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25 जून 2019 हरे कृष्ण!!! मैं आज पुणे में हूं।आज हमारे साथ जप करने वाले प्रतिभागियों की संख्या 642 है जोकि खराब नही है, बल्कि अच्छी है।इस मास को समाप्त होने में कुछ ही दिन शेष हैं और मुझे लगता है कि हमारा 700 भक्तों का लक्ष्य पंढरपुर धाम में जाकर ही पूर्ण होगा। हमने कल जप वार्ता में रघुनाथ दास गोस्वामी व हरिदास ठाकुर और नाम अपराध के विषय में वार्ता की थी। हम प्रतिदिन एक नए विषय पर चर्चा करते हैं परंतु आज भी हम फिर रघुनाथ दास गोस्वामी जी के विषय में और अधिक चर्चा करेंगे। रघुनाथ दास गोस्वामी व षड गोस्वामी हमारे आचार्य हैं।वास्तव में उनके विषय में सुनना व स्मरण करना हमारे लिए अत्यंत भाग्य पूर्ण और शुभकारी है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने सन्यास के उपरांत जब शांतिपुर पहुंचे थे, वहीं रघुनाथ दास गोस्वामी को श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का दर्शन हुआ था । हरि! हरि! श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने रघुनाथ दास गोस्वामी को जो उस समय गोस्वामी नहीं थे सिर्फ रघुनाथ थे, निर्देश दिया था कि वह अपने निवास स्थान पर वापिस लौट जाए और अपने गृहस्थ जीवन का निर्वाह करे। निश्चित रूप से एक समय आएगा, जब श्री कृष्ण ऐसी समुचित व्यवस्था करेंगे, जब वह अपने सारे बंधनो को तोड़ कर उनकी(महाप्रभु) सेवा में पूर्ण रूप से आ जाएंगे। रघुनाथ दास गोस्वामी अपने निवास स्थान पर वापिस लौट आए, तब उनके पिता ने उनको बंधन में बांधने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनके पास अचल मात्रा में धन संपत्ति थी।वह अपनी धन सम्पत्ति के माध्यम से उन्हें बांधना चाहते थे। उन्होंने रघुनाथ दास जी को पूर्ण रूप से बंधन में बाँधने के लिए एक बहुत ही सुन्दर, युवा युवती से उनका विवाह करवाया एवं हर प्रकार से उन्हें बन्धन में बाँधने का प्रयास किया। श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी अपनी ओर से अपने बन्धन काटने का भरसक प्रयास कर रहे थे परन्तु सफल नहीं हो पा रहे थे और वो सोच रहे थे कि शायद मेरे ऊपर गुरु कृपा नहीं है, इसीलिए मैं अपने बल पर इन बंधनों को काटने में सफल नहीं हो पा रहा हूँ। उन्होंने अपने गुरू,नित्यानंद प्रभु जोकि पूरे विश्व के आध्यात्मिक गुरु हैं ,उनसे मिलने की योजना बनाई तथा वे उनसे मिलने पानीहाटी गए। समयाभाव के कारण, मैं रघुनाथ दास गोस्वामी जी का पूरा जीवन चरित विस्तारपूर्वक नहीं सुना पाऊँगा परन्तु उनके जीवन के मुख्य अंश जरूर बताने का प्रयास करूंगा। यहाँ पनिहाटी में रघुनाथ दास गोस्वामी जी को नित्यानंद प्रभु का आशीर्वाद मिला और उसके पश्चात वह पुनः अपने ग्राम वापिस लौट आए। वह कई प्रयासों के पश्चात अपने उन बंधनो को तोड़कर, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की सेवा में जगन्नाथपुरी जा पाए। श्री रघुनाथ दास गोस्वामी जब जगन्नाथपुरी में पहुँचे, वहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने श्रील स्वरूप दामोदर गोस्वामी को उनकी देखरेख करने के लिए नियुक्त किया अर्थात श्रील स्वरूप दामोदर उनके सलाहकार बने। रघुनाथ दास गोस्वामी स्वरूप दामोदर के रघु भी कहलाए। श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी, सप्तग्राम के एक बड़े जागीरदार के पुत्र थे और जहां नित्य विभिन्न प्रकार के नाना व्यंजन उनके लिए परोसे जाते थे और वह एक