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*जप चर्चा* *पंढरपुर धाम से* *दिनांक 24 अप्रैल 2021* हरे कृष्ण! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 806 स्थानों से भक्त हमारे साथ जप कर रहे थे। स्थान (लोकेशन) जप करते अपितु इन स्थानों पर जो इतने सारे भक्त हैं, वे जप कर रहे थे। आप सभी भक्तों का स्वागत है, कृष्ण आपसे प्रसन्न हैं। आप जो जप कर रहे हो, आप कृष्ण को पुकार रहे हो। कृष्ण! कृष्ण..! हरे कृष्ण! यह पुकार है। हरि! हरि! पुकारते रहिए व कृष्ण के साथ अपना संवाद जारी रखिए। अपने दिल की बात कृष्ण को कहकर सुनाइए। *ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्यति पृच्छति। भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीति-लक्षणम।* ( उपदेशामृत श्लोक ४) अनुवाद:- दान में उपहार देना, दान- स्वरूप उपहार लेना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना- भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं। हम वैष्णवों के साथ षड्विधं प्रीति-लक्षणम करते ही रहते हैं तथा हम जप के समय ऐसा संवाद सीधे कृष्ण के साथ अथवा कृष्ण के नाम के साथ करते हैं। कृष्ण का नाम ही कॄष्ण है। जब हम उनका नाम लेते हैं, तब कृष्ण प्रकट होते हैं। नाम लेने पर कृष्ण प्रकट होते हैं। तत्पश्चात उनके साथ हमारा संवाद अर्थात गुह्यमाख्यति पृच्छति होता है। आख्यति अर्थात कहना।पृच्छति अर्थात पूछना। हरि! हरि! कृष्ण भगवतगीता में आत्मा के सम्बंध में कहते हैं। भगवान् भगवतगीता के द्वितीय अध्याय के प्रारंभ में आत्मा की चर्चा कर रहे हैं। भगवान्, आत्मा का ज्ञान दे रहे हैं जिससे अर्जुन को आत्म- साक्षात्कार अथवा आत्मा का ज्ञान हो सके।"तुम शरीर नहीं हो, तुम आत्मा हो।"श्रीकृष्ण का यहां यह कहने का उद्देश्य अथवा प्रयास हो रहा है। उसी के अंतर्गत कृष्ण कहते हैं *आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः। आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥* ( श्रीमद् भगवतगीता २.२९) अनुवाद:- कोई आत्मा को आश्चर्य से देखता है, कोई इसे आश्चर्य की तरह बताता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है, किन्तु कोई-कोई इसके विषय में सुनकर भी कुछ नहीं समझ पाते। इस आत्मा के सम्बंध में कुछ लोग इसे अचरज के साथ देखते हैं। वे समझते नहीं हैं, इसलिए आश्चर्य के साथ देखते हैं। आश्चर्यवद्वदति अर्थात आश्चर्य के साथ उसके सम्बंध में बात करते हैं। उनको अचरज लगता है, देखते हैं, तत्पश्चात कहते हैं। यह सारी गोपनीय बातें हैं। यह आत्मा अति सूक्ष्म तत्व है। इसके सम्बंध में लोग आश्चर्यवद्वदति,आश्चर्यवत्पश्यति, आश्चर्यवत्शृणोति अर्थात अचरज के साथ सुनते हैं - क्या, सचमुच! उनके ऐसे उदगार भी होते हैं। यह सब करने के बाद श्रुत्वाप्येन अर्थात सुनने पर भी वे "वेद न चैव कश्चित्' इस आत्मा के सम्बंध में थोड़ा थोड़ा ही समझते हैं। एक दिन तो पूरा समझेगें लेकिन प्रारंभ में जब चर्चा होती है, श्रवण, कीर्तन, अध्ययन होता है - शृणोति अर्थात सुनते हैं, वदति अर्थात बोलते हैं, पश्यति अर्थात देखते हैं। यह आत्मा का दर्शन है। प्रारंभ में थोड़ा थोड़ा समझ आने लगता है अथवा पल्ले पड़ने लगता है। उसके अनुसार व्यक्ति बोलता या देखता है। देखने सुनने पर भी पूरा समझता नहीं है। संसार के लोग आत्मा के सम्बंध में बोलते, लिखते, कहते व देखते और समझते हैं। उससे पता चलता है कि कृष्ण ने भगवतगीता में कहा है, वेद न चैव कश्चित् अर्थात यह सब करने के उपरांत भी पता चलता है कि उनको आत्मा के विषय में ज़्यादा समझ में नहीं आ रहा है। मैं एक आर्टिकल अथवा लेख पढ़ रहा था। विश्व के ५ महान् धर्म। यहूदी धर्म, बौद्ध धर्म, क्रिस्टियन्स, इस्लाम धर्म, हिन्दू धर्म। सभी इन्ही के संस्करणों में विश्वास रखते हैं। इस लेख में लिखा है कि इस संसार में जो अलग अलग धर्म हैं, वह सभी आत्मा के