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*जप चर्चा* *पंढरपुर धाम से* *07 अगस्त 2021* हरे कृष्ण!!! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 746 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। जय हो। आप जप टॉक के लिए तैयार हो ना? *जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द। जय अद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥* अर्थ:- श्रीचैतन्य महाप्रभु की जय हो, श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो। श्री अद्वैतआचार्य की जय हो और श्री गौरचंद्र के समस्त भक्तों की जय हो। आप समझ ही गए होंगे कि मैं, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के विषय में कुछ कहने जा रहा हूँ। कल मैं एक ग्रंथ पढ़ रहा था जो कि बंगला भाषा में है। उसका शीर्षक 'श्री वृंदावने छः गोस्वामी अर्थात वृंदावन के छह गोस्वामी है। मैंने उनमें से रूप व सनातन गोस्वामी के संबंध में चर्चा पढ़ी। 'श्रीमन महाप्रभु का रामकेली गमन' अथवा श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का रामकेली में आगमन। हरि! हरि! रूप और सनातन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का दर्शन चाहते थे। बहुत समय से वे रामकेलि में रहते थे। यह रामकेलि, राजा हुसैन शाह की राजधानी रही। यहां रूप और सनातन के नाम दबीर ख़ास व साक्कर मल्लिक हुए थे। यहां आकर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु दबीर खास को रूप गोस्वामी बनाएंगे व साक्कर मल्लिक, सनातन गोस्वामी बनेंगे। ऐसा उनका नामकरण होगा, रामकेलि जो गौड बंगाल की राजधानी ही है, उसके राजा नवाब हुसैन शाह थे। यह दोनों भ्राताश्री रूप, सनातन उसके दरबार में थे। रुप और सनातन के एक तीसरे भाई भी थे 'अनुपम' इसी अनुपम के पुत्र जीव गोस्वामी हुए। अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आगमन रामकेलि में होने जा रहा है। उन दिनों में जीव गोस्वामी तो शिशु ही थे। हरि! हरि! वैसे यहां इस रामकेलि के तीन गोस्वामी हो गए रूप, सनातन और जीव। रामकेलि में रुप और सनातन की तीव्र इच्छा थी और वे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को उन दिनों में संस्मरण अथवा याद किया करते थे व चैतन्य महाप्रभु को पत्र भी लिखते थे। उनके पत्र श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को जगन्नाथपुरी में मिलते थे। जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी से बंगाल के भक्तों को मिलने के उद्देश्य से गए। तब वे वहां से रामकेलि भी गए। हरि! हरि! श्रील प्रभुपाद भी कहा करते थे कि आप भगवान को देखना चाहते हो तब शायद ऐसा नहीं होगा अर्थात आप मिल नहीं पाओगे अथवा दर्शन नहीं होंगे। किन्तु यदि हमें ऐसा कुछ कार्य होता है या हम भगवान को याद भी करते हैं। तब हम जहां भी हैं और जहां से पुकारते हैं तब भगवान स्वयं ऐसे व्यक्ति को मिलने, देखने के लिए आएंगे वैसा ही यहां हो रहा है। *विट्ठल तो आला, आला, मला भंतन्याला मल भंतन्याला आला, महल भंतन्याला तुशीमाळ घालुनि गाला, कढ़ी नाही कुटले टा पंढरीला नाही गेलेचुनियां एक वे देव्हाऱ्यात माझे देव ज्यांनी केला प्रतिपांचांची तंच्या धू लो लावीकाला सत्य वाचा माझी में, वाचली न गाथा पोथी घाली पाणि तुशीला, आगळीच माझी भक्ती शिकवणे मेनेची ती बंधुभाव सर्वांभूति विसरून धर्मस्थल, देई घाँची भुकेल्याला।