वैभव पूर्ण जीवन जी रहे थे लेकिन यहाँ अब जगन्नाथपुरी में वह अपना भिक्षा पात्र लेकर जगन्नाथ जी के मंदिर के बाहर सिंह द्वार पर खड़े हो जाते थे और जो भी उन्हें भिक्षा प्राप्त होती थी, उसी से अपना उदरपोषण करते थे। रघुनाथ दास गोस्वामी जब इस प्रकार से भिक्षा माँगते थे, तब एक बार उनके मन में विचार आया कि, "यह अच्छा नहीं है, मुझे यह रोक देना चाहिए कि मैं यहाँ भीख मांग रहा हूँ और कुछ लोग मुझे कुछ कुछ भिक्षा, कुछ खाने के लिए या पैसे देने की पेशकश करते हैं और मुझे लगता है कि ओह! यह एक अच्छा व्यक्ति है। धन्यवाद! और इतने सारे लोग मुझे कुछ नहीं देते हैं और तब मुझे लगता है, ओह! ये अच्छे लोग नहीं हैं। उन्होनें मुझे कुछ नहीं दिया है। मैं इस तरह, ये अच्छे लोग हैं, ये बुरे लोग हैं,का भेदभाव कर रहा हूँ और दोहरी प्रकृति के बवंडर में फँसता जा रहा हूँ। मुझे इस भ्रामक स्थिति से अलग होना होगा।" " द्वैत' भद्राभद्र-ज्ञान, सब-'मनोधर्म'। 'एइ भाल, एइ मन्द', एइ सब 'भ्रम'।। (चैतन्य चरितामृत 4.176) यह अच्छा है, यह बुरा है, यह अच्छा व्यक्ति है, यह बुरा व्यक्ति है। मुझे इसका त्याग कर देना चाहिए। इसलिए, उन्होंने इस भीख मांगने की गतिविधि को छोड़ दिया। रघुनाथ दास गोस्वामी जी ने यह निर्णय लिया कि वह मंदिर के सामने खड़े होने की अपेक्षा अब मंदिर के पीछे भाग में जाएंगे। वह मंदिर के पीछे के भाग में चले गए, जहाँ पर अतिरिक्त और बचे हुए प्रसाद को फेंक दिया जाता था और उस अतिरिक्त और बचे हुए प्रसाद को कुत्तों या गायों या कौवों द्वारा खाया जाता था। रघुनाथ दास गोस्वामी वहीं से उस प्रसाद को इकट्ठा करते थे।कभी कभी यह प्रसाद सड़ा हुआ होता था, या फिर कीचड़ के साथ मिला हुआ होता था परंतु वह उसे लेते थे, उसको धो कर, थोड़ी सफाई करके और वह उस प्रसाद को खाते थे। वह उस प्रसाद से आनंद और संतुष्टि प्राप्त करते थे। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने देखा,'ओह! रघुनाथ दास गोस्वामी प्रवेश द्वार पर भीख नहीं मांग रहा है। वह कहाँ है? वह कहाँ जाता है और मंदिर के पीछे क्या करता है? तब एक दिन श्री चैतन्य महाप्रभु ने रघुनाथ गोस्वामी को देखा और वे भी उनके करीब चले गए और पाया कि रघुनाथ दास गोस्वामी कुछ अवशेष, सड़े हुए प्रसाद को साफ करने और खाने के लिए एकत्रित कर रहे थे। चैतन्य महाप्रभु ने रघुनाथ दास गोस्वामी से भीख मांगना शुरू कर दिया,"मैं भी! उस प्रसाद में से मुझे भी कुछ दे दो। तुम अपने आप से क्यों खा रहे हो? लालची!इसे मेरे साथ साझा करो।" रघुनाथ दास गोस्वामी ने कहा,"नहीं! नहीं! मेरे भगवान, आपके लिए इस तरह का प्रसाद !, नहीं नहीं ! आपको यह नही खाना चाहिए।आप यह प्रसाद नहीं पा सकते, यह एकदम सड़ा हुआ है।यह खराब हो चुका है,इसमें मिट्टी भी मिली है।" और यह कहकर, रघुनाथ दास गोस्वामी महाप्रभु से भागने लगे परन्तु वह महाप्रभु से कहाँ बचकर भाग सकते थे।महाप्रभु ने उनको पकड़ लिया और बोले, "मुझे भी दो, मुझे भी दो।" 