अस्तित्व को कम या अधिक मात्रा में स्वीकार करते हैं फिर लोग कहते हैं कि मैं आत्मा में विश्वास करता हूँ। लेकिन वह पूर्ण विश्वास नहीं होता, कुछ कम या अधिक होती है। उसी के साथ कई मत- मतान्तर फैल जाते हैं। यदि किसी से पूछे तो कोई कहेगा, " मेरा विश्वास १० प्रतिशत है।" और आपका ५०%, और आपका क्या कहना है? वह कहेगा कि मेरा विश्वास ७५% तक है परंतु गौड़ीय वैष्णव कहते हैं कि हमारा विश्वास १००% है। श्रद्धा ही नहीं अपितु मेरी दृढ़ श्रद्धा है। मैं विश्वस्त हूँ। प्रभुपाद ने जैसे पूछा था "क्या आप विश्वस्त हो?" यह संसार ऐसे ही विश्वास पर चलता रहता है। इतना विश्वास या उतना विश्वास या मैं विश्वास नहीं करता या आप कितना विश्वास रखते हो? इसी के साथ कई सारे मत- मतान्तर और उसके साथ यत मत तत् पथ भी है। मेरा जो मत है, वही सत्य है, वही सही है। यत मत तत् पथ। तत्पश्चात ऐसी भी गलत धारणा है कि सभी अपने लक्ष्य को प्राप्त करेंगे । हरि हरि! इस प्रकार झूठ- मूठ का प्रचार या आधे सत्य का प्रचार (यह आधा भी नहीं हो सकता है। केवल १% सत्य) का ज्ञान हुआ है या हम स्वीकार करते हैं। अधूरा ज्ञान खतरनाक होता है। संसार भर में या तो आत्मा की बात चल रही है या परमात्मा की जो भगवान् है। आत्मा और परमात्मा के सम्बंध में संसार का ज्ञान अधूरा है या जीरो है या कह सकते हैं कि है ही नहीं। लेकिन जो कहते हैं कि मैं स्वीकार करता हूँ। मैं मानता हूं, मेरा विश्वास है, उस विश्वास की भी कई मात्राएं हैं। इसी के साथ यह टुकड़े- टुकड़े यह विभाजन हुए हैं। इस लेख (आर्टिकल) में आगे कहा है कि वे आत्मा को अलग अलग नाम देते हैं। आत्मा को अलग अलग सम्बोधन होते हैं। अलग अलग प्रकार की समझ होती है। मृत्यु के बाद आत्मा बचती है या मृत्यु के उपरान्त जो बचती है, वह आत्मा है। वैसे अभी अभी तो कहा कि अधिकतर लोग स्वीकार करते हैं कि आत्मा का अस्तित्व मृत्यु के उपरान्त भी बना रहता है लेकिन सभी विश्वास नहीं रखते हैं। जब शरीर समाप्त होता है, तब सब कुछ समाप्त हो जाता है। मास्को में श्रील प्रभुपाद के साथ कोटसत्वकी का वाद- विवाद चल रहा था। " स्वामी जी शरीर समाप्त हुआ तो सब कुछ समाप्त हुआ। " फिर चार्वाक एंड कंपनी की यही बात है *यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्* *ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः भवेत्।।* ( चार्वाक मुनि) अनुवाद:- जब तक मनुष्य जीवित है, तब तक घी खाए। यदि आपके पास धन नहीं है तो मांगिए, उधार लीजिए या चोरी कीजिए, किन्तु जैसे भी हो घी प्राप्त करके जीवन का भोग कीजिए। मरने पर ज्यों ही आपका शरीर भस्म हो जाएगा, तो सब कुछ समाप्त हो जाएगा। जब यह शरीर राख हो जाता है, 'पुनरागमनं कुतः भवेत्' तब पुनरागमनं या पुनर्जन्म नहीं होता है, भूल जाओ। ऐसा नहीं कि विदेश में ही यह गलत धारणाएं हैं और वे ही आत्मा को पूरी तरह से नहीं समझते हैं। नहीं! अपितु हमारे देश में देशी लोग भी इसे नहीं समझते अथवा स्वीकार नहीं करते। देश - विदेश में चर्चा का विषय जिसे अंग्रेजी में रिइनकारेशन (reincaration) कहते हैं। क्या व्यक्ति का पुनर्जन्म होता है? जब पुनर्जन्म की बात होती है, तब संसार पुनः बंट जाता है अर्थात संसार के कुछ लोग पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं और कुछ पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते। मुझे याद है कुछ वर्ष पूर्व, कुछ बौद्ध पंथीय प्रचार कर रहे थे, उनको धर्मांतरण करवाना था। हिंदुओं को बौद्ध पंथी बनाना था। वे कह रहे थे- जॉइन अस, जॉइन अस (बौद्ध धर्म को स्वीकार करो।) वे बता रहे थे कि हम पुनर्जन्म को नहीं मानते लेकिन हिन्दू धर्म में तो अगले जन्म या अगले के अगले जन्म में कर्म का फल भोगना होगा। इस कर्म थ्योरी या पुनर्जन्म अर्थात कर्म का फल अधिकतर दुख ही होता है। दुख भोगना ही पड़ेगा। लेकिन आप अगर बौद्धपंथी बनोगे, तब ऐसा कोई झंझट नहीं है। हम पुनर्जन्म को नहीं मानते। हरि !