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*जप चर्चा* *सच्चिदानंद प्रभु द्वारा* *दिनांक 26.03.2022* हरे कृष्ण!!! *नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते लोकनाथ – स्वामिन् इति नामिने।।* *नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।।* *नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे। निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।* हरे कृष्ण!!! भक्ति करने के लिए जो मुख्य चीज अनिवार्य है, वह श्रद्धा से प्राप्त होती है। श्रद्धा एकमात्र चीज है जिससे हम भक्ति कर सकते हैं। हरि नाम लेने में भी श्रद्धा जरूरी है। श्रद्धा मुख्य वस्तु है लेकिन श्रद्धा नाम में और तरीके अर्थात विधि में... *श्रुति स्मृति पुराणादि पञ्चरात्रविधि विना। ऐकान्तिकी हरेर्भक्तिरुत्पातायैव कल्पते।।* ( भक्तिरसामृत सिंधु १.२.१०१) अनुवाद:- वह भगवद्भक्ति, जो उपनिषदों, पुराणों तथा नारद पंचरात्र जैसे प्रामाणिक वैदिक ग्रंथों की अवहेलना करती है, समाज में व्यर्थ ही उत्पात फैलाने वाली है। विधि में भी श्रद्धा होना जरूरी है। यदि नाम में श्रद्धा है लेकिन विधि में नहीं है तब पूरी सफलता में कमी रह जाएगी। इसलिए जैसे हरिनाम चिंतामणि में बताया है निपुण भक्ति अर्थात जो दस अपराध से बच कर भक्ति करता है, वह निपुण है। चैतन्य महाप्रभु ने शिक्षाष्टकम में पूरे एक एक स्थल बताए हैं, वह श्रद्धा के स्थल हैं। *चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्। आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥* अर्थ:- श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है। यह नाम में श्रद्धा है। तत्पश्चात दूसरे में बताया है कि चूंकि हम अपराध करते हैं इसीलिए नाम में अनुराग उत्पन्न नहीं हो रहा है। कभी ऊपर, कभी नीचे ऐसे चल रहा है। फिर तीसरे श्लोक में इसको सुधारने के लिए हम अपराध से बचकर जप करने का प्रयास करते हैं और अपने अंदर धीरे-धीरे हम नम्रता, सहनशीलता, क्षमा, लोगों को आदर देना और आदर की अपेक्षा नहीं करने का प्रयास करते हैं , यह थर्ड लेवल है। चौथे लेवल में *न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्‌भक्तिरहैतुकी त्वयि॥* अर्थ:-हे सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दरी स्त्री अथवा सालंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे। हमें कोई भौतिक इच्छा नहीं हैं, मुक्ति की भी इच्छा नहीं है। केवला अहेतु की भक्ति चाहिए। पांचवें स्थल पर हम भगवान का आश्रय चाहते हैं कि भगवान उनके चरण कमलों में हमें कोई स्थान दे दे। इस प्रकार से श्रद्धा बढ़ेगी, आपका नाम भजन में, कीर्तन में बढ़ेगी। यदि श्रद्धा बढ़ रही है तो आप एक एक लेवल ऊपर जाएंगे, आपके अंदर उसी हिसाब से गुण आने चाहिए। अगर वह गुण नहीं आ रहे हैं तो इसका अर्थ आपकी श्रद्धा नहीं बढ़ रही है। उसका अर्थ है कि आपकी श्रद्धा और कहीं और पर भी है। वहां से श्रद्धा हटाकर भगवान में रखनी है। कभी-कभी हम लोग सोचते हैं कि हम में बहुत श्रद्धा है। प्रभुजी, हम में बहुत श्रद्धा है। हमारी कृष्ण के प्रति बहुत श्रद्धा है लेकिन एक माला भी नहीं करते। उनको बोलो माला करो तब वे कहते हैं कि नहीं! नहीं! हम हमेशा भगवान का नाम लेते रहते हैं। वे विधि को स्वीकार नहीं करते। विधि को स्वीकार नहीं करेंगे तो शुद्धिकरण नहीं होगा। इस प्रकार जो सद्गुण है, उसमें विकास नहीं होगा। जैसे कहते हैं- *नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया।भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी।।* ( श्रीमद्भागवतं १.२.१८) अनुवाद:- भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से ह्रदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रंशसा दिव्य गीतों से की जाती है। उससे क्या होता है? *तदा रजस्तमोभावाः कामलोभादयश्र्च ये। चेत एतैरनाविद्धं स्थितं सत्त्वे प्रसीदति।।* अर्थ:- ज्यों ही ह्रदय में अटल प्रेमा भक्ति स्थापित हो जाती है, प्रकृति के रजोगुण तथा तमोगुण के प्रभाव जैसे काम, इच्छा तथा लोभ ह्रदय से लुप्त हो जाते हैं। तब भक्त सत्त्वगुण में स्थित होकर परम सुखी हो जाता है। रजोगुण और तमोगुण धीरे धीरे कम हो जाता है और हम सतोगुण में स्थित होते हैं। सतोगुण का मतलब यह नहीं है कि हम खाली जप के समय सतोगुण में रहे। ऐसा संभव नहीं हो सकता। 24 घंटे की बात है। यह समय लगेगा। एक-दो दिन में काम नहीं होता है लेकिन धीरे-धीरे बढ़ते जाना चाहिए। आधा प्रतिशत, एक प्रतिशत सात्विकता बढ़ती जाएगी। इससे भजन में धीरे-धीरे स्थिरता आएगी। जैसे गुरु महाराज भी कहते हैं कि पिछले 24 घंटे में आपने क्या किया है, आपका जप उसके ऊपर आधारित रहता है। हमारा दैनिक जो आचरण है.... समस्या क्या है? हम सबसे ज्यादा किसके साथ संग करते हैं। हम सबसे ज्यादा संग अपने मन के साथ करते हैं। मन में जो चल रहा है, वह हमें बहुत प्रभावित करता है। जब तक इन विधि विधानों का पालन अच्छे से नहीं होगा। मन की स्थिति अच्छी नहीं होगी तो नाम भजन में एकाग्रता आना बहुत कठिन रहेगा। मन विचलित होता रहेगा। इसलिए जरूरी है कि हम लोग नाम के साथ जो नाम लेने का तरीका /विधि अथवा विधान अथवा प्रक्रिया है उसमें भी श्रद्धा बढ़ाए। साथ साथ में उसकी भी खेती करें। इसके बाद हमारा जप व कीर्तन धीरे धीरे बढ़िया होता जाएगा। यह बहुत ही जरूरी है। जैसे प्रभुपाद जी भक्ति लता बीज की व्याख्या करते हैं, द मेथड रूल्स रेगुलेशन बाय व्हिच वन इज परफेक्टली ट्रेनेड इन डिवोशनल सर्विसेज, सिस्टेंएड कन्सटूयट आवर भक्ति लता बीज। वे नीति नियम तरीका जिससे व्यक्ति सिद्ध रूप से शिक्षित किया जाता है। यह जप ऐसा कोई छू मंत्र वाली चीज़ नहीं है। माला झोली में हाथ डाल दिया। छू मंत्र छू मन्त्र हरे कृष्ण! हरे कृष्ण! और सब कुछ हो जाएगा। उसमें फायदा होगा ही लेकिन नाम अपराध और नामाभास में आप भटक जायोगे, ऊपर नीचे होते रहोगे। शुद्ध नाम तक नहीं जा सकते, शुद्ध नाम प्राप्त करने के लिए आपको विधि विधान पहले सुनना या पढ़ना पड़ेगा। फिर उसका चिंतन, मनन करना पड़ेगा, तत्पश्चात अपने अंदर धीरे धीरे यह सब गुण लाने पड़ेंगे। जैसे जैसे उसमें विकास होगा। तब आपके जप व