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*जप चर्चा*, *पंढरपुर धाम*, *27 जून 2021* हरि हरि। हरे कृष्ण। हमारे साथ 838 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। गौरंग, गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। आप बड़े उत्साही लग रहे हो, क्या बात है। हरि हरि। कुछ मन के संबंध में या कहो मन की बात करने का विचार हो रहा है। मैं जब मन की बात कह रहा हूं, तो मैं वैसे मन से संबंधित बात करने का सोच रहा हूं। मन जानते हो? मन को जानना कठिन है। मन सूक्ष्म है और तत्वों को जानना जो स्थूल है जिनकी संख्या कुछ 104 है, ऐसा शास्त्रीज्ञ कहते हैं। अलग अलग धातु है किंतु मन, बुद्धि और अहंकार, यह स्थूल तत्वों की तुलना में और भी सूक्ष्म है। वैसे शास्त्रीज्ञो ने अलग अलग धातुओं के नाम दिए। लेकिन भगवान ने तो 5 ही नाम दिए हैं – पृथ्वी, आग, तेज, वायु, आकाश। *भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च |* *अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा || ४ ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 7.4) अनुवाद पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार – ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्ना (अपरा) प्रकृतियाँ हैं | फिर आगे कृष्ण कहते हैं कि मन, बुद्धि और अहंकार। *अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा*। यह सारे स्थूल तत्व – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश है और मन बुद्धि अहंकार सूक्ष्म तत्व है। जिसको अंतःकरण कहते हैं। जिसको हम सूक्ष्म शरीर कहते हैं। वह मन, बुद्धि और अहंकार से बना है। जिसको भगवान अपनी बहिरंगा शक्ति कहते हैं। बहिरंगा शक्ति के अंतर्गत है। *भिन्ना प्रकृतिरष्टधा* यह भिन्ना प्रकृति है। तो मन, बुद्धि और अहंकार में, मन के बारे में कहना कठिन है। थोड़ा मानना ही पड़ेगा कि हम पर मन की विशेष भूमिका है और विशेष प्रभाव है। हमसे दिनभर कहीं सारे कार्य भी यह मन ही करवाता है। इसीलिए शास्त्रों में कहा है। *मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।* *बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥* (उपनिषद) अनुवाद मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष की प्रमुख कारण है। विषयों में आसक्त मन बन्धन का और कामना-संकल्प से रहित मन ही मोक्ष (मुक्ति) का कारण कहा गया है । श्रील प्रभुपाद इसको बारंबार कहा करते थे। *मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।* संस्कृत भी सरल ही है। *मन एव* मन ही है। एव मतलब निश्चित ही। मनुष्याणां मतलब सभी मनुष्यों के लिए, केवल भारतीय मनुष्यों की बात नहीं हो रही है। सभी मनुष्यों की बात हो रही है। जो पहले थे, अब हैं और भविष्य में होंगे और जो जहां भी हैं। उन सब की कहानी एक ही है। उन सभी के संबंध में कहा जा रहा है। फिर वह देशी या विदेशी हो या स्त्री हो या पुरुष सबके मन होते है। यह बताया जा रहा है कि मन क्या होता है? मन ही बनता है कारण। किस-किस का कारण बनता है? दो बातें कही हैं। बंधन का कारण। क्या है बंधन का कारण? एक ही शब्द में उत्तर देना है। तो वह उतर होगा – मन। बंधन का कारण मन है। हम जो बद्धजीव कहते हैं जिसने हमको बनाया। किसने हमको बद्ध बनाया और बांध दिया है? मन ने। *मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।