हरि! आपकी समस्या का हल हो गया। आपको परेशान नहीं होना पड़ेगा, दुख नहीं भोगना पड़ेगा। बस बुद्धं शरणं गच्छामि अर्थात आप केवल बुद्ध की शरण में आ जाओ। ऐसी गुमराही का प्रचार हो रहा है। हरि! हरि! इस प्रकार आत्मा के सम्बंध में कई सारी गलत धारणाएं है। यह आत्मा के सम्बंध में समझ है, हमारी आत्मा के सम्बंध में कितनी समझ है-आधी है या ७५% है या हम इसे स्वीकार करते हैं। वह समझ, गलत भी हो सकती है। समझ, असमझ। कोई आत्मा को केवल ५० % समझता है और ५०% नहीं समझता। इस लेख में आत्मा के सम्बंध में लिखा है "इसकी मूल यात्रा और गंतव्य की कल्पना करें। यह विशिष्ट प्रकार से अलग है।"संसार भर में जो अलग अलग धर्म है, क्रिस्टियन, इस्लाम, बौद्ध और इसमें हिंदुओं का भी नाम दिया हुआ है। इन सब की आत्मा के सम्बंध में अलग अलग समझ है। आत्मा के स्त्रोत के सम्बंध में अलग अलग धारणाएं है। इस आत्मा का स्त्रोत क्या है? इसके सम्बंध में कई सैकड़ों- हजारों विचार है। आजकल कलियुग में तो कहा जाता है ये जो 'इज्म' है ना, जैसे हिन्दुज्म अथवा बुद्धिज़्म और फिर गांधीइज्म, या कम्युनिज्म, नेशनलइज्म, अर्थात यह जो अलग अलग प्रकार के मत - मतान्तर हैं। कलियुग में इंडिविजुअलिज्म अर्थात जितने व्यक्ति हैं, उतने ही इज्म कलियुग में बन जाते हैं, यदि वे अगर किसी परम्परा अथवा सम्प्रदाय से जुड़े हुए नहीं हैं। *सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फला मताः* ( पदम् पुराण) अनुवाद:- यदि कोई मान्यता प्राप्त गुरु शिष्य परंपरा का अनुसरण नहीं करता, तो उसका मंत्र या उसकी दीक्षा निष्फल है। *एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥* ( श्रीमद् भगवतगीता ४.२) अनुवाद:- इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा। किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है। आपने जो ज्ञान प्राप्त किया है, सुना अथवा पढ़ा है। यदि वह वैष्णव परंपरा या प्रामाणिक सम्प्रदाय में प्राप्त नहीं किया है, तब 'सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फला मताः है। यह बहुत महत्वपूर्ण वाक्य या समझ अथवा ज्ञान है, *शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||* ( श्रीमद् भगवतगीता १८.४२) अनुवाद:- शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान,विज्ञान तथा धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्म करते हैं। इस ज्ञान को परम्परा अथवा सम्प्रदाय में सीखना, समझना चाहिए। हमें सम्प्रदाय की ओर से ही प्रचार व प्रसार करना चाहिए। वे प्रामाणिक परंपराएं कौन सी हैं, उनके नाम भी दिया है। वे चार परंपराएं है, परंपरा में ही ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। "सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फला मताः।" अधिकतर मनुष्य इस समय परंपरा से जुड़े नहीं है। सम्प्रदाय से उनका कोई सम्बंध नहीं है, वे जानते ही नहीं कि सम्प्रदाय होता भी है। परम्परायें है भी या नहीं हैं। इसका उनको न तो कोई ज्ञान है और न ही कोई चिंता है। फ़िर क्या होता है- इंडिविजुअलिज्म, तब हर व्यक्ति कहेगा- मुझे लगता है या मेरा विचार है। 'यह सब संसार में चलता रहता है व चल रहा है। भागवत धर्म नहीं अपितु मनोधर्म अर्थात जितने मन हैं, उतने धर्म चल रहे हैं। मन चंचल है, बुद्धि में परिवर्तन होता रहता है। उसमें स्थिरता नहीं है। उसी के कारण, मेरी आज यह विचारधारा है तो आने वाले कल में अन्य अथवा दूसरी होगी। प्रातः काल में एक है, सायं: काल तक मेरे मन बुद्धि में परिवर्तन आ जायेगा। आत्मा के रहस्य का दुनिया को पता नहीं चल रहा है क्योंकि वे परंपरा में आत्मा के विषय में पढ़ते या सुनते ही नहीं है और जो वैज्ञानिक मंडली है, उनका इज्म प्रत्यक्षवाद चलता है। साम्यवाद, गांधीवाद यह वाद फिर वह वाद। सारे वाद विवाद के अंतर्गत