कीर्तन से भगवान प्रसन्न होंगे। जब भगवान आपके कीर्तन से प्रसन्न होंगे तो सोचिए आपको कितना आनंद आएगा, यह दिव्य आनंद है। यदि जप में भी हम अपना सुख ढूंढ़ रहे हैं तो यह भी भौतिक है। जप भगवान को प्रसन्न करने के लिए है। क्योंकि कीर्तन का अर्थ होता है कीर्ति का गान। किसकी कीर्ति का गान। भगवान को प्रसन्न करने के लिए गान। शुद्ध भक्ति का उद्देश्य क्या है ? भगवान को प्रसन्न करना है। इसीलिए जो भक्ति में आगे बढ़ना चाहते हैं उनको श्रील प्रभुपाद जी की किताबों को, शास्त्रों को अच्छी तरह से पढ़ना चाहिए। धीरे-धीरे पढ़कर उसका मनन करना चाहिए। धीरे-धीरे ये सब गुण हमारे अंदर आने चाहिए। इसी प्रकार से हम साधु संग करते हैं तो हमारे अंदर उस साधु के गुण आने चाहिए। हमें उनसे प्रभावित होना है। उनके सद्गुणों से प्रभावित होना है। उनके आचरण से प्रभावित होना है। इसीलिए हरिनाम चिंतामणि में बताया है कि सबसे फास्ट तरीका प्रगति का नाम जप में है कि जो अच्छी तरह से जप करते हैं, उनकी संगति में जप करो। इसलिए देखिए, गुरु महाराज की कितनी असीम कृपा है। वे हर रोज सुबह हमारे साथ ज़ूम के माध्यम से जप करते हैं। पूरी दुनिया में जो भी भक्त हैं, वह महाराज की संगति में जप कर सकते हैं, महाराज का उत्साह देख सकते हैं। महाराज की स्थिरता देख सकते हैं महाराज की शुद्धता देख सकते हैं ।महाराज के सद्गुणों का स्मरण कर सकते हैं। अगर हमें भी अच्छा जप करना है तो धीरे-धीरे इन सब विधि-विधानों का पालन करके हमारे अंदर भी यह सब आना चाहिए। तभी हम में स्थिरता आएगी। अगर हम केवल सोचते हैं कि हम केवल हरे कृष्ण हरे कृष्ण करते रहेंगे और हमें शास्त्र पढ़ने की जरूरत नहीं है, हम साधु संग से प्रभावित होने की जरूरत नहीं है। तो यह भ्रांति है। यह महा भ्रांति है। इसलिए हम देखते हैं कि बहुत सारे भक्त कभी-कभी लंबे समय तक भक्ति में होने के बावजूद प्रगति नहीं कर पाते क्योंकि जो विधि विधान व प्रोसेस है। उसमें उनकी श्रद्धा कम है। जप तो करते हैं लेकिन जो जप करने का तरीका है। अपराध से बचने के लिए,नम्रता, सहनशीलता, क्षमा, स्थिरता, निपुण होना इन सब में उतना प्रयास नहीं कर रहे। तत्व विभ्रम एक प्रकार का अनर्थ है। वे तत्व को नहीं जानते हैं लेकिन भगवान कहते हैं- *जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।* ( श्रीमद भगवद्गीता ४.९) अर्थ:- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है। मुझे तत्वत: रूप से जानो। भारत में तो सभी लोग कृष्ण को जानते हैं। प्रभुपाद की कृपा से अब दुनिया में लोग कृष्ण को जानते हैं। इस्कॉन को जानते हैं लेकिन तत्वत: का मतलब क्या है? एक ही पुरुष है- *एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य।य़ारे य़ैछे नाचाय, से तैछे करे नृत्य।।* (श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला श्लोक 5. 142) अर्थ:- एकमात्र भगवान् कृष्ण ही परम नियंता हैं और अन्य सभी उनके सेवक हैं। वे जैसा चाहते हैं, वैसे उन्हें नचाते हैं। जब तक हम भोक्ता बनने की चेष्टा कर रहे हैं, इसका अर्थ है कि हम कृष्ण को तत्व रूप में नहीं जानते हैं। हमें समझना है कि *जीवेर ' स्वरूप' हय- कृष्णेर नित्य दास'। कृष्णेर तटस्था-. शक्ति' भेदाभेद प्रकाश।