* महाराष्ट्र में पांडुरंग के भक्त ऐसा गाया करते हैं। विट्ठल आए हैं। विट्ठल कब आएंगे? मला भंतन्याला- मुझे मिलने के लिए विट्ठल कब आएंगे। आप तुकाराम को जानते हो, भगवान उनसे मिलने के लिए पंढरपुर से देहू गए। रुक्मिणी भी साथ में तुकाराम महाराज से मिलने के लिए गयी थी। ऐसे ही पांडुरंग विट्ठल जाया करते थे। अलग-अलग भक्तों को मिलने के लिए उनके गांव, घर जाते थे अथवा जाते रहते हैं। यहां पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने रूप और सनातन पर विशेष कृपा की है। रामकेलि में चैतन्य महाप्रभु का आगमन हो चुका है। बंगाल के कई भक्त उनके साथ में गए हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की ऐसी ही रचना होती है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जहां भी जाते हैं, वहां लोग बड़ी संख्या में इकट्ठे हुआ करते थे। जब हम चैतन्य चरितामृत अथवा चैतन्य भागवत का अध्ययन अथवा श्रवण करते हैं। तब हमें बारंबार ऐसा पता चलता है कि चैतन्य महाप्रभु जहां भी पहुंच जाते हैं, ना जाने कहाँ से और कितने सारे लोग वहां इकट्ठे हो जाते हैं। वही हुआ। उनके कुछ पार्षद व परिकर बंगाल से ही गए थे। वहां बहुत सारे लोग एकत्रित हो गए । इतनी भीड़ हुई, जिसकी चर्चा सर्वत्र हो रही थी कि कोई आए हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय! वे कैसे हैं, कितने लोग आए हैं? वैसे जब यह समाचार राजा हुसैन शाह तक पहुंचा कि इतने सारे लोग रामकेलि आए हैं। उन्होंने सोचा कि पहले कभी इतने लोग नहीं आए थे। रामकेलि के इतिहास में पहली बार इतने लोग आए हैं। इतने लोगों के आगमन का कोई कारण कोई संन्यासी यहां आया हुआ है। उसको देखने के लिए, उसको मिलने के लिए इतनी सारी भीड़ इकट्ठी हुई है। इतनी भीड़ थी कि नियम व कानून टूटने लगे। विशेष रूप से राजा हुसैन शाह को भय हुआ, 'जो गोसाई यहां आए हैं, उनके यहां आने का क्या उद्देश्य है व साथ में इतने सारे लोग क्यों आए हैं? कहीं राजा हुसैन शाह मुर्दाबाद, जिंदाबाद मुर्दाबाद। ऐसा कुछ कहने के लिए तो नहीं आए हैं। हमारा यहां पर कोई विरोध तो नहीं हो रहा है?' चैतन्य भागवत में वर्णन है कि राजा ने अपने कोतवाल अथवा पुलिस कमिश्नर को पता लगवाने के लिए भेजा कि जाओ 'फाइंड आउट' अर्थात ढूंढो क्या हो रहा है? कौन आए हैं? इनके साथ इतने सारे लोग कैसे पहुंच चुके हैं? वह कोतवाल गया, उन्होंने सारा अवलोकन अथवा निरीक्षण किया। नोट किया व श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को भी देखा। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपनी अहेतु की कृपा से उसे दर्शन दिया, दर्शन मतलब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जैसे हैं वैसे ही। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का ज्ञान, कुछ साक्षात्कार अथवा कुछ अनुभव इस कोतवाल अथवा पुलिस कमिश्नर को हुआ। वह उनके सौंदर्य व उनके प्रभाव से प्रभावित था, प्रभावशाली महाप्रभु से प्रभावित होकर जब वह कोतवाल वापिस लौटा । तब राजा ने पूछा- राजा बोले- *कह कह सन्यासी केमन।कि खाय, कि नाम, कैछे देहेर गठन।।