यह वैज्ञानिक मंडली यह प्रत्यक्षवादी होती है। "जब तक हम देखेंगे नहीं, तब तक विश्वास नहीं करेंगे।" वैसे ऐसी भाषा तो नहीं बोलते लेकिन क्या जीवन का कोई लक्षण व चेतना है कि आत्मा का स्तोत्र क्या है? आत्मा केमिकल कांबिनेशन से अर्थात अलग-अलग रसायनों में संयोग से उत्पन्न हुआ। हरि! हरि! कुछ लोग कहते हैं कि पशुओं में आत्मा नहीं होती है। आत्माएं केवल मनुष्य में होती है। पशु में आत्मा नहीं होती इसलिए पशु को काट सकते हैं, खा सकते हैं। ऐसी हत्याओं से पाप नहीं लगेगा क्योंकि उनमें कोई जीवन नहीं है। हरि! हरि! इसी लेख में लिखा है कि कुछ धर्मों में मान्यता है कि जब स्त्री पुरुष का मिलन अथवा लैंगिक संयोग हुआ (उसे कन्सेप्शन भी कहते हैं), उसके 80 दिनों के उपरांत उस गर्भ में आत्मा का प्रवेश होता है। ना जाने कहां से उनको इस सत्य का उद्घाटन अथवा खुलासा हुआ। आगे, वह कहते हैं कि 80 दिन से पहले आप गर्भपात कर सकते हो, क्योंकि वहां आत्मा आदि नहीं होती है। 80 दिनों के बाद ही वहां पर आत्मा का प्रवेश होता है। यदि 80 दिन से पहले आपने (अबॉर्शन) गर्भपात किया, तब उसमें कोई पाप नहीं होगा। यह दर्शन काफी सुविधाजनक है कि हम पाप से मुक्त हैं क्योंकि आत्मा ने गर्भ में प्रवेश नहीं किया है। अरे मूर्ख! जब तक आत्मा नहीं है तब तक वैसे गर्भ में जो बालक है, वह बढ़ तो रहा है ना। प्रारंभ में वह एक छोटे से मटर के दाने जैसा होता है, धीरे-धीरे वह आकार में बढ़ता है, उसमें कुछ गतिविधियां भी होती रहती हैं लेकिन वह तब तक नहीं हो सकती जब तक उसमें लाइफ नहीं आती अर्थात जीवन नहीं आता। जीवन तो मिलन के प्रथम दिन से ही अर्थात कन्सेप्शन अथवा जब इंटर कोर्स हुआ, उसी समय आत्मा ने प्रवेश किया था। ऐसा नहीं कि 80 दिनों के बाद आत्मा ने प्रवेश किया। हरि! हरि!चार्वाक मुनि आदि की ऐसी गलत धारणा है कि शरीर समाप्त हुआ, तो आत्मा भी समाप्त हुई। *पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम। इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयाअपारे पाहि मुरारे।।* ( भज गोविन्दम.. (२१) अनुवाद:- बार- बार जन्म, बार बार मृत्यु, बार बार मां के गर्भ में शयन कराने वाले इस संसार से पार जा पाना अत्यंत कठिन है, हे कृष्ण मुरारी कृपा करके मेरी इस संसार से रक्षा करें। कइयों की गलत धारण यह है कि मनुष्य जीवन आखिरी जीवन है। इसके बाद और जन्म आदि नहीं होगा। संसार भर के लोगों को ८४ लाख योनियां का यह ज्ञान नहीं है। *जलजा नव लक्षाणि स्थावरा लक्ष विंशति। कृमयो रुदसङ्खयाकाः पक्षिणां दशलक्षकम्। त्रिंशल्लक्षाणि पशवश्र्चतुर्लक्षाणि मानुषाः।।* ( पद्म पुराण) अनुवाद:- जल में रहने वाली योनियां नौ लाख हैं, स्थावरों (वृक्षों तथा पौधों) की संख्या बीस लाख है। कीटकों तथा सरीसृपों की योनियां ग्यारह लाख हैं और पक्षियों की १० लाख । पशुओं की योनियां तीस लाख हैं तथा मनुष्यों की योनियां चार लाख हैं। अगर विकास होता है जैसा कि डार्विन थ्योरी ऑफ एवोल्यूशन में वर्णन है। एक ही आत्मा, एक शरीर से दूसरे शरीर में, दूसरे से तीसरे शरीर में जाती है। वह अधिक अधिक विकसित शरीरों में प्रवेश करती है। क्रमिक जीव जंतु अथवा वायरस यह भी एक योनि है। पंछी की योनि फिर जो रेप्टाइल्स होते हैं, वृक्ष , पशु , मनुष्य इसमें अधिक अधिक विकसित शरीरों में आत्मा प्रवेश करता रहती है। यह सारा संसार अज्ञान से भरा पड़ा है व आत्मा के सम्बंध में बहुत कुछ मान कर बैठा है लेकिन खुद का ही ज्ञान नहीं है। *माया- मुग्ध जीवेर नाहि स्वत: कृष्ण ज्ञान। जीवेर कृपाय कैला कृष्ण वेद- पुराण।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला श्लोक १०.१२२) अनुवाद:- बद्ध जीव अपने खुद के प्रयत्न से अपनी कृष्ण भावना को जाग्रत नहीं कर सकता किन्तु भगवान् कृष्ण ने अहैतुकि कृपावश वैदिक साहित्य तथा इसके पूरक पुराणों का सृजन किया। जीव इस संसार में माया से मुग्ध होता है। सभी जीवों की बात चल रही है। 