* यो आ गया। यह दो बातों का उल्लेख हुआ है इसलिए *बन्धमोक्षयोः*। हरि हरि। तो बंधन का कारण मन है और यही मन मोक्ष और मुक्ति का भी कारण बन सकता है। हम किसके कारण बद्ध हैं? मन के कारण। हम मुक्त बनना चाहते हैं या मोक्ष को प्राप्त करना चाहते हैं। वह कैसे संभव होगा? मन के कारण। मन हमको बांध देता है और वही मन हमको छोड़ भी दे सकता है और मुक्त भी कर सकता है। हरी हरी। *उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् |* *आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः || ५ ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 6.5) अनुवाद मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपने को नीचे न गिरने दे | यह मन बद्धजीव का मित्र भी है और शत्रु भी | भगवत गीता के छठे अध्याय में जिस अष्टांग योग का लक्ष्य मुक्त होना या मोक्ष प्राप्ति है। अष्टांग योग में ध्यान करना सिखाया जाता है और समाधि या भगवान का ही ध्यान, भगवान के रूप का ध्यान या स्मरण अष्टांग योग पद्धति का लक्ष्य है। तो वहां पर भगवान मन के संबंध में बता रहे है। आप अधिक जानना चाहते हो। तो भगवत गीता का छठा अध्याय दृढ़तापूर्वक पढ़िएगा। यह एक प्रकार का सेमिनार कहो। अर्जुन को समझा रहे हैं – मन के कार्यकलाप, मन की चंचलता। *चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |* *तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् || ३४ ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 6.34) अनुवाद हे कृष्ण! चूँकि मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है | यह मन के संबंध में निरूपण हुआ है या कुछ चर्चा हुई है। तो वह एक स्थान है शास्त्रों में भगवद गीता का छठवां अध्याय। हरी हरी। तो वहां पर मैंने जैसे बताया कि उस श्लोक का उदाहरण दिया ही है। तो कृष्ण कहते हैं,भगवत गीता में *आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः* उसी श्लोक का जो पहला पहले 2 पद है उसमें कृष्ण कहते हैं। *उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् |* इस श्लोक में केवल आत्मा की बात हुई है। आप कहोगे इसमें भगवान मन का नाम तो ले ही नहीं रहे है। तो यहां आत्मा मतलब आत्मा भी है और शास्त्रों में मन को भी आत्मा कई स्थानों पर कहा हैं। यहां तक की शरीर को भी आत्मा कहा गया है। हमारा आत्मा के रूप में उल्लेख होता है। तो कृष्ण कह रहे हैं कि *आत्मैव ह्यात्मनो*। *उद्धरेदात्मनात्मानं* आत्मा का उद्धार करना चाहिए। आत्मा का आत्मा से उद्धार करना चाहिए। यहां पर एक आत्मा है, जो हम हैं। उसका उद्धार कैसे करना चाहिए? आत्मा से मतलब मन से। मन से, मन के माध्यम से, मन की मदद से, अपना खुद का यानी आत्मा का उद्धार या भक्ति करनी चाहिए। *नात्मानमवसादयेत्* उसी का दूसरा अंश है। कृष्ण कह रहे है कि आपका मन, आत्मा को गिराता नहीं है, उसका पतन नहीं कराता है। दोनों बातें कही है। मन से क्या करो? मन का उपयोग करो। मन की मदद से आत्मा का उद्धार करो। देखना कि आपका मन आपको गिरा नहीं रहा है। आपका पतन नहीं करा रहा है। यह एक अंश है। उसी श्लोक में, उसी वचन में, उसी वाक्य में कहिए, कृष्ण आगे कहते हैं। *आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः*। किंतु आपका मन दो प्रकार की भूमिका निभा सकता है। आपका मन आपका बंधु , सखा या साथी बन सकता है और हमको बनाना भी चाहिए। आपको यह निश्चित करना चाहिए कि आपका मन आपका शत्रु नहीं बनता है। *आत्मैव* मतलब मन है। मन आत्मा का बंधु है या फिर दुर्देव से मन ही बन सकता है, रितु मतलब शत्रु। आत्मा का शत्रु बन सकता है। हरि हरि। तो समझ में आ रहा है? तो इतना समझने पर हमको देखना है कि हमारे मन को हमारा मित्र बनाना है या बंधु बनाना है या हमारा सहायक बनाना है। *नंदन अभय चरण अभय चरण अरविंद रे भज हूँ रे मन श्री नंद नंदन अभय चरण अरविंद रे । दुर्लभ मानव जनम सतसंगे, तर आये भव सिंध रे । अभय