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला २०.१०८) अर्थ:- कृष्ण का सनातन सेवक होना जीव की वैधानिक स्थिति है, क्योंकि जीव कृष्ण कृष्ण की तटस्था शक्ति है और वह भगवान् से एक ही समय अभिन्न और भिन्न है। ऐसे नही लिखा कि कभी कभी भोक्ता। नहीं। जब भी हमारे अंदर भोग विलास की इच्छा होती है तब इसका अर्थ है हमारी भक्ति में स्थिरता नहीं है। हम लोग अभी प्राथमिक स्तर पर हैं। कनिष्ठ लेवल पर हैं। कनिष्ठ कब उन्नत हो सकता है। इसके बारे में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जैव धर्म में बताते हैं। जब कनिष्ठ अपनी कमजोरियों को निपटता है, सबसे पहले तो उसको जागृति आनी चाहिए कि मेरे अंदर यह कमजोरी है। सब स्वीकार करना पड़ेगा। बहुत लोग स्वीकार नहीं करते। उनको बहुत बार बोलो कि तुम्हारे अंदर यह कमी है। उसे सुधारो। जैसे कुछ लोग जप में सोते हैं और अगर हम उनको कहते हैं कि प्रभु, आप सो रहे थे। तब वे कहते हैं कि नहीं! मैं ध्यान कर रहा था। स्वीकार करने के लिए भी तो ईमानदार चाहिए। कोई बोल रहा है और आप स्वीकार नहीं कर रहे तो क्या करना चाहिए। जप में दो घंटे के लिए वीडियो ऑन कर लो तब देखो फिर कि तुम ध्यान में थे या सो रहे थे। कितना स्पष्ट उच्चारण कर रहे थे। पूरा वीडियो में रिकॉर्डिंग आ जाएगा। दूध का दूध, पानी का पानी हो जाएगा। फिर परिवर्तन लाना पड़ेगा कि कैसे हम जप में न सोए। यह जो भक्ति में आगे बढ़ने का तरीका है, उसमें भी श्रद्धा होना बहुत जरूरी है। इसीलिए जो सही भक्ति है, वह इतनी आसान नहीं है। जो भावकुता वाली भक्ति है, वह आसान लगती है। लेकिन जो सही भक्ति है उसमें बहुत सारे शुद्धिकरण की आवश्यकता है। अपने चरित्र को सुधारना। कैसे एक कनिष्ठ, मध्यम बन सकता है? जब उसका चरित्र आदर्श धार्मिक बनता है। आदर्श धार्मिक चरित्र! अपने स्वार्थ के लिए किसी को किनारे नहीं करना। कूटनीति नहीं करना। यह सब गुण लाने पड़ेंगे। अगर हम एक तरफ भक्ति कर रहे हैं और दूसरी तरफ यह सब चीजें चल रही है तो कैसे प्रगति हो सकती है? नहीं हो सकती है। तब आप भटकते रहेंगे। कभी नामाभास? बाकी ज्यादातर समय नाम अपराध में। आदर्श धार्मिक चरित्र बनाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ेगा। बहुत मेहनत करना पड़ेगा। *अकाम: सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधी:। तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम्।।* ( श्रीमद्भागवतं २.३.१०) अर्थ:- जिस व्यक्ति की बुद्धि व्यापक है, वह चाहे समस्त भौतिक इच्छाओं से युक्त हो या निष्काम हो अथवा मुक्ति का इच्छुक हो, उसे चाहिए कि वह सभी प्रकार से परम् पूर्ण भगवान् की पूजा करें। भक्ति विनोद ठाकुर के द्वारा भक्ति में आगे बढ़ने का सबसे बेस्ट तरीका बताया गया है। साधु संग अच्छे साधुओं का संग और शरणागति। विधि का मतलब शरणागति है। *आनुकूल्यस्य सङ्कल्पः प्रातिकूल्यस्य वर्जनम्। रक्षिष्यतीति विश्र्वासो गोप्तृत्वे वरणं तथा।