* (श्री चैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०२६) अर्थ:- राजा ने पूछा- संन्यासी कैसा है? क्या खाता है? क्या नाम है? तथा उसकी देह गठन कैसी है? यह कैसा सन्यासी है। कौन है ये संन्यासी, बताओ, बताओ। क्या खाता है? क्या नाम है? क्या करता है? कैसा दिखता है? मुझे थोड़ा सुनाओ तो सही। तब इस कोतवाल ने जो कहा है और चैतन्य भागवत में उल्लेख है- यह जब मैं कल पढ़ रहा था... हरि! हरि! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु! *जिनिञा कनक कांति, प्रकांड शरीर। आजानुलम्बित भुज नाभि सुगभीर।* (श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०२९) अर्थ:- स्वर्ण की कांति को भी जीतने वाला बड़े आकार का शरीर है, भुजाएं घुटनों तक है तथा नाभि देश- गंभीर है। यह कोतवाल कह रहा है - हे महाशय, हे राजा। क्या कहूं? आजानुलम्बित भुज- मैं देख रहा था कि वे अपनी लंबी भुजाएं आसमान में उठाए थे अर्थात उनकी लंबी भुजाएं आसमान में उठी हुई थी। उनकी नाभि गहरी थी। "नाभि सु गंभीर" भगवान के अलग-अलग अवयव या अंगों में गहराई होती है। उसमें एक नाभि होती है। उसने वह भी नोट किया अथवा उसे दर्शन हुआ। 'नाभि सु गंभीर' । वह बता रहे थे। *सिंह - ग्रीव, गजस्कन्ध, कमल- नयान। कोटि चंद्रो से मुखेर ना करि समान।* (श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०३०) अर्थ:- सिंह की ग्रीवा, हाथी के से कंधे व कमल नयन नेत्र है। करोड़ो चंद्रमा भी उसके मुख की समानता नहीं करते। उनका गर्दन शेर अर्थात सिंह ही की तरह है, हाथी की तरह उनका कंधा है। कमल नयन अर्थात कमल लोचनी आंखें हैं 'कोटि चंद्रो से मुखेर ना करि समान' अर्थात उस मुख मंडल की यह शोभा अर्थात ओज तेज का तो क्या कहना। जैसे कहा है- *बहु कोटि चंद्र जिनि वदन उज्जवल। गल- देशे बन माला करे झलमल।।* ( शिक्षाष्टकम-६) अर्थ:- चैतन्य महाप्रभु के मुखमंडल की कांति करोड़ो चंद्रमाओं को पराजित कर रही है तथा उनके गले में पड़ी वनकुसुमों की माला चमक रही हैं। कोतवाल अपने शब्दों में कह रहा है- *सुरङ्ग अधर मुक्ता जिनिमा दशन। काम शरासन येन भ्रू भङ्ग-पतन।।* (श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४.०३१) अर्थ:- सुंदर रंगीन होंठ हैं, मोतियों की पंक्ति को जीतने वाले दांत हैं। कामदेव के धनुष के समान उसके भ्रोओं का चलना है। उसने भगवान् के सुंदर अधर, यहां तक कि उसने भगवान के दांतो का भी दर्शन किया। उसने कहा - मानो मोती जैसे मैंने उनके दांत देखें हो। काम शरासन येन भ्रू भङ्ग-पतन। जैसे कंदर्प कोटि कमनीय विशेष शोभन। उनके मुख मंडल की, उनकी भृकुटि की कैसी शोभा थी अर्थात मैंने काम देवों को भी आकृष्ट करने वाला सौंदर्य मुखमंडल व भृकुटि देखी। *सुंदर सुपीन वक्ष, लेपित चंदन। महाकटितटे शोभे अरुण- वसन।* (श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०३२) अर्थ:- चंदन लगाए हुए अति सुंदर अति स्थूल वक्षस्थल है। तथा सुंदर कमर में गेरुआ वस्त्र शोभा पा रहा है। उनके अंगों में सर्वत्र चंदन लेपन हुआ था। महाकटि तटे शोभे अरुण- वसन । कटि अर्थात कमर। वहां मैंने सन्यासी भगवे वस्त्र पहने देखा। *अरुण कमल येन चरण युगल। दश नख येन दश दर्पण निर्मल।।* (श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०३३) अर्थ:- रक्त कमल जैसे दोनों चरण हैं, दसों नृख दसों दर्पण जैसे थे। जैसे ही मैंने उनके चरण देखें, मुझे कमल का ही स्मरण हुआ, चरण कमल। दश नख येन दश दर्पण निर्मल- मैंने उनके पैरों की उंगलियों के नाखून देखें। मानो वे एक एक चंद्रमा है या आईना के समान है, जो होता है। परिबिम्बित भी होता है मैंने उनके नाखून भी देखे। *कोनो वा गन्येर कोनो राजार नंदन। ज्ञान पाइ न्यासी हइ करये भ्रमण।