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जप चर्चा, *परम पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा* *दिनांक 23 जून 2022* हरे कृष्ण!!! सुनो! हरे कृष्ण! आप भगवान के नाम को सुन ही तो रहे थे, उनका नाम कृष्ण हैं, उनका नाम राधा है, उनका नाम हरे है, उनका नाम राम है।सुन रहे हो? पहले उनके नाम को सुन रहे थे, अब उनके कुछ गुण या कथा को सुनिए। भगवान से संबंधित बातें होगी, दोनों को ही सुनना है, नाम को भी सुनना है। कीर्तनीय सदा हरि भी करना है या नित्यम् भागवत सेवया भी करना है। आप समझ रहे हो? जाह्नवी गंगा समझ रही है? हरि! हरि! पुनः आपका स्वागत है, अभिनंदन भी है। जब हम आपको जप करते हुए देखते हैं तो हमें भी आनंद होता है। उसको व्यक्त करना..उसको अभिनंदन कहते हैं। जिसको आप मलेच्छ अर्थात अंग्रेजी भाषा में कांग्रेचुलेशन कहते हो। अभिनंदन! हरि! हरि! सादा जीवन, उच्च विचार। सादा या सरल जीवन, उच्च विचार का जीवन। यही कृष्ण भावना का जीवन है या कृष्ण भावना की समझ भी कहिए। इस संबंध में दो दिन पहले कुछ कह चुका हूं लेकिन सोच रहा हूं कि उन्हीं बातों को थोड़ा और कहूं एवं और स्पष्ट करुं। यह भी कहा ही था कि भगवान के विचार ही उच्च विचार हैं और हमें उनके विचार का बनना है। सारे संसार के भगवान एक ही हैं। हमें एक ही भगवान के विचार के बनना है। तब हम सारे संसार भर के लोग एक विचार के हो जाएंगे, वह विचार उच्च भी होगा और एक जैसा होगा। इसी के साथ संसार में ऐक्य की स्थापना होगी। ऐक्य समझते हो? एकता (यूनिटी) जोकि अत्यंत अनिवार्य है। हरि! हरि! भगवान अनेक नहीं हैं। भगवान एक है, हम अनेक हैं। *नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम् एको बहूनां यो विदधाति कामान् तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीराः तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम् ॥* (कठोपनिषद् २.२.१३) अनुवाद:- परम भगवान् नित्य हैं और जीवात्मा गण भी नित्य हैं। परम भगवान् सचेतन हैं और सभी जीवात्माएं भी सचेतन हैं। परन्तु अन्तर यह है कि, एक परम भगवान् सभी जीवात्माओं के जीवन की आवश्यकताओं को पूर्ण करते हैं। जो भक्तगण उस आत्मतुष्ट परम भगवान् को निरन्तर देखते रहते हैं या निरन्तर स्मरण करते हैं, उन्हें ही शान्ति प्राप्त होती है, अन्यों को नहीं। विठू माझा लेकुरवाळा संगे गोपाळांचा मेळा निवृत्ती हा खांद्यावरी सोपानाचा हात धरी पुढे चाले ज्ञानेश्वर मागे मुक्ताई सुंदर गोरा कुंभार मांडीवरी चोखा जीवा बरोबरी संत बंका कडेवरी नामा करांगुळी धरी जनी म्हणे गोपाळा करी भक्तांचा सोहळा।। मेरे बगल, पीछे- आगे, अंदर- बाहर सर्वत्र पांडुरंग! पांडुरंग! भगवान ही भगवान है। यतो यतो यामि ततो नृसिंहः। यह बात है, हम जहां भी जाते हैं, वहां नृसिंह भगवान हमारी रक्षा करें। 'जगन्नाथ स्वामी नयन पथगामी भवतु मे।' मैं जहां भी देखूं, जिस तरफ देखूं, वहां वहां आप, हे जगन्नाथ आप मुझे दर्शन दोगे। वहां वहां भगवान हैं, कृष्ण हैं, भगवान सर्वत्र हैं। ऐसे भगवान के विचार के हमें होना है। सारे संसार भर के लोगों को ऐसे विचार का होना चाहिए। हरि! हरि! तभी कुछ संसार में शांति की स्थापना या विश्वबंधुत्व की स्थापना होगी।