'अरे! हम तो क्रिस्चियन है, तुम अपनी हिन्दू की माया अपने साथ रखो। हमें इस माया से कुछ लेना देना नहीं है।' ऐसा कोई भी नहीं कह सकता। माया तो माया है। माया भारतीय, अमेरिकन, हिन्दू या क्रिस्चियन नहीं है। माया , माया है। भ्रम तो भ्रम है। माया- मुग्ध जीवेर नाहि स्वत: कृष्ण ज्ञान। जिस प्रकार के भ्रम में देश व विदेश के भी लोग भ्रमित हैं, अन्य धर्मों के भी लोग सम्भ्रमित हैं। वह भ्रम तो यहां भी है। हिन्दू भी उसी भ्रम से भ्रमित हैं। भारतीय या चार्वाक है या विदेशी दार्शनिक हैं, वे सब एक ही भाषा बोलते हैं। हरि! हरि! कृष्ण ने तो कृपा की है। जीवेर कृपाय कैला कृष्ण वेद- पुराण। कृष्ण ने वेद पुराण बनाए है। ताकि इस संसार के जीव जो कहीं के भी हो सकते हैं पृथ्वी, स्वर्ग या नरक या जहां भी है, इस ब्रह्मांड में है या अन्य ब्रह्मांडो से हो सकते हैं। उन सभी के लिए कृष्ण ने वेद- पुराण कहे हैं। महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी से कहा कि कृष्ण ने कृपा की है। *सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।।* ( श्रीमद् भगवतगीता १५.१५) अनुवाद: मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है। मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ । निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ। आप समझते हो? भगवान् ने क्या कहा।अहमेव वेद्यो -" वेद मैं हूँ अर्थात जानने योग्य मैं ही हूँ। कैसे जानोगे? वेदै अर्थात वेदों की मदद से। वेद चार हैं। इसलिए बहुवचन में वेदै कहा गया है। वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो - मैं जाना जा सकता हूँ लेकिन समस्या यह है कि ये वेद पुराण परम्परा में पढ़े नहीं जा रहे हैं। परम्परा में उस ज्ञान का प्रचार व प्रसार नहीं हो रहा है। इसलिए संसार भर में कई तथाकथित शास्त्र भी बने है। पुराण ही नहीं, फिर कुरान भी हो गया। पुराणों , वेदों , गीता भागवतं में १०० प्रतिशत ज्ञान है। भगवान् कहते हैं कि वेदों की मदद से 'मैं जैसा हूँ, उतना ही जाना जा सकता हूँ।' इसलिए कहा भी है। *एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम् । एको देवो देवकीपुत्र एव ।। एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि। कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ।।* (गीता महात्म्य ७) “आज के युग में लोग एक शास्त्र, एक ईश्र्वर, एक धर्म तथा एक वृति के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं। अतएव सारे विश्र्व के लिए केवल एक शास्त्र भगवद्गीता हो। सारे विश्र्व के लिए एक इश्वर हो-देवकीपुत्र श्रीकृष्ण। एक मन्त्र, एक प्रार्थना हो- उनके नाम का कीर्तन, *हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे।।* केवल एक ही कार्य हो – भगवान् की सेवा ।” एक शास्त्र पर्याप्त है। लोगों अथवा दुनिया ने दुनिया भर के कई शास्त्र बनाए हैं। किसी शास्त्र ने आधा सत्य लिखा है। किसी में 10% है तो किसी में हो सकता है कि १०० प्रतिशत ही गलत हो। इसलिए अलग अलग यत् मत तत् पथ भी हो जाते हैं। कई सारे मजहब भी हो जाते हैं। एक समय २००० वर्ष पूर्व क्रिस्टियन्स थी लेकिन अभी क्रिस्टियन्स के कितने प्रकार हैं। नो आईडिया, उनके सैंकड़ों विभाजन हो चुके है। उसको मजहब कहते हैं। अगली पीढ़ी उसमें कुछ जोड़ती व घटाती रहती है, परिवर्तन करती है। कुछ क्रांतिकारी विचार को स्थापित करने का प्रयास करती है। इसी साथ कन्फ्यूजन अर्थात यह संभ्रम बढ़ता ही रहता है। यह विषय तो बहुत बड़ा है लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है। अभी इतना ही आपसे कह दिया है लेकिन अभी यहीं विराम देते हैं। कोई प्रश्न या टीका टिप्पणी है, तो आप पूछ सकते हैं। प्रश्न:- यदि गलती से किसी कीट, पतंगे, मच्छर को मार देते हैं क्या वह पाप है? क्या करना चाहिए। गुरु महाराज:- कृष्ण की शरण में जाना होगा। कृष्ण कहते हैं- *सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥* ( श्रीमद् भगवतगीता १८.