Hindi
जप चर्चा
परम पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा
दिनांक 7 जून 2023
हरे कृष्ण!
हम योगी हैं (हम कैसे योगी हैं) हम जप योगी हैं। हमें भी सक्रिय होना है। हम मोस्ट एक्टिव (अधिक सक्रिय) तो जप के समय ही होते हैं। जप के समय या जप यज्ञ के समय शरीर भी सक्रिय होना चाहिए।
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्ध्यात्मना वानुसृतस्वभावात् ।करोति यद् यत् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयेत्तत् ॥ ३६
अनुवाद :- बद्ध जीवन में अर्जित विशेष स्वभाव के अनुसार मनुष्य अपने शरीर, वचन, मन, इन्द्रिय, बुद्धि या शुद्ध चेतना से, जो कुछ करता है उसे यह सोचते हुए परमात्मा को अर्पित करना चाहिए कि यह भगवान् नारायण की प्रसन्नता के लिए है।
अधिक सक्रिय व व्यस्त, निश्चित ही मन भगवान का नाम सुनने में व्यस्त होता है। वाचा- जिव्हा से कहना भी है, उच्चारण करना है। बुद्धया भी कहा है, बुद्धि का प्रयोग करना है। जप करना बुद्धू का काम नहीं है, उसको बुद्धिमान चाहिए। आत्मन: और आत्मा भी बिजी है, जप करने वाला तो आत्मा ही है। इस प्रकार जप करते करते करते सक्रिय रहकर सब करना है।
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा
बुद्ध्यात्मना योगस्थ अर्थात योग में स्थित होना है, इसे ध्यानस्थ भी कहते हैं।
कृष्ण गीता में कहते हैं
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
(श्रीमद भगवद्गीता 2.48)
अनुवाद :- हे अर्जुन! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो, ऐसी समता योग कहलाती है।
हमें तभी कृत्य करने चाहिए जब हम योग में स्थित हो। प्रातः काल में हम स्वयं को योग में स्थित अथवा योगस्थ करते हैं, योगस्थ को ही समाधिस्थ कहते हैं। समाधि में कार्य करना है।
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि । योगिन: कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥
(श्रीमद भगवद्गीता 5.11)
अनुवाद :- योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।
योगी कार्य करते हैं। प्रातः काल में हम योग अर्थात ध्यान अवस्था में स्थित होते हैं। तब फिर दिन भर जो आप कार्य करोगे तो वे सारे कार्य आपसे कृष्ण भावना भावित होंगे क्योंकि आप योग में स्थित हो या ध्यानस्थ हुए हो। ध्यान का आपने अनुभव किया है। हरि! हरि!
हमारे सारे यज्ञार्थम.. यज्ञ क्या होता है? वैसे भगवान का नाम भी यज्ञ है। भगवान को यज्ञपुरुष कहते हैं, वे यज्ञ हैं तो हम आहुति चढ़ाते हैं। हरे कृष्ण, हरि नाम की आहुति चढ़ाते हैं। हम हरि नाम अर्पित करते हैं।
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः | तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङगः समाचर ||
(श्रीमद भगवद्गीता 3.9)
अनुवाद :-श्रीविष्णु के लिए यज्ञ रूप में कर्म करना चाहिए, अन्यथा कर्म के द्वारा इस भौतिक जगत् में बन्धन उत्पन्न होता है | अतः हे कुन्तीपुत्र! उनकी प्रसन्नता के लिए अपने नियत कर्म करो | इस तरह तुम बन्धन से सदा मुक्त रहोगे | यज्ञार्थ के लिए भगवान के लिए कार्य नहीं करेंगें या आहुति नहीं चढ़ाएंगे। जप यज्ञ नहीं करेंगे। संकीर्तन यज्ञ नहीं करेंगे तो फिर हमारा जो कार्य है, वह व्यर्थ ही चला जाएगा, हमने कृष्ण प्रेम को प्राप्त नहीं किया है। प्रेम धन बिना हम धनी नहीं बनते। लोग धनी बन रहे हैं, प्रातः काल में जप करते हैं। बाकी लोग तो अपना दफ्तर दस ग्यारह बजे खोलते हैं व बिजनेस शुरू करते हैं। तत्पश्चात कुछ कमाई शुरू करते हैं लेकिन हरे कृष्णा वाले तो ब्रह्म मुहूर्त में उठ गए और उनकी कमाई शुरू हो गई। उनकी क्या कमाई है?