विश्वबंधुत्व अर्थात ब्रदरहुड। शब्द तो हम सुनते ही रहते हैं, हम ब्रदर तो हैं, ऐसा नहीं कि कृत्रिम रूप से ऐसा संबंध स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। मैत्री का सम्बंध या विश्वबंधुत्व का सम्बंध या कहा जाए पारिवारिक सम्बंध *वसुधैव कुटुंबकम*। सारे संसार के लोग मेरे ही परिवार के हैं या एक ही परिवार के हैं। यह बातें वैसे सत्य हैं किंतु इस संसार में पहुंचकर हम भोग-वाञ्छा करने लगते हैं। *कृष्णबहिर्मुख हइया भोग-वाञ्छा करे । निकटस्थ माया तारे जापटिया धरे ॥* ( प्रेम विवर्त) अनुवाद:- अनादि काल से कृष्ण-बहिर्मुख जीव नाना प्रकार से सांसारिक भोगों की | अभिलाषा करता आ रहा है। यह देखकर उसके समीप ही रहनेवाली माया झपटकर उसे पकड़ लेती है। फिर माया हमें झपट लेती है। माया ने संसार को हर जीव को पछाड़ लिया है। इसलिए तो जीव बद्ध जीव कहलाता है और उनकी सोच भी नीच है। 'लो थिंकिंग' चलता है, जिसके कारण संसार परेशानी में है। उच्च विचार क्या है?'व्हाट इज हाई थिंकिंग। *ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरमयाः। सर्व भद्राणी पश्यन्तु मा कशिद्दुःखभाग्भवेत। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥* अनुवाद:- सभी संवेदनशील प्राणी शांति से रहें,कोई बीमारी से पीड़ित न हो, सभी देखें कि क्या शुभ है, किसी को कष्ट न हो।ओम शांति, शांति, शांति। यह उच्च विचार है। ऐसा सोचना भी... उसी को उच्च विचार कहते हैं। सर्वे सुखिनः अर्थात सभी सुखी हो। सभी सुखी हो। सर्वे संतु निरामय: अर्थात सभी निरोगी हो। भव रोग से भी मुक्त हो। यह तो संसार नहीं जानता है, जब हम रोग कहते हैं। कैंसर या यह रोग वह रोग। ऐसे ही कुछ रोग का हम स्मरण करते हैं और कहते हैं। व्याधि को समझते हैं लेकिन आधि को नहीं समझते। आदि मतलब मानसिक रोग। इसको भागवत में हृत रोग भी कहा है। हृत रोग मतलब हार्ट की डिसीज। हमारे भावना या विचारों में विकृति आ चुकी है। हम लोग भव रोगी बने हुए हैं। सर्वे संतु निरामय:। सभी निरामय हो, निरोगी हो। सर्वानी भद्राणि पश्यंतु अर्थात सभी मंगलय का अनुभव करें। *उत्तिषो उत्तिष्ठ गोविंदा उत्तिष्ठ गरुड़ध्वज। उत्तिष्ठ कमलाकाष्ट त्रैलोक्य: मंगलांगकुरु* .. अर्थ:- जागो, हे गोविंदा जागो, जिसके ध्वज पर गरुड़ का ध्वज है। जागो, लक्ष्मी की प्रिय, तीनों लोकों के कल्याण के लिए आशीर्वाद। ऐसी हम प्रार्थना भी करते हैं। उत्तिषो उत्तिष्ठ गोविंद त्यज निद्रां। आप भगवान को प्रार्थना करके जगाते है। प्रभु! आप मंगलाय की स्थापना कीजिए, इस मंगलाय का हम सारा संसार अनुभव करें। मङ्गलमय। हर एक का जीवन एक यात्रा है। सभी की यात्रा, सभी का सफर मंगलमय हो। जैसे जब रेल यात्रा प्रारंभ होती है, तब रेलवे स्टेशन दिल्ली या नागपुर आदि पर हम सुनते हैं कि आपकी यात्रा मंगलमय हो। ऐसे मङ्गलय की कामना करना.. सर्वे संतु निरामय: सर्वाणि भद्राणी पश्यन्तु.. मा कशिद्दुःखभाग्भवेत अर्थात कोई दुखी नहीं रहे। यह विचार उच्च विचार है। यह वसुधैव कुटुंबकम। पृथ्वी पर जितने लोग हैं, भूल गए हैं कि वे कहां से हैं? किस देश के हैं? या किस धर्म के हैं? काले हैं, गोरे हैं? स्त्री या पुरुष हैं? गरीब या धनवान है? जो भी है, हम एक हैं। हम एक परिवार के हैं। परिवार के क्योंकि भगवान हमारे परिवार के मुखिया हैं। इसलिए हम एक परिवार है। *अयं निजः परो वेति की गणना लघु चेतसाम् | उदारचरितानां तू वसुधैव कुटुंबकम् |* अर्थ:- यह मेरा है , यह : गलत सोच वाले लोगों के समान ही असंतुलित होते हैं; यह नीच विचार का एक नमूना है।