६६) अनुवाद:-समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत। आपके द्वारा जाने अनजाने किए हुआ पापों के फल से आप को मुक्त किया जाएगा। शरणागति अनिवार्य है। भगवान की शरण या भगवान के नाम की शरण आवश्यक है। वैसे जो गृहस्थ हैं, (अभी मैं पढ़ रहा था) वे पांच प्रकार के पाप करते ही रहते हैं। जब वे चूल्हा जलाते हैं, तब कई सारे जीव जंतुओं को मार देते हैं। जब घर की झाड़ू से सफाई करते हैं, तब कई जीव जंतुओं को अपनी जान गंवानी पड़ती है। जब चक्की पीसते हैं, ( वैसे अब ऐसा नहीं होता, कुछ समय पहले माताएं ऐसा कार्य करती थी) तब भी कहीं जीवों को मारते हो। इस तरह से और भी दो है। इस प्रकार कई जीव जंतु की जान जाती है। शास्त्र में आपकी जानकारी के लिए, आप गृहस्थ हो, घर में हो। आप यह पाप नहीं चाहते हुए जाने-अनजाने करते हो। इसलिए मुक्त होना है तो भगवान की शरण ग्रहण करो। 'सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज' अन्य कोई दूसरा उपाय नहीं है दूसरा उपाय नहीं है, दूसरा उपाय नहीं है। प्रश्न:- भगवत गीता में कर्म थ्योरी( सिद्धांत) कहां दिया गया है? गुरु महाराज:- सर्वत्र है, *कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः। अकर्मणश्र्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ।।* (भगवतगीता ४.१७) अनुवाद: कर्म की बारीकियों को समझना अत्यन्त कठिन है ।अतः मनुष्य को चाहिए कि वह यह ठीक से जाने कि कर्म क्या है, विकर्म क्या है और अकर्म क्या है। भगवान का ऐसा एकवचन हैं। भगवान कह रहे हैं - हे अर्जुन, इन कर्मों को समझो और कर्म के प्रकारों को भी समझो। एक कर्म होता है, दूसरा विकर्म होता है। कर्म मतलब पुण्य कर्म और विकर्म मतलब पाप। अकर्म अर्थात भक्ति का कर्म। कर्म की गति गहन है। *ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥* ( श्रीमद् भगवतगीता१४.१८) अनुवाद:- सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं, रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं । सद्गुण में किया हुआ कर्म का फल है ऊर्ध्वम गच्छति। अधो गच्छन्ति तामसाः अर्थात जो पाप कर्म करते हैं, वे नीचे पाताल लोक जाते हैं। यह सब कहां है गीता में कर्म के नियम है। गीता का ज्ञान सर्वत्र है। गीता में भी है। *बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥* ( श्रीमद् भगवतगीता २.५०) अनुवाद:- भक्ति में संलग्न मनुष्य इस जीवन में ही अच्छे तथा बुरे कार्यों से अपने को मुक्त कर लेता है। अतः योग के लिए प्रयत्न करो क्योंकि सारा कार्य-कौशल यही है। कृष्ण गीता में कहते हैं - योगः कर्मसु कौशलम् अर्थात योग ही है।योग की अवस्था में कर्म करो अर्थात कृष्ण भावना भावित होकर कर्म करो। *योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय । सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥* ( श्रीमद् भगवतगीता २. ४८) अनुवाद:- हे अर्जुन! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो। ऐसी समता योग कहलाती है। पहले योग में स्थित हो जाओ। तत्पश्चात कुरु कर्माणि। योगी भव:। योग अर्थात कर्म ही है। इसलिए कर्म योग, ज्ञान योग, अष्टांग योग कहा गया है। भक्ति योग भी कहा है। *योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना । श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥* ( श्रीमद् भगवतगीता ६.