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
यह कमाई है, धन है। धनी या धनवान बनकर अथवा धन्य हो कर हमें दिनभर व्यस्त रहना है। यदि हमनें प्रेम का धन नहीं कमाया तो चैतन्य महाप्रभु कहते हैं कि ऐसा जीवन व्यर्थ है। व्यर्थ दरिद्र जीवन, दरिद्र समझते हो? अमीर बनो, धनवान बनो, श्रीमान बनो। हरि नाम का श्रवण *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। करो, यह हमको धनवान बनाता है। इससे हमारा जीवन सफल होगा।
दस बारह मिनट और जप करते रहिए। तत्पश्चात जपा टॉक होगा। तब तक जप को आगे बढ़ाइए। सीधे बैठिए। (सिट प्रॉपर्ली)
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
सुखासन में बैठिए, इसे सुखासन कहते हैं। पद्मासन में भी बैठ सकते है लेकिन वो थोड़ा कठिन जाएगा। सुखासन में तो बैठ ही सकते हैं, बैठना ही चाहिए। हम योगी हैं ना? योगियों को योगी जैसा बैठना चाहिए, भोगी जैसा नहीं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। जप करते रहिए। आप ने इसका अनुभव किया, मुझे सुन रहे हो?
हम प्रतिदिन जप के समय जप चर्चा करते हैं। इस विशेषण को मंत्र मेडिटेशन भी कहते हैं। कैसा मेडिटेशन? मंत्र मेडिटेशन। हम मंत्र का ध्यान करते हैं। श्रील प्रभुपाद कहा करते थे कि ध्यान प्रारंभ करने से पहले आपको ऑब्जेक्ट ऑफ मैडिटेशन( ध्यान का लक्ष्य) निश्चित करना होगा। आपके ध्यान का क्या लक्ष्य है या क्या विषय है तभी तो आप ध्यान कर पाओगे। हमारे ध्यान/ इस मंत्र मेडिटेशन का.. हम मेडिटेट अपॉन होली नेम ऑफ द लार्ड (भगवान के नामों का ध्यान) करते हैं। हरि! हरि!
नाम ही भगवान है। ऐसी तो ही समझ है। नाम ही भगवान है, हम नाम का ध्यान करते हैं। हम लोग मतलब हम जप करने वाले साधक भगवान का ही ध्यान करते हैं। हमारे जप का लक्ष्य भगवान है, भगवान कहते हैं तो भगवान का क्या-क्या होता है।
श्रीराधिका-माधवयोर्अपार- माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्।प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥ (गुरुअष्टक 5॥
अर्थ:- श्रीगुरुदेव श्रीराधा-माधव के अनन्त गुण, रूप तथा मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसावस्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
राधा माधव और भी भगवान के रूप हैं, उनका ध्यान करते हैं और क्या क्या करते हैं ?
हम श्री राधिका माधव के गुण, रूप, नाम का ध्यान करते हैं। आप समझ रहे हो? हरि! हरि! हम शून्य का ध्यान नहीं कर सकते। शून्य का क्या ध्यान करोगे?