अयं निजः अर्थात ये लोग मेरे हैं किंतु ये लोग पराए हैं। ऐसा विचार गणना लघु चेतसाम्। लघु मतलब हल्का अथवा संकीर्ण अथवा नैरो माइंडेड, ऐसे विचार वाले लघु चेतसाम् है, चेतसाम् अर्थात चेतना या भावना कहो। लघु चेतना वाले अर्थात नीच विचार वाले लोग ही ऐसा सोचते हैं या द्वंद की बात करते हैं। अपना पराया की बात करते हैं अयं निजः परो वेति की गणना लघु चेतसाम्। किंतु उच्च विचार वाला व्यक्ति कैसे सोचता है? *उदारचरितानां तू वसुधैव कुटुंबकम्* अर्थात जिसका चरित्र उदार है या जिसकी विशाल दृष्टि या उच्च विचार है। उसका विचार क्या है? वसुधैव कुटुंबकम अर्थात इस पृथ्वी पर जितने भी लोग हैं, मेरे परिवार के हैं। हरि! हरि! *परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः | यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ||* ( भगवतगीता 8.20) अर्थ:- इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यय प्रकृति है, जो शाश्र्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है | यह परा (श्रेष्ठ) और कभी न नाश होने वाली है | जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता | ऐसा ही बैकुंठ/गोलोक/ वृंदावन/ द्वारका में जोकि भगवान का परमधाम है। जिसे हम उच्च विचार कह रहे हैं और जिसे शास्त्रों में भी कहा गया है। वे विचार भगवत धाम अथवा बैकुंठ के हैं या वैकुंठवासियों के ऐसे विचार हैं। यहां आकर हम लोग नीच विचार के बन जाते हैं, सम्भ्रमित होते हैं। द्वंद में पिसे जाते हैं, इसी से तो मुक्त होना है। *यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः | समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ||* (श्रीमद भगवद्गीता ४.२२) अर्थ- जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं | यह अपना- पराया, देशी- विदेशी, काला- गोरा.. स्त्री- पुरुष, यह जो द्वंद है; पूरा संसार इस द्वंद से भरा हुआ है। हमें द्वन्द्वातीतः बनना उच्च विचार का बनना है। (यह शास्त्र की भाषा भी तो समझ लो। पहले तो यह द्वंद क्या होता है, यह हमें समझ में नहीं आता है। यह द्वंद क्या है। हर शब्द, हर अक्षर को हमें धीरे-धीरे समझना होगा। तभी तो हम उच्च विचार के बन जाएंगे) द्वन्द्वातीतः द्वन्द्व से अतीत अथवा द्वन्द्व से परे। यह हिंदू मुसलमान द्वंद है। हरि! हरि! द्वन्द्वातीतो विमत्सरः, मत्सरः रहित। छह अलग-अलग शत्रुओं में एक शत्रु है- मात्सर्य। मात्सर्य से प्रभावित होकर हम दूसरों से नफरत करते हैं। हमारे मुस्लिम बंधु काफी प्रवीण है, कुशल हैं। जब ईर्ष्या द्वेष की बात है मात्सर्य की बात है, वे इस संसार में उस के क्षेत्र अर्थात उस मामलों में लीडर्स है। हरि! हरि! किल दैम। इसलिए औरों की जान लेने के बात सोचते हैं लेकिन कृष्ण कहते हैं द्वन्द्वातीतो विमत्सरः। औरों की जान लेने की बात सोचते हैं। लेकिन कृष्ण कहते हैं द्वन्द्वातीतो विमत्सरः अर्थात मात्सर्य रहित बनो। मात्सर्य रहित बनना यह उच्च विचार है। यदृच्छालाभसन्तुष्टो- यह भी उच्च विचार है, कृष्ण ने कहा है। यदृच्छाला मतलब भगवान की इच्छा से जो भी प्राकृतिक, नैसर्गिक रीति से प्राप्त होता है, उसी लाभ में संतुष्ट रहना। हरि! हरि! क्योंकि इस संसार