* (श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०३४) अर्थ:- किसी राज्य के किसी राज- पुत्र जान पड़ते हैं जो संन्यासी बन कर भ्रमण कर रहे हैं। मुझे लगा की यह व्यक्ति कोई राजा सम्राट का कोई राज पुत्र नंदन के रूप में है। राजा नंदन यहां पर पधार चुके हैं। *ज्ञान पाइ न्यासी हइ करये भ्रमण।* लेकिन इनके जीवन में वैराग्य उत्पन्न हुआ है। राजा का पुत्र राजपुत्र भव्य, दिव्य, वैभव संपन्न है किंतु वैराग्य उत्पन्न हुआ तो सन्यास लेकर भ्रमण कर रहे हैं । *निरंतर सन्यासीर उद्ध रोमावली।पनसेर प्राय अङ्गे पुल्लक मंडली।।* (श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०३७) अर्थ:- उस संन्यासी के शरीर से पुलक होने पर रोमावली ( बाल) बराबर खड़ी रहती है। जैसे कटहल पर बाल खड़ें रहते हैं। हे राजा हुसैन शाह! और क्या कहूं। उनके शरीर में रोमांच था। उनके रोगंटे खड़े थे। जैसा आंखों देखा दर्शन था, वह कोतवाल वैसे ही सुना रहा था। *क्षणे क्षणे सन्यासीर हेन कम्य हय। सहस्न जनेओ धरिवारे शक्त नय।* ( श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४.०३८) अर्थ:- क्षण क्षण में उस संन्यासी को ऐसी कंप होती है कि हजारों भी पकड़ने में सामर्थ्य नहीं होते हैं। शरीर में कंपन होते हुए मैंने देखा। कोई हजारों लोग भी उस कंपित शरीर को स्थिर नहीं कर सकते थे, रोक नहीं सकते थे। उनके वपु में, रूप में ऐसा कंपन हो रहा था । *दुई लोचनेर जल अद्भुत देखिते। कत नदी वहे हेन ना पारि कहिते।* ( श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४.०३९) अर्थ:- दोनों नेत्रों का जल अभूतपूर्व दिखता है- कह नहीं सकते कितनी नदियां बहती हैं। मैंने देखा कि उनकी आंखों से अश्रु बिंदु नहीं, अश्रु धारा नहीं अपितु उनकी आंखों से नदियां बह रही थी अर्थात उनकी आंखों से अश्रु की नदियां बह रही थी। मैं वर्णन नहीं कर सकता कि उनकी आंखों से कितनी अश्रु धाराएं बह रही थी। जब राजा हुसैन शाह ने यह वर्णन सुना, सुनते सुनते उनको भी यह सब सत्य है सच है वे ऐसा अनुभव करने लगे। कोतवाल का रिपोर्ट स्वीकार कर लिया और कोतवाल ने श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का जो वर्णन किया था। उसको सुनिश्चित करने के लिए कि उसने जो कहा यह सही है या गलत है? राजा ने अपने एक और कर्मचारी जो कि हिंदू परिवार के थे, लेकिन अब उनका नाम केशव खान था। जैसे रूप, सनातन के नाम साक्कर मलिल्क व दबीर खास थे। ये भी हिंदू थे, उनके नाम तो कुछ और थे। लेकिन जब ये साक्कर मल्लिक व दबीर खास बने। तब ऐसा ही एक और कर्मचारी हुआ जिसका नाम केशव खान था। राजा ने पूछा- *कहत केशव खान, कि मत तोमार।श्रीकृष्ण चैतन्य बलि नाम बल याहां।* ( श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०४९) अर्थ:- केशव खान! जिसे श्रीकृष्ण चैतन्य नाम से पुकारते हैं, उसके विषय में तुम्हारी क्या राय है, बताओ। केशव खान! मैंने कोतवाल से जो सुना, उसके विषय में तुम्हारा क्या मत है। जो हमारे नगर में पहुंचे हैं, इनका नाम श्रीकृष्ण चैतन्य हैं, उन्होंने जैसे कहा- श्रीकृष्ण चैतन्य! राजा ने नाम का उच्चारण किया। बस हो गया। इस राजा का उद्धार तो होना ही है। *के मत ताँहार कथा, केमत मनुष्य। केमत गोसाञि तिहो कहिवा अवश्य।।