आत्मनिक्षेप कार्पण्ये षड्विधा शरणागतिः।।* ( हरिभक्ति विलास ११.६७६) अर्थ:- शरणागति के छह विभाग ये हैं- भक्ति के अनुकूल बातों को स्वीकार करना, प्रतिकूल बातों का बहिष्कार करना, कृष्ण द्वारा संरक्षण पर पूर्ण विश्वास होना, भगवान् को संरक्षक या स्वामी के रूप में स्वीकार करना, पूर्ण आत्मसमर्पण तथा दीनता। जो हमारा जप अच्छा करने के लिए अनुकूल है, उसको स्वीकारना, जो हमारे जप में विघ्न उत्पन्न कर रहा है, उसको हटाना। कृष्ण ही हमारे रक्षक हैं, कृष्ण ही हमारा पालन कर रहे हैं। शरणागति का मुख्य अंग निर्भरता है, डिपेंड ऑन कृष्ण! कृष्ण हमारा पालन करेंगे। अगर इसमें हमारा विश्वास नहीं बढ़ रहा है तो कैसे प्रगति होगी। अगर भजन करने के लिए जैसे आप नौकरी कर रहे हैं और आपका बीस लाख का पैकेज है। लेकिन उसमें इतनी धुलाई होती है कि जब आप घर आते हैं तो धोयेला मोरा की तरह सीधे सोफे पर बैठ कर सो जाते हैं। आपको कभी शास्त्र पढ़ने का समय नहीं मिल रहा है। इसलिए यह नौकरी अनुकूल नहीं है। इससे अच्छा है 15 लाख का पैकेज लो जहां पर आपको जॉब के ऊपर भी टाइम मिले। भक्ति में आगे बढ़ने के लिए यह सब निर्णय लेने पड़ते हैं। यह शरणागति है। अगर हम इस प्रकार से सोचेंगे नहीं तो क्या होगा? संघर्ष होता रहेगा। बहुत वर्ष ऐसे बीत जाएंगे। प्रगति करने में बहुत जन्म लग जाएंगे। हमें यह श्रद्धा होनी चाहिए कि भगवान एक हाथी को इतना सारा भोजन दे रहे हैं। हाथी तो नौकरी भी नहीं करता है। स्कूल में सोलह- सत्रह साल पढ़ाई करने नहीं जाता है, डिग्री लेने, अपना करियर बनाने के लिए। तो हमें इतना परेड करने की क्या जरूरत है? हम भी अपना थोड़ा समय भक्ति में अच्छी तरह से निकाले। समय देना पड़ेगा, अगर नाम के साथ संबंध बनाना है तो समय देना पड़ेगा। भागवत के साथ संबंध बनाना है तो भागवत को समय देना पड़ेगा। साधु के साथ संबंध बनाना है तो साधु को समय देना पड़ेगा। उनकी सेवा करनी पड़ेगी। इन सब चीजों के लिए बहुत सारा समय चाहिए। मनुष्य जीवन का एक ही उद्देश्य है- आध्यात्मिक प्रगति। भौतिक ज्ञान / पदार्थ ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य नहीं है। सभी लोग संभाल रहे हैं। 8400000 योनियों संभाल रही हैं लेकिन हम लोग क्या कर रहे हैं? इतना बढ़िया भगवान ने हमें बुद्धि दी है उसके बावजूद हम आहार, निद्रा, भय, मैथुन में ग्रस्त हो रहे हैं। हम अपने अध्यात्मिकता में कम से कम समय (मिनिमम टाइम) लगाना चाहते हैं। यह मूर्खता है। कृष्णभावनामृत के लिए हमें अधिक से अधिक समय देना चाहिए और अन्य चीजों के लिए कम समय देना चाहिए। यह भी आनुकूल्यस्य सङ्कल्पः प्रातिकूल्यस्य वर्जनम् है। कैसे कम से कम समय में हम अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा कर ले और ज्यादा से ज्यादा समय हम भक्ति में लगाएं। ऐसे बहुत सारे निर्णय हैं जिसकी बहुत आवश्यकता है। यही तो समझना है। हम शास्त्र क्यों पढ़ते हैं, शास्त्र पढ़ना कोई टाइम पास नहीं है, उन शास्त्रों को पढ़कर हमें अपने अंदर परिवर्तन लाना है। भागवत पढ़कर आपको भागवत बनना