में समाधान ही नहीं है। यह जो कृष्ण भावना है। अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ व श्रील प्रभुपाद को माध्यम या निमित्त बनाकर संसार भर के लोगों को उच्च विचार के बनाने का प्रयास भगवान का ही है। ऐसा नहीं कि भारत के लोगों को ही उच्च विचार का होना चाहिए और अमेरिका, मिडिल ईस्ट के लोगों को नहीं, सभी को उच्च विचार का बनना है। यह जीव जब शुद्ध बनता है। चेतोदर्पण- मार्जनंम होता है, उसकी भगवत भावना, कृष्ण भावना जागृत होती है। *उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यय दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।* (कठोपनिषद १.३.१४) अर्थ:- उठिए, जागिये और जो वर तुम्हें इस मानव शरीर में प्राप्त हुआ है, उसे समझने का प्रयास कीजिए। विद्वान लोग कहते हैं कि जिस प्रकार छुरे की धार तेज और कठिन है उसी प्रकार आध्यात्मिक साक्षात्कार का मार्ग चलने के लिए बहुत कठिन है। यह तो शास्त्र की बातें हुई। उठो, उठो, हे जीव जागो, उत्तिष्ठत जाग्रत अर्थात जागो। जागो मतलब जीव के जो मूल विचार हैं, उनको जगाओ। जग जाओ। वेक अप टू द रियलिटी! शुद्ध, मुक्त जीव उच्च विचार का बनता है। जैसे वैकुंठ में या वृंदावन/ भगवत धाम में प्राय: हर जीव उच्च विचार का होता है। एवरी लिविंग एंटिटी इन वैकुंठ/ गोलोक। वे उच्च विचार के होते हैं। कृष्णभावनाभावित होना ही उच्च विचार है। कृष्णभावनाभावित मतलब उच्च विचार होना है। उच्च विचार , ये कृष्ण भावना के विचार हैं। कृष्ण भावना, यह हमारे मूल विचार हैं। जिस विचार के साथ हम एक समय भगवान के साथ थे, उस विचार के हमें पुन: बनना है। तभी तो पुनः गोइंग बैक टू गोड हेड हो पाएंगे। *आम्ही जातो आपुल्या गावा ।आमचा राम राम घ्यावा ॥१॥* *तुमची आमची हे चि भेटी ।येथुनियां जन्मतुटी ॥२॥* *आतां असों द्यावी दया । तुमच्या लागतसें पायां ॥३॥* *येतां निजधामीं कोणी । विठ्ठल विठ्ठल बोला वाणी ॥४॥* *रामकृष्ण मुखी बोला । तुका जातो वैकुंठाला ॥५॥* हम वैकुंठ जा रहे हैं। वैकुंठ में तो वही जाएंगे, उन्हीं को एंट्रेंस मिलेगा। नो एडमिशन, नो ऐडमिशन विदाउट परमीशन जिसे कहते हैं। एडमिट तभी किया जाएगा, जब हम उच्च विचार के होंगे या कृष्ण भावना भावित होंगें। हरि! हरि! उस दिन भी मैं कह ही रहा था *मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत् । आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः ॥* ( चाणक्य नीति) अनुवाद:- जो कोई पराई स्त्री को अपनी माता की तरह, पराये धन को धूल के समान तथा सारे जीवों को अपने समान मानता है, वह पण्डित माना जाता है। आत्मवृत्त सर्वभूतेषु- सभी जीव मानो मैं ही हूं या मेरे ही हैं। ओरिजिनल भगवान के हैं, तो मेरे भी हैं। उनके सुख-दुख में... उनके सुख से सुखी होना, उनके दुख से दुखी होना यह भी है। सूत उवाच *यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव । पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥* ( श्री मद भागवतम १.२.२) अर्थ- भागवत में शुकदेव गोस्वामी के संबंध में कहा। उस मुनि को हम नमस्कार करते हैं जो सभी के हृदय में स्थित हैं। सभी के हृदय की बात को जानने वाले हैं। *मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ट्रवत्। आत्मवत सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः।* कितना ऊंचा विचार है। मातृवत् परदारेषु- यदि एक बात संसार समझ पाएगा तो उसके अनुसार अपनी कार्यवाही करेगा। सभी स्त्रियां मातृवत् अर्थात माता के समान हैं। यही तो संसार में अथवा संसार के समक्ष बड़ी समस्या है। बद्ध जीव सभी स्त्रियों को अपने भोग का साधन ही समझता अथवा मानता है। नीच विचार के व्यक्ति के मन में ही ऐसे विचार आते हैं। मैं पुरुष हूं और वह स्त्री है। वह मेरे भोग के लिए है।मेड फॉर माय एंजॉयमेंट। यह जो विचार है, यह नीच विचार है। उच्च विचार क्या है? मातृवत परदारेषु। एक प्रचारक को इस विचारधारा का विश्व भर में प्रचार प्रसार करना चाहिए। *यारे देख, तारे कह 'कृष्ण' उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु हआ तार' एड देश ॥* ( चैतन्य चरितामृत मध्य लीला ७.१२८) अनुवाद:- हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये वान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करें। इस तरह गुरु बनो और इस देश है हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो। हम कृष्ण उपदेश करते हैं, ऐसा करने का आदेश भगवान का ही है। हम प्रभुपाद के ग्रंथों का वितरण करते हैं। एक बार जब श्रील प्रभुपाद से पूछा गया था कि आखिर आप चाहते क्या हो? आप अपना देश छोड़कर यहां विदेश अमेरिका में आए हो। आप दुनिया या हमसे चाहते क्या हो ? उसके उत्तर में प्रभुपाद ने कहा था- द वे दे थिंक, द वे पीपल थिंक अर्थात लोग जिस प्रकार के विचार करते हैं, उसमें मैं परिवर्तन देखना चाहता हूं। दुनिया भर के लोग जैसा भी सोचते हैं जैसा विचार करते हैं, उसमें मैं परिवर्तन चाहता हूँ.. एवरी वन इज थिंकिंग थिंकिंग। हर व्यक्ति विचार करता है। संकल्प विकल्प, संकल्प विकल्प यह चलता ही रहता है और क्या करता है वह विचार करता है हर व्यक्ति विचार करता है। हर व्यक्ति का विचार होता है। मैं उसमें परिवर्तन देखना चाहता हूं। उन विचारों में क्रांति हो, विचारों की क्रांति हो। रेवोलुशन इन थिंकिंग कहो। सोच में क्रांति हो। प्रचार करना मतलब लोगों के जो सोचने का ढंग है या प्रकार है.. उसमें बदलाव लाना है। जैसे गोपियों के बारे में .. गोपियाँ क्या करती थी.. थिंक अबाउट कृष्ण ओनली.. केवल कृष्ण के बारे में सोचती थी। वे इतना ही जानती हैं और कुछ ज्यादा नहीं जानती, भगवान का स्मरण करती हैं। *स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित् । सर्वे विधि-निषेधाः स्युरेतयोरेव किङ्कराः ॥* ( चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.११३) अनुवाद- कृष्ण ही भगवान् विष्णु के उद्गम हैं। उनका सतत स्मरण करना चाहिए और किसी भी समय उन्हें भूलना नहीं चाहिए। शास्त्रों में उल्लिखित सारे नियम तथा निषेध इन्हीं दोनों नियमों के अधीन होने चाहिए।' वे कृष्ण का स्मरण करती रहती हैं। बस सोचती रहती हैं। स्मरण करना, सोचना लगभग एक ही बात है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी है कि *पृथिवीते आछे यत नगरादि-ग्राम । सर्वत्र प्रचार हड़बे मोर नाम ॥* (चैतन्य भागवत अन्त्य खंड ४.