* ( श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०५०) अर्थ:- उसकी क्या कथा है, वह कैसा है, वह कैसा गोसाई हैं? वह सब ठीक ठीक अवश्य कहो। कहो, कहो, यह कौन है? यह कैसे हैं? यह गोसाई, यह सन्यासी जो भ्रमण करते करते हमारे नगर में पहुंचे हैं? *चतुर्दिगे थाकि लोग ताँहारे देखिते। कि निमित आइसे, कहिबे भालमते।।* ( श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०५१) अर्थ:- उसे देखने को मनुष्य चारों और से ( आकर) उपस्थित हैं? वह किस निमित आया है? अच्छी तरह से कहो। मैंने इस पुलिस अथवा कोतवाल से सुना और अभी भी सुन रहा हूँ कि लाखों लोग पहुंचे हैं। लाखों लोगों से घिरा हुए अर्थात इन लाखों लोगों के मध्य में वह संन्यासी है। वे यहां क्यों आए हैं? उनका क्या उद्देश्य है? बताओ, बताओ। केशव खान ने कहा- यह चिंता का विषय नहीं है। आप चिंता मत कीजिए। *के बोले 'गोसाञि एक भिक्षुक सन्यासी। देशांतरि गरीब वृक्षेर तलवासी।* ( श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४.०५३) अर्थ:- गुसाईं" कौन कहता है? वह तो एक भीख मांगने वाला गरीब परदेशी संन्यासी है। यह गोसाई थोड़ी ही है। यह महापरुषु, ऐसा विशेष व्यक्ति नहीं है। एक भिक्षुक सन्यासी है एक भिक्षुक अथवा भिखारी है। यह गरीब भिक्षुक पेड़ के नीचे रहता है। एक स्थान से दूसरे स्थान जाता है, महाराज! आपको ज्यादा चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। तब भी राजा को तसल्ली नही हुई अथवा चिंता का समाधान नहीं हुआ है। उन्होंने दबीर खास को अपने पास बुलाया और एकांत में पूछा- *दबिर खासेरे राजा पुछिल निभृते।गोसाञिर महिमा तेंहो लागिल कहिते।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १.१७५) अनुवाद:- राजा ने एकांत में दबिर खास (श्रील रूप गोस्वामी) से पूछताछ की, तो वे महाप्रभु की महिमाओं का वर्णन करने लगे। दबीर खास मतलब रूप गोस्वामी (जो भविष्य में वृंदावन में पहुंचकर रूप गोस्वामी होंगे) ने कहा- *य़े तोमारे राज्य दिल, य़े तोमार गोसाञा। तोमार देशे तोमार भाग्ये जन्मिला आसिञा।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १.१७६) अनुवाद:- श्रील रूप गोस्वामी ने कहा, जिस पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने आपको यह राज्य दिया है और जिन्हें आप ईश्वर के दूत के रूप में स्वीकार करते हैं, उन्होंने आपके सौभाग्य से आपके देश में जन्म लिया है। क्या कहूँ, जिस प्रभु ने आपको इस गौड़ देश का राजा बनाया है, वे आपकी राजधानी में पहुंचे हैं। वे केवल आपका मंगल चाहते हैं, कल्याण चाहते हैं। *तोमार मङ्गल वाञ्छे, कार्य़ - सिद्धि हय। इहार आशीर्वादे तोमार सर्वत्र-इ जय।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १.१७७) अनुवाद:- यह ईश्वर के दूत सदैव आपके मंगल के आकांक्षी हैं। उन्हीं की कृपा से आपके सारे कार्य सफल होते हैं। उनके आशीर्वाद से आपकी सर्वत्र विजय होगी। इनके आशीर्वाद से ही आपका विजय, जय होता रहा है और अब तक हुआ है और भविष्य में भी होगा। *मोरे केन पुछ, तुमि पुछ आपन- मन।तुमि नराधिप हओ विष्णु- अंश सम।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १.१७८) अनुवाद:- आप मुझसे क्यों पूछ रहे हैं? आप अपने मन से क्यों नहीं पूछते? आप जनता के राजा होने के कारण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रतिनिधि हैं। अतएव आप इसे मुझसे अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं।" आप, मुझसे क्यों पूछ रहे हो कि वह कौन व्यक्ति है और कितना प्रभावशाली है। मुझे क्यों पूछ रहे हो? आप अपने मन को पूछो। आप अंतर्मुख होकर अपने दिल की बात सुनो। आपका क्या अनुभव है। आप क्या सोच रहे हो ?अंदर की आवाज को सुनिए? *तोमार चिते चैतन्येरे कैछे हय ज्ञान।तोमार चिते ये़इ लय, सेइ त प्रमाण।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १.१७९) अनुवाद:-इस प्रकार श्रील रूप गोस्वामी ने राजा को बतलाया कि उसका मन श्रीचैतन्य महाप्रभु को जानने का एक साधन है। उन्होंने राजा को विश्वास दिलाया कि उसके मन में जो भी आये, उसे ही प्रमाण मानें। आपके चित् में क्या विचार उठ रहे हैं? आपको कैसा साक्षात्कार का अनुभव हो रहा है। आपने तो कोतवाल से रिपोर्ट सुनी है, कि यह श्रीकृष्ण चैतन्य कौन है? कैसे दिखते हैं? उसने आपको बहुत कुछ सुनाया है। आपके चित में जैसे विचार जैसे भाव उठ रहे हैं वह सही भाव है, सही विचार होंगे। आपका मत सही होगा। हमें क्यों पूछ रहे हो कि दबिर खास तुम्हारा क्या मत है। जैसे उन्होंने केशव खान को पूछा था कि तुम्हारा क्या मत है? कौन है? आप स्वयं ही जानिए। आपका क्या विचार है? आपका क्या कहना है। जब दबिर खास ने ऐसा पूछा। *राजा कहे, शुन, मोर मने ये़इ लय।साक्षातीश्र्वर इहँ नाहिक संशय।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १.१८०) अनुवाद:- राजा ने उत्तर दिया," मैं श्रीचैतन्य महाप्रभु को पूर्ण पुरषोत्तम भगवान् मानता हूं। इसमें कोई सन्देह नहीं हैं।" तुम मुझे पूछ ही रहे हो, तो सुनो। हे दबीर खास, मेरे मन में ऐसा विचार आ रहा है कि साक्षातीश्र्वर इहँ नाहिक संशय। यह जो श्रीकृष्ण चैतन्य हैं, यह साक्षात ईश्वर हैं। मुझे कोई संशय नहीं है। हरि! हरि! राजा ने घोषित ही किया जैसे अर्जुन ने भगवतगीता सुनकर अंत में कहा था अर्जुन उवाच | *नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ।।* ( श्रीमद् भगवतगीता १८.७३) अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया। आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई । अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ। आपने जो जो मुझे सुनाया। अब मैं उसमें स्थित हो गया हूं। अब कोई संदेह नहीं रहा। मैंने कोतवाल को भेजा था और जब वह आया। उसने जो दर्शन किया था अथवा अनुभव किया था, वो उसने मुझे सुनाया, अब मुझे शक नहीं है, संशय नहीं है, मेरा कोई प्रश्न नहीं है। मैं तो यह घोषित कर रहा हूं। मेरा यह साक्षात्कार है कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु साक्षात ईश्वर हैं। हरि! हरि! इस प्रकार श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रामकेलि में रूप और सनातन पर कृपा करने के उद्देश्य से वे आए थे लेकिन अब देख लो, लाखों लोग भी वहां पहुंच गए। उन पर भी तो कृपा हुई। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने केवल जनता पर ही अपने आगमन व दर्शन से कृपा नहीं की। *आजानुलम्बित भुजौ कनकावदातौ सङ्कीर्तनैक-पितरौ कमलायताक्षौ विश्वम्भरौ द्विजवरौ युगधर्मपालौ वंदे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ।।* ( चैतन्य भागवत १.