'जगन्नाथ भात जगत पसारे हाथ" महाप्रभु ने उसमें से कुछ निवाला निकाल कर अपने मुँह में डाल लिया जिससे उन्हें बहुत आनन्द आया। यह जगन्नाथ प्रसाद का महात्म्य है। हम इस लीला को सुनकर समझ सकते हैं कि भगवान जगन्नाथ जी के प्रसाद की क्या महत्ता है। श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी, महाप्रभु और उनके सहयोगियों के साथ जगन्नाथ पुरी में वास कर रहे थे और वह नित्य महाप्रभु की लीलाओं का दर्शन करते थे तथा महाप्रभु की लीलाओं व नित्य क्रियाओं को वह एक अपनी व्यक्तिगत डायरी में बड़े सुंदर तरीके से लिखते थे। अंततः दुर्भाग्य से कालवश एक समय बाद, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथपुरी में अपनी लीलाओ का समापन किया और वे गोपीनाथ जी के विग्रह में प्रवेश कर गए। पुरी के वासियों के लिए, विशेषतया रघुनाथ दास गोस्वामी के लिए एक बहुत ही हृदय विदारक घटना थी। महाप्रभु की लीलाओं के समापन के बाद रघुनाथ दास गोस्वामी जी जगन्नाथ पुरी से वृन्दावन आ गए। रघुनाथ दास गोस्वामी सोचने लगे कि अब मेरे इस जीवन का क्या लाभ है,मैं अपने जीवन का समापन कर दूँगा, क्योंकि मैं महाप्रभु के बिना इस संसार में कैसे रह सकूँगा। इस प्रकार के अनुपम भावों को हमने देखा है।नरोत्तम दास ठाकुर ने अपने भजन ," जे आनिल प्रेमधन" में सभी परम वैष्णवों के विरह का अनुभव करते हुए कहते हैं कि भक्त कहां चले गए,"एक काले कोथा गेला गोरा नटराज" चैतन्य महाप्रभु कहाँ चले गए मैं उनके विरह में कैसे रहूँगा इससे तो अच्छा है कि मैं अपने सर को किसी पत्थर से फोड़ डालूँ या फिर अग्नि में प्रवेश कर अपना अस्तित्व खत्म कर लूं। ऐसा ही विरह भाव रघुनाथ दास गोस्वामी जी अनुभव कर रहे थे और वह अपने जीवन का अन्त करने का सोच रहे हैं। नामाचार्य हरिदास ठाकुर जी को जब ऐसा आभास हुआ कि चैतन्य महाप्रभु जल्दी ही अपनी लीला समाप्त करेंगें तब उन्होंने भी इसी प्रकार सोचा कि मैं अब उनके बिना कैसे रह पाऊंगा। इससे पूर्व महाप्रभु अपनी लीला समाप्त करें , हरिदास ठाकुर उनसे प्रार्थना करने लगे," नहीं नहीं, भगवान , मैं पहले जाना चाहता हूं यदि आप पहले गए और मैं पीछे तो उन परिस्थितियों को मैं संभाल नहीं पाऊंगा इसलिए कृपया मेरी व्यवस्था करें कि आप सबसे पहले मेरे पास हों या मेरी आँखों के सामने हो।" श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने नम्रता से श्री हरिदास ठाकुर को यह आशीर्वाद प्रदान किया और एक दिन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अनेक भक्तों को लेकर हरिदास ठाकुर के निवास सिद्धबकुल में कीर्तन करते हुए आए। महाप्रभु जी को भी यह आभास था कि हरिदास ठाकुर जी का महाप्रयाण होने वाला हैं। हरिदास ठाकुर जी ने महाप्रभु के चरणों को पकड़ लिया और अपनी आँखों को, महाप्रभु के कमल सदृश मुख मण्डल पर केन्द्रित कर दिया और भगवान की रूप माधुरी को अपनी आँखों से पीने लगे। तब वह 'श्री कृष्ण चैतन्य ' इस प्रकार जोर से उदघोष करके शांत हो गए और उनका शरीर भी शान्त हो गया। इस तरह भगवान ने नामाचार्य श्री हरिदास ठाकुर की इच्छा को पूरा किया। इसी प्रकार रघुनाथ दास गोस्वामी जी भी वृन्दावन में आ और अपने जीवन को समाप्त करने का विचार करने लगे और अनेक तरीक़े सोचने लगे, "मैं, कैसे और कहां अपना जीवन त्याग सकता हूं।" उनके मन में गोवर्धन पर्वत से किसी घाटी में कूद कर अपनी जिंदगी खत्म करने का विचार भी आया। जिस प्रकार से भक्तों का समूह जगन्नाथपुरी में था, उसी प्रकार एक भक्तों का समूह वृन्दावन में भी था।श्रील रूप गोस्वामी व श्रील सनातन गोस्वामी आदि अनेक भक्तों को जब रघुनाथ दास गोस्वामी जी का यह विचार पता चला तब उन भक्तों ने उनके साथ एक बैठक की और यह कहकर मनाया कि, "नहीं नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकते। यह शरीर आपकी सम्पत्ति नहीं है।यह तो गौरांग महाप्रभु की सम्पत्ति है, तो आप इस प्रकार इसका अन्त नहीं कर सकते।