१२६) अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा। मेरे नाम का प्रचार सर्वत्र हो। पृथ्वी पर जितने नगर हैं, जितने ग्राम हैं। नाम का प्रचार प्रसार होगा। लोग जब भगवान का नाम लेंगे *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* उसी के साथ वे उच्च विचार के बनेगें। वे कृष्ण के विचार के बनने वाले हैं, यही उपाय है, यही सुलझन है। सारे संसार की सभी उलझनों के लिए यह सुलझन है। हरे कृष्ण महामन्त्र का जप। हरि! हरि! *इन्द्रं वर्धन्टो अपटुरः कृण्वन्तो विश्वं आर्यं अपघ्नंतो अरावणः* - (ऋग्वेद 9.63.5) यह वेदवाणी है। कृण्वन्तो अर्थात करो, क्या करे और किसको करें। विश्व को आर्य करो अर्थात सारे विश्व को आर्य बना दो। यह विश्व अनार्य बन चुका है। अनसिविलाज्ड, कृण्वन्तो विश्वं आर्यं। वैसे यह बड़ा प्रसिद्ध वचन है, वेद वाणी है। हमारी वेद वाणी का उच्चारण केवल इंडिया लिमिटेड या हिन्दू लिमिटेड नहीं है, ना ही ऐसा हो सकता। भगवान क्यों सोचेगें भगवान निश्चित इस द्वंद से परे हैं। भगवान सभी के लिए एक साथ सोचते हैं, भगवान सभी के कल्याण की बात कहते हैं। भगवान ईस्ट, वेस्ट, हिन्दू मुस्लिम... ऐसा सोच ही नहीं सकते। नॉट पॉसिबल, व्हाट काइंड ऑफ गॉड, कैसे भगवान हैं? वसुधैव कुटुंबकम। इससे पता चलता है, यह विशाल दृष्टि, उच्च विचार है। डोंट डिवाइड, उसके टुकड़े नहीं करने, विभाजन नहीं करना। इसलिए श्रील प्रभुपाद कहा करते थे- यूनाइटेड नेशन ऑफ द स्पिरिचुअल वर्ल्ड, अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ यूनाइटेड नेशन है। संसार भर के लोग भी यू. एन.ओ. अर्थात यूनाइटेड नेशन्स ऑफ ऑर्गनिज़ाशन्स की स्थापना की है, उसका हेड क्वार्टर न्यूयॉर्क में है। श्रील प्रभुपाद अपना अनुभव कहा करते थे- जब भी वे यू.एन.ओ. की बिल्डिंग के पास से गुजरते और कहते- देखो! अनोदर फ्लैग, अनोदर फ्लैग, एक और झंडा। प्रभुपाद कहते हैं- ये कैसा यूनाइटेड नेशन हैं, मोर फ्लैग मीन्स मोर डिसयूनिटी। ऑफकोर्स यूनिटी इन डाइवर्सिटी इसका प्रचार हो सकता है लेकिन फिर कई देशों के भक्त एक साथ मंच पर एकत्रित... हमने कई बार प्रभुपाद के मुख से यह बात सुनी- दिस इज यूनाइटेड नेशन। देखो! यह भक्त कहां से है, ये कहां से हैं। ये कहां से है.. यह कहां से हैं। वी आल यूनाइटेड या मायापुर में इस्कॉन का हेड क्वार्टर है। मायापुर धाम की जय! वहां कई देशों के फेस्टिवल होते हैं जैसे गौर पूर्णिमा उत्सव या फिर कार्तिक में वृंदावन कार्तिक व्रत के लिए कई देशों के ५०-६०-७०-८० देशों के भक्त एक साथ रहते हैं। एक परिवार के रूप में रहते हैं। एक किचन, एक फैमिली का भी कंसेप्ट होता है। एक ही किचन होता है और एक ही साथ बैठकर भोजन प्रसाद ले रहे हैं। जप और नृत्य करते हैं, वे याद भी नहीं करते कि मैं इस देश का हूं, मैं उस देश का हूं। पहले ईसाई या मुस्लिम था, फॉरगेट। यहां देखो! रशिया और यूक्रेन के बीच में युद्ध हो रहा है। रशिया के हरे कृष्ण भक्त और यूक्रेन के हरे कृष्ण भक्त एक दूसरे को *वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।* कर एक दूसरे को दंडवत प्रणाम कर रहे हैं, एक दूसरे को आलिंगन दे रहे हैं। यहां एक छत के नीचे काम कर रहे हैं। दुनिया लड़ रही है, झगड़ रही है। इस लड़ाई झगड़े में हरे कृष्ण भक्त नहीं फंसते। वे द्वन्दातीत होते हैं। यह उच्च विचार है। हरि! हरि! ओके! कोई प्रश्न, टीका टिप्पणी?हमारे पास कुछ मिनट है, चाहे तो इस समय का उपयोग कर सकते हैं। यदि कुछ प्रश्न टीका टिप्पणी नहीं है .. हरे कृष्ण!!!

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