१) अर्थ:- मैं भगवान्, श्रीचैतन्य महाप्रभु और भगवान् श्रीनित्यानंद प्रभु की आराधना करती हूं, जिनकी लंबी भुजाएं उनके घुटनों तक पहुंचती हैं, जिनकी सुंदर अंगकांति पिघले हुए स्वर्ण की तरह चमकीले पीत वर्ण की है, जिनके लंबाकार नेत्र रक्तवर्ण के कमलपुष्पों के समान हैं। वे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण, इस युग के धर्मतत्वों के रक्षक, सभी जीवात्माओं के लिए दानशील हितैषी और भगवान् के सर्वदयालु अवतार हैं। उन्होंने भगवान् कृष्ण के पवित्र नामों के सामूहिक कीर्तन का शुभारंभ किया। करुणावतार श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने रामकेलि में प्रेम का वितरण किया। *नमो महावदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.५३) अनुवाद:- हे परम करुणामय व दानी अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौर वर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के विशुद्ध प्रेम का सर्वत्र वितरण कर रहे हैं। हम आपको सादर नमन करते हैं। जहां भी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं, वहां कीर्तन है। वे कीर्तन का वितरण कर रहे हैं। यह कीर्तन ही प्रेम है, वह प्रेम का दान कर रहे हैं। अपना दर्शन दे रहे हैं। हरे कृष्ण! यह केवल जनता पर ही नही अपितु राजा हुसैन शाह पर विशेष कृपा हुई। हरि! हरि! इसी रामकेलि की भेंट में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने रूप व सनातन अर्थात दबीर खास व साक्कर मल्लिक को दीक्षा भी दी थी। तुम सनातन हो और तुम रूप हो। तुम वृंदावन जाओ, मैं भी आऊंगा वहां, हमारा अगला मिलन वृंदावन में होगा। ऐसा आदेश देकर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रामकेलि से प्रस्थान करते हैं। तब रामकेलि में कई सारी घटनाएं घटती हैं। चैतन्य महाप्रभु वृंदावन गए थे लेकिन जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन पहुंचे तब वहां पर ना तो रूप गोस्वामी थे और ना ही सनातन गोस्वामी पहुंचे थे। लेकिन अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन से जगन्नाथ पुरी लौट रहे थे, तब चैतन्य महाप्रभु, रूप गोस्वामी को प्रयागराज में मिले और सनातन गोस्वामी को वाराणसी में मिले। तत्पश्चात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी लौटे। , *श्रीकृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य।* या *नमो महावदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते। कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः।।* इस प्रकार श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का ५०० वर्ष पहले जो प्राकट्य हुआ था, कहना ही पड़ेगा कि उन्होंने अपनी अहेतु की कृपा की राजा हुसैन शाह व अन्य कईयों के ऊपर अहेतु को कृपा हुई। जो इस योग्य भी नहीं थे, तब भी महाप्रभु ने उन पर कृपा की हम भी, आप भी ऐसी कृपा के अभिलाषी हैं। आप भी ऐसा सोचते हैं कि आप पर ऐसी कृपा हो जाए? कौन-कौन सोचता है? किस के मन में यह विचार आता है - हम पर क्यों नहीं? भक्ति विनोद ठाकुर लिखते हैं- भगवान् ने तो कई का उद्धार किया लेकिन भक्ति विनोद तो थकीला यहीं के यहीं रह गए। भक्ति विनोद ठाकुर भी प्रार्थना कर रहे थे कि हम पर क्यों नहीं। हे प्रभु! आपने राजा हुसैन शाह पर कृपा की। उन पर कृपा की। जगाई- मधाई पर कृपा की। अब किस-किस के नाम ले पर हम पर क्यों नहीं? बस हम ही रह गए। कबे हबे सेइ दिन हमार। हमारा ऐसा दिन कब आएगा? आज का दिन सर्वोत्तम दिन है। *कृष्ण त्वदीयपदपङ्कजपञ्जरान तम् अद्यैव मे विशतु मानसराजहंसः प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः कण्ठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते।।