जब बुद्धदेव ने शून्यवाद का प्रचार किया। तत्पश्चात शंकराचार्य आए, उन्होंने कहा- नहीं! नहीं! ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या। बस ब्रह्म का ध्यान करो या ब्रह्म ही बन जाओ। ब्रह्म की ज्योति का क्या ध्यान करोगें? इसमें कोई वैरायटी तो नहीं है। इसीलिए उस अद्वैतवाद को निर्विशेषवाद भी कहते हैं। निर्विशेषवाद कोई विशिष्टय नहीं है, कोई विशेषता नहीं है। बस प्रकाश है। (जस्ट द लाइट) संसार में ऐसे मैडिटेशन भी चलते हैं, जो गलत है। शास्त्र सम्मत नहीं है। गौड़ीय वैष्णव तो उसको धिक्कारते रहते हैं। हरि! हरि! यह मंत्र मेडिटेशन... हम
इस मंत्र का जप कर रहे हैं, तो मैं बीच-बीच में कुछ बोलता ही रहता हूं। बोलना तो नहीं चाहिए लेकिन कोशिश करते हैं कि गाइडेड मेडिटेशन। गाइडेंस के साथ मार्गदर्शन के साथ हम मेडिटेशन (ध्यान्) करेंगे। गाइडेंस से मेडिटेशन करने के लिए कुछ मदद होती है। श्रील प्रभुपाद भी एक बार जब अपने शिष्यों के साथ जप कर रहे थे तो उन्होंने कहा- स्टॉप (रुको)! सिट प्रोपेरली(ठीक से बैठो)। यह गाइडेंस(मार्गदर्शन) है। इस प्रकार का कुछ मार्गदर्शन सूत्र देते हुए हम जप करते हैं व करवाते हैं। हरि! हरि! जप करते हैं तत्पश्चात जपा टॉक भी शुरू हो जाता है।जपा टॉक होना भी अनिवार्य है। जप करना धर्म हुआ, अंग्रेजी में कहो- रिलीजन। साथ में दर्शन भी चाहिए। प्रभुपाद ने कहा- दोनों चाहिए, रिलिजन एंड फिलासफी दोनों।
हरे कृष्ण ,हरे कृष्ण धर्म है लेकिन फिलॉसफी, समझ के साथ या सिद्धांत या फिर लीला, कथा के श्रवण के साथ या दोनों के साथ.. हम दोनों ही करते हैं। यह हरे कृष्ण मंत्र का ध्यान और फिर तत्पश्चात जपा टॉक एक है। कीर्तनीय सदा हरिः। दूसरा टॉक मतलब क्या है- नित्यम भागवत सेव्या। यह एक दूसरे के पूरक हैं। (कंप्लीमेंट इच अदर) ऐसा अंग्रेजी में कहा जाता है। जप करने में मदद होती है यदि हम कथा, लीला, तत्वज्ञान सिद्धांत को सुनते हैं। उससे जप में मदद होती है। जप करने में मदद होती है। मन को स्थिर करने में या फिर मन के नियंत्रण में मदद होती है। कथा, लीला, गीता, भागवत, चैतन्य चरितामृत की बातों को जब हम सुनते हैं तो वह भी मेडिटेशन (ध्यान) है। जब हम जप करते हैं तो हमने यदि कोई तत्वज्ञान सुना है। नित्यम भागवत सेवया सुना है, तब फिर उसे जप के समय स्मरण करना होता है। जप में मदद होती है। याद करो.. याद करो.. स्मरण करो.. क्या स्मरण करें? कुछ पता ही नहीं क्या स्मरण करना है। यह नाम क्या है? यह नाम ही रूप है, अगर उस रूप का वर्णन हमने सुना है भागवत से तो फिर हम स्मरण भी कर सकते हैं। गुणों का वर्णन सुना है तो भगवान के गुणों का स्मरण कर सकते हैं कि भगवान कैसे कैसे गुण वाले हैं।
नमो महावदान्याय कृष्ण-प्रेम-प्रदाय ते। कृष्णाय कृष्ण-चैतन्य-नाम्ने गौरत्विषे नमः॥
अर्थ:- हे परम करूणामय अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के विशुद्ध प्रेम का सर्वत्र वितरण कर रहे हैं। हम आपको सादर नमन करते हैं।
भगवान बड़े दयालु हैं। यह गुण हुआ, स्मरण कर सकते हैं। इस प्रकार जप करो और जपा टॉक सुनो। ये एक दूसरे की सहायता करते हैं। एक दूसरे की पोषण अथवा पुष्टि करते हैं, यह दोनों ही अनिवार्य है। प्रभुपाद ने प्रातः काल के मॉर्निंग प्रोग्राम में जो हमें दिया है, उसमें हम जप करते हैं और फिर दर्शन भी होते हैं। मानो जिनका हम जप कर रहे थे, जिनका हम ध्यान कर रहे थे, वे हमसे प्रसन्न हो गए हो और वे भी हमें दर्शन देने के लिए तैयार हैं। दर्शन खुलते हैं। इस प्रकार हमारा जप सफल हुआ, श्रृंगार के समय भगवान का दर्शन किया। जिनका जप कर रहे थे, वे सामने आकर खड़े हो गए। हरि! हरि!