४७) अनुवाद:- और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, अपने अन्तःकरण में मेरे विषय में सोचता है और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता है और सबों में सर्वोच्च है। यही मेरा मत है। योग क्रिया ही है। अलग अलग भक्ति अथवा कृष्ण भावना के स्तर की क्रियाएं हैं। इसलिए एक का नाम कर्मयोग हुआ। जब थोड़ा कृष्णभावनाभावित हुए, तब ध्यान योग हुआ। यदि और कृष्ण भावनाभावित है, तब आष्टांग योग हुआ। जब कृष्ण भावना पूरी विकसित हुई तब योगिनामपि सर्वेषां अर्थात कृष्ण कहते हैं कि भक्तियोगी हुआ। कोई भी व्यक्ति कर्म किए बिना एक भी क्षण जी नहीं सकता। हम रात दिन अहर्निश कर्म करते रहते हैं। हमारी कई प्रकार की क्रियाएं हैं। कितने सारे क्रिया पद हैं। पाणिनी व्याकरण में दो हजार धातु हैं। तत्पश्चात 2,000 धातुओं में अलग-अलग प्रत्यय लगाने से और भी कई सारी धातुएं क्रियाएं बन जाती हैं। एक तरफ कर्म ही है लेकिन वह कृष्णभावनाभावित करने से उसका नाम भक्ति योग होता है अन्यथा वह कर्म है कोई पुण्य कर्म कोई पाप कर्म आदि। प्रश्न:- हम सुनते हैं कि आध्यात्मिक जीवन में सर्वोच्च अवस्था प्राप्त करनी है। उसके लिए भौतिक चेतना का अंत करना होगा। वास्तविक जीवन में उस अवस्था को कैसे प्राप्त कर सकते हैं जहां पर भौतिक चेतना नहीं रहेगी और हम 100% कृष्णभावनाभावित जाए । गुरु महाराज :- भक्ति योगी बनो और तत्पश्चात *एवं कायेन मनसा वचसा च मनोगतम् । परिचर्यमाणो भगवाम्भक्तिमत्परिचर्यया ॥* *पुंसाममायिनां सम्यग्भजतां भाववर्धनः । श्रेयो दिशल्यभिमतं यद्धादिषु देहिनाम् ॥* ( श्रीमद्भागवतगम ४.८.५९) अनुवाद:- इस प्रकार जो कोई गम्भीरता तथा निष्ठा से अपने मन , वचन तथा शरीर से भगवान् की भक्ति करता है और जो बताई गई भक्ति - विधियों के कार्यों में मग्न रहता है , भगवान् उसे उसकी इच्छानुसार वर देते हैं । यदि भक्त भौतिक संसार में धर्म , अर्थ , काम भौतिक संसार से मोक्ष चाहता तो भगवान् इन फलों को प्रदान करते हैं । तीन प्रकार की क्रियाएं अथवा अवस्थाएं होती हैं। हमारे कुछ कृत्य कायिक अथवा शारीरिक, वाचा और कुछ बोलते हैं और मनसा कुछ कार्य मन से होते हैं अर्थात कुछ सोचते हैं। यह सारी क्रियाएं कृष्ण भावना भावित हो कर हम करेंगे अथवा कहेंगे या सोचेंगे। *अन्याभिलाषिता - शून्यं ज्ञान - कर्माद्यनावृतम् । आनुकूल्येन कृष्णानु - शीलनं भक्तिरुत्तमा ॥* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१६७) अनुवाद:- जब प्रथम श्रेणी की भक्ति विकसित होती है , तब मनुष्य को समस्त भौतिक इच्छाओं , अद्वैत - दर्शन से प्राप्त ज्ञान तथा सकाम कर्म से रहित हो जाना चाहिए । भक्त को कृष्ण की इच्छानुसार अनुकूल भाव से उनकी निरन्तर सेवा करनी चाहिए। ऐसा कृष्ण भावना का जीवन जिसमें अन्य अभिलाषा शून्य हो जाती है और अन्य कोई चिंता नहीं रहती सिर्फ कृष्ण का चिंतन होता है। कृष्ण भावना चिंतन रहता है। ज्ञान - कर्माद्यनावृतम् अर्थात ज्ञान से मुक्त, कर्म से मुक्त, योग से मुक्त। *कृष्ण - भक्त - निष्काम , अतएव ' शान्त ' । भुक्ति - मुक्ति - सिद्धि - कामी - सकलि अशान्त ' ।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१४९) अनुवाद:- चूँकि भगवान् कृष्ण का भक्त निष्काम होता है, इसलिए वह शान्त होता है। सकाम कर्मी भौतिक भोग चाहते हैं , ज्ञानी मुक्ति चाहते हैं और योगी भौतिक ऐश्वर्य चाहते हैं ; अत : वे सभी कामी हैं और शान्त नहीं हो सकते । भुक्ति की कामना नहीं है, मुक्ति की कामना नहीं है, सिद्धि की कामना नहीं है। कृष्ण भक्त निष्काम अतएव शांत। वह कृष्णभावनाभावित हुआ है तो फिर वह शांत है। नेति, नेति, नेति नहीं है यह कृष्णभावनामृत नहीं है। यह कर्मकांड है। यह भी कृष्णभावना नहीं है, यह ज्ञान कांड है। *कर्म कांड, ज्ञान कांड केवल विषेर भांड।* यह सब हम अपने जीवन से हटाएंगे । यह अलग अलग भाव और क्रिया कलाप और ऐसे लोग का भी त्याग करेंगे। *असत्सङ्ग-त्याग,-एड़ बैष्णव-आचार ।स्त्री-सङ्गी'-एक असाधु, 'कृष्णाभक्त' आर ॥* ( श्रीचैतन्य चरितामृत २२.