पड़ेगा। तब आपको कृष्ण की प्राप्ति होगी। तब आपको गोलोक प्राप्त होगा। प्रभुपाद जी ने क्या कहा है- दिस मूवमेंट फ़ॉर मेकिंग ब्राह्मण, दिस मूवमेंट फ़ॉर मेकिंग बिल्डिंग करैक्टर। भक्ति में आदर्श बनना बहुत जरूरी है। इसके लिए विधि विधानों को जानना, उसको कैसे अपने जीवन में उतारना, साधुओं से ट्रेनिंग लेना है। यह भी जरूरी है, तब जाकर आप शुद्ध नाम ले सकते हो। एक शुद्ध नाम आपके मुखारविंद से निकलेगा और आपके सारे पाप नष्ट हो जाएंगे। उसके बाद आपका शुद्ध नाम बढ़ता जाएगा। धीरे-धीरे आप ऊंचे स्तर पर रूचि, आसक्ति, भाव भक्ति, प्रेमा भक्ति के स्तर पर जा सकते हैं। नहीं तो, यह सब बहुत कठिन है। सबसे बड़ा जो विघ्न है -, यह जो सोपान है- श्रद्धा, साधु संग, भजन क्रिया, अनर्थ निवृत्ति, निष्ठा, रुचि, आसक्ति, भाव भक्ति, प्रेमा भक्ति। यह सारा श्रद्धा का विकास है। इसमें सबसे बड़ा टफ स्तर है, वह है अनर्थ निवृत्ति। ऐसे बहुत सारे भक्त चर्चा करते हैं कि 90% अनर्थ निवृत्ति पार नहीं कर पाते क्योंकि बहुत सारे लोग अपनी कमी देख भी नहीं पाते। जैसे आप मनन करते हैं, मनन में क्या होता है। धीरे-धीरे आपकी कमी, आपके हृदय की गंदगी, आपके सामने आती है। फिर ऐसा लगता है कि बहुत हो गया, बहुत हो गया। कभी-कभी तो नींद हराम हो जाती है। एक बार मैं अपने शिक्षा गुरु के साथ बैठा था। शाम का समय था, उन्होंने एक ऐसा पॉइंट बोल दिया कि पूरी रात ही नींद नहीं आई। मैं सोचता रह गया कि मेरे अंदर यह कमी है या नहीं है, मैं सोचता रह गया। चिंतन करता रह गया, इसलिए कहते हैं कि मनन के बाद क्या करो, जो आपका फेवरेट कीर्तन है, वो सुनो, तब नींद आएगी। नहीं तो वह अंदर खटकेगा- अरे! मेरे अंदर यह प्रॉब्लम है, वो प्रॉब्लम है। मेरे अंदर यह गंदगी है। ज्यादातर लोग मनन करते ही नहीं हैं। कैसे मनन करना है, वो भी पता नही है। पर ये उपनिषद में बताया है कि श्रवण, मनन.. यह तरीका है। जैसे गुरु महाराज हर रोज हमें जपा टॉक में अलग-अलग विधि-विधान बताते हैं। भागवत प्रवचन में बताते हैं। आप प्रभुपाद जी के प्रवचन सुनिए। प्रभुपाद जी क्या बता रहे हैं। प्रभुपाद जी हमें ट्रेनिंग दे रहे हैं। तुम्हें यह करना है, तुम्हें वह करना है, वे बता रहे हैं। खाली हम जप कर रहे हैं और 4 नियमों का पालन करने का प्रयास कर रहे है। जिसमें भी वो पूरा चार का तो पालन नहीं हो पाता। कभी 3.7 हो रहा है क्या 3.9 हो रहा है। हमें आगे बढ़ने के लिए और भी बहुत कुछ करना है। यह एक लेवल तक आने के लिए ठीक था और ऊपर तक जाने के लिए और नियमों की जरूरत है। प्रभुपाद जी ने कहा ना- इनीशिएशन इज द बिगिनिंग। इनीशिएशन का मतलब क्या है शुरुआत लेकिन आगे जैसे हम स्कूल में जाते हैं तब अगली अगली क्लास में फिर और और नया-नया सिखाया जाता है।