जैसे आप मेरे समक्ष यहाँ उपस्थित हो। इसलिए मैं यह सब कह रहा था। (इस प्रकार यह सेशन, जप प्रतिदिन होता है, आप में से कौन-कौन सम्मिलित होता है प्रतिदिन?। आज तो आपने किया ही। वैसे आप सभी भक्तों का भी स्वागत है।)
जग्गनाथ स्वामी की जय!
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्। आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥
अर्थ:- श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
जप करने से हम थोड़े विद्वान बन जाते हैं।
विद्यावधूजीवनम्, परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥ संकीर्तन क्या है? विद्यावधूजीवनम्
लाइफ ऑफ द वाइफ ऑफ द नॉलेज ऐसा अंग्रेजी में अनुवाद करते हैं। यह संकीर्तन है यह जप ही लाइफ ऑफ वाइफ इज नॉलेज। विद्या वधू का जीवन है। विद्या का फिर वर्धन होता है। साथ में आनन्दाम्बुधिवर्धनं भी चल रहा है। आनंद बढ़ रहा है। साथ ही साथ विद्या का भी विस्तार हो रहा है। हम विद्वान बनते जा रहे हैं। विनम्र होकर हम जप कर रहे हैं।
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना। अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः॥
अर्थ:- स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा ही मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनः स्थिति में ही व्यक्ति हरिनाम कीर्तन कर सकता है।
फिर हम भगवान के संबंध में सुनते हैं। हम श्रीमद्भागवत की कक्षा में सुनते ही रहते हैं, हम विद्वान बनते है। विद्वान ही वैसे नम्र बनता है। विद्वान ही नम्र बनता है या तृणादपि सुनीचेन व्यक्ति बनता है, जब उसको विद्या प्राप्त होती है। उसको ज्ञान होता है कि मैं कौन हूं? भगवान कौन है? हम कितने छोटे है। हम जप करेंगे तो हम भी विद्वान भी बन जाएंगे।
चक्षुदान दिलो येई, जन्मे जन्मे प्रभु सेइ, दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित। प्रेम-भक्ति याँहा हइते, अविद्या विनाश जाते, वेदे गाय याँहार चरित॥
अर्थ:- वे मेरी बन्द आँखों को खोलते हैं तथा मेरे हृदय में दिव्य ज्ञान भरते हैं। जन्म-जन्मातरों से वे मेरे प्रभु हैं। वे प्रेमाभक्ति प्रदान करते हैं और अविद्या का नाश करते हैं। वैदिक शास्त्र उनके चरित्र का गान करते हैं।
हमारे हृदय प्रांगण में कुछ दिव्य ज्ञान प्रकाशित होगा।
हम विद्वान होंगे।
विद्या ददाति विनय कहा है।
विद्या हमें विनय देती है। विद्या हमें नम्र बनाती है। सा विद्या या विमुख्य...