आपको इस शरीर से गौरांग महाप्रभु की सेवा करनी चाहिए।" इस प्रकार से वे सब रघुनाथ दास जी को मनाने में सफल हो गए जो अब वृन्दावन में आकर रघुनाथ दास गोस्वामी हो गए थे। इसके उपरांत रघुनाथ दास गोस्वामी 40 वर्ष तक वृन्दावन धाम में ही रहे। वृन्दावन के निवासियों, वृन्दावन में रहने वाले भक्तों, विशेषकर राधा कुण्ड के निवासियों या वरिष्ठ सहयोगियों जो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी थे, उन सब को रघुनाथ दास गोस्वामी जी के संग का बहुत लाभ मिला। रघुनाथ दास गोस्वामी जी ने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीलायें बहुत निकट से देखी थी और अपने पास लिखी भी हुई थी। रघुनाथ दास गोस्वामी नियमित रूप से राधा कुण्ड, श्याम कुंड के तट पर बैठकर जगन्नाथ पुरी में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के द्वारा की गई सभी लीलाओं का वृंदावन के निवासियों को बहुत सुंदर वर्णन किया करते थे। इस प्रकार जो भक्त महाप्रभु की लीलाओं को देखने से वंचित रह गए थे उन्हें रघुनाथ दास गोस्वामी के माध्यम से उन लीलाओ को प्रत्यक्ष देखने का, कानों के माध्यम से सुनने का अवसर प्राप्त हो रहा था। उन श्रोताओं के बीच एक बहुत ही खास श्रोता थे, वैसे तो वहाँ कई विशेष थे पर उनमें से एक श्रोता कृष्णदास कविराज गोस्वामी प्रमुख थे जो महाप्रभु की लीला बड़े ध्यान पूर्वक सुनते थे। वह रघुनाथ दास गोस्वामी जी के पड़ोसी भी थे , निकट ही रहते थे। उन्होंने उसे अत्यंत ध्यान पूर्वक सुना एवं वैष्णवों के कहने पर चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं पर आधारित श्री चैतन्य चरितामृत नामक ग्रन्थ बड़े सुन्दर तरीके से लिपिबद्ध किया। उन्होंने विशेष कर महाप्रभु की अन्त्य लीला का चैतन्य चरितामृत में बड़ा सुंदर रूप से संकलन किया है। कृष्ण दास कविराज,रघुनाथ दास गोस्वामी और उनकी चैतन्य डायरी की इन वार्ताओं की मदद से चैतन्य चरितामृत लिखने में सक्षम हुए। रघुनाथ दास गोस्वामी जी ने भी अपने नोट्स, कृष्णदास कविराज गोस्वामी के साथ साझा किए। रघुनाथ दास गोस्वामी जी को उनके त्याग, वैराग्य के लिए जाना जाता है। जब वह वृंदावन में राधाकुंड के किनारे निवास कर रहे थे, उन्होंने शायद ही कुछ खाया हो।पूरे दिन में वह मुश्किल से एक दोना छाछ पीते थे और मात्र 2 घण्टे सोते थे। बाकी सारा समय भक्ति करते थे।सारे गोस्वामियों में रघुनाथ दास को सबसे बड़ा वैरागी माना जाता हैं।"वैराग्य विद्या निज भक्ति" इस प्रकार से कहा जाता था। वैराग्य विद्या का रघुनाथ दास गोस्वामी अपने जीवन से दर्शन करा रहे थे।कुछ समय उपरांत रघुनाथ दास गोस्वामी समाधिष्ठ हुए। राधा कुण्ड के तट पर उन्होंने समाधि ले ली। राधा कुण्ड के तट पर आज भी वह समाधि स्थल स्थित है। अगली बार जब आप भक्त राधा कुण्ड जाएं, उस समाधि के दर्शन कर, उन्हें प्रणाम कर उनसे प्रार्थना करना ना भूलें क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि आचार्यजन अपनी समाधि में निवास करते हैं। रघुनाथ दास गोस्वामी आपको आशीर्वाद दें, किसी ने लिखा है," कृष्णेर मति अस्तु" । यह आशीर्वाद श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु दिया करते थे और समस्त आचार्य भी यही कहा करते थे कि आपकी श्रीकृष्ण में मति लगे।मैं भी आप लोगों को यही आशीर्वाद दे रहा हूँ कि आप सब कृष्णेर मति अस्तु बने। आप सबका जीवन पूर्ण रूप से कृष्ण भावनाभावित हो। गौरांग! रघुनाथ दास गोस्वामी की जय! हरे कृष्ण!