८७) अनुवाद:- वैष्णव को सामान्य लोगों की संगति से हमेशा बचना चाहिए। सामान्य लोग बुरी तरह से भौतिकता में, विशेषतया स्त्रीयों में आसक्त रहते हैं। वैष्णवों को उन लोगों की भी संगति से बचना चाहिए, जो कृष्ण-भक्त नहीं हैं।" हम असत्सङ्ग टाल रहे हैं। तत्पश्चात वैष्णवों जैसा आचरण होगा जिसमें असत्सङ्ग-त्याग होता है। यह श्रद्धा से प्रेम तक है। पहले श्रद्धा थी, फिर साधु सङ्ग हो रहा है। साधु ने हमें भजन क्रिया सिखाया। भजन क्रिया कर रहे , तब हम अनर्थों से मुक्त हो गए हैं। हम कृष्ण भावना में फिक्स्ड हो चुके हैं। वहां से अब नो यू- टर्न। रुचि बढ़ रही है, हम आसक्त हुए हैं। हमें कृष्ण का चस्का लगा हुआ है। भावों का अनुभव हो रहा है। तत्पश्चात कृष्ण प्रेम के फल को चख रहे हैं। हम सीढ़ी चढ़ रहे हैं। पहले श्रद्धा के सोपान पर थे और ऊपर चढ़े, साधु सङ्ग कर रहे हैं। यह साधु सङ्ग करते रहना होगा। यह नहीं कि प्रारंभिक अवस्था में ही हमें साधु सङ्ग चाहिए अपितु साधु सङ्ग सदा के लिए होगा। नहीं, अभी हम भजन क्रिया कर रहे हैं, तो साधु सङ्ग नहीं चाहिए या अब हम निष्ठावान हो गए हैं तो अब हर चीज़ पर विराम देते हैं। साधु सङ्ग नहीं होगा, भजन क्रिया नहीं होगी। ऐसे आप रोक नहीं सकते, यह सब आधार बन जाते हैं, उसी पर हम अलग अलग मन्जिलें खड़ी करते हैं। गगनचुंबी भक्ति के प्रासाद हम ख़ड़े कर सकते हैं। पहले हमारी श्रद्धा थी, फिर निष्ठा हो गयी। निष्ठा आधार बन गया। रुचि बढ़ रही है । रुचि बढ़ती जाएगी व रुचि को बढ़ाना है। फिर आसक्त हो जाएंगे। उसके बिना जी नहीं सकेंगे। *युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत् सर्व गोविन्द-विरहेण मे॥* ( शिक्षाष्टकम ७) अनुवाद:- हे गोविन्द! आपके विरह में मुझे एक निमेष काल (पलक झपकने तक का समय) एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है। नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरन्तर अश्रु प्रवाह हो रहा हैं तथा आपके विरह में मुझे समस्त जगत शून्य ही दीख पड़ता है। हरि! हरि! अतंतः पहुंच गए। साधु सङ् ही है। वैकुंठ या गोलोक जाना है, वहां साधु ही साधु है। वहां औऱ कोई है ही नहीं। आप साधु से दूर कहीं जा ही नहीं सकते। वैकुंठ जाना है, गोलोक जाना है साधुओं के अधिक निकट अर्थात निकटर अथवा निकटतम जाना होगा। ऐसे होते होते तुम भी साधु बन जायोगे। आप १००% साधु या साध्वी बनोगे। कोई १०%, कोई ५०% , कोई १००% साधु बन चुका है। कोई कनिष्ठ अधिकारी है। अधिकारी तो है लेकिन कनिष्ठ है। कोई मध्यम अधिकारी है। यदि अधिकारी हो कोई उत्तम अधिकारी हो। हमें भी उत्तम बनना है। यह सारा कृष्ण भावना का जो जीवन है, उसी उद्देश्य से है ताकि हम कृष्णभावनाभावित हो पाए। ऐसा नहीं कि हम कृष्णभावनाभावित हो गए तो निष्क्रिय हो जाएंगे। कोई कर्म करेंगे, नहीं। नहीं! वह मायावाद है। हम व्यस्त रहेंगे, सक्रिय रहेंगे। आत्मा जब १००% कृष्णभावनाभावित हो जाती है। आत्मा सक्रिय हो जाता है। आत्मा की इन्द्रिय भी सक्रिय होती है। *सर्वोपाधि - विनिर्मुक्त तत्परत्वेन निर्मलम् । हृषीकेण हृषीकेश - सेवनं भक्तिरुच्यते ॥* ( श्रीचैतन्य चरितामृत १९.१७०) अनुवाद:- " भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इन्द्रियों को लगाना । जब आत्मा भगवान की सेवा करता है , तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् की सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं । ' शुद्ध भक्त का अपराध शून्य जीवन भी होता है। यह भी अनुभव किया है। सारे अपराधों से मुक्त। यदि हम वैष्णव अपराध- करते ही रहेंगे, तब हम कैसे शुद्ध भक्त बनेंगे, व अनुभव भी कैसे करेंगे। हरि! हरि! हर दिन हमें तरक्की करनी है। हर दिन हमें ऊपर वाले सोपान पर चढ़ना है। हरि! हरि! मुझे अब गुरु की जरूरत नहीं। गुरु के सर पर पैर रखते हुए हम छलांग मारेंगे कि मुझे अब गुरु की आवश्यकता नहीं। ऐसा भी नहीं है। है ही नहीं। श्री गुरु वैष्णवः भगवत गीता। हमें सब अवस्थाओं में इनकी आवश्यकता होती है। ठीक है। समय हो चुका है। हरे कृष्ण!

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