मैं कल यहां से जा रहा था तो कहीं एक साइनबोर्ड पर लिखा भी था।
सा विद्या अर्थात वह विद्या , विद्या है जो विमुक्तैः अर्थात जो हमें विमुक्त करें। वह विद्या है। आजकल की जो तथाकथित विद्या है, वह विद्या नहीं है। वह अविद्या है। आजकल की स्कूल कॉलेज में क्या पढ़ाया जाता है? अविद्या को पढ़ाया जाता है। अविद्या या अपरा विद्या। वे विद्यालय नहीं है, वे अविद्यालय हैं। वहां जाकर आपको क्या करना चाहिए? कहीं लिखा होता है ये विद्यालय, वह विद्यालय... फलाना विद्यालय।
वहां एक पेंट और ब्रश लेकर जाईये। वैसे तो मैं कहता ही रहता हूँ, उस पर लिखिए अविद्यालय। विद्यालय नहीं, अविद्यालय जिसके कारण हम बंधन में फंसते जा रहे हैं। हरि! हरि! मुक्त होना तो छोड़ ही दो। जप करने से हमें विद्या भी प्राप्त होती है। हम विद्वान भी होते हैं, इसीलिए कहा है विद्या वधू जीवनं।
हरि! हरि!
आजकल इन दिनों में जगन्नाथ स्वामी के दिन हैं। जगन्नाथ स्वामी का सीजन है, ऐसा भी हम कहते ही रहते हैं। अभी अभी क्या हुआ? स्नान यात्रा हुई। चैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत की यात्रा में गए थे, जब वे लौटे तब पहली बार चैतन्य महाप्रभु स्नान यात्रा में सम्मिलित हुए। प्रथम बार। इसलिए ऑन टाइम पहुंच गए। हो सकता है कि यह वर्ष 1511 या वर्ष 1512 की बात होगी।
चैतन्य महाप्रभु ने लगभग वर्ष 1510 में सन्यास लिया था। चैतन्य महाप्रभु ने भी स्नान यात्रा का दर्शन किया, वे जगन्नाथ ही हैं। ये तो बात है।
वासुदेव घोष बोले करि जोड हाथ। जेइ गौर सेइ कृष्ण सेइ जगन्नाथ।।
गौरांग महाप्रभु स्वयं ही जगन्नाथ हैं, स्वयं ही कृष्ण हैं। किंतु वे भी जप करते हैं, वे भी कीर्तन करते हैं। वे भी तीर्थ यात्रा में जाते हैं। जब वे तीर्थ यात्रा से लौटते हैं तो वे भी स्नान यात्रा का दर्शन करते हैं। श्रोताओं में बैठे हैं। स्नान तो उन्हीं का हो रहा है, स्नान वेदी पर जो जगन्नाथ है, वहीं तो गौरांग महाप्रभु हैं।
पञ्चतत्त्वात्मकं कृष्णं भक्तरूपस्वरूपकम्। भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्तशक्तिकम्॥
अर्थ:- भक्तरूप (चैतन्य महाप्रभु), भक्तस्वरूप (नित्यानंद प्रभु), भक्तावतार (अद्वैताचार्य), भक्त (श्रीवास प्रभु), भक्तशक्ति (गदाधर पंडित) - इन पञ्चतत्त्वात्मक भगवान् श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूँ॥
भगवान पंच तत्वों में पञ्चतत्त्वात्मक कृष्ण भक्त रूप.. कृष्ण बने हैं.. (कौन बने हैं?) भक्त रूप बने हैं मतलब उन्होंने भक्त का रूप धारण किया है। वे जगन्नाथ स्वामी के सभी उत्सवों में सम्मिलित रहते हैं। वे स्नान यात्रा में रहे। फिर उस स्नान यात्रा के दूसरे ही दिन अनावसर नाम का उत्सव आरंभ हुआ और भगवान बीमार हुए हैं। (कौन बीमार हो गए?) भगवान बीमार हो गए। वैसे भी हम लोग उनका जरूर स्मरण करते हैं, जो बीमार हो जाते हैं। बारम्बार फोन करते हैं, अब स्वास्थ कैसा है। ठीक हो रहे हो ना? हम कुछ कर सकते हैं? साधारणतया जिनका जितना हम स्मरण नहीं करते थे उससे अधिक स्मरण हम तब करते हैं जब वह व्यक्ति बीमार होता है। यह जो अनावसर की जो