चरण अरविंद रे शीत आ तप मात बरीशन, एह दिन यामनी जाग रे । अभय चरण अरविंद रे विफले से बिनु कृपण दुर्जन, चपल सुख नव लाग रे । अभय चरण अरविंद रे श्रवण र्कीतन स्मरण वंदन, बाद से मन दास रे । अभय चरण अरविंद रे पूजन सकी जन आत्म निवेदन, गोविन्द दास अभिलाष रे । अभय चरण अरविंद रे भज हूँ रे मन श्री नंद नंदन अभय चरण अरविंद रे । अभय चरण अरविंद रे* यह प्रार्थना है। हम मन को प्रार्थना कर सकते हैं। मन क्या करो? *भज हूँ रे मन* मन भज लो। अभय चरण अरविंद के चरण को भज लो। ऐसी हम मन को प्रार्थना कर सकते हैं या निवेदन कर सकते हैं। कितना हम आपको समझाया थोड़े समय में? वैसे मन को समझाने वाली बुद्धि होती है। मन के उपर बुद्धि का अधिकार है या मन का मालिक ही कहो। इसको अनुक्रम कहते हैं। जिसमें एक के ऊपर दूसरा अधिकारी होते हैं। इसको समझाते हुए भगवद गीता में कृष्ण कहते है। *इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः |* *मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु सः || ४२ ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 3.42) अनुवाद कर्मेन्द्रियाँ जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से बढ़कर है, बुद्धि मन से भी उच्च है और वह (आत्मा) बुद्धि से भी बढ़कर है । हमारी जो इंद्रियां हैं *पराणी* परे है या श्रेष्ठ है। इंद्रियों के जो विषय हैं – शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध, हमारी इंद्रियां उससे श्रेष्ठ है, *इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः*। आगे कृष्ण क्या कहते हैं? *परं मनः* मतलब इंद्रियों से श्रेष्ठ है मन। इंद्रियों के विषयों से श्रेष्ठ इंद्रियां है और इंद्रियों से श्रेष्ठ मन है। वैसे कृष्ण कहते ही है। *ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |* *मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति || ७ ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 15.7) अनुवाद इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है । मन भी एक इंद्रिय है। *मनःषष्ठानीन्द्रियाणि* उसको छठा इंद्रियां कहा गया है और यह राजा है, प्रमुख है। इंद्रियों के ऊपर मन का अधिकार है या पद है। यह भगवत गीता के तृतीय अध्याय में है। *मनसस्तु परा बुद्धिर्यो*। कृष्ण कह रहे हैं कि मन से श्रेष्ठ है बुद्धि और इस बुद्धि से श्रेष्ठ है – *स:* यानी आत्मा। जो बुद्धि से श्रेष्ठ है वह है आत्मा और आत्मा से श्रेष्ठ है परमात्मा और परमात्मा से भी श्रेष्ठ हैं भगवान जो पूर्ण है। आप देख रहे हो? जो इंद्रियों के विषय है, वो सबसे निम्न स्तर पर है। उनसे ऊंची है इंद्रियां, उनसे ऊंचा है मन, मन से श्रेष्ठ है बुद्धि, बुद्धि से श्रेष्ठ है आत्मा फिर परमात्मा। यहां मन की चर्चा कर रहे है। कैसे नियंत्रण करे? मन को हमे अपना बंधु बनाना है, शत्रु नहीं बनाना है। शत्रु तो ना जाने कब से हमारा मन रहा ही है। इसलिए संसार में हमारा चलता रहा। *पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्।* *इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥21॥* (शंकराचार्यजी द्वारा रचित भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-2) अनुवाद हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर। *पुनरपि जननं पुनरपि मरणं*। शत्रु मन के कारण ही हमने बहुत सारे कार्य करवाए है। *अर्जुन उवाच* *अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः |* *अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः || ३६ ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 3.36) अनुवाद अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो | अर्जुन ने ऐसा प्रश्न पूछा। इच्छा नहीं होते हुए ऐसा पाप होता ही है, लगता है जैसे पाप कोई करवा रहा है। कौन है वो पापी ? कृष्ण गीता में कहते है, उत्तर दे रहे है: काम और क्रोध है। *श्री भगवानुवाच* *काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |* महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् || ३७ ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 3.37) अनुवाद श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है | षठ रिपु होते है। यह हमारे मन में ही बसे रहते है। इन्होंने अपना घर हमारे मन में बना लिया है। मन में है , काम मन में है, क्रोध मन में है लोभ। मन को घेर लिया है, मन को ही घर बना लिया है। यह सारे शत्रु हमला करते ही रहते है। जीवन में सारे कार्य उन्ही के प्रभाव से होते है। तो कैसे इस मन को सुधारना है? ऐसे शत्रु रूपी मन को मित्र बनाना है ताकि जो हम बद्ध थे वह मुक्त हो सकेंगे। *मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।* *बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥* (उपनिषद) अनुवाद मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष की प्रमुख कारण है। विषयों में आसक्त मन बन्धन का और कामना-संकल्प से रहित मन ही मोक्ष (मुक्ति) का कारण कहा गया है। हरि हरि। ऐसा समझाया है कि मन के ऊपर है बुद्धि, तो बुद्धि का प्रयोग करते हुए, बुद्धि मतलब सही गलत का पता लगाने वाली। यह अनुकूल है या प्रतिकूल है, सही है या गलत है, पाप है या पुण्य है, यह जड़ है या चेतन है। यह बुद्धि से निर्धारित होता है। वैसे भी बुद्धि को चालक कहा है, यह शरीर है रथ, इंद्रियां हैं घोड़े, मन है लगाम। चालक के हाथ में लगाम है, उसमे बुद्धि की भूमिका है। बुद्धि के हाथ में लगाम है और फिर लगाम से घोड़ों को रोकना है, बढ़ाना है, स्पीड को बढ़ाना है। चालक भी यही करता है, तो वही भूमिका हमारे जीवन में बुद्धि की है। भगवान का भक्त बुद्धु का कार्य नहीं अपितु बुद्धिमान का कार्य है। *बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |* *वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः || १९ ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 7.19) अनुवाद अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है | बुद्धिमान व्यक्ति ही भगवान को प्राप्त कर सकता है। कृष्ण भजे सेई बने चतुर। जो कृष्ण को भजता है वह बड़ा चतुर है। बुद्धि के ऊपर भगवान ने कहा है बुद्धि के ऊपर है आत्मा। आत्मा परेशान है। मदद मांग रही है, वह मुक्त होना चाहता तो है। दिमाग लड़ेएगा प्रार्थना करेगा, तो उस आत्मा को भगवान बुद्धि देंगे। बुद्धि तो सभी में होती है, उसको कुशार्ग बुद्धि देंगे। फिर वो ध्यान देगा। ये कब होगा दादामी बुद्धि योगम। *तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |* *ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || १० ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 10.10) अनुवाद जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं | जो साधना भक्ति में लगे हुए है और इसको करना ही चाहते है, अखंड और प्रीति पूर्वकम। ऐसा व्यक्ति जो प्रार्थना भी कर रहा है, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। प्रार्थना कर रहा है तो भगवान वो प्रार्थना सुनेंगे। सतत प्रार्थना हो रही है। *तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |* जितनी प्रीति है उतने प्रीति पूर्वक प्रार्थना कर रहा है। तो फिर ऐसे व्यक्ति को भगवान क्या करते है? भगवान उसको बुद्धि देते है। परमात्मा, जो हृदय के