ऐसी प्रकार में यह श्रद्धा के जो स्थल हैं आप अगर अनर्थ निवृत्ति पर है तो वहां आपको बहुत सारी चीज सीखना है। जब आप निष्ठा पर पहुंचेगें। आपको वहां बहुत सारी चीज सीखना है। नए नए नीति नियम, संकल्प लेने होंगे। जिससे आप रुचि पर जा सकते हो। रुचि पर जाने पर आपको और नए नए जबरदस्त नियम संकल्प लेने पड़ेंगे, तब आप आसक्ति पर जा सकते हो। वहां पर और जबरदस्त जबरदस्त संकल्प लेने पड़ेंगे तब आप भाव भक्ति पर जा सकते हो। यह विधि है, क्रम है। खाली हरे कृष्ण करें और ऊपर बढ़ें, तब कम से कम निष्ठा लेवल पर होना चाहिए। आपको शबरी जैसी ज्यादा बुद्धि नहीं होनी चाहिए। तब तो हो जाएगा, जब आपका हृदय शुद्ध है तब हरिनाम करने से बहुत जल्दी रिजल्ट मिलेगा। लेकिन जब हमारे अंदर अनर्थ है तो हमारे अंदर अनर्थ क्यों आए? जैसे किसी ने कुआं खोदा, मालिक एक मजदूर को लाता है और कहता है कि जाओ, पीछे बगीचे में कुआं खोदना है। 20 फुट इधर से मापाई कर देना, 20 फुट उधर से मापाई कर लेना। वह कुआं खोदने लगा। मालिक को कुछ काम था, वह चला गया। जब मालिक वापस आया तो उसने देखा कि इसने तो गलत जगह पर कुआं खोल दिया है। 20 फीट अंदर कुआं खोदा है।तब मालिक क्या बोलेगा- इसको भर बेटा ! और इधर खोद हमने ऐसा ही किया है। हमने इतने इतने कुएं खोद दिए हैं। वह सब गलत आदत हमारे अंदर जो भी है, उसकी खेती हमने की है। केवल हम जिम्मेदार हैं और कोई जिम्मेदार नहीं है। उसको आपको मेहनत करके रोकना अथवा निपटना पड़ेगा। जितना आपने मेहनत किया था खेती में, उतनी मेहनत उसको निपटने में लगेगी। अगर वो नहीं करेंगे तो हम बस मुफ्त का चंदन घिस रहे हैं तो उतना प्रगति नहीं होगा। भक्ति में मुफ्त का चंदन नहीं चलता है। कृपा है, लेकिन अपना ईमानदारी और गंभीरता भी चाहिए। *ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ||* ( श्रीमद भगवद्गीता ४.११) अर्थ:- जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है | जैसे हम शरणागत होंगे, वैसे ही भगवान हम पर कृपा करेंगे। दामोदर लीला में भी दो उंगली का प्रसंग आता है। एक तो है हमारा प्रयास और एक है भगवान की कृपा। जो जो हमारी कमजोरी है, इसको निपटना। इसी से हमारा भजन उन्नत हो सकता है। यह कनिष्ठ से मध्यम जाने के लिए है। यह सब प्रयास भक्ति में बहुत जरूरी है। जानिए कि नाम में श्रद्धा और विधि विधान में श्रद्धा दोनों चाहिए। श्रद्धा इन नेम एंड श्रद्धा इन द प्रोसेस ऑफ चैंटिंग। इसलिए जैसे बढ़िया-बढ़िया किताब है, चैटिंग के बारे में। जैसे हरि नाम चिंतामणि है, प्रभुपाद जी की किताब है। प्रभुपाद के बहुत सारे शिष्यों की किताबें हैं। इनको आप पढ़ सकते हैं। गुरु महाराज की जपा के बारे में किताब है, उसको भी पढ़िए, उससे आपको उत्साह मिलेगा। धीरे-धीरे अपने अंदर विकास लाइए, विधि-विधानों का पालन बहुत अच्छे से हम करते रहेंगे, धीरे-धीरे एक-एक लेवल पर हम उठ सकेंगे। अगर कोई एक बच्चा एक क्लास में है तो ठीक से पढ़ाई नहीं करता है तो वही क्लास में रहेगा। ऊपर कहां से जाएगा। इसी प्रकार से अगर हम अनर्थ निवृत्ति में अच्छी पढ़ाई नहीं कर रहे हैं तो निष्ठा पर हम कहां जाएंगे, हम जा ही नहीं सकते। फिर भजन में कभी स्थिरता नहीं आएगी, कभी ऊपर कभी नीचे। यही चलता रहेगा, ठीक है। हरे कृष्ण! श्रील प्रभुपाद की जय! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

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