कालावधि है, यह जगन्नाथ को अधिक स्मरण का समय है। वैसे भी कह रहे थे जो व्यक्ति जिनको मिलते थे, देखते थे; वे हमें दिख नहीं रहे हैं उनकी याद आती है। जो व्यक्ति उपस्थित नहीं है, उसी के विषय में हम सोचने लगते हैं, उसी का स्मरण करने लगते हैं। वैसे हम भी जगन्नाथ के स्मरण को बढ़ा सकते हैं। इस समय उनको मिलना तो चाहते हैं, लेकिन दर्शन तो बंद है। केवल श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही नहीं,
भगवान कहां दर्शन दे रहे हैं? अलारनाथ में। अलारनाथ में जगन्नाथ स्वामी दर्शन दे रहे हैं।
हे राधे व्रजदेविके च ललिते हे नंद सूनो कुतः श्री गोवर्धन कल्प पादपतले कालिंदी-वने कुतः। घोषंताविति सर्वतो व्रजपुरे खेदैर् महा विह्वलौ वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।
कहाँ हो, कहाँ हो, तुम कहाँ हो? मैं यहाँ अलारनाथ में हूं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु धीरे-धीरे नहीं जा रहे, वे मन्द गति से कैसे जाएंगे। एक एक युग..
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत् सर्व गोविन्द-विरहेण मे॥
तो चैतन्य महाप्रभु दौड़ पड़ते हैं और अलारनाथ में वे भगवान को समक्ष देखते ही भगवान को साक्षात दंडवत प्रणाम करते हैं। वे स्वयं ही अलारनाथ हैं, जगन्नाथ हैं लेकिन वे जगन्नाथ का दर्शन कर रहे हैं, प्रणाम कर रहे हैं और भगवान ने ऐसा कहा भी है कि ऐसा ऐसा करो।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||
(श्रीमद भगवद्गीता 18.65)
अर्थ :- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |
भगवान भगवद्गीता में कहते हैं।
जैसे जैसा कृष्ण गीता में कहते हैं, वैसे वैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु करते गए। मन्मना- मेरा स्मरण करो, चैतन्य महाप्रभु कृष्ण का स्मरण कर रहे हैं और करते रहे।
मद्भक्तो - मेरे भक्त बनो तो चैतन्य महाप्रभु उनके भक्त बन जाते हैं।
मद्याजी मेरी आराधना करो चैतन्य महाप्रभु वैसा ही करते हैं। मां नमस्कुरु- मुझे नमस्कार करो। तो चैतन्य महाप्रभु नमस्कार कर रहे हैं। जहां उन्होंने नमस्कार किया, उनके नमस्कार और हमारे नमस्कार में अंतर है, भेद है।
हरि! हरि! अचिन्त्यभेदाएभेद भी है। जो वहां वह पत्थर पाषाण पिघल गया।
पशुपाखी झूरे पाषाण विदरे
हरि! हरि! अनावसर कालावधि में चैतन्य महाप्रभु वहां जाते रहते हैं। (कहां?) अलारनाथ!अन्य लोग भी जाते हैं। यही समय नवयौवन का समय भी होता है। जगन्नाथ स्वामी के स्वास्थ्य में सुधार लाना है। वह भी चलता रहता है। साथ ही साथ
नेत्रोंत्सव का. समय भी अभी अभी आ गया। जो कि रथयात्रा के एक दिन पहले होता है। द्वार खुल जाते हैं। इतने दिनों से जो दर्शन नहीं हो रहा था। दर्शन दो.. जगन्नाथ अखियाँ प्यासी रे!
हमारी आंखें प्यासी हैं। अब भूखी प्यासी आत्मा, उसमें नेत्रोंत्सव के समय जी भर के, आत्मा भर के दर्शन करती हैं। हरि! हरि! चलो चलते है। यहाँ नेत्र उत्सव अभी अभी सम्पन्न होने जा रहा है। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
जप टॉक को आज हम यहीं विराम दे रहे हैं। आप जा सकते हो। दौड़िए।