* ( मुकंद माला स्रोत-३३ राजा कुलशेखर) अनुवाद:- हे भगवान् कृष्ण, इस समय मेरे मनरूपी राजहंस को अपने चरणकमल के डंठल के जाल में प्रवेश करने दें। मृत्यु के समय जब मेरा गला कफ, वात तथा पित्त से अवरुद्ध हो जाएगा, तब मेरे लिए आपका स्मरण करना कैसे सम्भव हो सकेगा? आज या अब। हरि! हरि! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय! रूप सनातन की जय! रामकेलि धाम की जय! नवाब हुसैन शाह की जय! श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उनका भी कल्याण किया। चैतन्य महाप्रभु ने पूर्व में मायापुर में चांद काजी का उद्धार किया था। आपको पता है कि महाप्रभु चांद काजी की कोठी पर एक कीर्तन पार्टी लेकर गए। उनका उद्धार किया। तत्पश्चात चांद काजी ने घोषणा की, आज से नवद्वीप में हरे कृष्ण महामंत्र के कीर्तन में बिल्कुल रोकथाम नहीं होगा। हरे कृष्णा के जो भक्त हैं, वे स्वतंत्रता पूर्वक जप, कीर्तन व नृत्य कर सकते हैं। मायापुर में उस चांद काजी की समाधि है। जब हम लोग नवद्वीप मंडल परिक्रमा में जाते हैं, तब हम चांद काजी की समाधि पर पहुंच जाते हैं। वहां बैठकर चांद काजी का संस्मरण करते हैं। वहां नतमस्तक होते हैं। वहां की धूलि अपने मस्तक पर उठाते हैं।हम चांद काजी की समाधि की प्रदक्षिणा करते हैं। उन्होंने चांद काजी का उद्धार किया। हम कहते हैं कि यह हिंदू है , दूसरा मुसलमान है तीसरा कोई और है लेकिन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की दृष्टि में तो हम सब एक ही हैं। हम कहते हैं या लिखा पढ़ा भी जाता है कि उन्होंने मुस्लिम चांद काजी का उद्धार किए। मुस्लिम यह तो हमारी भाषा है। संसार का विचार है। भगवान के लिए क्या है? भगवान के लिए कौन हिंदू? कौन मुस्लिम? कौन इसाई? स्त्री, पुरुष? यह सारा द्वंद है। *विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि | शुनि चैव श्र्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ||* ( श्रीमद् भगवतगीता ५.१८) अनुवाद:- विनम्र साधुपुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान् तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं। विद्या विनय संपन्न पंडित की दृष्टि समदृष्टि हो सकती है, वो भेद भाव नहीं रखता, इसमें उसमें , कुत्ते या हाथी में या शूद्र या मुसलमान या हिंदू में ..। ऐसी दृष्टि कहां से आती है? ओरिजिनल भगवान में होती है। भगवान् की दृष्टि है। भगवान का विचार है। भगवान की सम दृष्टि है। भगवान् भेदभाव नहीं करते। भगवान के लिए कोई अपना पराया नहीं है। भगवान के लिए सभी अपने ही हैं। वे जो भी हो, जैसे भी इस संसार में बने हैं। जिन नामों व उपाधियों से वे जाने जाते हैं, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। भगवान के लिए तो वे सब एक ही हैं। हरि! हरि! मैं यहीं अपनी वाणी को विराम देता हूं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

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