प्रांगण में है, वही पर जहां इंद्रियां है शरीर है, मन है, उसी शरीर में बुद्धि भी है, और आत्मा भी है और वही परमात्मा भी है। वे परमात्मा, वे भगवान हमको बुद्धि देंगे। इस बुद्धि का प्रयोग हम अपने पर लगाएंगे। ध्यान पूर्वक जप हो रहा है या नही हो रहा। यह सब के बारे में सोचेंगे। हरि हरि। नही तो जो विनाश काले विपरीत बुद्धि है। वह तो सदियों से प्राप्त हो ही रही थी। उस स्थान पर सद बुद्धि, विचार, उस स्थान पर भगवान देंगे, भगवान के भक्त देंगे। भगवान ने अर्जुन को बुद्धि दी है। वह ज्ञान आपके और हमारे काम का भी है। भगवान को पुनः बोलने की आवश्यकता नहीं है। वैसे हम बद्ध है, तो अर्जुन भी कुरुक्षेत्र के मैदान में बद्ध था, या उसको बुद्धि देना चाहते थे। तो ऐसा आयोजन किया और उसको बुद्धि प्रदान करी। *अर्जुन उवाच | नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत | स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव || ७३ ||* (श्रीमद भगवत गीता 18.73) अनुवाद अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ | अर्जुन ने कहा था नष्टो मोह: कोई संदेह नहीं रहा, मैं स्थिर हो गया हूं। युद्ध करने के लिए मैं तैयार हूं, मैं क्षत्रिय हूं। चलो चलते है रथ को आगे बढ़ाओ। भगवद गीता के रूप में भगवान हमको बुद्धि दे रहे है, वह भगवद गीता है और भी शास्त्र है वैसे। *मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |* *कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ ||* (श्रीमद भगवत गीता 10.9) अनुवाद मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं | श्रवण से, अध्ययन से, बोधयन्तः परस्परम् से हम बुद्धिमान बन जायेंगे। हम अच्छे चालक बन जायेंगे। कहते है यह जीवन एक यात्रा है तो चालक अगर विशेषज्ञ है तो कोई दुर्घटना नही होगी, वह लक्ष्य तक पहुंचा देगा। दिन पर दिन हमको बुद्धिमान होना ही है। बुद्धिमान होने के लिए अपने मन को परिवर्तन करना होगा। फिर क्रांति होगी। जो पहले मन शत्रु जैसा कार्य कर रहा था। हरि हरि। *जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः |* *शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो: || ७ ||* (श्रीमद भगवत गीता 6.7) अनुवाद जिसने मन को जीत लिया है, उसने पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है, क्योंकि उसने शान्ति प्राप्त कर ली है | ऐसे पुरुष के लिए सुख-दुख, सर्दी-गर्मी एवं मान-अपमान एक से हैं | कृष्ण पुनः कहते ही है *जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।* जिन्होंने इंद्रियों को जीता है और फिर मन को भी जीता है, क्योंकि मन को जीते बगैर इंद्रियों को जीत नही सकते। फिर स्वाभिक है वो शांत बनेगा। मन की शांति कब इंद्रिय निग्रह करने से। क्षमा:, दम:, तप:, यह करने से फिर इंद्रिय निग्रह हुआ। मन शांत है। फिर शांत मन में परमात्मा समाधिस्य। फिर आप परमात्मा से मिलेंगे, परमात्मा का दर्शन करेंगे। मैं ऐसे सोच रहा था कि एक कुआं है उसके किनारे आप खड़े हो। जल कि तरंगे है। अगर ऊपर से पत्थर फैंकोगे तो आप स्वयं को नही देख पाओगे और अगर तरंगे नही है, तो आप स्वयं को देख सकते हो। उसी प्रकार *जितात्मनः प्रशान्तस्य*। मन जब शांत होगा। जिसको पतंजलि योग में कहा है निरोग। हमारे चित चेतना। इसमें मन भी है। कई सारे संकल्प, विकल्प चलता रहता है। विरोग: उसका दमन होगा। *योगः चित्त - वृत्ति निरोधः* मन की भाषा बताई है। वो योगी बन गए। भगवान के साथ इसका संबंध स्थापित करता है जिसे योग कहते है। हरि हरि। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।

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