English

25th June 2019 Raghunath Das Gosvami & his renunciation I am here in Pune today. We were talking yesterday about Raghunath Das Gosvami, Namacarya Haridas Thakur and offenses against holy name. So that was topic yesterday and everyday we have a new topic, but today I wish to remember Raghunath Das Gosvami and talk more about Raghunath Das Gosvami. He is our acarya. So, remembering our acaryas like six Gosvamis is very auspicious. So, Raghunath Das Gosvami, he had a darshan of Lord Sri Krishna Caitanya Mahaprabhu in Shantipur, when Sri Krishna Caitanya Mahaprabhu had come there after sanyaas. So that’s another thing. So there, Sri Krishna Caitanya Mahaprabhu advised Raghunath - he was not Gosvami that time. He was just Raghunath. Caitanya Mahaprabhu said “You go return to family and lead a family life and Krishna will make arrangement for you to relieve and you could be able to break all the bonds and join Me at some stage.” So by now he was married and his father was trying to bind him to the worldly life or keep him at home. So, he thought the wealth is there, he was trying to bind him with the wealth and then another bond is okay here you go. We will bind you further. He was married to young beautiful girl. So, his father was doing his best to keep Raghunath Das Gosvami at home. He was attempting to break the bonds, go away from the family, go to join with Sri Krishna Caitanya Mahaprabhu in Jagannath Puri. But he was not becoming successful. He thought I don’t have blessings of my guru and that is Nityananda Prabhu. Nityananda Prabhu is the spiritual master of the whole world. So, then he had gone to meet Nityananda Prabhu. That meeting took place at Panihati at the banks of Ganges. I think I am going too slow. I need to go fast to cover kind of entire life of Raghunath Gosvami. I will not contemplate or dwell on each episode but I will just make a mention and proceed. So here at Panihati,he was blessed by Nityananda Prabhu and then he returned to Saptagrama, his home town and then finally after many many attempts, he succeeded breaking all the bonds and reach Jagannath Puri and be in association of Sri Krishna Caitanya Mahaprabhu and His associates. So, while he was in Jagannath Puri, Caitanya Mahaprabhu asked Svarupa Damodar to take care or look after, advice Raghunath Das. So Svarupa Damodar Gosvami became kind of counselor and Raghunath Das was counselee and this was nice team and Raghunath Das became known as ‘Svarupera Raghu’, he was Raghu of Svarupa Damodar. So then as you know he was in his previous ashram, at home he was a big landlord and all opulences was at his disposal and all the dishes were cooked for him, but now here at Jagannath Puri he started begging alms. He would stand at the entrance of the Simha dvara with the begging bowl and whatever alms would be offered he would just survive with those alms. He also at one point, he was thinking, this is not good that I am begging here and some people offer me something, some alms, something to eat or give paisa and I think ‘oh this is a nice person. Thank you!’ and so many others give me nothing and I think, ‘oh these are not good people. They have not given me some little bit.’ So, he was thinking, ‘I am thinking these are good people, these are bad people and I am doing this kind of discrimination and I am caught in the dvandva, dual nature, dvidha and this is not proper on my part to think of good and bad. ei bhāla, ei manda,'— ei saba bhrama (CC Antya 4.176) This is good, this is bad, this is good person, this is bad person. I should give it up. So, he gave up this begging activity. So, he started to go behind the temple. He used to stand in front, so he decided to go behind the temple. This where they used to throw extra prasad and the leftovers and which was eaten up by dogs or cows or crows. So, Raghunath Das Gosvami was collecting that prasad. Sometimes it’s rotten, it was mixed with mud. He used to take that and wash it, little cleaning and then he used to eat that prasad. He used to enjoy that prasad, relish that prasad. Sri Krishna Caitanya Mahaprabhu noticed, ‘Oh! How come he is not begging at the entrance. Where is he? Where does he go and what does he do at the back of the temple?’ So, Sri Krishna Caitanya Mahaprabhu had found out that Raghunath Das Gosvami was collecting some remnants, rotten prasad cleaning and eating. So Caitanya Mahaprabhu one time, He watched Raghunath Das Gosvami and he even went forward, closer to him and He started begging ‘Me too. Me too! Give some of that Prasad to Me. Why are you eating by yourself? Greedy! Share it with Me.’ And then Raghunath Das Gosvami was thinking, ‘no, no! This kind of prasad for you my Lord? No, no! You should not eat this.’ So, Raghunath Das Gosvami got up and he was running away, escape kind. So that Lord does not eat that kind of rotten or old or smelly or mixed with mud kind of food, Prasad. But Raghunath Das Gosvami was not successful. Caitanya Mahaprabhu caught him from behind and took some morsels from ‘Jagannather bhat jagat pasare hat’ and Caitanya Mahaprabhu started enjoying that Jagannath mahaprasad. Of course, this is greatness of, mahatmya of Jagannath prasad also as we hear this pastime. So, Raghunath Das had an opportunity to associate with Sri Krishna Caitanya Mahaprabhu and His associates for many many years in Jagannath Puri. So, one thing that Raghunath Das Gosvami did and not many did this what Raghunath Das Gosvami did and that was he was keeping a diary. He was writing journal kind of, when he used to be with Caitanya Mahaprabhu or witnessing different pastimes of Caitanya Mahaprabhu. Raghunath Das Gosvami used to be himself part of those pastimes. So, at the end of the day or middle of the day he used to write it down what he had seen, what he had experienced. So, he was keeping notes, diary of Sri Krishna Caitanya Mahaprabhu’s different activities, different pastimes, different lilas. So unfortunately and eventually Sri Krishna Caitanya Mahaprabhu wind up His pastimes in Jagannath Puri by entering into the vigraha of Tota Gopinath and everyone there was devastated as Caitanya Mahaprabhu’s darshaa was no more available. So, at that point Raghunath Das Gosvami, he left Jagannath Puri. He went to Vrindavan and was planning to give up his life as he thought, ‘what good is this life without Sri Krishna Caitanya Mahaprabhu?’ So Narottam Das Thakur has also expressed his sentiments, ‘ye anilo prema dhan’, that song. So, like that Narottam Das Thakur was also thinking that ‘how could I survive now in His absence? Look this devotee has left, that devotee has left, that devotee, of course Gauranga eka kale, Caitanya Mahaprabhu also has left. So, I could only break my head against the rock that I don’t have association of this and that and all those vaisnavas who have departed. Or I should enter the fire and finish my existence. Narottam Das Thakur sings that song, has expressed his emotions. So, Raghunath Das Gosvami also was feeling like that, that Narottam Das Thakur’s feelings. As also we know, Namacarya Sri Haridas Thakur when he found out or realized that Sri Krishna Caitanya Mahaprabhu is preparing to depart, preparing to wind up His pastimes, then he also said, ‘no, no Lord, I want to go first because I will not be able to manage, tolerate my existence that You have gone first and I am behind. I won’t be able to handle those kinds of circumstances that you have departed and I have stayed behind. So please arrange that I go first while You are still with me or in front of my eyes.’ And of course, Sri Krishna Caitanya Mahaprabhu kindly granted that benediction to Namacarya Sri Haridas Thakur and one day Sri Krishna Caitanya Mahaprabhu came with big number of devotees, performing kirtan at Siddha Bakul. At one-point Namacarya Sri Haridas Thakur, he held the lotus feet of Sri Krishna Caitanya Mahaprabhu and Namacarya Haridas Thakur’s eyes were drinking the beauty of lotus like face of Gauranga and he uttered ‘Sri Krishna Caitanya!’ and this was last thing he uttered and with that he departed. This way Lord fulfilled the wish, desire of Namacarya Sri Haridas Thakur. Raghunath Das Gosvami had arrived in Vrindavan and he used to be contemplating on giving up his, ending up his life and he was thinking, ‘how and where I could give up my life. He was thinking I should climb up Govardhan hill and from top of the hill I will jump in the valley. And this is how I will end up my life.’ Rupa, Raghunath, other Gosvamis, other devotees of Gauranga those who were residing in Vrindavan- there was one team in Jagannath Puri, but there was another team in Vrindavan. So, some of them found out, Rupa Gosvami we could say found out what Raghunath Das Gosvami was contemplating on. So, they sat with him and told him, ‘no, no you can’t do this. This is not your body. This body is property of Mahaprabhu. And you should continue to live in this body and use this body in service of Gauranga.’ So, they were talking to him and dispreading him and they finally succeeded and Raghunath Das Gosvami- now he has become Raghunath Das Gosvami here- he stayed on here in Vrindavan for another 40 years or so. So, residents of Vrindavan, especially residents of Radhakunda or the senior associates, followers of Gauranga Mahaprabhu were greatly benefited by association of Raghunath Das Gosvami, because Raghunath Das Gosvami had witnessed all the pastimes of Gauranga in Jagannath Puri and he also had taken the notes. So now regularly on the banks of Radhakunda, Shyamakunda, Raghunath Das Gosvami was sharing all the pastimes of Sri Krishna Caitanya Mahaprabhu in Jagannath Puri with residents of Vrindavan and Radhakunda residents who were deprived of all those pastimes. They had no idea what different pastimes Lord had performed. Now Raghunath Das Gosvami was sharing all those pastimes day after day after day. Amongst the listeners in the audience there was one very special person, so many were very special, but one was very very special and that was Krishnadas Kaviraj Gosvami Maharaj. Krishnadas Kaviraj in fact he became a neighbor, staying next door to Raghunath Das Gosvami and he was listening and he was the one, Krishnadas Kaviraj Gosvami, he compiled Caitanya Caritamrita. He had never ever met or seen Caitanya Mahaprabhu, but vaisnavas had asked him, Krishnadas Kaviraj Gosvami, to compile Caitanya Caritamrita. So, he was able to do so with the help of Raghunath Das Gosvami as he was listening to the pastimes of Gauranga Mahaprabhu in Jagannath Puri and Raghunath Das Gosvami was also sharing his notes, his diary with Krishnadas Kaviraj Gosvami. With the help of these talks of Raghunath Das Gosvami and his Caitanya diary, Krishnadas Kaviraj Gosvami was able to compile, especially the antya lila part of Caitanya Caritamrita. So, Raghunath Das Gosvami amongst the other Gosvamis, he was known for his renunciation, his vairagya. So now here in Vrindavan at the banks of Radhakunda where he was residing, he hardly ate anything. He used to just take one cupful of buttermilk. That is what all that he was eating and of course hardly he was sleeping, one two hours and hardly eating. So, all the Gosvamis especially Raghunath Das Gosvami is known for his renunciation, vairagya vidya nija bhakti yoga. Time is up. Then Raghunath Das Gosvami attained Samadhi in Vrindavan at the banks of the Radhakunda. Right at the banks of Radhakunda in fact there is Samadhi of Raghunath Das Gosvami. We could also think that way that acharyas are also accessible, they reside in there samadhis, so whenever next time you go to Radhakunda, don’t miss the Samadhi mandir darsana and offer your prayers to Raghunath Das Gosvami on the banks of Radhakunda. May Raghunath Das Gosvami bless you, but blessing is ‘Krishner mati astu’. Caitanya Mahaprabhu used to bless like that. All the acaryas used to bless like that. I am also blessing like that. That’s nice blessing. ‘Krishner mati astu’, let your mati reside in Sri Krishna and may you all become fully Krishna conscious. Gauranga! Raghunath Das Gosvami ki jai! Hare Krsna!

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