह परम गुह्यज्ञान तथा अनुभूति बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम संसार के सारे क्लेशों से मुक्त हो जाओगे | ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मण जो ब्रम्ह को जान लेते हैं वो ब्राम्हण हैं या वैष्णव जान लेते हैं भगवान को इन शास्त्रों के आधार से इन शास्त्रों की मदद से तो सारी शुरुआत होती है श्रवण से कहो या और अध्यन से कहो अध्यन में कोई अंतर नहीं है अध्ययन ही श्रवण है। शब्दों को जब हम पढ़ते हैं तो उसको सुनते हैं और वह हमने प्रवेश करते हैं हमको दिखाते हैं। श्रीगुरुचरण पद्म, केवल भकति-सद्म, वन्दो मुइ सावधान मते। याँहार प्रसादे भाई, ए भव तरिया याइ, कृष्ण प्राप्ति हय याँहा हइते॥1॥ अनुवाद:- हमारे गुरुदेव (आध्यात्मिक गुरु) के चरणकमल ही एकमात्र साधन हैं जिनके द्वारा हम शुद्ध भक्ति प्राप्त कर सकते हैं। मैं उनके चरणकमलों में अत्यन्त भक्ति एवं श्रद्धापूर्वक नतमस्तक होता हूँ। उनकी कृपा से जीव भौतिक क्लेशों के महासागर को पार कर सकता है तथा कृष्ण की कृपा प्राप्त कर सकता है। कृष्ण प्राप्ति हय याँहा हइते दिव्य ज्ञान ह्रदय प्रकाशीतो वो दिव्य ज्ञान प्रकाशित होता है।जो हम सुनते हैं साधु शास्त्र आचार्य और साधु भी और आचार्य भी इन शास्त्रों के साथ जुड़े हुए हैं। ऐसी साधना है केवल शास्त्र के वचन ही आचार्य एवं परंपरा से प्राप्त होता है और हम सुनते हैं। एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु: | स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप || २ || भगवद्गीता 4.2 अनुवाद:-इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा | किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है | शास्त्र के वचन सुनाते हैं इसीलिए बुक्स आर द बेसिस प्रभुपाद जी ने कहा है ग्रंथ ही आधार है उन ग्रंथों की ही बनाते है आधार औऱ आचार्य इन ग्रंथों को बनाते है अभ्यासक्रम और फिर विश्वविद्यालय में सांदीपनि मुनि का अपना एक विश्वविद्यालय था तो वे आचार्य और फिर कृष्ण बन गए विद्यार्थी बलराम सुदामा भी आगए। और फिर साधु शास्त्र आचार्य है साधु संग साधु संग सर्वे शास्त्र कहे लव मात्र साधु संग सर्व सिद्धि होय साधु संग में क्या होता है साधु संग में यह श्रवण कीर्तन होता है कपिल भगवान ने क्या कहा मम वीर्य सम विधो सताम प्रसंगात मतलब साधु संघ के प्रसंग में बैठक में संघ में सताम प्रसंगात मम वीर्य सम विधो मेरे वीर्य और सौंदर्य का वर्णन होता है यही होता है साधु संग में पुनः शास्त्रों के वचन ही हमको सुनाते हैं अपने अनुभव के साथ सुनाते हैं। तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया | उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानंज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः || ३४ || भगवद्गीता 4.34 अनुवाद:-तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो | उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो | स्वरुपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है | उन्होंने तत्व का दर्शन किया हुआ उन्होंने भलीभांति समझाया है तो वो हम को समझाते हैं शास्त्रों के आधार से ही समझाते हैं और हमको दर्शन देते हैं भगवान का दर्शन देते हैं हरि हरि ठीक है तो इसी तरह इसको याद रखिए तृतीय स्कंध के नववें अध्याय का पांचवां श्लोक था। ये तु त्वदीयचरणाम्बुजकोशगन्धं जिघ्रन्ति कर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् । भक्त्या गृहीतचरणः परया च तेषां नापैषि नाथ हृदयाम्बुरुहात्स्वपुंसाम् ॥५ ॥ श्रीमद्भागवत 3.9.5 अनुवाद:- हे प्रभु , जो लोग वैदिक ध्वनि की वायु द्वारा ले जाई गई आपके चरणकमलों की सुगन्ध को अपने कानों के द्वारा सूंघते हैं , वे आपकी भक्ति - मय सेवा को स्वीकार करते हैं । उनके लिए आप उनके हृदय रूपी कमल से कभी भी विलग नहीं होते । आगे भी है ठीक है हरे कृष्ण

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